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मदरसा डिस्कोर्स : मुस्लिम चाहते हैं इन्हें अपग्रेड किया जाए और ये नकारात्मक राजनीतिक चुनौतियों का सामना करें
यह सच है कि कुछ मदरसे बदलाव का विरोध करते हैं लेकिन सरकार और संस्थानों को आधुनिकीकरण के लिए मदरसों को प्रेरित करना चाहिए क्योंकि वे लाखों ग़रीब मुस्लिम युवाओं के लिए एकमात्र आश्रय स्थल हैं।
सैयद ऊबेदउर रहमान 
21 Apr 2020
मदरसा डिस्कोर्स
प्रतीकात्मक तस्वीर

हाल के एक खुलासे ने एक संस्थान के रूप में मदरसे को फिर चर्चा के केंद्र में खड़ा कर दिया है। इंडिया टुडे के न्यूज़ डायरेक्टर राहुल कंवल ने 'मदरसा हॉटस्पॉट्स' शीर्षक से एक रिपोर्ट को आक्रामक रूप से पेश किया है जिसमें कोविड -19 के प्रसार को रोकने के लिए जारी लॉकडाउन में मदरसों को जानबूझ कर उल्लंघन करने वालों के रूप दिखाया है।

इसने एक आपराधिक कृत्य की तरह इस विषय पर अपना अस्तित्व बना लिया जो दूसरों को नुकसान पहुंचाने के इरादे से किया गया था। यह और इसी तरह के असत्य वास्तव में नए नहीं हैं। मीडिया में उत्साही लोगों ने इसी तरह धार्मिक पुनरुत्थानवादी मुस्लिम संगठन तब्लीगी जमात को हाल ही में दिखाया जिसका कोई राजनीतिक हित नहीं है।

मदरसे शैक्षणिक संस्थान हैं जिनमें देश भर में लाखों छात्र शिक्षा हासिल कर रहे हैं। जब लॉकडाउन की घोषणा की गई थी तब वे अन्य आवासीय स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालय और अन्य संस्थानों की तरह उसी में ही फंस गए। इन संस्थानों के छात्र और शिक्षक दोनों ही तब से इनमें फंसे हुए हैं।

हालांकि, मुख्यधारा की मीडिया ने मदरसों को एक राष्ट्र-विरोधी मंच के रूप में चित्रित किया है। केंद्र की सत्ता में आने वाली भाजपा सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान, गृह मंत्री, लालकृष्ण आडवाणी-जिन्हें अब समय से पहले सेवानिवृत्ति के लिए मजबूर किया गया- ने दावा किया था कि उनकी सरकार मदरसों और आतंकी फंडिंग के साथ उनके जुड़े तार को लेकर एक श्वेत पत्र प्रकाशित करेगी। हालांकि, वर्षों के प्रयासों के बाद उनकी सरकार इस प्रकार का कोई सबूत देने में असमर्थ रही और श्वेत पत्र किसी गहरे कुएं में गिर गया।

यूनिवर्सिटी ऑफ नॉट्रे डेम के केअफ स्कूल ऑफ ग्लोबल अफेयर्स में इस्लामिक अध्ययन के प्रोफेसर इब्राहिम मूसा अपनी प्रसिद्ध पुस्तक व्हाट इज़ ए मदरसा में कहते हैं, "मदरसा शास्त्रीय धर्मशास्त्रीय एवं कानूनी ग्रंथों के साथ-साथ मुस्लिम धर्मग्रंथ क़ुरान पर टीका टिप्पणी के अध्ययन में विशेषज्ञता प्रदान करता है। वे इस्लाम के पैगंबर मुहम्मद के जीवन और शिक्षाओं के अध्ययन पर विशेष ज़ोर देते हैं और जटिल मामलों में लगे हुए हैं कि कैसे नियमों और नैतिकता को धार्मिक मानदंडों के अनुसार सार्वजनिक और निजी आचरण में लागू करना चाहिए। अध्ययन के इन प्राथमिक क्षेत्रों में प्रवीणता हासिल करने के लिए आवश्यक सभी मुख्य विषयों को भी पढ़ाया जाता है। अरबी व फारसी व्याकरण और साहित्य जैसे अन्य विषयों के साथ व्याख्यान विद्या, तर्क और दर्शन भी पढ़ाया जाता है।”

वह मदरसे के बारे में लिखते हैं कि मदरसा एक छात्र को प्रशिक्षण देने में सहायता प्रदान करता है जिसे "रोज़मर्रा के काम के ज़रिए शारीरिक पवित्रता, सीखने, धर्मनिष्ठा के कार्य" को विकसित करने की आवश्यकता होती है।" वे आगे कहते हैं जब ये कार्य द्वितीय प्रकृति की बन जाती हैं तो कहा जा सकता है कि छात्र ने ईश्वर की आज्ञाओं का पालन किया है।

