चीफ़ जस्टिस एम.सी छागला मेमोरियल ट्रस्ट के सहयोग से मुंबई यूनिवर्सिटी के लॉ डिपार्टमेंट की ओर से आयोजित छठे न्यायमूर्ति एम.सी छागला मेमोरियल व्याख्यान देते हुए डॉ न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने लोकतंत्र के कामकाज के अटूट हिस्से के तौर पर सत्ता से सच बोलने की ज़रूरत को लेकर विस्तार से बताया।
यह मेरे लिए सम्मान की बात है कि मुझे भारत के अब तक के सबसे महान क़ानूनी विभूतियों में से एक-जस्टिस मोहम्मदाली करीम छागला की स्मृति में आयोजित इस व्याख्यान में बोलने के लिए आमंत्रित किया गया है। बिना किसी लाग लपेट के कहा जाये,तो न्यायमूर्ति छागला ने भारत में क़ानून के विकास और नागरिक स्वतंत्रता के संरक्षण को गहरे तौर पर प्रभावित किया है। उन्होंने अपने जीवनकाल के दौरान कई तरह की भूमिकायें निभायीं. इन भूमिकाओं में वकील, न्यायाधीश, न्यायविद, राजनयिक और कैबिनेट मंत्री की भूमिकायें थीं। ऑक्सफ़ॉर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने के बाद वह 1922 में बॉम्बे बार में शामिल हो गये और एक न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने से पहले तक बॉम्बे हाई कोर्ट में 19 साल तक वकालत की और बाद में बॉम्बे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में काम किया। हालांकि, उन्हें भारत के सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के तौर पर नियुक्ति का एक प्रस्ताव मिला था, लेकिन उन्होंने उस प्रस्ताव को इसलिए जाने दिया, क्योंकि उनका मानना था कि वह एक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के तौर पर ज़्यादा बदलाव को शुरू कर पाने में सक्षम होंगे। अपनी सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में एक तदर्थ(ad-hoc) न्यायाधीश के रूप में कार्य किया. संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम में भारत के राजदूत रहे, कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ लेने से पहले शिक्षा और फिर विदेश मामलों के पोर्टफ़ोलियो को संभाला। मुख्य न्यायाधीश छागला ने जो अलग-अलग भूमिकायें निभायीं,उनके आस-पास कुछ ही लोग ठहर सकते हैं और फिर भी हैरत होती है कि वह अपनी तमाम भूमिकाओं में उत्कृष्टतता हासिल करने में सफल रहे।
अपने जीवनकाल में उन्होंने अलग-अलग जितनी भी भूमिकायें निभायीं, उनमें उन्होंने क़ानून के शासन को लगातार बनाये रखा, लोकतंत्र में एक अटूट विश्वास को बनाये रखा और नागरिक स्वतंत्रता में अपने विश्वास की वकालत करते रहे। उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों के साथ होने वाले भेदभाव के ख़िलाफ़ मज़बूती के साथ अपनी बात रखी; इसी तरह, जब भारत में राष्ट्रीय आपातकाल लगाया गया था, तब भी उनकी आवाज़ सबसे मुखर रही। आपातकाल की शुरुआत में ऑल इंडिया सिविल लिबर्टिज़ कॉन्फ़्रेंस में एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, “वह [श्रीमती इंदिरा गांधी का जिक्र करते हुए] संविधान हैं,वह लोकतांत्रिक हैं और उन्होंने जो कुछ भी किया है, उसकी संविधान में इजाज़त है,ऐस करने के बजाय मैं संविधान को ही निरस्त करना पसंद करूंगा। यह संवैधानिक तानाशाही है।" [1] दिसंबर में अपनी आत्मकथा, ‘रोसेस’ में उन्होंने प्रत्येक नागरिक की निजता का बचाव किया और कहा कि वह सरकार की शराबबंदी नीति के विरोध में थे और "यह किसी भी सरकार का काम नहीं है कि वे लोगों को बतायें कि उन्हें क्या पीना चाहिए और उन्हें क्या नहीं पीना चाहिए।" [2]
जब भारत में संवैधानिक न्यायशास्त्र का विकास अपने शुरुआती चरण में था,न्यायमूर्ति छागला ने संवैधानिक नैतिकता और संवैधानिकता के सिद्धांतों पर संविधान की अपनी इसी व्याख्या पर टिके रहे। उनका मानना था कि एक बहुलवादी समाज के अस्तित्व के लिए यह महत्वपूर्ण है कि किसी की सामाजिक हैसियत या सामाजिक वर्ग के बावजूद समाज के मूल में उस व्यक्ति को रखा जाये। बंबई हाई कोर्ट से सेवानिवृत्त होने के बाद न्यायमूर्ति छागला के बारे में बोलते हुए श्री ननी पालकीवाला ने कभी कहा था " क़ानून उनके लिए अनुच्छेदों और फ़ैसलों का कोई बेजान समूह भर नहीं था। उन्होंने इंसाफ़ को रौशन किया और क़ानून का मानवीकरण किया।” [3] इसी तरह, मेरे पिता मुख्य न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़ ने हमारे तरुण संविधान के विकास में उनके योगदान को महत्वपूर्ण माना और कहा कि उनकी "न्यायप्रियता और निष्पक्षता उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है और [उनके] सामाजिक दृष्टिकोण ने [उन्हें] क़ानून के शासन और व्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच भी न्याय के तराजू को थामे रखने में सक्षम बनाया।"[4]
न्यायमूर्ति छागला का मानना था कि भले ही न्यायाधीशों को कुछ राजनीतिक मुद्दों के बारे में नहीं बोलना चाहिए, लेकिन, भारत के नागरिकों के रूप में दूसरे मुद्दों पर बोलना उनका नैतिक दायित्व है।[5] इसलिए, न केवल भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश, बल्कि भारत के नागरिक के रूप में भी न्यायमूर्ति छागला की स्मृति में आज यह व्याख्यान देना मेरे लिए एक परम सम्मान की बात है।
आज के विषय के लिए मैंने जो विषय चुना है, अब उस पर आते हैं – पहले तो ख़ुद से यह पूछना जरूरी है कि "सत्ता से सच बोलने" का आख़िर मतलब क्या होता है ? प्राचीन ग्रीक परंपरा में पारेशिया के रूप में परिभाषित इसका मतलब किसी वक्ता का अपने से ज़्यादा शक्तिशाली किसी व्यक्ति की आलोचना करने के लिहाज़ से सत्य का इस्तेनाल करने वाले एक कार्य को संदर्भित करता है। [6] भारत में इसका तमलब महात्मा गांधी के सत्याग्रह के दर्शन के समान होगा, जहां सत्य को सत्ता में बैठे लोगों के लिए अहिंसक प्रतिरोध के रूप में प्रयोग किया जाता है। [7] वैसे तो "सत्ता से सच बोलने" का उद्देश्य शक्तिशाली के ख़िलाफ़ "सत्य" की शक्ति का इस्तेमाल करना है, चाहे वह एक शाही शक्ति हो या एक सर्व-शक्तिशाली सरकार हो। यह धारणा इस मयाने में अहम है कि "सत्य" बोलने से सत्ता का प्रतिकार होगा और अत्याचार के रवैये को कम किया जा सकेगा।
सबसे पहले तो इस बात पर विचार करना ज़रूरी है कि लोकतंत्र के लिए यह "सत्य" इतना अहम क्यों है, जो कि कुछ लोगों के ज़ुल्म को रोके जाने को लेकर अपनायी गयी एक शासन विधि है। ऐसा करने का संभवतः ग़ैर-लोकतंत्रों में इस "सत्य" की स्थिति की तुलना करने के अलावा कोई बेहतर तरीक़ा नहीं है।
