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मेडिकल उपकरण बाजार में ‘डरावना भ्रष्टाचार’
मेडिकल उपकरणों की बनावट में ही खराबी होने की वजह से पिछले दस सालों में पूरी दुनिया में किसी भी तरह का मेडिकल उपकरण इस्तेमाल करने वाले तकरीबन 17 लाख लोग बहुत बुरे हालत में पहुँच चुके हैं और तकरीबन 87 हजार लोगों की मौत हो चुकी है

अजय कुमार
03 Dec 2018
मेडिकल खर्च
Image Courtesy: ICIJ

पूरी दुनिया के मेडिकल उपकरण बाजार में सरकारी निगरानी के आभाव में बहुत ही डरावना किस्म का भ्रष्टाचार चल रहा है। इस भ्रष्टाचार को इंटरनेशल कंसोर्टियम ऑफ़ इंटरनेशल जर्नलिस्ट ने उजागर किया है।

36 देशों के 58 समाचार संगठन के 250 रिपोर्टरों ने इस पर मिलकर काम किया है। भारत की तरफ से इस संगठन में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के पत्रकार शामिल हैं। इन साहसी पत्रकारों ने मेडिकल उपकरण उद्योग से जुड़े सैकड़ों मामलों की जांच की है और पाया है कि जिम्मेदार संस्था यानी सरकारी निगरानी के आभाव में मेडिकल उपकरण के बाजार में डरावने किस्म का भ्रष्टाचार चल रहा है।

आईसीआईजे और इसके सहयोगी संगठनों द्वारा तकरीबन 1500 से अधिक पब्लिक रिकॉर्ड के आवेदन फाइल किये गए। 80 लाख से अधिक मेडिकल उपकरणों की शिकायतों के रिकॉर्ड को खंगाला गया। जिसमें से तकरीबन 54 लाख शिकायतें अमेरिका के फ़ूड और ड्रग्स प्रशासन से की गईं थी।

इस पूरी खोजबीन का नाम आईसीआईजे ने इम्प्लांट फाइल्स दिया है। इम्प्लांट मतलब यह है कि शरीर के भीतर या शरीर के सतह पर किसी अंग या उत्तक की खराबी होने पर इम्प्लांट किये जाने वाले मेडिकल उपकरण। जैसे चलने के लिए मदद करने वाले मेडिकल उपकरण, आँखों के खराब होने पर लेंस की तरह काम करने वाले मेडिकल उपकरण आदि। यह मेडिसिन का एक ऐसा क्षेत्र है जिसके ज्यादात्तर हिस्से पर जिम्मेदार संस्थाओं की निगरानी की कमी है। यह दवाइयों की तरह नहीं है, जिनका इंसानों पर इस्तेमाल करने से पहले जांच-परख की जाती है। यह बिलकुल अलग हैं। शरीर में इम्प्लांट होने वाले इन ज्यादातर मेडिकल उपकरणों का परिक्षण नहीं होता है। इन्हें सीधे इंसानों के शरीर पर इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा लगता है जैसे इंसानों को मेडिकल परिक्षण के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

आईसीआईजे के पत्रकारों से बात करते हुए अपने सीने में मेडिकल उपकरण का इस्तेमाल कर रही और दर्द से कराह रही अमेरिकी नागरिक ब्रिज रॉब कहती हैं कि “मैं बहुत जल्दी मारना नहीं चाहती हूँ ... इतना कहने के बाद रोने और चिल्लाने लगती है।”

मेडिकल उपकरण बनाने वाली ज्यादातर कम्पनियां सबसे पहले यूरोपीय बाजार का हिस्सा बनती हैं। अगर यूरोप के बाजार में मेडिकल उपकरण खुद को बचा लेता है तो अमेरिकी बाजार का हिस्सा बन जाता है। इस तरह से बाजार तो फैलता है लेकिन इस बाजार पर निगरानी करने वाली संस्थाएं नहीं बनती हैं। यह उद्योग फलने फूलने लगता है। लेकिन जैसे ही इस उद्योग की मांग दुनिया के पिछड़े देशों में होती है, स्थिति बद से बदतर हो जाती है। घटिया किस्म के मेडिकल उपकरणों के उद्योग मुनाफाखोर धंधे की तरह काम करने लगते हैं। इस तरह से अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और एशिया के दर्जनों देशों में यह मेडिकल उपकरण बिना किसी सरकारी रोक-टोक के धड़ल्ले से बिकने लगते हैं।

