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भारत
राजनीति
कश्मीर : एक पुलिसवाला, जो संघ का कार्यकर्ता लगता है!
कश्मीर घाटी के संबंध में जम्मू-कश्मीर के आला पुलिस अधिकारी लोकतंत्र विरोधी संघ के नक़्शे क़दम पर चल रहे हैं।
अजाज़ अशरफ
19 Sep 2019
Translated by महेश कुमार
abhinav kumar

परम्परा के मुताबिक़ नौकरशाहों को सार्वजनिक रूप से सरकारी नीतियों के विरुद्ध या उसके पक्ष में टिप्पणी करने से बचना चाहिए, लेकिन भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी अभिनव कुमार ने इस परंपरा का उल्लंघन किया है, ऐसा वे अक्सर करते हैं ख़ासकर जब वे द इंडियन एक्सप्रेस में कश्मीर पर लेख लिखते हैं। उनके लेख कश्मीर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वैचारिक राजनीति को सुर देते हैं, और वहां के लोगों को ही इस संकट के लिए दोषी ठहराते हैं, और साथ ही नरेंद्र मोदी सरकार के 5 अगस्त के फ़ैसले को जिसमें अनुच्छेद 370 को निरस्त करना और जम्मू-कश्मीर राज्य को केंद्रशासित राज्य में तब्दील करना शामिल था, उसका समर्थन करते हैं।

नौकरशाही की परंपरा की कुमार द्वारा की गई उपेक्षा की बड़ी वजह ये है कि वे ख़ुद कश्मीर में तैनात हैं। आप किसी अन्य नौकरशाह द्वारा 5 अगस्त के फ़ैसले को असंवैधानिक क़रार देने की कल्पना करके देखें। अगर सरकारी नीतियों पर नौकरशाह वैचारिक रूप सार्वजनिक बहस करेंगे तो वे नौकरशाही में फूट डालने का काम कर रहे होंगे जो नौकरशाही के भीतर के सामंजस्य को ही कमज़ोर करने का काम करेगा।

यह भी संभव है कि कुमार के पास अपने लेख को प्रकाशित करने के लिए सरकार की पूर्व स्वीकृति रही होगी। ऐसे मामले में, सरकार का अनुमोदन राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध नौकरशाही को तैयार करने के सत्तारूढ़ आरएसएस-भारतीय जनता पार्टी के इरादे को दर्शाता है। इससे भी बुरी बात यह है कि कुमार के लेख के बाद से कश्मीरी लोग उन्हें वर्दी में संघ के आदमी के रूप में देखेंगे। ऐसा करने के कई कारण मौजूद हैं।

उनका एक लेख, ए न्यू डील फॉर कश्मीर, जो 5 जुलाई को प्रकाशित किया गया था। इस लेख में वे कश्मीर नीति के तीन विकल्पों को बताते हैं।

पहला विकल्प जिसकी वे जांच करते हैं, जिसे वे "एट्रिशन-ड्रिवन एप्रोच", जिसका अर्थ है कि कश्मीरियों को आज़ादी के लिए तरसने की ज़िद और जिहादियों का निरर्थक समर्थन करने में थका देना। 

कुमार ने दूसरे विकल्प को "त्याग देने का दृष्टिकोण" कहा है, जिसका अनुसरण "हमारे बुद्धिजीवी और नागरिक समाज के एक बहुत ही मुखर वर्ग" द्वारा किया जाता है। कुमार कहते हैं कि उनका मानना है कि कश्मीर में एक टिकाऊ शांति चाहिए तो "कश्मीरियों की सभी मांगों को मानना बेहतर है।" जो पूर्ण स्वायत्तता से लेकर पाकिस्तान के साथ विलय या एकमुश्त आज़ादी भी हो सकती है। लगता है यहां  कुमार ने आरएसएस के बुद्धिजीवियों और नागरिक समाज के प्रति संदेह को साझा किया है।