मूसा लिखते हैं, “मदरसा की शिक्षा इस बात पर ज़ोर देती है कि ज्ञान का उचित प्रभाव तभी हो सकता है जब ज्ञान का भंडार, मानव शरीर, विशेष रूप से हृदय को इस तरह की शिक्षा प्राप्त करने के लिए उचित रूप से तैयार किया गया हो। पाप से बचना ज्ञान और अंतर्दृष्टि के साथ दिल और दिमाग को रोशन करने के लिए संभव बनाता है, जो पहले से ही रखी गई छात्र को सीखने वाली किताब पर आधारित है।”

हालांकि, भारत में सेमिनरियों को अलग-अलग तरीके से चलाया जाता है। उन्होंने अपने पाठ्यक्रम में हिंदी और अंग्रेजी के अलावा विज्ञान, गणित और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों को शामिल किया है। सामाजिक विज्ञान और भाषा पाठ्यक्रमों में क्रेडिट के लिए विश्वविद्यालयों से कई सेमिनरी संबद्ध हैं। देश के मदरसों के कई छात्रों ने आईएएस परीक्षाओं में सफल होने के साथ ही शिक्षा में भी काफी बेहतर किया है।

स्वाभाविक रूप से मुसलमानों के लिए मदरसे एक महत्वपूर्ण संसाधन हैं: वे सबसे ग़रीब छात्रों को सस्ती यहां तक की पूरी तरह से मुफ्त-शिक्षा प्रदान करते हैं। अधिकांश मदरसे अपने छात्रों को आवश्यक वस्तुओं के अलावा मुफ्त भोजन और आवास भी प्रदान करते हैं।

दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में इस्लामिक स्टडीज के प्रोफेसर मोहम्मद इशाक मुझे बताते हैं कि मदरसे ग़रीब मुस्लिम परिवारों के लिए ईश्वर की एक देन हैं। “अगर कोई मदरसा नहीं होता तो लाखों वंचित मुस्लिम बच्चे कोई शैक्षणिक संस्थान नहीं देख पाते। मदरसे बेहतर शिक्षा प्रदान नहीं कर सकते, हालांकि वे मुफ्त या अत्यधिक रियायती हैं और जो वहां अध्ययन कर रहे हैं वे बहुत अच्छा ज़रूर करेंगे...।"

लोग भूल जाते हैं कि भारतीय मुस्लिम समाज के पास अनाथों के लिए संस्था नहीं है: यह सेमिनरी को सुरक्षित स्थान बनाता है, यहां तक घर विहीन बच्चों के लिए भी। इस कारण से, कोई भी देख सकता है कि युवा मदरसा की छात्रावासों में भरे हुए हैं। इसके अलावा, यहां तक कि दिल्ली के एक मदरसे में आपको इस शहर या उसके पड़ोस से शायद ही कोई छात्र मिलेंगे। इनमें से ज़्यादातर छात्र वास्तव में बिहार, बंगाल, असम और कुछ उत्तर प्रदेश के दूर दराज इलाक़ों से आते हैं।

डॉ. कौकब मदरसा से स्नातक हैं जिन्होंने बाद में दिल्ली के यूनानी मेडिकल कॉलेज में अध्ययन किया था। वे कहते हैं, “अगर कोई मदरसा नहीं होता तो उच्च शिक्षा का मेरा सपना टूट जाता। एक पैसा दिए बिना मैं पढ़ाई कर सका और प्रतियोगी परीक्षा में सफल हो सका।” क़िस्मत से उन्होंने पहले प्रयास में ही इस परीक्षा को पास कर लिया था।

गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश में लगभग 10,000, केरल में लगभग इतना ही, मध्य प्रदेश में 6,000, बिहार में 3,500, गुजरात में 1,825 और राजस्थान में 1,780 मदरसों के बारे में जानकारी दी गई है। यह एक पुराना अनुमान है। इसकी संख्या अनिश्चित हैं, लेकिन आज भारत में लगभग 50,000 से अधिक मदरसे होने चाहिए।

दो दशकों से अधिक समय से मदरसे आधुनिकीकरण और आधुनिक विषयों को अपने पाठ्यक्रम में शामिल करने की मांग कर रहे हैं। कई ने मिडिल स्कूल स्तर तक मुख्यधारा के स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों को शामिल किया है, लेकिन बहुत कम मदरसे इसे उच्च स्तर पर ले जाने में सक्षम हैं। कई मदरसा विशेष रूप से बरेलवी मदरसों ने उच्च माध्यमिक स्तर तक एनसीईआरटी पाठ्यक्रम को अपनाया है ताकि उनके छात्र दसवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में उपस्थित हो सकें।