यूरोप के प्रबोधन युग में दार्शनिकों ने इसी "सत्य" पर कैथोलिक चर्चों और राजशाही के नियंत्रण के चलते सार्वजनिक जीवन में उनके वर्चस्व को चुनौती देने की कोशिश की थी। यही वजह है कि पुनर्जागरण महज़ एक साहित्यिक और कलात्मक क्रांति ही नहीं था, बल्कि पुनर्जागरण को एक ऐसे युग की शुरुआत भी माना गया था, जहां अंधविश्वास और हठधर्मिता वास्तविक सत्य के आधार पर तर्क और साक्ष्य का मार्ग प्रशस्त करते थे।[8] इसी तरह, दार्शनिक हन्ना अरेंड्ट ने प्रभुत्व स्थापित करने वाले अधिनायकवादी सरकारों को झूठ पर उनकी निरंतर निर्भरता के साथ जोड़ा। वह बताती हैं कि ये सरकारें इतनी बेशर्म थी कि लोग अक्सर इन सरकारों में अपने आप को खो देते थे, और वास्तविक "सत्य" को जीना अपने आप में एक राजनीतिक कार्य बन गया था। [9]
यहां तक कि लोकतंत्र के अग्रदूत के रूप में कार्य करते शुरुआती गणराज्यों में भी कामकाज के तरीक़े में पारदर्शिता और खुलेपन के लोकाचार को सुनिश्चित करने के लिए सत्य को अहम माना जाता था। [10] इसी तरह, आधुनिक लोकतंत्रों में भी सत्य अहम है, जिन्हें "उद्देश्य की गुंज़ाइश" के रूप में वर्णित किया गया है, क्योंकि किसी भी फ़ैसले को पर्याप्त कारणों से समर्थित होना चाहिए और क्योंकि कोई कारण,जो झूठ पर आधारित हो, वह कोई कारण नहीं होगा। [11] लोकतंत्र में जनता के विश्वास की भावना पैदा करने के लिए यह सत्य भी अहम है, क्योंकि प्रभारी अधिकारी इस "सत्य" को खोजने और उसके अनुसार कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। [12] इसलिए, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि स्वतंत्रता के बाद भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य "सत्यमेव जयते" या "सत्य की ही जीत होगी" रहा है।
सत्य उस साझा "सार्वजनिक स्मृति" बनाने में भी अहम भूमिका निभाता है, जिस पर भविष्य में राष्ट्र की नींव रखी जा सकती है। ऐसा इस कारण से है कि कई देश एक अधिनायकवादी शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के तुरंत बाद या मानवाधिकारों के उल्लंघन से भरी अवधि से बाहर आने के शीघ्र बाद सत्य आयोग स्थापित करने का विकल्प चुनते हैं। ये आयोग भविष्य की पीढ़ियों के लिए पिछली व्यवस्थाओं और उन उल्लंघनों के "सत्य" को लिखने, दर्ज करने और स्वीकार करने के लिए कार्य करते हैं, ताकि न सिर्फ़ बचे हुए लोगों को मुक्ति प्रदान की जा सके, बल्कि भविष्य में इस सत्य को खारिज किये जाने की किसी भी आशंकाओं को भी रोका जा सके। [13] एक अलग संदर्भ में यह भूमिका उन अदालतों की ओर से भी निभायी जा सकती है, जो उचित प्रक्रिया का पालन करने के बाद इसमें शामिल सभी पक्षों से मिली जानकारी को दर्ज करने की क्षमता रखती हैं। हमारे सुप्रीम कोर्ट की ओर से लिये गये कोविड-19 महामारी के स्वत: संज्ञान में हमने महामारी के संदर्भ में अपनी इस भूमिका को स्वीकार किया है। [14]
हालांकि, वह रिश्ता,जो सचाई का लोकतंत्र के साथ है, वह तलवार और ढाल दोनों का है। व्यापक विचार-विमर्श की गुंजाइश,ख़ासकर सोशल मीडिया के इस युग में कई "सत्य" को इतना उजागर किया जाता है कि ऐसा लगता है कि हम "झूठ के युग" में रह रहे हैं, और यह लोकतंत्र की नींव को हिलाकर रख देता है। नागरिकों को कम से कम उन बुनियादी तथ्यों को लेकर उस आम सहमति पर पहुंचना चाहिए, जिसे सामूहिक निर्णय लेने के लिहाज़ से विज्ञान और समाज दोनों का समर्थन हासिल हैं। इसलिए, अगर सरकार की तरफ़ से विचार-विमर्श को सेंसर किया जाता है या फिर अगर हम अवचेतन रूप से या जानबूझकर उन्हें सेंसर करते हैं, तो हम सिर्फ़ ऐसे "सत्य" को ही जान पायेंगे, जिसे हमारी तरफ़ से चुनौती नहीं दी गयी है। जबकि इसके उलट, अलग-अलग दृष्टिकोण वाले कई समूहों की तरफ़ से चल रहे विचार-विमर्श इस "सत्य" में आयी त्रुटियों के सुधार का मार्ग प्रशस्त करेंगे। विचारों को एकत्र किया जायेगा, और पूरी प्रक्रिया एक ऐसे रचनात्मक समाधान के उद्भव में मदद करेगी, जिसे कोई भी व्यक्ति निजी तौर पर नहीं सोच सकता है। [15]
क़ानून बनने से पहले की परामर्श प्रक्रिया इसका एक उपयुक्त उदाहरण है, जहां व्यक्तियों के बीच विचार-विमर्श से प्रभावशाली बदलाव आया है। उदाहरण के लिए, केरल पुलिस अधिनियम 2011 के लिए मसौदा विधेयक राज्य पुलिस की वेबसाइट पर प्रतिक्रिया और सुझाव आमंत्रित करते हुए प्रकाशित किया गया था। जब इस विधेयक को सदन में पेश किया गया, तो इसे प्रवर समिति को भेज दिया गया और प्रवर समिति ने इसके लिए ज़िलावार बैठकें कीं। इन बैठकों में लगभग 400 से 500 लोगों ने भाग लिया, और इस तरह की व्यापक परामर्श प्रक्रिया का आवश्यक प्रभाव लगभग चार घंटे की व्यापक बहस के बाद मसौदा विधेयक में 790 संशोधनों के सुझाव के रूप में सामने आया। उन सुझाये गये संशोधनों में से लगभग 240 संशोधन,जिनमें से ज़्यादतर जनता की प्रतिक्रिया पर केंद्रित थे,आख़िरकार मंज़ूर कर लिये गये। [16] इसके विपरीत, दक्षिण अफ़्रीका में क़ानून बनने से पहले की परामर्श प्रक्रिया एक संवैधानिक ज़रूरत है और कोई भी क़ानून जो इस पूर्व-विधायी परामर्श के बिना अधिनियमित किया जाता है, उसे असंवैधानिक माना जाता है। दक्षिण अफ़्रीका की संसद ने 2005 में प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल के मुद्दे से जुड़ा क़ानून बनाया था। हालांकि, दक्षिण अफ़्रीका के संवैधानिक न्यायालय ने इन क़ानूनों को असंवैधानिक इसलिए घोषित कर दिया था ,क्योंकि प्रांतों की राष्ट्रीय परिषद ने इन क़ानूनों पर सार्वजनिक विचार-विमर्श शुरू करने के अपने दायित्व को पूरा नहीं किया था। [17]
इसलिए,किसी के लिए भी यह समझ पाना मुश्किल नहीं है कि लोकतंत्र और सचाई साथ-साथ क्यों चलते हैं। लोकतंत्र को बने रहने के लिए सत्य की ताक़त की ज़रूरत होती है। जिस तरह, "सत्ता से सच बोलने" को लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक के पास एक अधिकार के रूप में माना जा सकता है, ठीक उसी तरह प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य भी है कि वह सत्ता से चस बोले। हालांकि, यह समझने के लिए कि हम वास्तव में अपने इस अधिकार का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं, पहले तो ख़ुद से यह पूछना ज़रूरी है कि आख़िर "सत्य" का मतलब क्या है ?
