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कुलगाम रेप-मर्डर: कश्मीरी महिलाओं के लिए अनवरत संकट
इस बीच बीजेपी और उसके द्वारा चुने गए नौकरशाहों की ओर से अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद राज-काज में बदलाव का पुराना राग अलापा जा रहा है।
बशारत शमीम
07 Dec 2020
stop rape
प्रतीकात्मक तस्वीर I

अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में कश्मीर घाटी के कुलगाम जिले में एक किशोरी बालिका के साथ हुए दिल दहला देने वाले बलात्कार एवं हत्याकांड ने कश्मीरी समाज में महिलाओं के खिलाफ बढ़ते हिंसक अपराधों की याद को एक बार फिर से ताजा कर दिया है। इस घटना की दुर्भाग्यपूर्ण पीड़िता को दो स्थानीय युवाओं द्वारा अपहरण कर सामूहिक बलात्कार किया गया था और इसके पश्चात अस्पताल में जीवन-मृत्यु से संघर्ष के बाद पिछले शुक्रवार को उसकी मौत हो गई थी।

यह घटना अपनेआप में कोई अकेली घटना मात्र नहीं है। दुःखद तथ्य यह है कि पिछले कई वर्षों से कश्मीर में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की घटनाओं में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। सामूहिक तौर पर हम अभी भी अपनी कई निर्भयाओं के साथ हुई त्रासदियों से उबर पाने और उन्हें न्याय दिला पाने में पूरी तरह से नाकाम साबित हो रहे हैं। फिर इन विशेष कृत्यों में से प्रत्येक हमारी कल्पनाओं के चारदीवारी से परे चले जाते हैं। इसके बावजूद ऐसी हर घटना सभी महिलाओं की मौत के समान है, और वास्तव में देखें तो समग्र तौर पर हमारे समूचे समाज की मौत के समान है। अगर इस प्रकार के क्रूर कृत्य हमारी अंतरात्मा को नहीं झिंझोड़ पाते तो कुछ भी संभव नहीं है। इसे विडंबना ही कह सकते हैं कि ये अपराध शिक्षा एवं साक्षरता के लगातार बढ़ते स्तर के बावजूद बढ़ रहे हैं। इसलिए कश्मीरी समाज कितनी बुरी तरह से महिलाओं के मामले में असफल सिद्ध हुआ है वे इस बात का दुर्भाग्यपूर्ण जीता-जागता दस्तावेज़ है। इतना ही दुर्भाग्यपूर्ण और चौंकाने वाला मीडिया का स्वरूप भी है जो इस भयानक ख़बर को नजरअंदाज करने के साथ-साथ पीड़िता के पैतृक स्थान पर चल रहे विरोध प्रदर्शनों की भी अनदेखी कर रहा है।

भारतीय जनता पार्टी की सरकार अन्य सभी मोर्चों की तरह ही महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा को रोकने के लिए जरुरी कदम उठा पाने में पूरी तरफ से विफल रही है, जिनकी पुनरावृत्ति घाटी में चिंताजनक तौर पर निरंतर बढ़ रही हैं और वास्तव में देखें तो शेष भारत में भी।

महिलाओं को सुरक्षा मुहैया करा पाने की तो बात ही छोड़ दें, कुछ मौकों पर तो यह सरकार राजनेताओं, पत्रकारों और नौकरशाहों को छेड़छाड़ एवं यौन-शोषण के रैकेट जैसे अपराधों में संलिप्त पाए जाने और उसके सार्वजनिक हो जाने जैसी घटनाओं के बावजूद उन्हें बचाने और इस संकट से बच निकलने का रास्ता प्रदान करने का काम करते देखी जा सकती है।

हालाँकि कुलगाम घटना के आरोपियों को हिरासत में ले लिया गया है लेकिन देखने में आया है कि पुलिस और स्थानीय प्रशासन ने हरकत में आने में बेहद सुस्ती बरती। प्रशासन की ओर से न तो किसी अधिकारी ने पीड़िता के अस्पताल में इलाज के दौरान मुलाकात करने की जहमत उठाई और न ही उसे किसी प्रकार की मदद और सहायता पहुँचाने का काम ही किया, जिससे शायद उसकी जान बचाई जा सकती थी। क़ानूनी तौर पर परिस्थितियों के हिसाब से ऐसा करने के लिए वे बाध्य थे। लेकिन वास्तविकता इसके ठीक विपरीत देखने को मिली है। पीड़िता के बेहद साधारण कश्मीरी किसान परिवार के अनुसार पीड़िता के भाई को इसलिये पीटा गया और कुछ समय के लिए हिरासत में बंद कर दिया गया था, क्योंकि उसने अस्पताल प्रशासन द्वारा पीड़िता पर उचित ध्यान और स्वास्थ्य सेवा न मुहैया कराये जाने को लेकर विरोध किया था।

