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राजनीति
महिला दिवस विशेष : इन चुनावों में महिलाओं के मुद्दे अहम साबित होंगे?
पिछले पाँच साल को देखा जाए तो महिलाओं के मुद्दों को लेकर मौजूदा सरकार की कड़ी आलोचना हुई है। महिलाओं के मसले हल करने में मोदी सरकार विफ़ल साबित हुई है। यही वजह है कि इस लोकसभा चुनाव में महिलाओं के मुद्दे अहम साबित होने वाले हैं।
सत्यम् तिवारी
08 Mar 2019
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: The Voices

आज, जब हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की बात कर रहे हैं, तो ये देखना ज़रूरी हो गया है कि हम उस समय में हैं जब देश के लोकसभा चुनाव नजदीक हैं, और आने वाले एक-डेढ़ महीने में देश में एक नई सरकार चुनने की प्रक्रिया चालू हो जाएगी। 2019 का ये महिला दिवस देश की महिलाओं के लिए क्यों ज़रूरी है इस पर हमने बात की उन महिलाओं से जो देश-समाज में सक्रिय हैं।

पिछले पाँच साल को देखा जाए तो महिलाओं के मुद्दों को लेकर मौजूदा सरकार की कड़ी आलोचना हुई है। महिलाओं के मसले हल करने में मोदी सरकार विफ़ल साबित हुई है। यही वजह है कि इस लोकसभा चुनाव में महिलाओं के मुद्दे अहम साबित होने वाले हैं। पिछले चुनाव के आंकड़े देखे जाएँ तो ये पता चलता है कि महिला वोटरों कि संख्या में एक ऐतिहासिक बढ़ोतरी हुई है।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) की सदस्य सुभाषिनी अली सहगल ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा, “ये सही है कि महिला वोटरों कि गिनती में उछाल हुआ है। ये भी देखने-सुनने में आ रहा है कि महिलाएँ अब सिर्फ़ उसी पार्टी को वोट नहीं करती हैं, जिनको उनके घर के लोग करते हैं। लेकिन ये सिर्फ़ अपवाद है, नियम नहीं है। हालांकि मौजूदा सरकार कि नीतियों से जितना नुकसान महिलाओं को हुआ है, उतना किसी और को नहीं हुआ है। तो ये भी एक सच तो है कि महिलाओं के राजनीतिक समझ समय के साथ बढ़ी है।"

महिला वोटरों के सवाल पर अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (एडवा) की महासचिव मरियम धावले कहती हैं, “ये सही है कि ज़्यादातर महिलाएँ उसी पार्टी को वोट देती हैं जिनको उनका परिवार देता है, लेकिन ये भी सही है कि काफ़ी बदलाव आ रहा है। और महिला आंदोलनों की वजह से महिलाओं में ये समझ लगातार बढ़ रही है कि उनके हित के लिए क्या सही है।"

जाति और धर्म के नाम पर मतदान होने के सवाल पर मरियम कहती हैं, “मौजूदा सरकार के द्वारा जाति और धर्म के नाम पर एकता तोड़ने कि कोशिशें की गई हैं, लेकिन महिलाओं के मुद्दे जाति और धर्म को देखते हुए नहीं हैं। राशन हिन्दू महिला को भी नहीं मिल रहा है, और मुस्लिम महिलाओं को भी नहीं मिल रहा है। तो बदलाव तो आ रहा है। और महिलाएँ अब अपनी राजनीतिक समझ को विकसित करके अपना प्रतिनिधि चुन रही हैं।"

महिला उम्मीदवारों की संख्या का सवाल

पिछले लोकसभा चुनाव में महिला उम्मीदवारों की संख्या 8 प्रतिशत थी। महिला उम्मीदवारों की इस कम संख्या पर सुभाषिनी अली सहगल कहती हैं, “मुझे नहीं लगता है कि इसमें कोई बड़ा बदलाव होने वाला है। जब तक महिलाओं को 33% आरक्षण नहीं दिया जाएगा, ये तस्वीर बदलने वाली नहीं है।"

2019 चुनाव महिलाओं के लिए क्यों अहम है?

भाकपा-माले की पोलित ब्यूरो सदस्य और अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन (ऐपवा) की सचिव कविता कृष्णन कहती हैं, “2019 का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण चुनाव है, ख़ास तौर पर महिलाओं के लिए। क्योंकि हमारे देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने कि कोशिशें हो रही हैं। और अगर ऐसा होता है तो हमारे देश कि महिलाओं के लिए ये सबसे बड़ा हादसा होगा। फ़ासीवादी ताक़तें और संघ परिवार संविधान कि जगह मनुस्मृति लाना चाहते हैं, और महिलाओं को सीधे तौर पर ग़ुलाम बनाना चाहते हैं। महिलाओं पर हिंसा को ये लोग बढ़ावा दे रहे हैं। अल्पसंख्यक महिलाओं पर हमले, कश्मीर में महिलाओं पर हमले लगातार हो रहे हैं।