आप में से कई लोगों के लिए तो यह सही मायने में विचार किये जाने वाला एक बहुत ही अजीब-ओ-ग़रीब सवाल होगा, क्योंकि आसानी से परिभाषित किया जा सकता है कि सत्य तो अक्सर स्पष्ट झूठ के विपरीत होता है। मसलन, यह तथ्य कि मैंने चश्मा पहना हुआ है, यह सच है, जबकि इसके विपरीत दावा करना एक निरा झूठ होगा। लिहाज़ा, ऐसा लग सकता है कि तब तो कठिनाई यह जानने में नहीं है कि "सत्य" क्या है, बल्कि मुश्किल इसे पहचान पाने में है। वास्तव में न्यायमूर्ति छागला ने ख़ुद ही स्वीकार किया था कि उनके लिए न्यायाधीश होने का सबसे चुनौतीपूर्ण हिस्सा उनके सामने के मामलों में सचाई की पहचान करने का लगभग असंभव कार्य करना होता था। उनके मुताबिक़, कोई न्यायाधीश सत्य की पहचान करने के क़रीब तभी पहुंच सकता है, जब विरोधी पक्षों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील की ओर से एकदम उलट दलील दी जा रही हो। उन्होंने कहा था कि इन विचार-विमर्शों, तर्कों और प्रतिवादों ने सत्य की इस खोज में उनकी सहायता की थी। [18]
हालांकि, मेरा मानना है कि न्यायिक कार्यवाही में सत्य की पहचान ख़ास तौर पर होने वाली बहस से ही हो सकती है, लेकिन समाजों में "सत्य" की प्रकृति अक्सर अनिर्धारित भी रह सकती है। आमतौर पर सत्य को 'तथ्यों' के संदर्भ में परिभाषित किया जाता है। प्लेटो और अरस्तू द्वारा प्रस्तावित 'तदनुरूपता' के सिद्धांत के मुताबिक़, कोई प्रस्थापना तभी सत्य है,अगर वह 'तथ्य' से मेल खाता हो। [19] हालांकि, यह याद रखना अहम है कि सबसे शुरुआती तथ्य भी विवादित हो सकते हैं। आज भी हमारे यहां समाज का एक ऐसा तबका है, जो अब भी ग्लोबल वार्मिंग की परिघटना पर तक़रार करता है। हालांकि, 'सच्चे तथ्य' का गठन करने का निर्धारण इसलिए अहम है, क्योंकि क़ानून इस अनिवार्य विश्वास पर अधिनियमित किये जाते हैं कि राज्य उनके ज़रिये सुधार करने की कोशिश करता है, वास्तव में सैद्धांतिक तौर पर यही सत्य है और एक स्थापित तथ्य भी है। इसलिए, यदि ग्लोबल वार्मिंग की घटना को झूठ ही ठहराना हो, तो पर्यावरण से जुड़े हमारे कई क़ानूनों का आधार हास्यास्पद हो जायेगा। हालांकि, जहां यह विवाद में बना रह सकता है, वहीं ग्लोबल वार्मिंग की घटना अब भी एक ऐसा सवाल बना हुआ है, जिसके लिए हम विचार-विमर्श के ज़रिये वैज्ञानिक रूप से निर्धारित "सत्य" को हासिल कर सकते हैं, इस तरह, राज्य को अपने विनियमन के साथ आगे बढ़ने की इजाज़त मिल जाती है।
कोई भी सरकार सिर्फ़ उन बुराइयों को ही सुधारने की कोशिश नहीं करती,जो वैज्ञानिक सत्यों पर आधारित हैं, बल्कि उन बुराइयों को भी सुधारने की कोशिश करती है, जो नैतिक सत्य पर भी आधारित होती हैं। मिसाल के तौर पर बंधुआ मज़दूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम 1976 को ही लें, जिसे "लोगों के कमज़ोर वर्गों के आर्थिक और राजनीतिक शोषण को रोकने के लिहाज़ से" इस क़ानून की प्रस्तावना के रूप में अधिनियमित किया गया था। वैसे तो यह अधिनियम दो आधार पर अधिनियमित किया गया था: पहला यह कि बंधुआ मज़दूरी प्रणाली लोगों का शोषण करती है; और दूसरा कि लोगों का इस तरह का शोषण सैद्धांतिक तौर पर ग़लत है। एक उदार अधिकारवादी दार्शनिक, जो जीवन के मूल्य और गुणवत्ता में विश्वास करता है, यह तर्क दे सकता है कि ये दोनों आधार सत्य हैं, जबकि बाज़ार का अध्ययन कर रहा और बाज़ार के उत्पादन को बढ़ाने के तरीक़ों पर काम कर रहा कोई अर्थशास्त्री इससे सहमत नहीं हो सकता है।
तब हमें यह सत्य के 'व्यावहारिक' सिद्धांत पर ले आता है, जो कि 'सत्य' को 'राय' के रूप में परिभाषित करता है। [20] इसी संदर्भ में एक जाने-माने इतिहासकार सोफ़िया रोसेनफ़ेल्ड ने लिखा है कि निष्पक्ष 'तथ्यों' और उनके वैध स्रोतों की गैर-मौजूदगी में लोगों के बढ़ते विश्वास के कारण लोगों का "सत्य" का विचार अधिक सहज हो गया है, जहां " सत्य" वही है, जो उन्हें सही लगता है। संक्षेप में कहा जाये,तो "सचाई निजी हो गयी है, यह व्यक्तिपरक भावना और दिलचस्पी का मामला है और किसी राय से बहुत अलग नहीं है"। [21] हालांकि, इतिहास पर एक सरसरी निग़ाह डालें,तो यह सबक मिलता है कि व्यक्तियों के पास कभी-कभी ऐसे विचार भी होते हैं, जो दूसरों के लिए नैतिक रूप से उचित नहीं हो सकते।
मिसाल के तौर पर जीन-जैक्स रूसो ने महिलाओं को स्वाभाविक रूप से एक चालाक तबके के तौर पर चिह्नित किया था और उनका मानना था कि उन्हें निरंतर डर से नियंत्रित किया जाना चाहिए, और उन्हें इच्छा की वस्तुओं के रूप में देखा जाना चाहिए। दूसरी ओर, मोंटेस्क्यू ने अश्वेत अफ़्रीकियों को ऐसे 'जंगली और बर्बर' रूप में देखा था, जिनके पास 'सामान्य' मानवीय लक्षण भी नहीं थे। [22] हालांकि, रूसो और मोंटेस्क्यू के इन विचारों को ख़ास तौर पर प्रबोधन युग में रखा गया था, उन्हें कभी-कभी आम जनता की तरफ़ से भी साझा किया जाता था। वैसे ही महिलाओं और काले अफ़्रीकियों के साथ भी नागरिक के तौर पर व्यवहार नहीं किया जाता था, क्योंकि जो लोग सत्ता में थे और शब्दों का घुमा-फिराकर इस्तेमाल कर सकते थे,उनके मुताबिक़ वे लोग चालाक, जोड़ तोड़ में माहिर और कमज़ोर लोग होते हैं। इस तरह, यह तथ्य है कि इन विचारों को आज भी नस्लवादी और महिला विरोधी स्वरों में सुना जा सकता है, यह बात इस तर्क को आधार देता है कि "सत्य" किसी एक राय के बराबर नहीं हो सकता है, क्योंकि इससे व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों को अपने दृढ़ संकल्प के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ने की अनुमति मिल जायेगी। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए एक अमेरिकी राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री, और राजनयिक, डैनियल पैट्रिक मोयनिहान ने कहा था कि "हर कोई [अपनी] अपनी राय का हक़दार है, लेकिन [अपने] अपने तथ्यों का नहीं"। [23]