कुमार तीसरे विकल्प के रूप में "आत्मसात करने के दृष्टिकोण" की चर्चा करते हैं। उन्हें लगता है कि अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए को समाप्त करके कश्मीरी मुसलमानों को आत्मसात किया जा सकता है यानी देश के साथ मिलाया जा सकता है, यानी 5 अगस्त तक जो जम्मू-कश्मीर में संपत्ति के मालिक थे अब उसे ग़ैर-स्टेट सबजेक्ट या ग़ैर-कश्मीरी भी ख़रीद सकते हैं। उन्होंने कहा, "इन अनुच्छेदों ने राज्य की जनसांख्यिकी और राजनीति को ज़मींदोज़ कर दिया और कश्मीर घाटी में सब कुछ मुस्लिम बहुमत के पक्ष में झुका दिया था।"

हमेशा से कश्मीर की जनसांख्यिकी को बदलना और भारत में इसे एकीकृत करने की हिंदू दक्षिणपंथ की पसंदीदा रणनीति रही है। आरएसएस के लिए, आत्म्सात होने का मतलब धार्मिक अल्पसंख्यकों को हिंदू सांस्कृतिक पहचान को गले लगा लेना है। डर और संदेह आत्मसात करने की इच्छा को मजबूत करते हैं, जो कश्मीर की मुस्लिम बहुमत आबादी को दबाने के कुमार के तर्क से स्पष्ट है। वे तर्क देते हैं, “उनमें से कुछ लोग आज़ादी का पक्ष लेते हैं, कुछ पाकिस्तान के साथ विलय का पक्ष लेते हैं। और उनमें से लगभग सभी के पास भारत के विचार को स्वीकार करने का मुद्दा है।"

जब कोई ऐतिहासिक दृष्टिकोण से लेख लिखता है, वह भी परम सुख के साथ, यह अविश्वसनीय होगा कि कुमार को अपने राजनीतिक व्यवहार को सामान्य करने के लिए कश्मीर के अतीत में झांकना चाहिए। जब जम्मू सहित भारत के अधिकांश हिस्सों में विभाजन को लेकर दंगे हुए थे, तब घाटी में किसी भी हिंदू को नुक़सान नहीं हुआ था। 1947 में कश्मीरी मुसलमानों ने राज्य पर आक्रमण करने वाले पाकिस्तानी आदिवासियों का मुक़ाबला किया था और 1965 में विद्रोह फैलाने के लिए कश्मीर में घुसने वाले पाकिस्तानी गुरिल्लाओं को पकड़ लिया और उन्हें सरकार को सौंप दिया था।

1947 के बाद से, हमेशा कश्मीर में एक वर्ग अपनी स्वतंत्रता या पाकिस्तान के साथ विलय की वकालत करता रहा है। लेकिन कुमार ने इस बात की जांच नहीं की कि पिछले कुछ वर्षों में इस सब में बढ़ोतरी क्यों हुई है। उदाहरण के लिए, उन्होने संघ के 1951 के अभियान "एक संविधान, एक राज्य का प्रमुख, और एक झंडा" के बारे में चर्चा नहीं की कि कैसे उस अभियान ने कश्मीरी मुसलमानों को अपने भविष्य के प्रति परेशान किया था। न ही कुमार ने अनुच्छेद 370 के खोखलेपन का उल्लेख किया है, न ही चुनावों में लगातार धांधली का, और न ही राज्य पर बहुसंख्यक मुख्यमंत्रियों को थोपने का ही ज़िक्र किया है।

कुमार के अनुसार, भारतीय राज्य के क़दमों में निहित अनैतिकता में सुधार करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि घाटी में जनसांख्यिकीय परिवर्तन के माध्यम से आगे बढ़ना रास्ता है।

इंडियन एक्सप्रेस में कुमार के 5 जुलाई के लेख की बात सही साबित हुई: ठीक इसके एक महीने बाद, मोदी सरकार ने धारा 370 और अनुच्छेद 35ए को रद्द कर दिया। इसने कुमार को एक और लेख लिखने के लिए प्रेरित किया – व्हाय आर्टिकल 370 हैड टु गो, ये लेख 16 अगस्त को इंडियन एक्सप्रेस में छपा था। इसमें, वह सरकार के 5 अगस्त के फ़ैसले पर जनता की प्रतिक्रिया की जांच करते हैं।

