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भारत
राजनीति
कश्मीर: सरकार की तरफ़ से प्रतिबंधों में कोई ढील नहीं
कश्मीरियों के भीतर उल्लेखनीय शांत नागरिक प्रतिरोध के लिए आपसी सहमति भारतीय अधिकारियों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।
गौतम नवलखा
12 Sep 2019
Translated by महेश कुमार
Restrictions in kashmir
Image Courtesy: The Hindu

ओटो वॉन बिस्मार्क को इस बात को कहने का श्रेय दिया जाता है कि "लोग अक्सर शिकार के बाद, युद्ध के दौरान, और एक चुनाव से पहले इतना झूठ नहीं बोलते हैं।" इसलिए जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) ने कहा कि जम्मू और कश्मीर से प्रतिबंधों को उठाना पाकिस्तान के "व्यवहार" पर निर्भर करता है, तो इसने काफ़ी लोगों को भ्रमित कर दिया। एनएसए कश्मीर की घटनाओं के लिए क्यों अपने आप को ज़िम्मेदार बता रहा है, जिसके बारे में भारत सरकार पाकिस्तान के सामने दावा करती है कि कश्मीर भारत का घरेलू मामला है? यह मसला तब और भी पेचीदा बन जाता है जब कश्मीर में लगभग 80 लाख कश्मीरियों को नियंत्रित करने के लिए 9.5 लाख की संख्या में सुरक्षा बलों तैनात किया जाता है, संचार को बंद कर दिया गया है, हज़ारों को हिरासत में ले लिया गया है, जबकि  सशस्त्र उग्रवाद में कोई प्रत्यक्ष वृद्धि दिखाई नहीं दे रही है।

यदि इन सब के बावजूद पाकिस्तान इतना शक्तिशाली है कि वह कश्मीर में घट रही घटनाओं को नियंत्रित कर सकता है, और किसी भी आंदोलन में ऊर्जा भर सकता है, तो फिर सरकार पाकिस्तान को एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में स्वीकार करती है। या फिर, क्या एनएसए कश्मीर में लंबे समय से भारतीय जनता को इस सब के लिए तैयार कर रहा था, जहां प्रतिबंधों का ज़्यादा असर पड़ने की संभावना जल्द ही समाप्त हो जाएगी क्योंकि ज़मीनी स्थिति अनिश्चित है और अलग है क्योंकि लोग सरकार के विचार में पड़ने से इनकार कर रहे हैं?

इससे पहले कि एनएसए चुनिंदा पत्रकारों को लेकर अपनी प्रेस कॉन्फ़्रेंस आयोजित करती, केंद्रीय गृह मंत्री ने जम्मू-कश्मीर से "पंचों" के एक प्रतिनिधिमंडल को बताया कि प्रतिबंध 20-25 दिनों के लिए और रहेगा। अब एनएसए कह रहा है कि जब तक उनकी ज़रूरत है तब तक प्रतिबंध बना रहेगा। एनएसए ने न केवल कश्मीर में प्रतिबंधों को हटाने को 'पाकिस्तान के व्यवहार’ से जोड़ा, बल्कि बंदियों की रिहाई को भी हालात के सामान्य होने की शर्तों से जोड़ा है। यह बहुत ही धुंधली तस्वीर है और संदेह को स्पष्ट नहीं करती है। उसी समय, भारतीय राजनयिक दुनिया भर को यह बताने के लिए मशक़्क़त कर रहे हैं और आंकड़ों का मंथन करते हुए कह रहे हैं कि प्रतिबंधों में ढील दी जा रही है और 92 प्रतिशत क्षेत्र को अतिक्रमणों से मुक्त कर दिया गया है।

तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि देश के भीतर, सरकार और उसके अनुयायी कश्मीर पर उनके द्वारा गढ़ी गई कहानी पर एकाधिकार ज़माने और आलोचकों का मुँह बंद करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत की राजधानी दिल्ली में, सार्वजनिक हॉल, विश्वविद्यालयों, कॉलेजों आदि में एक बैठक का आयोजन करना भी अब मुश्किल हो गया है, जहां भी कश्मीर विवाद पर सरकार की हैंडलिंग की आलोचना की गई या उसे चेतावनी दी गई है। आयोजकों के गले पर न केवल दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा का पंजा होगा, बल्कि हिंदुत्व के सदस्यों के विरोध का भी सामना करना होगा और इसलिए हॉल-प्रबंधक उनकी बुकिंग को रद्द कर देंगे।

यह विचित्र बात है कि एक ऐसी मज़बूत सरकार जो वस्तुतः किसी भी तरह के राजनीतिक विरोध का सामना नहीं कर रही है, और जिसके पास मीडिया की एक बड़ी संख्या मौजूद है, जिसे नौकरशाही और सशस्त्र बलों का बेजोड़ समर्थन प्राप्त है, और जो अपनी इच्छा पर न्यायपालिका को झुकने के लिए मजबूर कर सकती है; उस  सरकार में "राष्ट्रीय सुरक्षा" के नाम पर इतनी घबराहट क्यों दिखती है!

केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने 29 अगस्त को एक सामुदायिक रेडियो पुरस्कार समारोह में बोलते हुए कहा कि "सबसे बड़ी सज़ा" वह होती है जब लोग किसी से संपर्क नहीं कर पाते हैं, जब वे किसी से बात करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं, और जब आपके आस-पास बात करने करने के लिए कोई उपकरण नहीं हो।" ये शक्तिशाली शब्द हैं और उन्होंने जो कहा, वह अनैतिक था। लेकिन बाद में उन्हें स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा और कहना पड़ा कि उनके शब्दों का इस्तेमाल कश्मीर में मौजूद वास्तविक स्थितियों का वर्णन करने के लिए किया गया है।

2018-19 में संचार मंत्रालय में मौजूद दूरसंचार विभाग की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार पूरे जम्मू और कश्मीर में, केवल 102,447 लैंडलाइन थे, इनमें से 23,000 कश्मीर घाटी में मौजूद थे। इसके विपरीत 11,334,786 वायरलेस फ़ोन हैं। इसलिए आहिस्ता आहिस्ता लैंडलाइन जम्मू और कश्मीर में ग़ायब हो गए, जो एक महत्वहीन विकास है तब जब संचार की मुख्य जीवन रेखा जम्मू-कश्मीर में 11 मिलियन से अधिक मोबाइल फ़ोन थे।

भारत के विदेश मंत्री ने दावा किया कि "आतंकवादियों और उनके आकाओं के बीच संचार संबंध" को रोकने के लिए सभी संचार माध्यमों को बंद करना पड़ा और उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि भारतीय अधिकारियों के पास इस तरह संपर्क को तोड़ने करने के लिए सबके लिए संचार बंद करने के अलावा कोई अन्य तरीक़ा नहीं है। जम्मू-कश्मीर के गवर्नर ने दावा किया कि नागरिक हताहत न हो इसलिए ये प्रतिबंध आवश्यक थे क्योंकि इंटरनेट "राष्ट्र-विरोधी तत्वों" के पास एक उपयोगी उपकरण है और कहा कि इंटरनेट "पाकिस्तान को संगठित होने और हमलों के लिए प्रेरित करने में मदद करता है।" सेना की उत्तरी कमान के प्रमुख ने ज़ोर देकर कहा कि पिछले 30 दिनों से कश्मीर में माहौल सबसे ज़्यादा शांत है, जहां संचार बंद करने सहित प्रतिबंधों के कारण लगभग कोई भी हताहत नहीं हुआ है।