हालांकि, मुझे अक्सर आश्चर्य होता है कि क्या उस बहुल समाज में तथ्य, विचारों से काफ़ी अलग होते हैं, जहां अलग-अलग तरह के लोगों के जीवन के अनुभव अलग-अलग होते हैं। उदाहरण के लिए, नवतेज सिंह जौहर मामले [24] में सुप्रीम कोर्ट के उस फ़ैसले से बहुत पहले, जिसमें समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था, और हमारे देश की एक छोटी आबादी के समलैंगिकता को आम बनाने से बहुत पहले ही डेनमार्क ने 1989 का वह पंजीकृत भागीदारी अधिनियम पारित कर दिया था, जिसने बहुत कम अपवादों को छोड़कर समलैंगिक विवाह को वैध बना दिया था। इसके अलावा, जहां भारत इस समय समलिंगियों के बीच के रिश्तों को सामान्य करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है, वहीं दुनिया भर के दस से ज़्यादा देश अब भी समलैंगिकता के लिए मृत्युदंड का प्रावधान किये हुए हैं। [25] एक अन्य उदाहरण पर विचार करते हुए हम इस बात पर ध्यान दे सकते हैं कि भारत ने वर्ष 1971 में गर्भपात को वैध बना दिया था,लेकिन चालीस साल बाद भी ज़्यादतर लैटिन अमेरिकी देशों ने अब भी इसे वैध नहीं बनाया है। इस तरह,जहां दुनिया के एक हिस्से के लिए "सचाई" यह होगी कि किसी भ्रूण को जीवन का अधिकार माना जाता है, लेकिन वहीं दूसरे हिस्से के लिए यह एक "झूठा" दावा होगा।
इसी तरह, दार्शनिक मिशेल फ़ॉकॉल्ट ने यह तर्क दिया था कि अलग-अलग समाज अलग-अलग "सत्य की व्यवस्था" में लगे हुए हैं। ऐसे समाजों के भीतर भी अलग-अलग तबके अलग-अलग सत्यों से शासित होते हैं, जिनमें अक्सर प्रमुख पदों पर बैठे लोग सत्य के अपने-अपने रूप को दूसरों पर थोपते हैं। [26] इसलिए, तथ्यों और राय को एकदम से अलग-अलग रूप में सीमित नहीं किया जा सकता है, जब तक कि वे "सत्य" के साथ अपने सन्बन्धों में विभिन्न उदाहरणों से एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हों। किसी व्यक्ति की राय को एक 'तथ्य' का दर्जा दिया जाता है और बाद में उसे ही "सत्य" का दर्जा दे दिया जाता है,और यह समाज में उसकी ताक़त पर निर्भर करता है। स्टीवन शापिन नामक विज्ञान के इतिहासकार ने भी 1994 के अपने उस अध्ययन में इसकी पुष्टि की थी, जिसमें उन्होंने पाया था कि सत्रहवीं शताब्दी के इंग्लैंड में वैज्ञानिक क्रांति के ऊंचाई पर होने के बावजूद सत्य, सम्मान, धन और सभ्य परिवार की कुलीन संस्कृति से निकटता से जुड़ा हुआ था और इसका कोई सार्वभौमिक मानक नहीं था। [27]
चूंकि भारत में महिलाओं, दलितों और हाशिए पर रह रहे समुदायों से जुड़े बाक़ी लोगों ने परंपरागत रूप से सत्ता का आनंद नहीं लिया था, इसलिए उनकी राय को "सत्य" का दर्जा नहीं दिया गया। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उन्हें अपनी राय को ज़ाहिर करने की स्वतंत्रता का आनंद नहीं मिला, इसलिए उनके विचार सीमित, पंगु और पिंजरे में बंद रहे। इन हाशिए वाले तबकों को वोट देने का अधिकार मिलने के बाद भी उनकी राय को 'अविश्वसनीय' इसलिए माना जाता था, क्योंकि उन्हें 'स्वभाव से' ही विश्वासघाती माना जाता था। भारत में ब्रिटिश राज के दौरान जब सत्ता पूरी तरह से ब्रिटिश राज के कुछ शक्तिशाली लोगों के हाथों में थी, तब सत्य भी (और निकाले गये आवश्यक निष्कर्षों के मुताबिक़) राजा या रानी और राज के लोगों की ही राय था। ब्रिटिश राज के ख़ात्मे के बाद सचाई, उच्च जाति के लोगों की मान्यता और राय बन गयी। समाज में प्रगति और पितृसत्ता और जाति वर्चस्व की धारणाओं के ख़त्म होने के साथ ही महिलाओं, दलितों और अन्य हाशिए के समुदायों की राय भी अब धीरे-धीरे लेकिन लगातार भारत में "सत्य" के रूप में माने जाने लगी है।
इस समस्या का समाधान करने का एक तरीक़ा तो ख़ुद "सत्य" के दायरे का ही विस्तार करना है, और ऐसा करने के लिए हम दक्षिण अफ़्रीका में उस सत्य आयोग के उदाहरण को देख सकते हैं, जिसने चार अलग-अलग प्रकार के सत्य को परिभाषित किया था।
इनमें से पहला तथ्यात्मक या फोरेंसिक सत्य था, जिसे हम "वैज्ञानिक" सत्य के रूप में वर्णित करेंगे,क्योंकि यह तथ्यों के आधार पर निर्धारित होता है और "सत्य" की सबसे अधिक समझी जाने वाली परिभाषा है। हालांकि, बाक़ी बचे तीन सत्य बेहद अजीब-ओ-ग़रीब थे। दूसरा सत्य, व्यक्तिगत या धारणात्मक सत्य था, जो कहानी के ज़रिये मजबूत भावनाओं की खुली अभिव्यक्ति से मनोवैज्ञानिक राहत देने वाले फ़ायदे पर आधारित था, जहां रंगभेद शासन से प्रभावित प्रत्येक व्यक्ति आगे आ सकता था और सार्वजनिक सुनवाई में अपनी कहानी बता सकता था। तीसरा सत्य, सामाजिक या "संवाद" का सत्य था, जिसे दक्षिण अफ़्रीका के संवैधानिक न्यायालय के न्यायमूर्ति एल्बी सैक्स ने "अनुभव की सचाई, जिसे बातचीत, चर्चा और बहस के ज़रिये स्थापित किये गये" रूप में परिभाषित किया था। इस सचाई का आधार अक्सर सत्य आयोग के काम के इर्द-गिर्द होने वाली उस बातचीत से मिलता था, जो कि पूरी तरह से सरकारी व्यवस्था में होती थी। और आख़िर में चौथा सत्या, उपचारात्मक और पुनर्स्थापनात्मक सत्य था, जहां सत्य आयोग ने पीड़ितों के एकत्र किये गये तथ्यों को उनके उचित राजनीतिक, सामाजिक और वैचारिक संदर्भ में रखकर उनके ख़िलाफ़ किये गये अपराधों की स्वीकृति को पेश किया था। [28]