कुमार लिखते हैं, ''यहां वामपंथ पर सामान्य संदेह है कि वे मिरगी से ग्रस्त हो गए हैं।" यह वामपंथियों के लिए संघ के तिरस्कार को दर्शाता है। इसके विपरीत, 5 अगस्त के फ़ैसले को जो " धर्मांधता और घृणा से भरी भाषा" के साथ मनाते हैं, वे उन्हे "स्वयंभू राष्ट्रवादी" कहते हैं। इसके लिए सबसे उपयुक्त विवरण कट्टरपंथी हिंदू या हिंदू दक्षिणपंथ या यहां तक कि संघी होता, लेकिन राष्ट्रवादी एक ऐसा विवरण है जिसमें भारतीयों का सबसे बड़ा प्रतिशत शामिल होता है।

धारा 370 को क्यों जाना पड़ा, कुमार ने 5 अगस्त के फ़ैसले के ख़िलाफ़ आलोचना के चार किस्सों के ख़िलाफ़ तर्क दिया है- कि यह क़ानूनी रूप से दुर्बल है; कि कश्मीर की विशेष स्थिति अनंत काल तक अस्तित्व में रहेगी; कश्मीरियों की इच्छा को नहीं पूछा गया; घाटी में तालाबंदी अनैतिक थी।

वे उन सवालों को सूचीबद्ध करते हैं जो सर्वोच्च न्यायालय को यह निर्धारित करने से पहले जांचने की आवश्यकता है कि क्या 5 अगस्त का निर्णय उचित था या नहीं, उन्होंने इस आलोचना को ख़ारिज कर दिया कि अनुच्छेद 370 को अनंत काल तक अस्तित्व में रहना था, जो दावा सबूतों से समर्थित नहीं है, "यह मानना मुश्किल है कि जवाहरलाल नेहरू ने अनुच्छेद 370 को बिना किसी एक्सपायरी डेट के कोरा चेक दे दिया था।"

कुमार ने संघ परिवार के इस तर्क को ख़ारिज कर दिया कि सरकार को 5 अगस्त का फ़ैसला लेने से पहले कश्मीरियों की इच्छा का पता लगाने की आवश्यकता क्यों नहीं थी। उनके मुताबिक़ आख़िरकार, यह संसद द्वारा समर्थित था और इसलिए, देश की लोकतांत्रिक इच्छा का प्रतिनिधित्व करता था। कुमार कहते हैं, “क्या घाटी की कथित इच्छाओं के नाम पर भारत के लोगों की इच्छाओं के उपर मानना चाहिए? और जम्मू और लद्दाख के लोगों की इच्छाओं का क्या? यह लोकतांत्रिक अधिकार का एक असाधारण दावा है।“

उनका तर्क क्लासिक अधिनायकवादी/बहुमत्वादी तर्क है। हालांकि कुमार स्पष्ट रूप से यह नहीं कहते हैं, फिर भी उनके तर्क का अंतर्निहित तर्क यह है कि यह कश्मीरियों से परामर्श करना अप्रासंगिक था क्योंकि वे देश की आबादी का एक अंश है और वे लोकतांत्रिक इच्छाशक्ति को बदल नहीं सकते, क्योंकि लोकसभा में बहुमत भाजपा के पास है। कल को, भाजपा ग़ैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने की लोकतांत्रिक इच्छा का हवाला दे सकती है। क्या यह कुमार को स्वीकार्य होगा?

आईपीएस अधिकारी घाटी में लॉकडाउन को भी सही ठहराते हैं: "बड़े पैमाने पर पुर्व निर्धारित बडी़ हिंसा की कोशिश करना अनैतिक नहीं है, बल्कि, यह एक ज़िम्मेदार सरकार का कर्तव्य है।" यह वास्तव में सच है, हालांकि एक चेतावनी के साथ। जब सरकार की अपनी कार्रवाइयाँ, जो बहस की नैतिकता में लिपटी हैं, जो अशांति का कारण बन जाती हैं, तो क्या हिंसा को रोकने के लिए लॉकडाउन नैतिक समझा जाना चाहिए?