लोगों की आवाजाही पर लगे गंभीर प्रतिबंधों, चिकित्सा की आपात स्थिति के लिए मदद न मिलने पर या मदद हासिल करने के लिए संचार की कमी के कारण, या दवाओं की कमी या जीवन बचाने वाली दवाओं की अपर्याप्त आपूर्ति की वजह से मरे लोगों को इस गिनती में शामिल नहीं किया गया हो सकता है, जाहिर तौर पर वे इस गिनती में शामिल नहीं है। अधिकारियों के लिए इस तरह की मौतें कोई ख़ास मायने नहीं रखती हैं और उनकी विकृत सोच उन्हें इस सब से बाहर निकलने की पेशकश करती है। अगर यह काम नहीं करता है तो तथ्यों को ग़लत तरीक़े से पेश भी किया जा सकता है।

उत्तरी कमान के जनरल ऑफ़िसर कमांडिंग-इन-चीफ़ (आर्मी कमांडर) ने श्रीनगर में हाल ही में आयोजित प्रेस कॉन्फ़्रेंस में, जम्मू-कश्मीर के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (ADGP) मुनीर ख़ान के साथ, यह दावा किया कि एक असरार अहमद नामक कक्षा 11 के छात्र की पथराव के दौरान लगी चोटों के कारण मौत हो गई। एडीजीपी ने कहा कि वहां "कोई गोलाबारी नहीं हुई, और न ही पैलेट गोली दागी गई। वह पत्थर की लगी चोट से मारा गया था।” हालांकि, यह बताया गया कि उसे 6 अगस्त को शाम 6.46 बजे सौरा के शेर-ए-कश्मीर मेडिकल स्कूल में लाया गया था और उसके एक्स-रे से पता चला था कि उसे कई पैलेट गोली लगी थी जो उसकी खोपड़ी और आंख के सॉकेट में धंस गई थी।

उसी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में सेना के कमांडर ने आतंकवादियों को पाकिस्तान द्वारा घुसपैठ कराने की कोशिशों के बारे में बात की और दो कथित लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों को गिरफ़्तारी करने का भी ज़िक्र किया और कहा कि सभी आतंकवादी को "लॉन्चिंग पैड" के ज़रिये हर दिन "पूरी तरह से घुसपैठ की कोशिश की जा रही है।" हालांकि, उन्होंने यह जोड़ने में जल्दबाज़ी की कि इन प्रयासों को "नाकाम" किया जा रहा है और 5 अगस्त से "एक भी प्रयास सफल नहीं हुआ" है। फिर भी, एनएसए का तर्क है कि पाकिस्तान हिंसा भड़काने की कोशिश कर रहा है और नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पार 230 आतंकवादी घुसपैठ करने का इंतज़ार कर रहे हैं।

दिलचस्प बात यह है कि पाकिस्तान द्वारा "घुसपैठ" को बढ़ावा देने के दावे साथ-साथ कश्मीर की "शांत" तस्वीर को भी चित्रित किया जा रहा है। सवाल यह है कि यदि एक भी घुसपैठ कामयाब नहीं हुई है, और एक भी गोली नहीं चलाई गई है और स्थिति "शांत" बनी हुई है, तो फिर पाकिस्तान के बारे में यह मानसिक उन्माद क्यों? अधिकारियों के मुताबिक़, "शांत" का श्रेय कश्मीर में प्रतिबंधों को जाता है। हालाँकि, यदि कोई इसे नज़दीक से देखे, तो हिंसा एकतरफ़ा दिखाई देती है, जोकि ज़्यादातर सरकार द्वारा आयोजित है।

कश्मीर में बंद का असर सभी पर पड़ता है। यह सच है कि स्थानीय व्यापारियों (श्रीनगर के पारिमपोरा और सोपोर में) और दो खानाबदोशों पर आतंकवादियों द्वारा हमला करने की तीन घटनाएं हुई हैं। हालांकि, अगर संचार ब्लैकआउट ऐसी घटनाओं को नहीं रोक पाया तो यह एक बड़ी साज़िश की नहीं बल्कि अधिक स्थानीय घटना अधिक प्रतीत होती है।