इस तरह के सत्य इस बात की स्वीकृति देते हैं कि ख़ुद सत्य के अलग-अलग आयाम होते हैं, और अक्सर विभिन्न भूमिकायें निभाते हैं। इसलिए, जब व्यापक समझ विकसित की जाती है, तो यह विभिन्न व्यक्तियों के विश्वदृष्टि को समायोजित करने और उन्हें ज़रूरी राहत दिये जाने की क्षमता रखता है। हालांकि, "सत्य" की इन व्यापक अवधारणाओं के भीतर भी इसकी पहचान, सत्यापन और सत्यापन के मानकों का सवाल तब भी बना हुआ रहता है।
सोफ़िया रोसेनफ़ेल्ड ने ख़ास तौर पर इस बात का ज़िक़्र किया था कि लोकतंत्र में "सत्य" के निर्धारण के लिए तीन बहुत ही आम साधन हैं। [29] ज़ाहिर है,पहला साधन स्टेट है, क्योंकि यह सभी सूचनाओं तक पहुं वाला वह केंद्रीय प्राधिकरण है, जो सत्य को लेकर किये जाने वाले फ़ैसले की अनुमति देता है। ज़ाहिर है, स्टेट अक्सर वैज्ञानिक सत्यों पर फ़ैसला नहीं लेता है, बल्कि जब वह अपने आधार पर नीतियां बनाने का फ़ैसला करता है, तो वह उन्हें अपनी मौन स्वीकृति प्रदान कर देता है। ऐसे तो राज्य की सभी नीतियों को हमारे समाज की "सचाई" के आधार पर बनाया गया माना जा सकता है। हालांकि, यह किसी भी तरह से इस निष्कर्ष की ओर नहीं ले जाता है कि स्टेट राजनीतिक कारणों से,यहां तक कि लोकतंत्रों में भी झूठ में लिप्त नहीं हो सकते। पेंटागन पेपर्स प्रकाशित होने तक वियतनाम युद्ध में संयुक्त राज्य अमेरिका की भूमिका सरेआम नहीं हो पायी थी। कोविड-19 महामारी के सिलसिले में हम देखते हैं कि दुनिया भर में ऐसे देशों का रुझान बढ़ रहा है, जो कोविड-19 की संक्रमण दर और उससे होने वाली मौतों के आंकड़ों में हेरफेर करने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए, "सत्य" को निर्धारित करने के लिए केवल स्टेट पर भरोसा नहीं किया जा सकता है।
"सत्य" को निर्धारित करने का दूसरा साधन वैज्ञानिक, सांख्यिकीविद, शोधकर्ता और अर्थशास्त्री जैसे 'विशेषज्ञ' हैं, जो ज्ञान को सत्यापित कर सकते हैं। किसी दिये गये क्षेत्र में उनकी विशेषज्ञता को देखते हुए नागरिकों से अक्सर "सत्य" के इनके दृढ़ संकल्प के आगे नतमस्तक होने की उम्मीद की जाती है, क्योंकि ये राजनीतिक पूर्वाग्रह की बीमारी से ग्रस्त नहीं होते। हालांकि, यह हमेशा सच नहीं होता, क्योंकि विशेषज्ञों के भी राजनीतिक जुड़ाव हो सकते हैं, उनके दावे में भी विचारधारा हो सकती है, वित्ती मदद पाने या निजी द्वेष जैसे कारणों से भी हेरफेर होने की गुंजाइश रहती है। इन 'विशेषज्ञों' का इस्तेमाल अक्सर थिंक-टैंक के तौर पर भी किया जाता है, जो ख़ास तरह की राय का समर्थन करने के लिए शोध करते हैं। [30]
मैंने पहले उल्लेख किया है कि हाशिये के समुदायों की "सचाई" अक्सर समाज में उनकी स्थिति की वजह से सामने नहीं आ पाती है। इसी तरह, इन समुदायों को व्यवस्थागत उत्पीड़न के ज़रिये इन पदों तक पहुंचने से रोकने के चलते अक्सर इन्हें 'विशेषज्ञ' के रूप में नामित नहीं किया जाता है। लिहाज़ा, "सत्य" के निर्धारण में उनके योगदान के मौक़े छिन जाते है। चूंकि उनके दृष्टिकोण पर कभी ध्यान ही नहीं दिया जाता है, इसलिए 'विशेषज्ञों' के दावे भी उनके अंतर्निहित पूर्वाग्रहों की समस्या से ग्रस्त होते हैं। [31]
'विशेषज्ञ' भी अपनी राय को ठोस तथ्यों पर आधारित होने का दावा करते हैं, जिस दावे का मक़सद उनके निष्कर्ष को स्पष्ट रूप से "सत्य" क़रार देना होता है। हालांकि, उत्तर-आधुनिकतावादी विद्वानों ने सही ढंग से इस बात पर ग़ौर किया है कि हालांकि तथ्य अपने आप में सटीक हो सकते हैं, लेकिन उनका चयन, व्यवस्था और उनसे निकाले गये निष्कर्ष इनका निर्धारणों करने वाले व्यक्ति की व्यक्तिगत यथार्थ के अधीन होते हैं। [32] इस तरह, एक 'विशेषज्ञ' की राय को वास्तविक तथ्यों पर आधारित होने पर भी वस्तुनिष्ठ "सत्य" के रूप में नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह उन तथ्यों पर आधारित एक संभावित राय है, और कोई एकलौती राय नहीं है। हन्ना अरेंड्ट ने इस बात पर ध्यान दिलाया है कि किसी के पक्ष में तथ्यों को ख़ुद के फ़ायदे के हिसाब से चुन लेने की क़वायद ने ऐसे "ताने-बाने" को जन्म दिया है, जिसमें नागरिकों को तकनीकी रूप से झूठ नहीं बताया जाता है, लेकिन तथ्यों को "सत्य" का केवल उस रूप को सामने रखने की अनुमति दी जाती है, [33] जो पहले से नहीं सोचे जाने वाली चीज़ों को लेकर नागरिकों की सहमति बनाने में मदद करता है।
यह हमें सत्य के निर्धारण के उस तीसरे साधन के साथ छोड़ जाता है, जो सार्वजनिक क्षेत्र में सत्य के दावों के समानांतर, संयोजन और व्याख्या करते हुए नागरिकों द्वारा विचार-विमर्श और चर्चा के ज़रिये सामने आता है। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि वैज्ञानिक सत्य, जो विशेषज्ञों के ज्ञान पर निर्भर होता है और सचाई, जो स्टेट के घटकों की पारदर्शिता के नहीं होने के चलते आम आदमी की पहुंच से बाहर होती है, लिहाज़ा विज्ञान के उस क्षेत्र में विशेषज्ञता की स्पष्ट कमी और सार्वजनिक मंच पर जानकारी की कमी के कारण आम आदमी इसे सत्यापित नहीं कर सकता है। हालांकि, जिम्मेदार नागरिकों के रूप में हमें इन 'सत्य से रू-ब-रू कराने वालों' को गहन जांच के दायरे में रखना चाहिए और सवाल उठाने के ज़रिये इन पर दबाव बनाये रखना चाहिए, ताकि उनके द्वारा किये जा रहे दावों की सत्यता को लेकर ख़ुद को आश्वस्त किया जा सके। इसके लिए सत्य का दावा करने वालों का पारदर्शी और सुस्पष्ट होना भी उतना ही ज़रूरी है। हमें एक साथ मिलकर ऐसी संस्कृति बनाने और इस प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने की कोशिश करनी चाहिए, जो ख़ास तौर पर सत्य के विचार-विमर्श के अनुकूल हो, क्योंकि "सत्य" तथ्यों और विचारों के बीच एक बारीक संतुलन पर ही कार्य करता है। हालांकि, यह हमें इस सवाल पर ले आता है कि इस भूमिका को निभाने वाले नागरिक किसे होना चाहिए ?