इन मेडिकल उपकरणों की बनावट में ही खराबी होने की वजह से पिछले दस सालों में पूरी दुनिया में किसी भी तरह का मेडिकल उपकरण इस्तेमाल करने वाले तकरीबन 17 लाख लोग बहुत बुरे हालत में पहुँच चुके हैं, तकरीबन 87 हजार लोगों की मौत हो चुकी है और 5 लाख ऐसे हैं जो मेडिकल उपकरण से हो रही असहनीय पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए इसे सर्जरी के जरिये बाहर निकालने की अपील कर चुके हैं।

मेडिकल उपकरण बनाने वाले उद्योग बनावट की खराबियों को गंभीरता से नहीं लेते जिसका खामियाजा डॉक्टर से लेकर मरीज को भुगतना पड़ता है। भारत में दवाइयों की निगरानी करने वाली संस्था सेंट्रल ड्रग्स स्टैण्डर्ड कण्ट्रोल आर्गेनाइजेशन ही मेडिकल उपकरणों को भी निगरानी करने का जिम्मा सौंपा गया है। इस संस्था के तहत किसी भी तरह के उपकरण या सॉफ्टवेर का इस्तेमाल अकेले या संयुक्त शरीर के भीतर जब उपचार के तौर पर किया जाता है तो उसे मेडिकल उपकरण कहा जाता है। पहले केवल 10 नोटीफायड मेडिकल उपकरणों की निगरानी यह संस्था करती थी, अब यह बढ़कर 23 हो गई है। फिर भी मेडिकल उपकरण की परिभाषा के तहत यह निगरानी बहुत ही कम उपकरणों पर की जा रही है। इनमें मुख्य रूप से एचआईवी उपचार, कैथेटर, इंट्रा-ओकुलर लेंस, कैनुला, हड्डी सीमेंट्स, हार्ट वाल्व, ऑर्थोपेडिक इम्प्लांट्स, कोरोनरी स्टेंट,आईयूडी और कंडोम, सिरिंज, सुई, परफ्यूजन सेट शामिल है।

पूरी दुनिया में इन मेडिकल उपकरणों का बाजार तकरीबन 420 बिलियन डॉलर का है। भारत में इस बाजार की कीमत 5.2 बिलियन डॉलर की है। यह भारत के कुल मेडिकल बाजार का तकरीबन 4 से 5 फीसदी हिस्सा है। मेडिकल उपकरणों को बाजार से खरीदने पर कम खर्च करना पड़ता है और इसी मेडिकल उपकरण को जब हॉस्पिटल से सीधा अपने मरीज में इम्प्लांट करता है तो अधिक पैसे खर्च करने पड़ते है। इसे ऐसे समझिये कि अमेरिका से पेसमेकर मंगवाने पर अगर 25000 रुपये खर्च करना पड़ता है तो भारतीय बाजार में इसकी कीमत 50 हजार हो जाती है। बाजार में यह डिस्काउंट पर 46 हजार में बिकता है तो हॉस्पिटल में यह 48 हजार में बिकता है।

मेडिकल उपकरण के खराब होने पर शिकायत कहां की जाए? किस तरह के नियमों के सहारे आगे बढ़ा जाए? किस तरह के कानून मरीजों को सुरक्षा देने के काम आयेंगे? इन सवालों का जवाब भारतीय सरकार ने अब तक नहीं ढूंढा है। सब राम भरोसे चल रहा है। जॉनसन एंड जॉनसन कम्पनी ने हिप इम्प्लांट के तकरीबन 4700 खराब मेडिकल उपकरणों को हमारे देश में बेच दिया। मिनिस्ट्री ऑफ़ हेल्थ एंड फैमिली वेलफेयर ने इनसे जुड़े मरीजों को मुआवजा देने के लिए अब फार्मूला बनाना शुरू किया है।