इस बीच बीजेपी और इसके द्वारा नियुक्त किये गए नौकरशाहों की ओर से धारा 370 के खात्मे के बाद भी “राज-काज” को लेकर वही पुराना राग जारी है। लेकिन इस मामले से लोगों को एक बार फिर से इस बात को याद करना होगा कि घाटी में कानून व्यवस्था की स्थिति किस कदर दयनीय बनी हुई है और प्रशासन, आम तौर पर साधारण नागरिकों और खास तौर पर महिलाओं को सुरक्षा मुहैया करा पाने में पूरी तरह से नाकाम है। ऐसे संवेदनशील मुद्दे के आलोक में इस प्रकार की उदासीनता बीजेपी मॉडल के शासन में परिलक्षित होती है, जिसे हाथरस में हुए बलात्कार और हत्या के दौरान उत्तरप्रदेश में देखा गया था। कुछ भी कहें, इनके “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!” अभियान को लेकर किये गए दावों की हवा निकल चुकी है।

कश्मीर में भी देश के बाकी हिस्सों की तरह ही एक और जटिलता यह है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा के कई मामलों की रिपोर्ट ही दर्ज नहीं कराई जाती है। जिसके चलते इस प्रकार के भयानक कृत्य बदस्तूर जारी रहते हैं। लेकिन कश्मीर के इर्दगिर्द चल रहे अन्य “मुद्दों” के शोरगुल में हम अब इस अहम् मुद्दे की और अधिक अवहेलना बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। हमारे समाज के समक्ष आज महिलाओं की सुरक्षा व्यवस्था और उनके खिलाफ अपराध एक महत्वपूर्ण चुनौती बने हुए हैं, और हमें इसके लिए उठ खड़ा होने की जरूरत है ताकि महिलाओं के रहने लायक समाज को निर्मित किया जा सके। इस तथ्य को नकारने या पारंपरिक पितृसत्तात्मक मंचों का सहारा लेने जैसे हथकंडों को अपनाकर पहले से ही खराब स्थिति को और अधिक बढ़ाने में ही मदद मिलने वाली है। हमें सभी स्तरों पर क्रन्तिकारी आत्मचिंतन की आवश्यकता है। इसकी शुरुआत हमें आपराधिक न्याय प्रणाली में मौजूद गंभीर खामियों को कार्यकारी द्वारा ठीक किये जाने के साथ की जानी चाहिए, जिसकी खामियों के चलते अपराधियों के बच निकलने की गुंजाइश बनी रहती है। अभी तक इस प्रकार के तकरीबन सभी मामलों में देखा गया है कि जम्मू कश्मीर में अपराधियों को कभी भी दण्डित नहीं किया जा सका है। हम अभी भी उन सभी मामलों में न्याय के इन्तजार में हैं।

जहाँ एक तरफ महिलाओं के मौलिक मानवाधिकारों की रक्षा के लिए विधायी ढिलाई एवं न्यायिक व्यवस्था में मौजूद सुस्ती को दूर किये जाने को हर हाल में सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है, वहीं इस मौके पर हमें अपने अंदर भी झाँकने की जरूरत है, अपने अव्यक्त पितृसत्तात्मक नजरिये पर जिसके चलते महिलाओं के खिलाफ दुर्व्यवहार और हिंसा की घटनाएं संभव हो पाती हैं। हम खुद के ईमानदार मूल्यांकन के जरिये ही अपने प्रति वास्तविक तौर पर उपकार कर सकते हैं। यह हमें इस निष्कर्ष निकालने के लिए प्रेरित करेगा कि हमारे सामाजिक दायरे में महिलाओं को सभी स्तरों पर ओब्जेक्टिफाई करने का ही काम किया गया है। हमारा समाज महिलाओं को वो चाहे सचेतन स्तर पर हो अथवा अचेतन स्तर पर, एक तुच्छ प्राणी के तौर पर मानता है जिस पर अपनी मर्दाना ताकत को मनचाहे तौर पर थोपा और इस्तेमाल में लाया जा सकता है। उसे एक परिवार के सदस्य के तौर पर या एक वृहत्तर समाज में एक ढक्कन की तरह देखा जाता है। किसी भी स्त्री को विनम्रता और नैतिकता के बोझ को ढोते रहना होता है जबकि अधिकतर मामलों में पुरुषों को खुली आजादी मिली हुई है। यही वह सोच है जो हमारी संवेदनशीलता को प्रभावित करती है।