इमैनुएल कांट को उम्मीद थी कि इस भूमिका को निभाने के लिए वे यूरोपीय बौद्धिक पादरी सामने आयेंगे, जो आधुनिक समय के "आम बुद्धिजीवियों" के समान है, जहां वे बाक़ी लोगों और स्टेट के बीच मध्यस्थता करेंगे। [35] हालांकि, उन्होंने इस बात की अहमियत को नहीं समझा था कि इस तबके में प्रवेश अक्सर किसी के लिंग, शिक्षा तक पहुंच और धन की वजह से वर्जित था। [36] इसी तरह, संयुक्त राज्य अमेरिका का वियतनाम युद्ध में चल रही भागीदारी के संदर्भ में लिखा गया अपने प्रसिद्ध लेख, ‘द रिस्पॉन्सिबिलिटी ऑफ इंटेलेक्चुअल्स’ में नोआम चॉम्स्की ने कहा था कि यह "बुद्धिजीवियों" का फ़र्ज़ था कि वे सच बोलें और राज्य और उसके 'विशेषज्ञों' के झूठ को उजागर करें। हालांकि, उन्होंने कांट के उलट यह स्वीकार किया था कि बुद्धिजीवी इस कार्य को सिर्फ़ उस शक्ति और विशेषाधिकार के कारण कर सकते हैं, जो उन्हें अन्य नागरिकों के उलट उनकी स्वतंत्रता प्रदान करता है। [37]
ऐसे में यह याद रखना अहम हो जाता है कि चाहे अमीर या गरीब हो,पुरुष या महिला या फिर थर्ड जेंडर हो; दलित या ब्राह्मण या फिर कोई और हो; हिंदू, मुस्लिम या ईसाई या किसी अन्य धर्म से जुड़ा हो,हर व्यक्ति में सत्य की पहचान करने और उसे झूठ से अलग करने की अंतर्निहित क्षमता होती है। सत्य की पहचान करने की उसकी यह क्षमता उसके सामान्य ज्ञान, जीवन के अनुभवों,उसके व्यक्तिगत संघर्षों और बहुत कुछ से उपजी हुई होती है। हालांकि, उनमें से कई लोग उस व्यवस्थागत उत्पीड़न के चलते इस प्रक्रिया में भाग लेने में असमर्थ होते हैं, जो या तो उनकी आवाज़ के लिए एक मंच प्रदान नहीं करता है या उनके वास्तविक प्रभाव को कम करने के लिए काम करता है। इसलिए, "सत्य" का निर्धारण करने में नागरिकों की भूमिका पर विचार करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह सिर्फ़ बुद्धिजीवियों के कुलीन,विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को ही संदर्भित नहीं करता, बल्कि इसमें सभी शामिल होते हैं। इसलिए, यह हमारे लिए ज़रूरी है कि हम ऐसे माहौल का निर्माण करें, जहां यह सब मुमकिन हों।
यह बात जॉन स्टुअर्ट मिल के विचारों के अनुरूप भी है, जिन्होंने अपनी मौलिक रचना, ‘लिबर्टी’ में विचारों को दबाने के नुक़सान पर रौशनी डाली है और कहा है:[38]
“किसी राय की अभिव्यक्ति को चुप कराने की अजीब बुराई यह है कि यह उन लोगों की राय पर डाका डाल रहा होता है, जो उसे धारण करने वालों से कहीं ज़्यादा उसकी राय से असहमत होते हैं। अगर यह राय सही है,तो वे सत्य की कमियों को लेकर होने वाले विचार-विमर्श के अवसर से वंचित हो जाते हैं: यदि वे ग़लत होते हैं, तो वे सत्य को जानने के अवसर को गंवा देते हैं, जो लगभग उतना ही बड़ा फ़ायदा है, जो कि त्रुटि के साथ टकराव होने से पैदा होने वाली सत्य की स्पष्ट धारणा और जीवंत प्रभाव से फ़ायदा होता है। ”
वैसे ही मिल "विचारों के बाज़ार" में दृढ़ विश्वास रखते थे, जहां अगर पर्याप्त समय दिया जाता है, वहां सत्य हमेशा झूठ के मुक़ाबले प्रबल होता है। हालांकि, हमें मौजूदा वक़्त में इस दावे की सत्यता का परीक्षण करना चाहिए, जिसे अब "सत्य के बाद" (post-truth) की दुनिया कहा जा रहा है।
इस दावे का परीक्षण करने के लिए हमें पहले यह परिभाषित करना चाहिए कि "पोस्ट-ट्रुथ" दुनिया का क्या मतलब है, क्योंकि इसके दो संभावित अर्थ हो सकते हैं: पहला अर्थ तो यह सकता है कि नागरिकों के लिए इस समय और इस दौर में "सत्य" को खोज पाना बहुत कठिन काम हो गया है; और दूसरा अर्थ यह हो सकता है,जो कि ज़्यादा परेशान करने वाली संभावना है और वह यह कि "सत्य" को पा लेने के बाद भी वे इसकी परवाह नहीं करते।
अगर हम पहले अर्थ के हिसाब स सोचें, तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि "फ़र्ज़ी ख़बरों" की घटना बढ़ रही है। इसका एक प्रासंगिक उदाहरण तो यही है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन( WHO) ने हाल ही में ऑनलाइन ग़लत सूचनाओं की अधिकता के चलते मौजूदा कोविड-19 महामारी को "इन्फ़ोडेमिक" कहा है।[39] हालांकि, विद्वानों ने यह भी ध्यान दिलाया है कि "फ़र्ज़ी ख़बर" या झूठी सूचना कोई नयी घटना तो नहीं है, क्योंकि जब से प्रिंट मीडिया अस्तित्व में है, तबसे यह भी अस्तित्व में है। [40] लेकिन,इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रौद्योगिकी में तेज़ी से हो रही प्रगति और इंटरनेट के प्रसार ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है।
यह अक्सर देखा जा रहा है कि इंटरनेट पर भी इस दोष के मढ़े जाने का सबसे बड़ा हिस्सा हमेशा फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे बड़े निगमों के मत्थे मढ़ दिया जाता है। समस्या का एक हिस्सा यह भी है कि जहां ये सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म यूज़र्स को अपने नेटवर्क और समुदाय बनाने की अनुमति देते हैं, वहीं यह उन नेटवर्कों के भीतर भी एकरूपता ले आता है। आख़िरकार, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं और इनमें अपने आप को अपने साथ के लोगों के साथ साझा किये गये अनुभवों या समान विश्वास वाले लोगों के साथ जुड़ने की प्रवृत्ति होती है। यह "एक ही स्वर वाले चौखटों" या "बुलबुले" के निर्माण की ओर जाता है, जहां लोग केवल उस नज़रिये के संपर्क में आते हैं, जिससे वे सहमत होते हैं, जबकि कभी भी किसी विरोधी के संपर्क में नहीं आते हैं। [41] एक और मुद्दा है, जो मानव स्वभाव से भी जुड़ा हुआ है और वह यह कि मनुष्य उन सनसनीख़ेज कहानियों की ओर ज़्यादा आकर्षित होता है, जो अक्सर झूठ पर आधारित होती हैं। जैसे कि 2018 के एक अध्ययन में यह साफ़ किया गया था कि ट्विटर पर उस हर स्तर पर झूठ हावी है, जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचना और इसके लिए बहुत जल्दीबाज़ी शामिल है।[42]
