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कश्मीर की रिपोर्ट ख़ारिज करने पर भारत से यूएन नाख़ुश
संयुक्त राष्ट्र ओएचसीएचआर ने कश्मीर पर तैयार रिपोर्ट पर भारतीय राज्य और इसके मीडिया के निंदात्मक दृष्टिकोण के चलते सार्वजनिक रूप से निराशा व्यक्त की। ज्ञात हो कि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट हाल ही में प्रकाशित हुई थी।
अदिति शर्मा
23 Jul 2018
UN disappointed with India over kashmir report

क़रीब एक महीने पहले कश्मीर पर प्रकाशित हुई संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट को लेकर भारतीय मीडिया और प्रशासन के दुराग्रह पर सख्त नाराज़गी का इज़हार करते हुए रूपर्ट कोल्विल ने यूएन ऑफिस ऑफ हाईकमिश्नर फॉर ह्यूमन राइट्स (ओएचसीएचआर) दवारा कश्मीर के दावों का समर्थन किया।

17 जुलाई को एक प्रेस वार्ता में संयुक्त राष्ट्र के इस संगठन के प्रवक्ता कोल्विल ने कहा कि इस रिपोर्ट का केंद्र बिंदु जुलाई 2016 से अप्रैल 2018तक भारतीय राज्य जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति पर था... भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा अत्यधिक बल प्रयोग किया गया जिससे कई नागरिकों की मौत हो गई।"

जब से ये रिपोर्ट प्रकाशित हुई तब से कई प्रमुख भारतीय मीडिया संस्थानों ने उच्च आयुक्त को पक्षपातपूर्ण और जानबूझकर भारतीय राज्य को निशाना बनाने का आरोप लगाया है। इस रिपोर्ट के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा सामान्य आरोप यह था कि यह भारतीय छवि को बदनाम करने के लिए "असत्यापित जानकारी" का इस्तेमाल करता है। कोल्विल ने अपने संबोधन में प्रत्येक स्रोत का उल्लेख करते हुए रिपोर्ट में चिह्नित 388 विस्तृत फुटनोटों को इंगित करके "तथ्यों को स्पष्ट तौर पर रखा" - इनमें से अधिकांश आधिकारिक श्रोत हैं जैसे कि भारतीय संसद, विदेश मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, जम्मू-कश्मीर मानवाधिकार आयोग, और जम्मू कश्मीर कोलिशन ऑफ सिविल सोसायटी जैसे कई सिविल सोसाइटी संगठन।

विदेश मामलों के प्रवक्ता रवीश कुमार ने इस रिपोर्ट को "... भ्रमाक, विवादास्पद और प्रेरित ..." बताया है। कुमार ने इस रिपोर्ट को "बड़े पैमाने पर सत्यापित सूचना का चुनिंदा संकलन" के रूप में वर्णित किया है, साथ ही "अत्यधिक पूर्वाग्रह" वाला बताया है जो " एक झूठी रिवायत बनाने की कोशिश करता है।" ये आरोप परेशान कर रहे हैं क्योंकि ये उच्चायुक्त जुलाई 2016 में पाकिस्तान और भारत के प्रतिनिधियों से मिले थे। वह एलओसी के दोनों तरफ दोनों क्षेत्रों में बिना शर्त जाना चाहते थे। दोनों सरकारों ने इससे इनकार कर दिया और इसलिए ओएचसीएचआर ने इन क्षेत्रों की बिना गए हुए दूर से ही निगरानी की।

संयुक्त राष्ट्र ओएचसीएचआर द्वारा आधारहीन समझा जाने वाला अन्य आरोप यह था कि कनाडा स्थित इमाम जिनका नाम ज़फ़र बंगाश है वह उच्चायुक्त ज़ैद रआद अल हुसैन के साथ लगातार संपर्क में था, इस तरह इस रिपोर्ट का तथ्य प्रभावित हुआ। बंगाश से मेल या पत्र प्राप्त करने की संभावना को स्वीकार करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि ओएचसीएचआर को हर दिन ऐसे कई ईमेल और पत्र प्राप्त होते हैं और विनम्रतापूर्वक उन सभी को स्वीकार करते हैं। उन्होंने इस आरोप को "पूरी तरह से असत्य" बताया, और इमाम द्वारा दी गई किसी भी जानकारी का इस्तेमाल करने की संभावना से इंकार किया। कई मीडिया आउटलेट्स ने रिपोर्ट में कथित तौर पर आईएसआई के शामिल होना का भी आरोप लगाया जिसमें पाकिस्तान-प्रशासित कश्मीर के तीन व्यक्तियों के साथ हुसैन की एक तस्वीर की ओर भी ईशारा किया गया। कोल्विल ने दावा किया कि "... इसकी सामग्री की वास्तविक जांच से बचते हुए इस रिपोर्ट को बदनाम करने के लिए इन सभी आरोपों को तैयार किए गए।"

कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र की ये रिपोर्ट अंतर्राष्ट्रीय वैधानिक संगठन द्वारा पहली महत्वपूर्ण रिपोर्ट थी। इसमें मानवाधिकार समेत चौदह प्रमुख समस्याओं को स्पष्ट रूप से शामिल किया गया है।

इस रिपोर्ट ने सशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम, 1990 (एएफएसपीए) की धारा 7 और धारा 4 की ओर इशारा करते हुए और जम्मू-कश्मीर लोक सुरक्षा अधिनियम, 1978 (जेकेपीएसए) पर सख्त प्रहार किया। जेकेपीएसए उन लोगों के निरोधक हिरासत की अनुमति देता है जिनके ख़िलाफ़ आपराधिक अपराध का कोई आरोप नहीं हो सकता है। क़ानूनी शोधकर्ता-कार्यकर्ता श्रीमोई नंदिनी घोष ने द वायर से बात करते हुए कहा, "ये पीएसए आपात जैसी स्थिति पैदा करता है। इसकी कार्यप्रणाली एक पूर्ण, आत्मपरिवृत्त और सामाजिककृत कारागार व्यवस्था (socialised carceral system-बाहर न निकलने वाली व्यवस्था) का निर्माण करती है।"

इस रिपोर्ट में कश्मीर घाटी में नागरिक हत्याओं के बढ़ते मामलों को विशेष रूप से 2018 में हुई हत्याओं पर प्रमुखता से ध्यान केंद्रित किया गया। इस तरह के अत्यधिक बलों की खतरनाक स्थिति को जोड़ते हुए इसने प्रतिरोध को रोकने के लिए एक हथियार के रूप में पेलेट गन के इस्तेमाल की निंदा की और इसे "प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किए जाने वाले सबसे ख़तरनाक हथियारों में से एक" बताया।

अगस्त 2016 में हिरासत में यातना के कारण शबीर अहमद मंगू की हुई मौत का हवाला देते हुए इस रिपोर्ट ने उक्त व्यक्ति के ख़िलाफ दर्ज की गई एफआईआर के बावजूद सुरक्षाकर्मियों की जवाबदेही की जांच राज्य तथा केंद्र की निष्क्रियता पर सवाल उठाया।

रिपोर्ट के मुताबिक़ मानवाधिकार की स्थिति के चलते कुछ अन्य प्रमुख कारण जबरन गुमशुदगी, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर प्रतिबंध, मानव अधिकार रक्षकों के ख़िलाफ़ प्रतिशोध जिसने मानवाधिकार की स्थिति और पत्रकारों के प्रतिबंधों को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकर्षित करने के प्रयास और सुरक्षा बलों तथा सशस्त्र सैनिकों के ख़िलाफ़ अनगिनत यौन हिंसा की रिपोर्ट।

इस स्थिति में मानवाधिकार परिषद के साथ भारत की भूमिका का इतिहास उल्लेख करने की मांग करता है। भारत 47 देशों में से एक है जो परिषद का हिस्सा हैं और कई मामलों में उन देशों में संयुक्त राष्ट्र हस्तक्षेप का समर्थन किया है जहां नागरिकों को अपने मूल मानवाधिकारों पर प्रत्यक्ष हमले का सामना करना पड़ा है।

