NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
समाज
भारत
राजनीति
क्या न्याय तंत्र को दरकिनार करके विकास की परिभाषा गढ़ी जा सकती है?
सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों में पर्याप्त बुनियादी ढांचे और जजों की कमी को चिंता का सबब बताया है।
अमित सिंह
27 Jul 2019
Justice
प्रतीकात्मक तस्वीर

इसी हफ्ते मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक सुनवाई के दौरान निचली अदालतों में पर्याप्त बुनियादी ढांचे और जजों की कमी को चिंता का सबब बताया है।
अमर उजाला में प्रकाशित खबर के मुताबिक शीर्ष अदालत ने बच्चियों के साथ बलात्कार से संबंधित सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की है। 
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रीय राजधानी के दूर के क्षेत्रों में न्याय अधिकारियों को विपरीत हालात में काम करना पड़ रहा है।

न्यायाधीश दीपक गुप्ता और न्यायाधीश अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा, ‘दिल्ली के साकेत कोर्ट की तुलना अन्य अदालतों से नहीं की जा सकती। हम उन राज्यों की बात कर रहे हैं, जहां बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है। मजिस्ट्रेट चार गुणा चार साइज वाले चेंबर में बैठते हैं। हमने देखा है और अदालतों की यही सच्चाई है।’ 
पीठ ने आगे कहा कि मध्य प्रदेश में अब भी प्राइवेसी का मतलब पीड़िता और आरोपित के बीच केवल एक पर्दे को माना जाता है। सुप्रीम कोर्ट का आगे कहना था कि ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो न्यायपालिका को प्रभावित कर रहे हैं।
पीठ ने यह भी कहा,'देश में न्यायिक अधिकारियों के करीब 5000 पद खाली है और विधायिका एक के बाद एक नया कानून लेकर आ रही है। एक ही जज पर मामलों की पंपिंग हो रही है। हम चाहते हैं कि निर्णय छह महीने से एक साल के भीतर हो जाए। आवश्यक बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराना होगा। राज्य ये सभी काम नहीं कर सकते हैं। हम सुनिश्चित करना चाहेंगे कि केंद्र इन सुविधाओं का बोझ उठाए।'
हालांकि ये पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह की बात की है। भारत के अदालतों में जजों की कमी और तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित होने की बात अब रस्मी तौर पर बार बार दोहराई जा रही है और इससे किसी भी सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है।
सरकार ने इसी 03 जुलाई को संसद में बताया कि देश में विभिन्न जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायिक अधिकारियों के 3583पद रिक्त पड़े हैं। एक सवाल के जवाब में विधि और न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने जानकारी दी कि 24 जून 2019 तक सुप्रीम कोर्ट में 59,331 मामले लंबित हैं। वहीं देश भर के हाईकोर्ट में 27 जून 2019 तक 43.58 लाख मामले लंबित हैं। इसके अलावा जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में 27 जून 2019 तक तो जिला न्यायालयों में 3.10 करोड़ मामले लंबित हैं। 
वैसे भारत में आजादी के बाद से ही अदालतों और जजों की संख्या आबादी के बढ़ते अनुपात के मुताबिक कभी भी कदमताल नहीं कर पाई। इस वजह से न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत के मुताबिक न्यायपालिका में भी मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन कायम नहीं हो सका।
विधि आयोग ने 1987 में कहा था कि दस लाख लोगों पर कम से कम पचास न्यायाधीश होने चाहिए लेकिन आज भी दस लाख लोगों पर न्यायाधीशों की संख्या पंद्रह से बीस के आस-पास है।