कश्मीर में जारी दीर्घ संघर्ष और हिंसा ने महिलाओं की पीड़ा को और अधिक बढ़ा दिया है, जिसके कारण उनकी स्थिति वे पहले से अधिक दयनीय हो चली है। इस बारे में जानकारों का मत रहा है कि किस प्रकार से संघर्ष क्षेत्र सभी प्रकार के लैंगिक हिंसा को बढ़ावा देने में मददगार साबित होते रहे हैं। कश्मीर जैसे समाज में जहाँ अभी भी कठोर पितृसत्तात्मक रीति-रिवाज चलन में हैं, हिंसा की मौजूदगी के कारण महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामले में इन मूल्यों की और किलेबंदी करने और को और स्थिति को ख़राब कर सकती हैं। हाल के अनुभव हमें बताते हैं कि कश्मीरी महिलाएं इन पितृसत्तात्मकता एवं क्रूर संघर्ष इन दोनों की ही शिकार हैं और जितना संभव हो सकता है उनका अस्तित्व उतना ही कठिन बना हुआ है। जानकार इसे “क्रूर दोहरे भटकाव” की संज्ञा दी है, जिसमें संघर्ष और पितृसत्तात्मकता महिलाओं के खिलाफ दमन को तेज करने में एक दूसरे की पूरक साबित होती हैं।

किसी भी अन्य पितृसत्तात्मक मोर्चेबंदी की तरह ही कश्मीरी समाज भी महिलाओं के ऊपर आदर्शवादी नारीत्व के प्रारूपों को थोपने का काम करता है, जिसे महिलाओं को भले ही उनकी कैसी भी स्थिति या परिस्थितियां क्यों न हों उन पर खरा उतरना होता है। जैसा कि अनुभव से पता चलता है कि महिलाओं के उपर दमन को जारी रखने के लिए इन आदर्शों को औजार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है। यह बात शीशे की तरह स्पष्ट है कि पुरुष समाज द्वारा सम्मान के खोखले नियमों को निर्धारित किया गया है ताकि महिलाओं को सांस्कृतिक मानदंडों तक सीमित कर दिया जाए। यह सम्मान के नाम पर और “आदर्श नारीत्व” के चलते ही है कि महिलाओं पर यौन हमले और दमन के क्रम को बदस्तूर जारी रखा गया है और यही सभी समाजों की कड़वी सच्चाई है। यह बात तब उजागर होती है जब लोग सार्वजनिक मंचों से कुलगाम, हाथरस या इस प्रकार की अन्य घटनाओं पर न्याय की मांग करने के बजाय पीड़ित को ही दोषी ठहराने के हथकंडों को अपनाते हैं।

2014 में कश्मीर के अखबारों में सार्वजनिक तौर पर महिलाओं को इस क्षेत्र में आई भारी बाढ़ से ढाए गए कहर के लिए दोषी ठहराए जाने की खबरों की रिपोर्टिंग की गई थी। उन रिपोर्टों में कई किशोरियों ने सार्वजनिक तौर पर ताने कसे जाने की व्यथा का वर्णन किया था। निश्चित तौर पर इससे अधिक बेतुकी और अविवेकपूर्ण बात कुछ और नहीं हो सकती। यह बेतुका दृष्टान्त महिलाओं के मनोवैज्ञानिक शोषण का सबसे सशक्त उदहारण है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि इस प्रकार की सोच सार्वजनिक एवं निजी हलकों में हिंसा के कृत्य को वैधता प्रदान करने का काम करते हैं। कभी-कभार यदि किसी महिला ने सार्वजनिक तौर पर अपने पुरुष उत्पीड़क के नाम को भी उजागर करने की हिम्मत दिखा दी तो भी इसे उस समाज ने झुठला दिया ही पीड़िता को ही दोषी ठहराने लगता है। इन दकियानूसी परंपराओं को विकृत और अक्सर धार्मिक उक्तियों की गलत व्याख्या को दूर किये जाने की आवश्यकता है। किसी भी प्रकार के सांस्कृतिक आख्यान जो महिलाओं के दमन को जायज ठहराते हैं पर क्रन्तिकारी सवाल खड़े करने की जरूरत है। समाज के सभी लोगों की इसके प्रति नैतिक जिम्मेदारी बनती है। इससे पीछा छुड़ाने या नकारने से कुछ भी फायदा नहीं होने वाला है।

(लेखक कश्मीर स्थित ब्लॉगर एवं स्तंभकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Kulgam Rape-Murder: Unabated Crisis for Kashmiri Women

Women in Kashmir
Hathras
crimes against women
Article 370
Nirbhaya

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