NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
क्या युवाओं का राजनीति में योगदान ट्रोलिंग तक सीमित होगा?
युवा टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के मामले में कुशल हैं। इसे औज़ार बनाकर समाज में असरकारी बदलाव लाये जा सकते हैं।
अनीश कुमार भानु
21 Dec 2017
youth in politics

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी आबादी युवाओं की राजनीति में क्या भूमिका होगी? क्या भारत अपने “डेमोग्राफिक डिविडेंड” का फ़ायदा उठाने में समर्थ होगा? क्या युवा देश प्रौढ़ एवं जर्जर हो चुकी राजनीतिक व्यवस्था द्वारा संचालित होने को अभिशप्त होगा? क्या युवा उर्जा का इस्तेमाल ट्रोलिंग में किया जायेगा? ऐस ही कुछ सवाल हैं जो आज के लाखों युवाओं के सामने मुँह बायें खड़ा है?

आखिर युवा राजनीति को अपना कैरियर क्यों नहीं बनाना चाहते हैं। इसके कारणों की पड़ताल करना आवश्यक है। लोकतंत्र होने के बावजूद राजनीति में युवाओं के प्रवेश की सबसे बड़ी समस्या एंट्री पॉइंट की है। वंशवाद युवाओं को राजनीति में प्रवेश की राह में रोड़ा अटकाये है। हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष बने राहुल गांधी की क्या योग्यता है। यही कि वे सही समय पर सही परिवार में पैदा हुए थे? वंशवाद लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे को कमज़ोर करता है। बेशक कांग्रेस इस देश में वंशवाद और परिवारवाद का जनक रही है, और अब भाजपा में भी यह दूसरे पायदान तक पहुंच गया हो। पर सच तो यह है कि आज देश की तमाम पार्टियां किसी-न-किसी परिवार या व्यक्ति की जेब में है। ऐसी कोई भी पार्टी नहीं है जिसको यह बीमारी लगी न हो। परिवारवाद और वंशवाद ने देश के युवाओं को एक तरह से जकड़े रखा है। यह एक ऐसा घुन है जो देश को भीतर ही भीतर खोखला किये जा रहा है।

आज़ाद हिंदुस्तान की राजनीति के सत्तर साल के सफ़र में नेताओं की जो दो खेप तैयार हुई है उसमें पहली पीढ़ी स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े नेताओं की थी। जबकि दूसरी खेप जेपी-लोहिया के समाजवादी विचारों से प्रेरित होकर तैयार हुई। स्वतंत्रता आन्दोलन से पैदा हुए नेताओं की राजनीति सिद्धांतों पर आधारित हुआ करती थी, लोकजीवन में मर्यादा बरक़रार था। अस्सी के दशक में हुए समाजवादी आन्दोलन ने छात्र नेताओं को राष्ट्रीय राजनीति में आने का मौका दिया। पर विडंबना ही है की इस आन्दोलन से पैदा नेता हुए नेताओं ने भी छात्र राजनीति का गला घोंटने से नही चुके।

दूसरी बड़ी समस्या व्यक्तिवाद की है। राजनीति में प्रवेश के लिए यह भी प्रतिरोध खड़ा करता है। पिछले कुछ वर्षों में पार्टियों के चरित्र में व्यक्ति की भूमिका बढ़ी है। संसदीय प्रणाली को आधार बनाकर चलने वाले लोकतंत्र में व्यक्तिवाद जहाँ एक तरफ संघीय भावना के ख़िलाफ़ है, वहीँ दूसरी ओर राजनीति में अंधश्रद्धा को भी बढ़ावा देता है। पर्सनालिटी कल्ट की वजह से कुछ युवा स्वतः राजनीति से दूरी बना लेते हैं। यह व्यक्तिवाद संगठनों के लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रियाओं को सीधे-सीधे प्रभावित करता है। इस प्रकार वंशवाद, परिवारवाद, और व्यक्तिवाद लोकतंत्र की बुनियाद पर ख़तरा है जो प्रतिभावान, सक्षम, और योग्य युवाओं को राजनीति में आने के अवसर से वंचित करता है। जबकि धन-बल और रसूखदार आदमी चाहे कितना भी भ्रष्ट और अनैतिक हो, ऐसे पार्टियों में आसानी से जगह पा लेता है। फिर इन्हें संगठन में ऊंचे पद मिल जाते हैं, और अगर उस खास परिवार/व्यक्ति के वफादार रहे तो सरकार में मंत्री भी बन जाते हैं। आज सभी छोटी-बड़ी पार्टियों की निर्णय प्रक्रियाओं में आंतरिक लोकतंत्र का नितांत अभाव है। पार्टियों के सांगठनिक चुनाव पाखंड और खानापूर्ति भर है। स्थापित दलों में ऐसा कम ही है,जहाँ 35 वर्ष से कम उम्र के युवा को पार्टी में शीर्ष नेतृत्व मिला हो। यही कारण है कि दूसरे क्षेत्रों में अच्छा कर रहे युवा राजनीति को गले लगाना नहीं चाहता। यह युवा के लिए राजनीति का चुनाव करने की आदर्श स्थिति नहीं है।