ब्रैस्ट इम्प्लांट के एरिया में मेडिकल उपकरणों से जुड़े दुनिया भर की शिकायत हैं। जिसका मतलब यह है कि किसी भी तरह इन मेडिकल उपकरणों को बाजार से बाहर निकाला जाए। अमेरिका और यूरोप के अखबारों में एक खबर छपी की भारत के चेन्नई शहर में सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में ब्रेस्ट इम्प्लांट किया जा रहा है। इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकारों ने इस खबर की छानबीन की और पाया कि ब्रैस्ट इम्प्लांट के एरिया में काम करने आई कई विदेशी कम्पनियां नुकसान की वजह से देश छोड़कर चली गयी। फिर भी कुछ विदेशी कम्पनियां और देशी कम्पनियां ब्रैस्ट इम्प्लांट का काम कर रही है। इन सभी तरह की कम्पनियों पर किसी तरह का सरकारी निगरानी नहीं है। यह दोनों बिना सरकारी लाइसेंस के अपना काम कर रही हैं। इसके साथ जिस माहौल में ब्रैस्ट इम्प्लांटेशन की सर्जरी की जाती है वह भी दिल दहलाने वाला है। नरेला और दरियागंज के अँधेरे इलाकों के बेसमेंटो में जो शहर के सबसे उपेक्षित कोने हैं, उन इलाकों में ब्रेस्ट इम्प्लांट की सर्जरी की जाती है। ट्रांसजेंडर वर्ग के लोग अपना ब्रैस्ट इम्प्लांट करवाने की सबसे अधिक कोशिश करते हैं। इन लोगों को बहुत परेशानी झेलनी पड़ती है। पहली बार ब्रेस्ट इम्प्लांट करवाने के बाद इन्हें दूसरे बार भी ब्रैस्ट इम्प्लांट की सर्जरी करवानी पड़ती है। और सबसे अधिक चिंता की बात तो यह है कि सर्जरी करने वालों में केवल प्लास्टिक सर्जन ही शामिल नहीं है बल्कि वैसे डॉक्टर भी शामिल हैं जिनका सर्जरी की पढ़ाई से कोई लेना देना नहीं होता।  

इस तरह से यह निष्कर्ष निकलता है कि इस पूरे बाजार से आम आदमी पूरी तरह बेखबर है। आम आदमी को नहीं पता कि मेडिकल इम्प्लांट के लिए कौन सा उपकरण बेकार हो सकता है और कौन सा उपकरण सही हो सकता है। इम्प्लांट किये जाने वाले मेडिकल उपकरणों का किसी भी तरह का ट्रैक रिकॉर्ड नहीं रखा जाता है। यह पूरा बाजार धंधा बन चुका है। इस पर निगरानी और कानून से जुड़े किसी भी तरह के उपाय नहीं हैं। जहां पैसे की कमाई हो रही है और इंसानों को असहनीय पीड़ा के अन्धकार में धकेलने का काम किया जा रहा है। 

हिप इम्प्लांट के घोटाले से जुड़ी कम्पनी जॉनसन एंड जॉनसन मामलें में वकील रह चुकी मालिनी यशोला कहती हैं कि “ड्रग्स एंड इम्प्लांट” में अंतर होता है। ड्रग्स की बनावट में केमिकल कम्पोजीशन की भूमिका अधिक होती है और ड्रग्स लेने के बाद इनका शरीर से निष्कास्न भी हो जाता है लेकिन इम्प्लांट में इस्तेमाल की जाने वाली चीजें केमिकल कम्पोजीशन के साथ इंजीनियरिंग दक्षता की अधिक मांग करती है। इनका स्वरूप ठोस होता है और शरीर का सही तरह से काम करने के लिए इनका जुड़ा रहना भी रहना जरूरी होता है। इसलिए बिना निगरानी और सरकारी कंट्रोल का इनका इस्तेमाल किया जाना बहुत आम जनता के लिए बहुत अधिक हानिकारक साबित होता है। इनसे बचने का उपाय है कि मेडिकल उपकरण बनाने वाली कम्पनियां अधिक जिम्मेदारी लें, डॉक्टर अपने मेडिकल उपकरण के प्रति भी अपनी जिम्मेदारी बढ़ाये और सरकार जल्द से जल्द मेडिकल उपकरण की धांधली को रोकने के लिए सही तरह का कानून और सही तरह की निगरानी संस्था बने। 

 

 

ICIJ
INDIAN EXPRESS
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HEALTH
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