इसके अलावा जो झूठ इस सरकार ने बोले हैं, जैसे "बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ" का नारा दिया जिसके प्रचार और विज्ञापन पर ही सबसे ज़्यादा ख़र्च किया गया। महिला मजदूरों को सरकारी योजनाओं में बिना पैसा का श्रम करवा रहे हैं। पिछले 5 सालों में बेरोजगारी बढ़ी है, उसमें सबसे ज़्यादा बेरोजगारी महिलाओं कि बढ़ी है। इन सारी चीजों के खिलाफ़ महिलाएँ 2019 में अपने वोट से बोलेंगी।"

वरिष्ठ पत्रकार और संस्कृतिकर्मी भाषा सिंह कहती हैं, “मैंने आज महिला दिवस पर जो 7-8 अख़बार देखे, वो विज्ञापनों से भरे हुए हैं। लेकिन किसी में भी महिला दिवस का ज़िक्र नहीं है। वो बस प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री के विज्ञापन हैं। इससे एक चीज़ तो साफ़ होती है, जो पिछले पाँच सालों में भी साफ़ हो गई है, कि महिलाओं को जो अधिकार मिले हैं, जो बहुत लड़ के हासिल किए गए थे, उन क़ानूनों को कमजोर करने की एक साज़िश चली है। जो संविधान में हमें बराबरी का अधिकार मिला हुआ है, उसे निरस्त करने के लिए नेता, मंत्री, पार्टी अध्यक्ष, आस्था के नाम पर, विश्वास के नाम पर महिलाओं से उनके अधिकारों को छीनने कि कोशिश करते रहे। और ये बहुत स्पष्ट था, सबरीमाला इसका बड़ा उदाहरण है, कि जब सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि औरतें मंदिर में प्रवेश कर सकती हैं, उसके बाद भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने बेशर्मी से कहा कि ये आस्था का प्रश्न है, सुप्रीम कोर्ट इसमें हस्तक्षेप न करे। इस तरह कि पुरातनपंथी सोच सक्रिय है, उसे लागू कर के महिलाएँ जो बराबरी चाहती हैं, जिसके लिए लड़ रही हैं, उसे छीनने की कोशिश हुई है। इन सबके विरोध में महिलाएँ काफ़ी मुखरता से सामने भी आई हैं। जैसे "happy to bleed” कैम्पेन चलता है, metoo चलता है। एक बात बहुत साफ़ है कि इस बार लड़ाई महिलाओं के मुद्दे पर होनी हैं।"

भाषा आगे कहती हैं, “जंग का जो पूरा माहौल बनाया गया है, वो मुझे महिला-विरोधी लगता है। इसमें ये बात है कि एक ऐसा लीडर हो जो लड़ सके, जिसकी छप्पन इंच कि छाती हो, तो छप्पन इंच की छाती से महिलाओं की बात तो नहीं हो रही है। वहाँ तो आप एक पुरुष की बात कर रहे हैं। और वो विचारधारा मनुस्मृति की विचारधारा है, जो स्त्रियों को कभी भी जगह नहीं देती है।”

इसी मुद्दे पर मरियम धावले कहती हैं, “पिछले पाँच साल में औरतों पर जो हिंसा का माहौल बढ़ गया है, औरतों के हक़ जिस तरह से छीनने की कोशिश की गई है, वो इस चुनाव का अहम मुद्दा साबित होगा। ये सरकार RSS की सरकार है, और RSS तो मनुस्मृति को मानने वाली सरकार है, और उसका तो मानना है कि औरतों का स्थान सिर्फ़ घर के अंदर ही है। जो आज़ादी के बाद से महिलाओं ने लगातार लड़ कर जो अधिकार छीने हैं, उन्हें ख़त्म करने का काम इस सरकार ने किया है। कानून बदल रही है, इसलिए औरतें इस चुनाव में मोदी सरकार को हराने के लिए काम करेंगी, और हरा कर ही दम लेंगी।"

चुनाव में औरतों के मुद्दों पर सुभाषिनी भी कहती हैं, “पिछले पाँच सालों में सरकार की नीतियाँ जो थीं, उसका सबसे बड़ा असर महिलाओं पर पड़ा। अगर हम नोटबंदी को देखें, तो उसका प्रभाव सबसे ज़्यादा महिलाओं पर पड़ा। और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएँ हैं जो सब्जी बेचती हैं, मछली बेचती हैं, ठेला लगाती हैं, उन महिलाओं को सबसे ज़्यादा परेशानी का सामना करना पड़ा। इसके अलावा महिलाओं पर जो हिंसा बढ़ी है, जिसमें बीजपी के नेता शामिल हैं, उन नेताओं पर बीजपी कुछ बोलती नहीं है। और उन नेताओं को बाहर भी नहीं निकाला जाता है। भाषणों में जिस तरह कि भाषा का इस्तेमाल किया जाता है, जिस तरह से महिलाओं के लिए ग़लत भाषा का इस्तेमाल होता है, उसके विरोध में महिलाएँ आवाज़ उठा रही हैं। और अब महिलाएँ इस सरकार के विरोध में वोट करेंगी, जो कि ज़रूरी है क्योंकि इससे ज़्यादा महिला विरोधी सरकार इस देश में कभी नहीं आई।"

महिला नेताओं, महिला कार्यकर्ता और पत्रकारों की बातें जान कर ये बात तो साफ़ है कि मोदी सरकार के लिए महिलाओं में एक बड़े स्तर पर रोष है, और ये चुनाव महिलाओं के लिए एक अहम चुनाव साबित होने वाले हैं। 

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