आज देश मे ऐसी कोई भी पार्टी नहीं है जिसमे युवाओं के लिए उचित स्थान हो। राजनीति से कटे युवाओं का  राज्य से भी मोहभंग हो गया है। कुछ युवा यक़ीनन राजनीति में दख़ल देना चाहते हैं, परन्तु इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराध, महंगा होते चुनाव, पारदर्शिता का अभाव, अनुशासन की कमी, नैतिकता का गिरता स्तर और आंतरिक लोकतंत्र का न होना इसे काजल की कोठरी बनाता है। अभाव, असुरक्षा और अपमान युवा और राजनीति के बीच खाई बनाती है।

इस साल सीएसडीएस-लोकनीति द्वारा किये गए एक सर्वे में रोचक तथ्य सामने आये हैं। इस सर्वे के मुताबिक़ 46% युवा राजनीति में किसी भी प्रकार की रुचि नहीं रखते। जबकि देश के 75 प्रतिशत यानी तीन-चौथाई युवा किसी भी चुनावी गतिविधियों में शामिल नहीं होते हैं। सर्वे की मानें तो 2013 के बाद से विरोध प्रदर्शनों में छात्रों की भागीदारी में कमी आयी है। 2013 में 24 प्रतिशत छात्र विरोध में शामिल होते थे, जो 2016 में घटकर 13% हो गया। डिग्री कॉलेजों में पढ़ रहे केवल 26% प्रतिशत छात्र-छात्राएं वहाँ के किसी भी छात्र संगठनों की गतिविधियों से जुड़े हैं, जबकि 46% इनका समर्थन करते हैं। आधे से अधिक छात्र कैंपस के  राजनैतिक परिदृश्य से पूरी तरह गायब हैं।

युवाओं की भागीदारी के बिना यथास्थिति में बदलाव की आशा बेमानी होगी। पिछले छः दशकों में जो भी देशव्यापी सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन हुए हैं, चाहे वह 1967 का भाषा आंदोलन हो, सम्पूर्ण क्रांति हो, असम का छात्र आंदोलन हो, या एन्टी करप्शन मूवमेंट हो, उसमें युवाओं की भागीदारी रही है। युवाओं को ट्रोल और भीड़ बनने के बजाये राजनीति का विकल्प बनना होगा। सृजन और निर्माण से जुड़ना होगा। राजनीति को  युगधर्म मानते हुए जीवन पद्धति का हिस्सा बनाना होगा और उस मार्ग पर चलना होगा। इन्हें अपने कन्धों पर राष्ट्र-राज्य के संचालन की जिम्मेदारी लेनी होगी। युवाओं को राजनीति की मुख्यधारा में लाना और निर्णय प्रक्रिया में भागीदार बनाना आज की ज़रूरत है। अन्यथा आबादी का एक बड़ा तपका चुनाव मशीन बन रह गए पार्टियों के कल-पुर्जे बनकर रह जाएंगे, ट्रोलिंग का काम करेंगे और उन्माद पैदा करेंगें। उनकी ऊर्जा, जिंदाबाद-मुर्दाबाद करने में जाती रहेगी।

मुख्यधारा की राजनीति का असर छात्र राजनीति पर भी हुआ है। वे सारे दुर्गुण जो राष्ट्रीय राजनीति में हैं, छात्र राजनीति में समा चुके हैं। वर्तमान में कुछ ही छात्र संगठनों का स्वतंत्र अस्तित्व है, शेष सारे किसी न किसी पार्टियों द्वारा पोषित है। यही कारण है कि 1980 के बाद से इस देश में कोई भी छात्र आंदोलन खड़ा नहीं सका है। यूएनडीपी की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत जैसे देश में युवाओं की सक्रिय राजनीति में भागीदारी के अवसर बेहद सीमित हैं।