इस परिषद को मानवाधिकार आयोग की जगह साल 2006 में स्थापित किया गया था। आयोग के सदस्य राष्ट्रों का मानना था कि उनमें से कुछ ने अनियंत्रित शक्ति का इस्तेमाल किया, खुद को और अपने सहयोगियों को समीक्षा और हस्तक्षेप से सुरक्षित रखा। भारत आयोग को भंग करने के फैसले पक्ष में दृढ़ता से था, इस प्रकार मानवाधिकार की स्थिति को अपने सभी लोगों के लिए बेहतर बनाने का वादा करके एक परिषद का हिस्सा बना और रचनात्मक रूप से परिस्थितियों में प्रवेश किया। सदस्य राष्ट्रों को एक अवधि के आधार पर चुना जाता है जिसमें प्रत्येक सदस्य को तीन वर्ष का कार्यकाल दिया जाता है। भारत 2017 तक दो बार सदस्य रह चुका है। भारत ट्रोएका ऑफ कंट्रीज़ (Troika of countries) का भी हिस्सा रहा है जिन्हें हर चार-पांच वर्षों में संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के मानवाधिकार रिकॉर्ड का आकलन और समीक्षा करने के लिए चुना जाता है। इसलिए हमारे रक्षा मंत्री का बयान परेशान करने वाला है। कश्मीर रिपोर्ट पर उनका कहना है कि "यह एक ऐसा रिपोर्ट था जिसे कहीं और बैठ कर तैयार किया गया। मूल्यांकन पूरी तरह निराआधार है।"

कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में सबसे ज्यादा चौकाने वाला जो है वह यह कि भारत सरकार को प्रस्तुत की गई 17 सिफारिशें है। ओएचसीएचआर की आखिरी सिफारिश कुछ इस तरह है, "अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत संरक्षित के रूप में कश्मीर के लोगों के आत्मनिर्भरता के अधिकार का पूर्ण सम्मान करें"। ओएचसीएचआर का संभवतः यह आखिरी कथन प्रतीत होता है।

कुछ अन्य जिन पर ज़ोर देने की आवश्यकता है; एएफएसपीए को तत्काल रद्द करना और इस बीच सुरक्षा कर्मियों पर मुकदमा चलाने के लिए सरकारी मंजूरी के लिए आवश्यकता को रद्द करना; अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए जेकेपीएसए में संशोधन; सभी यौन पीड़ितों के लिए क्षतिपूर्ति का प्रावधान और उन परिवारों का पुनर्वास करना जिनके सदस्य सुरक्षा बलों की कार्रवाई में मारे गए हैं; बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के तहत 18 वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों की चिकित्सा; जम्मू-कश्मीर में समाचार पत्रों के प्रकाशन और पत्रकारों के गतिविधि पर मनमाने ढंग से प्रतिबंधों को ख़त्म करना।

प्रेस वार्ता के अंत में कोल्विल ने कहा कि इस रिपोर्ट को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए और इस मुद्दे को जो कि कश्मीर में लाखों लोगों के मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है उसे विचलित नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा, "आख़िरकार इस रिपोर्ट को तैयार करने का हमारा मक़सद राज्यों और अन्य लोगों को मानवाधिकार के चुनौतियों की पहचान करने और उस पर ध्यान दिलाना था और गहरे राजनीतिक ध्रुवीकरण के बीच ख़ामोश सभी कश्मीरियों को आवाज़ देने में मदद करना था।

हाल में अल्पसंख्यकों पर भीड़ द्वारा की गई हिंसा, बलात्कार और भेदभाव के बढ़ते मामलों के चलते भारत की छवि को बहुत बड़ा नुकसान हुआ है। क्या मुख्यधारा के मीडिया से पूर्ण समर्थन के साथ इस भारतीय राज्य ने कश्मीर पर शासन करने में विफलता की कुरूप सच्चाई को नजरअंदाज और खारिज करके इस बुरी प्रतिष्ठा से पुनः प्राप्त करने मौका खो दिया है?? ओएचसीएचआर ने अपनी रिपोर्ट में जटिल श्रोतों का ब्योरा दिया, और इस पद्धति पर विवरण दिया। भारत और पाकिस्तान द्वारा प्रवेश से इनकार करने के मामले में इसे इस्तेमाल करने को मजबूर किया। इस रिपोर्ट के पूर्णतः खारिज करने को लेकर इस भारतीय राज्य ने एक भी रचनात्मक तर्क नहीं दिया है।

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