हालांकि, एक और समस्या है, जिसे कि हमारी "सूचना प्रबंधन वाली अर्थव्यवस्था" के रूप में वर्णित किया जा सकता है, जिसका अर्थ यह है कि हमारे चारों ओर तो वैसे बहुत सारी जानकारियां है, लेकिन हम इसका महज़ छोटा सा हिस्सा ही इस्तेमाल कर सकते हैं। इसलिए,बाज़ार में हर कोई हमारा ध्यान खींचने के लगातार होड़ में है। [43] अग्रणी फ़र्स्ट अमेंडमेंट विद्वान टिम वू ने कहा है कि इस वजह से बोलने की आज़ादी को सीमित करने के पारंपरिक तरीक़ों को बदला जा रहा है। उन्होंने बताया है कि जब संयुक्त राज्य अमेरिका में पहला संशोधन पेश किया गया था, तो स्टेट ने बोलने वाले मंचों को नियंत्रित किया था और इस शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए पहला संशोधन तैयार किया गया था। हालांकि, इंटरनेट के आ जाने के साथ अब प्लेटफ़ॉर्म कोई समस्या नहीं है, बल्कि समस्या किसी का ध्यान खींचने को लेकर है। जहां किसी के भाषण को इंटरनेट से हटाया नहीं जा सकता, वहीं इंटरनेट को ठीक इसके विपरीत वाली जानकारियों की भारी मात्रा से भरकर किसी के भाषण को प्रभावी ढंग से बाहर किया जा सकता है। इससे यह सुनिश्चित होगा कि बहुत से लोग मूल भाषण को पढ़ भी नहीं पाते हैं या फिर इसकी सचाई को लेकर आश्वस्त ही नहीं हो पायेंगे।[44] इसलिए, यह देखना आसान है कि क्यों "सत्य" को उजागर करने वाले मिल के "विचारों का बाज़ार" बोलने वाला दृष्टिकोण अब एक विकल्प नहीं हो सकता है। हालांकि, इस परिदृश्य को लेकर सिर्फ़ इंटरनेट और सोशल मीडिया कंपनियां ही ज़िम्मेदार नहीं हैं।
यह हमें "पोस्ट-ट्रुथ" दुनिया के दूसरे संभावित अर्थ में ले आता है, जहां "सचाई" अब लोगों के लिए मायने नहीं रखती है। ठीक है कि इंटरनेट के आगमन ने इसमें भी एक भूमिका निभाई हो, लेकिन निश्चित रूप से इसका सारा दोष इसी के मतथे नहीं मढ़ा जा सकता। यह स्वीकार करना ज़रूरी है कि हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं, जो तेज़ी से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक आधार पर विभाजित होती जा रही है। यह "सत्य" के बढ़ते ध्रुवीकरण की ओर भी ले जाता है, जहां अलग-अलग तबकों के लोग "तुम्हारी सचाई" बनाम "हमारी सचाई" को लेकर उन विषयों पर भी संघर्ष करते नज़र आते हैं, जिनका सम्बन्ध समूह के साझा की जाने वाली समान आत्मीयता से भी नहीं होता है। यह स्थिति ख़ास तौर पर तब सामने आती है, जब किसी व्यक्ति के राजनीतिक विचार दूसरे किसी व्यक्ति की 'राय' का सटीक मूल्यांकन करने की क्षमता के आड़े आ जाते हैं, जो उनके राजनीतिक विचारों से सम्बन्धित नहीं होते। यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका के शोधकर्ताओं की ओर से किये गये एक बहुत ही दिलचस्प प्रयोग में प्रतिभागियों के एक समूह को आकृतियों के वर्गीकरण का काम सौंपा गया था। हालांकि, उस कार्य के शुरू होने से पहले प्रतिभागियों को अपने साथी प्रतिभागियों के ज्यामितीय आकृतियों पर राजनीतिक विचारों और कौशल को सीखने का अवसर दिया गया। जब प्रतिभागियों को समूह बनाने की छूट दी गयी, तो यह पाया गया कि प्रतिभागियों ने ख़ुद को उन लोगों के साथ समूहीकृत कर लिया था, जिनके साथ वे घनिष्ठ रूप से राजनीतिक सम्बन्ध को साझा करते हैं, हालांकि उन्हें जो काम करने के लिए दिया गया था,वह सिर्फ़ आकृतियों को वर्गीकृत करना था। [45]
'ज्ञानात्मक विस्तार' को प्रदर्शित करने की इस प्रवृत्ति ने कई सत्यों की अभिव्यक्ति को जन्म दिया है। "सत्य" की पहचान पर किसी तरह की आम सहमति इसलिए नहीं बन पाती है, क्योंकि हम उन लोगों के विचारों को स्वीकार ही नहीं कर पाते या उन पर विचार ही नहीं कर पाते, जिन्हें हम अपने से अलग मानते हैं। हम अवचेतन रूप से उस "सत्य" को छानते हैं, जो हमारी रुचि के साथ सही नहीं बैठ पाता है - हम सिर्फ़ उन्हीं अख़बारों को पढ़ते हैं, जो हमारे विश्वासों के साथ मेल खाते हैं, इसी तरह हम उन लोगों की लिखी किताबों की भी अनदेखी करते हैं, जो हमारी विचारधारा से जुड़े नहीं होते हैं, और जब कोई उस तरह की राय देता है,जो हमारे विपरीत होता है,तो हम टीवी को म्यूट कर देते हैं। संक्षेप में कहा जाये,तो हम वास्तव में "सत्य" की उतनी परवाह नहीं करते हैं, जितनी कि हम ख़ुद के सही होने की परवाह करते हैं। हालांकि, इसके लिए कौन दोषी है, और अगर कोई हो, तो ?
सही मायने में इसका कुछ दोष सोशल मीडिया निगमों के कंधों पर डाला जा सकता है, क्योंकि उनके इंटरफ़ेस और एल्गोरिदम मौजूदा ध्रुवीकरण को बढ़ाने में मददगार होते हैं। लेकिन, ऐसा करने से तो हमारे समुदायों के भीतर के गहरे बैठे मुद्दों की ही अनदेखी होती है। लोगों के बीच अक्सर "सत्य" को लेकर ऐसी ही भिन्न अवधारणायें होती हैं, क्योंकि उनकी वास्तविकतायें एक दूसरे से बहुत अलग होती हैं। ऐसा शायद उनके लिंग, जाति, धर्म या आर्थिक स्थिति में अंतर के चलते हो सकता है; इनके भीतर भी कारकों का एक ख़ास संयोजन अलग-अलग जीवंत वास्तविकताओं को जन्म दे सकता है। वास्तव में, अगर यह सत्य है, तो फिर यह प्रश्न बना रहता है कि क्या किया जा सकता है ?