बहरहाल, अधिकांश मदरसे अभी भी पुराने ढर्रे पर ही चल रहे हैं और दर्स-ए-निजामी या निजामी पाठ्यक्रम को पढ़ाते हैं जो मूल रूप से मुल्ला निज़ामद्दीन अस सिहलवी द्वारा 18 वीं शताब्दी में तैयार किया गया था। निज़़ामद्दीन फ़रंगी महल मदरसे से संबंधित थे जो 1866 में उत्तर प्रदेश के देवबंद में दारुल उलूम की स्थापना से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में मुख्य मदरसा था। इसकी स्थापना मौलवी और स्वतंत्रता सेनानी मुहम्मद कासिम नानौतवी द्वारा की गई थी।

मदरसों में जो पढ़ाया जाता है वह बहुत पुराना हो चुका है और उसे नए सिरे से तैयार करने की ज़रूरत है। दर्स-ए-निज़़ामी पाठ्यक्रम अक्सर मदरसा शिक्षकों और प्रबंधकों द्वारा आंख बंद करके पेश कर दिया जाता है, जो इसकी प्रासंगिकता को लेकर बहुत कम ध्यान देते हैं। पाठ्यक्रम को पूरी तरह से संशोधित करने और उसे कारगर बनाने के लिए कुछ मदरसे तो सरकार के दबाव सहित अन्य दबावों का ज़ोरदार तरीक़े से विरोध करते हैं।

जर्मनी के एरफ़र्ट विश्वविद्यालय में इस्लामिक स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर जमाल मलिक ने अपनी पुस्तक मदरसा इन साउथ एशिया: टीचिंग टेरर? में लिखा है, " व्यवस्थित करना 'वैश्विक आधुनिकीकरण' के अनुमानों से यह तय होता है जो यह सोचता है कि सार्वभौमिकता नियम हैं जिसके माध्यम से आधुनिकता खुद को प्रकट करती है।"

मोहम्मद इशाक कहते हैं “18 वीं शताब्दी के दौरान उन्होंने जो पढ़ाया था वह उस समय प्रासंगिक था लेकिन अब नहीं है।” वे महसूस करते हैं कि मदरसे "समाज की बहुत बेहतर सेवा करेंगे"। इसने अधिक प्रासंगिक और आधुनिक पाठ्यक्रम को शामिल किया था। वे कहते हैं, साहित्य से लेकर दर्शन तक या फ़िक़्ह (न्यायशास्त्र) तक सब कुछ बदल चुका है इसलिए मदरसा पाठ्यक्रम के आधुनिकीकरण की तत्काल ज़रूरत है।

मूसा ने स्वयं देवबंद में स्थित दारुल उलूम और लखनऊ में स्थित नदवातुल उलमा सहित भारत के प्रमुख मदरसों में अध्ययन किया है। वे कहते हैं कि मदरसे आज उतने प्रभावी नहीं हैं जितने वे होने चाहिए, हालांकि वे बुनियादी शिक्षा दे रहे हैं। वे कहते हैं, "मुझे लगता है कि वे नैतिक या राजनीतिक मार्गदर्शन देने के मामले में अप्रभावी हैं। हालांकि, जब वे राजनीतिक मार्गदर्शन में शामिल होते हैं तो यह आमतौर पर बुरा होता है क्योंकि वे उस दुनिया को नहीं समझते हैं जिसमें वे संचालित कर रहे हैं। स्थानीय या विश्व स्तर पर उनकी राजनीतिक समझ के बीच बड़ा अंतर है और यह भी कि बड़े वैज्ञानिक सवालों पर समझ की कमी है।"

मदरसे को अधिक प्रभावी होने के लिए मूसा कहते हैं उनके पाठ्यक्रम को तत्काल अपग्रेड करने की आवश्यकता है। 2017 में मूसा ने अपने विश्वविद्यालय के मदरसा डिस्कॉर्स प्रोजेक्ट को लॉन्च किया ताकि मदरसा से पास-आउट छात्रों को बहुलवाद, आधुनिक विज्ञान, तकनीकी विकास और नए दर्शन में प्रशिक्षित किया जा सके। इसका उद्देश्य इस्लामिक सिद्धांत और न्यायशास्त्र सहित शिक्षा को बेहतर बनाना है और छात्रों को साहित्य के विशाल स्तर और उनके ज़ेहन में वैज्ञानिक विचार पैदा करना है। मूसा ठीक ही महसूस करते हैं कि इसके बिना एक संस्था के रूप में मदरसा न तो अपनी खुद की इस्लामिक शिक्षा को बेहतर करेगा और न ही यह समझ पाएगा कि उसके आसपास क्या हो रहा है।

लेखक स्तंभकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी है।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

Madrasa Discourses: Muslims Want Seminaries Upgraded, Face Political Pushback

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