कुमार ईद की ओर इशारा करते हैं, शुक्रवार की नमाज़ और स्वतंत्रता दिवस समारोह के शांति से गुज़रने की ओर इशारा करते हैं और उसे तालाबंदी की चतुर चाल के नाम रेखांकित करते हैं। जब पूरी घाटी को घरों से बाहर निकलने से रोक दिया जाता है, तो कुमार केवल वही समझ रहे हैं जो कवि आग़ा शाहिद अली ने कहा था, "आप एक उजाड़ को शांति कहते हैं।"

कुमार के सबसे हालिया लेख में, जो वर्दीधारी बलों के लिए लिखा गया है, उनकी घाटी में पिछले पांच सप्ताह से प्रतिबद्धता और क्षमता का इम्तिहान रहा है, इसे 1 सितंबर को प्रकाशित किया गया था। उन्होंने कहा कि विदेशी मीडिया द्वारा सुरक्षा बलों के कदाचार या अतिरंजित होने के बारे में फ़र्ज़ी ख़बर फैला रहा है।

कुमार कहते हैं, “1989 के बाद से, विदेशी मीडिया ने कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा किए गए अत्याचारों की लगातार अनदेखी की है और मुख्य रूप से भारतीय राज्य द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले को चित्रित किया है। इस राज्य में उनके लिए, आतंकी कार्यवाही  मानव अधिकारों का उल्लंघन नहीं हैं।”

कुमार का तर्क वैचारिक रूप से त्रुटिपूर्ण है - व्यक्तियों के अधिकारों को संविधान में निहित किया गया है कि वे राज्य द्वारा उनके अतिक्रमण की रक्षा कर सके। जब राज्य विरोधी लोगों द्वारा इन अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है, तो उनके कार्यों को आपराधिक माना जाता है, जिसके लिए राज्य उन्हें ज़िम्मेदार ठहराता है। जानबूझकर भ्रमित करने वाली अवधारणाएँ अपने आलोचकों को ठगने के लिए संघ की चाल रही हैं।

5 अगस्त के फ़ैसले को सही ठहराने के अपने उत्साह में, कुमार ने विरोधाभासों में ख़ुद को उलझा दिया है। उदाहरण के लिए, वे लिखते हैं, "पाबंदियों से मुक्त होने के बाद, सरकार की प्राथमिकताएँ विकास और रोजगार सृजन की होंगी, जिनका जिहाद और आज़ादी नारे के वक़्त बहुत कम स्थान था।"

अपने 5 जुलाई के लेख में, हालांकि, उन्होंने कश्मीर की समृद्धि के नाम पर - यातायात जाम, उन्मत्त निर्माण गतिविधि और दोहरे मंजिला घरों के असंयमित साक्ष्य प्रस्तुत किए - और घोषणा की, "जो कोई भी कश्मीर में उग्रवाद को चला रहा है, वह निश्चित रूप से आर्थिक अभाव नहीं है।“ लगता है, जुलाई और सितंबर के बीच, कुमार ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि उनकी समझ सरकार की स्थिति के अनुरूप हो तो उन्होंने अपने विश्लेषण को ही बदल दिया।

कुमार भारत के विचार को कश्मीर पर उठाए गए रुख को सही ठहराने के लिए इसे एक धर्मनिरपेक्ष, बहुलवादी समाज के रूप में मानते हैं। फिर भी वह समझने में विफल रहते है, या यह स्वीकार करने की इच्छा नहीं रखते है, कि अस्मिता और जनसांख्यिकीय परिवर्तन की प्रक्रिया सांस्कृतिक बहुलवाद को नकारती है। यही कारण है कि वह एक राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध नौकरशाह के रूप में संघ के पक्षधर दिखते हैं। यह नौकरशाही, भारत और कश्मीर के लिए अच्छा होगा यदि अभिनव कुमार सरकारी नीतियों पर अपने विचारों को व्यक्त करने से परहेज़ करते हैं, इसलिए भी क्योंकि उन्हें उनके लेखन में किसी भी तरह के विरोध करने की अनुमति नहीं है।

एजाज़ अशरफ़ दिल्ली में स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। 

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