नई दिल्लीः मीरा बाई विरोध में हाथ उठाते हुए कहती हैं, 'जान दे देंगे लेकिन ज़मीन नहीं देंगे'। उस जगह मीरा बाई समेत कई महिलाएं थीं। वह मध्य प्रदेश के एक छोटे से ज़िले मंडला में इस आंदोलन का नेतृत्व कर रही हैं। इनका ये विरोध चुटका परमाणु संयंत्र के निर्माण के ख़िलाफ़ है जो अपने 10वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है। उनका संघर्ष 'विकास' के ख़िलाफ़ नहीं है, बल्कि विकास के हिंसक स्वरूप के ख़िलाफ़ है।
यहां एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में वूमन राइट्स नेटवर्क (डब्लूआरएन) के प्रमुख शोधकर्ता आभा भैय्या ने राज्य में इस विकास-प्रेरित विस्थापन के प्रतिकूल प्रभाव पर टिप्पणी की। महिलाओं के संघर्षों पर अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए, उन्होंने कहा, "देश अपने ही लोगों को विरोधी बन रहा है। सरकार की कोई जवाबदेही नहीं है जो लाभ हासिल करने वाले लुटेरों का समर्थन कर रही है।"
इस परमाणु संयंत्र का निर्माण का मतलब इसी पीढ़ी के लोगों का तीसरी बार विस्थापन होगा। परमाणु ऊर्जा निगम लिमिटेड (एनपीसीआईएल) द्वारा 2009 में प्रस्तावित इस नवीनतम परियोजना का मकसद 1,400 मेगावाट बिजली उत्पन्न करने के लिए मध्यप्रदेश के मांडला में परमाणु उर्जा केंद्र स्थापित करना है। इसका उद्देश्य मध्यप्रदेश पावर जनरेटिंग कंपनी लिमिटेड (एमपीपीजीसीएल) के साथ मिलकर इसके नोडल एजेंसी के रूप में परियोजना की प्रक्रिया को पूरा करना है। एनपीसीआईएल द्वारा निकट भविष्य में 700 मेगावाट क्षमता के दो परमाणु संयंत्रों की योजना बनाई जा रही है, जिसके बाद कुल क्षमता के दो अन्य संयंत्रों अर्थात 2800 मेगावाट की स्थापना करने की संभावना है।
डब्लूआरएन की रिपोर्ट में बताया गया है कि इस संयंत्र में जलाशय से हर साल सात करोड़ 25 लाख 76 हजार घन मीटर पानी का इस्तेमाल करने की संभावना है जिससे नर्मदा नदी में पानी के कुल प्रवाह में कमी हो जाएगी। मौक़े पर मौजूद कार्यकर्ताओं का आरोप है कि बड़ी कॉर्पोरेट फर्मों को संसाधनयुक्त नर्मदा बेल्ट के व्यावसायीकरण और उसे बेचने के लिए सरकार द्वारा क्रमागत प्रयासों में ज़मीन को बेचने के लिए आदिवासियों पर दबाव डाला जा रहा है।
अपने पिछले प्रयासों में मध्य प्रदेश की सरकार ने 30 बड़े, 135 मध्यम और 3,000 छोटे बांधों के निर्माण करने का फैसला किया था। इन परियोजनाओं ने बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित कर दिया है जो उनके जीवन और आजीविका को प्रभावित कर रहा है। यहां के मूल निवासी आदिवासी लोगों ने साल 1989 में नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) के बैनर तले संघर्ष किया था। निरंतरता के रूप में बारगी नाम का गांव जहां बांध बनाया गया है नर्मदा नदी पर बनाए जाने वालों 30 प्रमुख बांधों की श्रृंखला में से पहला बांध है। मंडला, सियोनी और जबलपुर ज़िलों में एक सौ बासठ गांव प्रभावित हुए और लगभग 82 गांवों पूरी तरह से डूब रहे हैं।
चुटका, तातिगठ और कुंडला गांवों के आदिवासियों को बरगी बांध परियोजना के ख़िलाफ़ किए गए अपने पहले संघर्ष की बातें याद है। ग्रामीणों के लिए प्रस्तावित संयंत्र स्थल के आस-पास के क्षेत्र और बरगी बांध निर्माण के दौरान दो बार विस्थापित होने के बाद, उक्त गांव में और आसपास परमाणु संयंत्र जबरन विस्थापन के ख़तरे का पुनरुत्थान है। ऐसे 54 गांव हैं जो एनपीपी के ख़तरनाक परिणामों का सामना करेंगे।