बेशक,कई विद्वानों ने इसका एक संभावित तरीक़ा यह सुझाया है कि सोशल मीडिया निगमों को विनियमित किया जाये। हालांकि, न्यायपालिका का एक मौजूदा सदस्य होने के नाते इस पर टिप्पणी करना मेरे लिए ठीक नहीं है। लेकिन, सवाल यह पैदा होता है कि भारत के नागरिक के रूप में हम क्या कर सकते हैं ?
पहली बात तो यही है कि हमे अपने सार्वजनिक संस्थानों को मज़बूत करना है। नागरिकों के रूप में हमें यह सुनिश्चित करने का प्रयास करना चाहिए कि हमारे पास एक ऐसा प्रेस हो, जो किसी भी तरह के राजनीतिक या आर्थिक प्रभाव से मुक्त हो, जो हमें निष्पक्ष तरीक़े से जानकारी मुहैया कराये। इसी तरह, स्कूलों और विश्वविद्यालयों को यह सुनिश्चित करने को लेकर समर्थन देने की ज़रूरत है कि वे एक ऐसा माहौल तैयार करें, जहां छात्र असत्य से सत्य को अलग करने की कला सीख सकें, और सत्ता में बैठे लोगों से सवाल करने वाला एक स्वभाव विकसित कर सकें। न्यायमूर्ति छागला ने भारत के शिक्षा मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान इन उद्देश्यों को हासिल करने की भी कोशिश की थी। [46] इसके अलावा, हमें अपने चुनावों की निष्ठा
की रक्षा करने की भी ज़रूरत है, और मतदान को न सिर्फ़ एक अधिकार, बल्कि एक कर्तव्य के रूप में भी देखना चाहिए। ऐसा करने के लिए हमें यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि सभी नागरिकों को बुनियादी शिक्षा दी जाये और वास्तव में उनके वोट के मूल्य को हम समझें।
दूसरी बात कि हमें भारत जैसे विविधता वाले देश में विचारों की बहुलता को न सिर्फ़ स्वीकार करना चाहिए, बल्कि इस पर हमें गर्व भी होना चाहिए। इससे सभी तरह के विचारों के लिए ज़्यदा गुंज़ाइश बनती है, और वास्तविक विचार-विमर्श की संभावना बनती है। अपनी आत्मकथा में न्यायमूर्ति छागला ने कहा है कि "करुणा और सज्जनता ऐसे गुण हैं, जो हर मानव स्वभाव में हैं, और जिसकी हर मानव प्रकृति सराहना करती है और इससे प्रेरित होती है। इन गुणों के लिए न तो ख़ास प्रशिक्षण चाहिए और न ही विशेष साधन की ज़रूरत है। ये हर आदमी में मौजूद हैं - सिर्फ़ वे अहंकार और स्वार्थ से ढके होते हैं"। [47] इसलिए, हम में से प्रत्येक के लिए यह अहम है कि हम अपने साथी नागरिकों के प्रति दयालु हों, और उनकी राय के बारे में जल्दीबाज़ी से कोई राय नहीं बनायें। साथ ही साथ हमें यह सुनिश्चित करने की दिशा में भी काम करना चाहिए कि किसी के लिंग, जाति, धर्म, भाषा या आर्थिक स्थिति के आधार पर आने वाली बाधाओं को हटाया जाये, ताकि सभी की वास्तविकताओं को यथासंभव निकट लाया जा सके, ताकि वे हमारे समाज के "सत्यों" के बारे में समान धारणायें रख सकें।
आख़िर में एक लोकतंत्र,जो कि भारत है,इसके नागरिक के रूप में हमें अपने समाज की एक प्रमुख आकांक्षा के रूप में "सत्य" की खोज के लिए खुद को प्रतिबद्ध करने की ज़रूरत है। मैंने पहले भी उल्लेख किया था कि हमारा राष्ट्रीय आदर्श वाक्य, "सत्यमेव जयते" या "सत्य की ही जीत होगी" है। यह ज़रूरी है कि हम इसे अपने सभी दिलों में अंकित कर लें, और सही स्वभाव विकसित करके इसे जीने की दिशा में काम करें। अगर वे इसकी अनदेखा या अस्वीकार करते हैं,तो हम "सचाई" का निर्धारण करने वाले स्टेट, 'विशेषज्ञों' और साथी नागरिकों से सवाल पूछकर और फिर उनसे यही सच बोलकर ऐसा कर सकते हैं।
मुझे पता है कि मैं अभी जो कुछ भी कह रहा हूं, वह एक आदर्शवादी दृष्टि लग सकता है या भारत में लोकतंत्र के पैमाने को देखते हुए असंभव लग सकता है। आप में से उन लोगों को मैं उन कुछ बातों को याद दिलाना चाहता हूं, जिसे न्यायमूर्ति छागला ने अपनी आत्मकथा में कहा था:[48]
“लोकतांत्रिक विचारधारा हमेशा यह मानने के लिए तैयार रहती है कि जनता के किसी विशेष वर्ग के प्रत्येक विश्वास में सच्चाई का एक तत्व हो सकता है; यह संख्या के पाशविक ताक़त से अल्पसंख्यक राय को ज़बरदस्ती दबाने को लेकर तैयार नहीं है। यह विचारधारा चर्चा और बहस के लिए हमेशा तैयार रहती है, और अल्पसंख्यक को अनिच्छा से पेश आने के लिए मजबूर करने के मुक़ाबले बहुमत के निर्णय में अल्पसंख्यक को स्वीकार किये जाने को लेकर ज़्यादा उत्सुकत रहती है। लोकतांत्रिक प्रकृति मानवीय दुर्बलताओं के प्रति भी सहिष्णु होती है। एक आदमी पूर्णता की आकांक्षा कर सकता है, लेकिन वह मिट्टी का बना होता है, और अक्सर वह सीधे रास्तों से भटक जाता है और तंग रास्तों पर चल पड़ता है। उसका यह विचलन आंशिक रूप से उसकी अपनी कमज़ोरी और आंशिक रूप से उस समाज की बनायी उन परिस्थितियों पर क़ाबू पाने के चलते है, जिसमें उसे रखा गया है। उसकी ग़लतियां और उसकी ख़ामियां हमेशा पूरी तरह से उसके ख़ुद की पैदा की गयी नहीं होती हैं। हमें व्यक्तिगत सम्बन्धों के क्षेत्र में मानवीय कमज़ोरियों की कहीं ज़्यादा सहानुभूतिपूर्ण समझ की ज़रूरत है।”
मैं इस बात से इंकार नहीं करूंगा कि हमारे सामने जो चुनौती है,वह मुश्किल है और इसके लिए हम सभी की निरंतर कोशिश की ज़रूरत है। मुझे उम्मीद है कि भारत का हर एक नागरिक सत्ता से सच बोलकर और हमारे लोकतंत्र को बेहतर बनाने की दिशा में काम करते हुए महान न्यायमूर्ति छागला की स्मृति का सम्मान करने में अपना-अपना योगदान देगा।!
(डॉ. न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ भारत के सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश हैं, और नवंबर 2022 में भारत के 50वें मुख्य न्यायाधीश बनने की कतार में हैं।)
यह लेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
“Speaking Truth to Power: Citizens and the Law”: Full text of Dr Justice D.Y. Chandrachud’s Justice M.C. Chagla Memorial Lecture