आबादी को "प्रभावित करने के विचार" के आरोप के रूप में, बड़ा तथ्य यह है कि अधिकारियों ने जनता को बिना कोई सबूत दिए व्यापक बयानबाज़ी की है। इस तरह के संदेशों में कितने लोग शामिल थे? उस सामग्री की प्रकृति क्या थी? कुछ की गतिविधियों के लिए हर कश्मीरी को सज़ा क्यों दी जा रही है? जब तक, अस्थिर संदेश यह नहीं है कि हर कश्मीरी एक संदिग्ध है या पहले से ही वह जिहादी है? अगर ऐसा है तो भारतीय अधिकारी स्वीकार कर रहे हैं कि कश्मीरी लोग भारत के साथ नहीं हैं। और, इस अर्थ में, संचार के लिए उन्हें पुरी तरह से से वंचित कर एक उलटा प्रयोग लागू किया जा रहा है जहां उन्हें क़ैद और नियंत्रण के नए रूप को  नई दिल्ली द्वारा सिखाया जा रहा है।

इसलिए, दमन को बढ़ाना सफलता नहीं बल्कि विफलता का प्रतीक है और वह कोई मास्टर-स्ट्रोक नहीं हो सकता है। कश्मीरी तीन दशकों से एक "अशांत" क्षेत्र हैं, जहाँ भारतीय सशस्त्र बल का शासन हैं और "शांति" बनाए रखने के लिए एक निरंकुश पुलिस प्रणाली को समर्थित हैं, अर्थात, अधिकारियों की मांग को लोगो को पालन करना होगा। अपने उद्देश्यों में विफल होने के बाद, अधिकारियों ने कश्मीरियों को सामूहिक सज़ा देने का फ़ैसला किया है। यह घावों को फोड़ा बना सकता है क्योंकि साझा दुख लोगों को एकजुट करता है।

एक महीने से ज़्यादा समय तक संचार बंद रखना सरकार की ताक़त के बजाय उसकी कमज़ोरी का मज़बूत संकेत है। अपने ही लोगों को मूर्ख बनाए रखना एक बात है, क्योंकि वे आज बंदी हैं। लेकिन, विदेशों के नेताओं और राय-निर्माताओं के साथ बातचीत में बेबुनियाद तर्कों को देना, जो भारत सरकार खुद को एक अंधेरे अतीत से तैयार की गई पुरातनपंथी दलीलें देने के लिए बाध्य करती है।

यदि कश्मीरियों को सतही तौर पर "शांत" करने के लिए हिंसा का इस्तेमाल परिणाम है, तो कश्मीरियों की यह क़ैद कितनी देर तक चलेगी? सरकार को इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि कश्मीर के अंदर सभी संचारों को बंद करने और आंदोलनों पर रोक लगाने के बावजूद, लोग कश्मीर में शांत प्रतिरोध का सहारा लेकर चुनौतियों का जवाब दे रहे हैं। इस उल्लेखनीय सर्वसम्मति से अधिकारियों को चिंतित होना चाहिए क्योंकि यह संकेत देता है कि बिना संगठन और नेता के जब उन्हें नेतृत्वहीन छोड़ दिया गया है, तो वे तब भी लड़ने के मूड में है। वास्तव में, संचार पर प्रतिबंध इस तथ्य का प्रमाण है कि शांत प्रतिरोध के माध्यम से प्रतिबंधों की अवहेलना करने की लोकप्रिय प्रतिक्रिया लोगों की अपनी इच्छा से संचालित होती है, न कि बाहर से कोरियोग्राफ़ की जाती है।

ऐसा लगता है कि हर बीता हुआ दिन उस दिन को क़रीब ला रहा है जब संचार को बहाल करना होगा क्योंकि प्रतिबंध जारी रखने से विश्व मंचों पर भारत सरकार की दलीलों को मुहँ की खानी पड़ेगी।

लेखक के विचार व्यक्तिगत हैं।

Hiding reality of Kashmir
Jammu and Kashmir
Abrogation of Article 370
Restrictions in Kashmir
Kashmir Civil resistance
National Security and Kashmiris
Communication lockdown in Kashmiri
Kashmir Lockdown
Article 370 responses
India’s claims on Kashmir

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