युवा टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के मामले में कुशल हैं। इसे औज़ार बनाकर समाज में असरकारी बदलाव लाये जा सकते हैं। युवा दो समुदाय के बीच की दीवार को ख़त्म कर सकता है। इसकी भूमिका शांति बहाल करने में हो सकती है। चाहे तो युवाशक्ति संगठित होकर अहिंसक आंदोलन का रुख अख़्तियार कर सकती है। शिक्षित, समर्थ युवा राष्ट्र के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक प्रगति के वाहक हो सकते हैं। जो राष्ट्र की नींव को मज़बूत करने के साथ साथ राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भी बनेंगें।

ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने यूथक्वेक (Youthquake) को साल 2017 का “वर्ड ऑफ़ द ईयर” घोषित किया है। इस शब्द का मतलब युवाओं की सक्रिय भागीदारी से व्यापक सामाजिक-राजनीतिक बदलाव है। 2020 तक जब भारत की 65% आबादी 35 साल से कम की होगी और हम दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र बन जाएंगे। क्या हम सदियों बाद बने संयोग को यूं ही बिखरने देंगें या हिंदुस्तान “यूथक्वेक” (Youthquake) का असर देख पायेगा?

सन्दर्भ:

1.    Youth, political participation and decision making (UNDP Report, 2012)

2.  http://www.lokniti.org/release-of-Lokniti-report-on-indian-youth.php (Attitudes, Anxieties and Aspirations of India’s Youth: Changing Patterns)

3.    किशन पटनायक, विकल्पहीन नहीं है दुनिया; 2001; राजकमल प्रकाशन.

youth in politics
India
student politics
youth issues

Related Stories

भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल

भारत में तंबाकू से जुड़ी बीमारियों से हर साल 1.3 मिलियन लोगों की मौत

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आईपीईएफ़ पर दूसरे देशों को साथ लाना कठिन कार्य होगा

UN में भारत: देश में 30 करोड़ लोग आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर, सरकार उनके अधिकारों की रक्षा को प्रतिबद्ध

वर्ष 2030 तक हार्ट अटैक से सबसे ज़्यादा मौत भारत में होगी

लू का कहर: विशेषज्ञों ने कहा झुलसाती गर्मी से निबटने की योजनाओं पर अमल करे सरकार

वित्त मंत्री जी आप बिल्कुल गलत हैं! महंगाई की मार ग़रीबों पर पड़ती है, अमीरों पर नहीं

रूस की नए बाज़ारों की तलाश, भारत और चीन को दे सकती  है सबसे अधिक लाभ

प्रेस फ्रीडम सूचकांक में भारत 150वे स्थान पर क्यों पहुंचा

‘जलवायु परिवर्तन’ के चलते दुनियाभर में बढ़ रही प्रचंड गर्मी, भारत में भी बढ़ेगा तापमान


बाकी खबरें

  • मनोलो डी लॉस सैंटॉस
    क्यूबाई गुटनिरपेक्षता: शांति और समाजवाद की विदेश नीति
    03 Jun 2022
    क्यूबा में ‘गुट-निरपेक्षता’ का अर्थ कभी भी तटस्थता का नहीं रहा है और हमेशा से इसका आशय मानवता को विभाजित करने की कुचेष्टाओं के विरोध में खड़े होने को माना गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र क़ानूनी मान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट
    03 Jun 2022
    जस्टिस अजय रस्तोगी और बीवी नागरत्ना की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि आर्यसमाज का काम और अधिकार क्षेत्र विवाह प्रमाणपत्र जारी करना नहीं है।
  • सोनिया यादव
    भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल
    03 Jun 2022
    दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता पर जारी अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट भारत के संदर्भ में चिंताजनक है। इसमें देश में हाल के दिनों में त्रिपुरा, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर में मुस्लिमों के साथ हुई…
  • बी. सिवरामन
    भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति
    03 Jun 2022
    गेहूं और चीनी के निर्यात पर रोक ने अटकलों को जन्म दिया है कि चावल के निर्यात पर भी अंकुश लगाया जा सकता है।
  • अनीस ज़रगर
    कश्मीर: एक और लक्षित हत्या से बढ़ा पलायन, बदतर हुई स्थिति
    03 Jun 2022
    मई के बाद से कश्मीरी पंडितों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए  प्रधानमंत्री विशेष पैकेज के तहत घाटी में काम करने वाले कम से कम 165 कर्मचारी अपने परिवारों के साथ जा चुके हैं।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License