चुटका विरोधी संघर्ष समिति ने इस बात को दोहराया है कि मंडला ज़िला जहां बिजली संयंत्र का निर्माण किया जाना है वह संविधान के पांचवें अनुसूची के अंतर्गत आता है और पीईएसए अधिनियम, 1996 के दायरे में आता है। सरकार को एनपीपी की मंजूरी देने से पहले यहां के लोगों से सहमति लेने की आवश्यकता है। हालांकि, सरकार कथित तौर पर निर्धारित मानदंडों को नज़रअंदाज़ कर रही है। इस समिति के एक सदस्य नवरतन दुबे ने कहा, "मौक़े पर आदिवासियों ने जन सुनवाई के अपने विरोध के माध्यम से यह सुनिश्चित करने में कामयाब रहे कि उक्त दो जन सुनवाई नहीं की गई थी। तीसरी बार, पुलिस ने इलाके को घेर लिया और ज़िले में सैन्य बल तैनात कर दिया ताकि ग्रामीण अपनी आवाज़ न उठा सकें। अपनी तरफ से किए गए सभी प्रयासों के बावजूद 7,000 से अधिक लोग आगे बढ़े और प्रक्रिया को रोकना पड़ा।"
स्थानीय लोग सरकार, एमएनसी और निजी कंपनियों के बीच साठगांठ का पर्दाफाश करने के लिए काम कर रहे हैं। चुटका परमाणु संयंत्र कोरियाई एमएनसी का एक उत्पाद है जो एनपीसीआईएल के माध्यम से परियोजना को पैसे दे रहा है। सरकार द्वारा दबाव डालने के बार-बार प्रयासों को लेकर स्थानीय लोगों का मानना है कि राज्य "जनता की मित्र" होने के बजाय "कॉर्पोरेट की मित्र" है। आभा भैय्या कहते हैं कि इसने लड़ाई के लिए लोगों के दृढ़ विश्वास को और मज़बूत किया है। इस संघर्ष में सबसे आगे महिलाओं ने यह सुनिश्चित किया था कि ठेकेदारों द्वारा सर्वेक्षण नहीं किया जाता है; कई ने ड्रिलिंग प्रक्रिया को भी रोक दिया था।
मीरा बाई कहती हैं, "हमें मशीन रोकना ही था। हमारे भविष्य का सवाल है। महिलाओं को इनका सहारा लेना ही था, क्योंकि साल2010 में, सर्वे टीम स्थानीय लोगों को सूचना दिए बिना इलाके में भेजी गई थी। सरकार की संवेदनहीनता साल 2012 में उस समय बढ़ गई जब आंदोलन को दबाने के लिए अधिकारियों द्वारा पुलिस को इकट्ठा किया गया और बल प्रयोग किया गया। इसी वर्ष, भूमि अधिग्रहण को सरल बनाने के लिए कृषि भूमि को बंजर भूमि में बदलने के लिए एक प्रस्ताव पारित करने का प्रयास भी किया गया था। ग्रामीणों को भी धमकी दी गई थी कि अगर वे इसमें सहयोग नहीं करते हैं तो ज़मीन बलपूर्वक हासिल की जाएगी।
नौ साल के लंबे संघर्ष के दौरान कई घटनाओं में सरकार ने लोगों को मामूली मुआवजा देने की कोशिश की। परियोजना के काफी विरोध के बाद भी उनके खातों में उक्त राशि जमा की गई थी। बाद में आदिवासियों को पता चला कि उनके आधार की जानकारी उनकी सहमति के बिना कथित रूप से बैंकों द्वारा साझा किया गया था। स्थानांतरित की गई राशि पर टिप्पणी करते हुए दुबे ने कहा, "कौड़ियों के दाम का मुआवज़ा देती है ये सरकार।"
इनके अलावा आदिवासियों ने यह भी आरोप लगाया कि प्रदर्शनकारियों को चुप करने के लिए, सरकार ने चोरी के मामलों, मवेशियों की हत्या, धोखाधड़ी से ज़मीन का स्वामित्व हासिल करने आदि के झूठे मामलों में आदिवासियों को फंसाने की कोशिश की है। कई लोगों को बेदखल करने की सूचना देकर भी धमकी दी गई थी।
इस एनपीपी परियोजना को अभी तक एक वैध और उचित प्राधिकारी से पर्यावरण मंज़ूरी नहीं मिली है। इस मंज़ूरी के बिना, भूमि का विनियमन और परियोजना से संबंधित गतिविधियों को भूमि क़ानून के ख़िलाफ समझा जाता है।
निगम द्वारा दायर पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए), राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान द्वारा किया गया था। ये संस्थान एक तकनीकी सहायता संस्थान है जो पर्यावरण मंजूरी देने के लिए प्रामाणिक एजेंसी नहीं है। हालांकि आज तक प्रस्तावित परियोजना को पर्यावरण, वन और जलवायु मंत्रालय से मंज़ूरी नहीं मिली है, जो मंज़ूरी प्रदान करने वाली प्रामाणिक संस्था है। इसके अलावा एनपीसीआईएल एक ग़ैर-आदिवासी कंपनी है। इसलिए, सरकार द्वारा इस कंपनी के पक्ष में आदिवासियों के भूमि का आवंटन असंवैधानिक है, और पांचवीं अनुसूची में दर्ज विवरण के ख़िलाफ़ है।
मध्य प्रदेश में कई जलविद्युत बिजली संयंत्र और 19 थर्मल पावर प्लांट हैं, जिससे बिजली और संसाधनों के अधिशेष उपलब्ध करा रहे हैं, जबकि इनमें से कई का इस्तेमाल उनकी पूरी क्षमता तक भी नहीं किया जाता है। इसलिए, लोग सरकार द्वारा इस तरह के संयंत्र को बनाने की ज़रूरत पर सवाल उठाते हैं जिससे मानव और पर्यावरण का नुकसान है।