अमेरिका में दस लाख की आबादी पर जजों की संख्या डेढ़ सौ है अब भारत में अगर यह 15-20 के आसपास है तो आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि न्यायिक तंत्र के मामले में भारत तुलनात्मक रूप से कहां खड़ा है।
केंद्र और राज्य दोनों सरकारें न्यायपालिका के संबंध में खर्च बढ़ाने में रुचि नहीं रखते हैं। वहीं पूरे न्यायपालिका के लिए बजटीय आवंटन पूरे बजट का एक महज 0.1 फीसदी से 0.4 फीसदी है। जो बेहद निराशाजनक है। देश में अधिक अदालतों और अधिक बेंच की जरूरत है। 
इसी महीने दिल्ली हाईकोर्ट ने राजधानी की बढ़ती आबादी और बढ़ते अपराध को ध्यान में रखते हुए दिल्ली पुलिस में जवानों की स्वीकृत संख्या को बढ़ाने और अतिरिक्त पुलिसकर्मियों की नियुक्ति किए जाने का आदेश देने की मांग करने वाली याचिका की सुनवाई के दौरान एक गंभीर टिप्पणी की। दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि जब हम न्यायपालिका में स्वीकृत पदों को नहीं भर पा रहे हैं तब हम दिल्ली पुलिस को आखिर किस तरह से आदेश दे सकते हैं कि वह शहर में अपने स्वीकृत पदों की संख्या में बढ़ोतरी करे?
निसंदेह हाईकोर्ट की यह टिप्पणी भारतीय न्याय व्यवस्था की हकीकत बयां कर रही है। वास्तविकता यह है कि जजों की कमी के अलावा स्वीकृत पदों के हिसाब से आवासीय सुविधाएं और न्यायालय कक्षों की भी भारी कमी है। ये सारी स्थितियां ऐसी हैं, जो मुकदमों के सालों खिंचते रहने का कारण बनता है। जबकि मुकदमों के लंबित रहने से जेलों पर भी दबाव पड़ता है।
आपको याद होगा कि अप्रैल 2016 में मुख्यमंत्रियों एवं उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के एक संयुक्त सम्मेलन के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए तत्कालीन चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर भावुक हो गए थे। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका की क्षमता और देश के विकास के बीच गहरा नाता है। 
मुकदमों की भारी ‘बाढ़’ से निपटने के लिए जजों की संख्या को मौजूदा 21 हजार से 40 हजार किए जाने की दिशा में सरकार की ‘निष्क्रियता’ पर अफसोस जताते हुए ठाकुर ने कहा था, ‘आप सारा बोझ न्यायपालिका पर नहीं डाल सकते।’ 
न्यायमूर्ति ठाकुर ने नम आंखों से कहा कि 1987 में विधि आयोग ने जजों की संख्या प्रति 10 लाख लोगों पर 10 से बढ़ाकर 50करने की सिफारिश की थी, लेकिन उस वक्त से लेकर अब तक इस पर ‘कुछ नहीं हुआ।’
न्यायमूर्ति ठाकुर ने आगे कहा, ‘...और इसलिए, यह मुकदमा लड़ रहे लोगों या जेलों में बंद लोगों के नाम पर नहीं है, बल्कि देश के विकास के लिए भी है। इसकी तरक्की के लिए मैं आपसे हाथ जोड़कर विनती करता हूं कि इस स्थिति को समझें और महसूस करें कि केवल आलोचना करना काफी नहीं है। आप सारा बोझ न्यायपालिका पर नहीं डाल सकते।'
विकास की नई परिभाषाएं गढ़ने में लगी यह सरकार इस दुखद प्रसंग के बाद भी कुछ खास बदलाव नहीं ला पाई है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि वो कौन सा विकास है जो न्यायतंत्र को ठीक किए बिना गढ़ा जा रहा है। 
दरअसल न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को बनाए रखने के लिए इसमें सुधार की तुरंत जरूरत है क्योंकि न्यायशास्त्री हो या समाजशास्त्री सबका यही कहना है कि त्वरित और सस्ते न्याय के बगैर किसी सभ्य समाज या राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती है।

Supreme Court
supreme court judges
Sexual Abuse of Children
Justice Deepak Gupta
justice aniruddha bose

Related Stories

समलैंगिक साथ रहने के लिए 'आज़ाद’, केरल हाई कोर्ट का फैसला एक मिसाल

विचार: सांप्रदायिकता से संघर्ष को स्थगित रखना घातक

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक आदेश : सेक्स वर्कर्स भी सम्मान की हकदार, सेक्स वर्क भी एक पेशा

मैरिटल रेप : दिल्ली हाई कोर्ट के बंटे हुए फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती, क्या अब ख़त्म होगा न्याय का इंतज़ार!

ज्ञानवापी मस्जिद विवाद : सुप्रीम कोर्ट ने कथित शिवलिंग के क्षेत्र को सुरक्षित रखने को कहा, नई याचिकाओं से गहराया विवाद

नफ़रत फैलाने वाले भाषण देने का मामला: सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया नोटिस

वैवाहिक बलात्कार में छूट संविधान का बेशर्म उल्लंघन

"रेप एज़ सिडक्शन" : बहलाने-फुसलाने से आगे की बात

मराठा आरक्षण: उच्चतम न्यायालय ने अति महत्वपूर्ण मुद्दे पर सभी राज्यों को नोटिस जारी किए

समलैंगिक विवाह को हमारा कानून, समाज और मूल्य मान्यता नहीं देते: केंद्र ने अदालत से कहा


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License