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नज़रिया : नहीं चाहिए ऐसे मंदिर जहां मां को दूध पिलाने की मनाही हो
हमें ऐसे मंदिर नहीं चाहिए जहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित हो, हमें ऐसे मंदिर नहीं चाहिए जहां एक मां को अपने बच्चे को स्तनपान कराने से रोक दिया जाए।
मुकुल सरल
07 Oct 2018
सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर। साभार : गूगल

हम बचपन में मंदिर में आरती के बाद नारे लगाया करते थे- “धर्म की जय हो/ अधर्म का नाश हो” लेकिन आज पूरे ज़ोर से ये कहने का मन है कि ऐसे धर्म का नाश हो जहां एक रजस्वला स्त्री को अपवित्र मान लिया जाता है, जहां एक स्त्री की छाया मात्र से कोई देवता, कोई भगवान अपवित्र हो जाता हो, उसका ब्रह्मचर्य ख़तरे में पड़ जाता हो, जिसके प्रवेश से मंदिर की पवित्रता भंग हो जाती हो और इससे भी बढ़कर जहां एक मां को अपने भूखे बच्चे को अपना दूध पिलाने से रोक दिया जाता हो। जिस किसी को एक मां द्वारा बच्चे को दूध पिलाने में तनिक भी अश्लीलता नज़र आती हो, उसे अपनी आंखें फोड़ लेनी चाहिए। अगर इससे भक्तों की भक्ति में और पुजारी की पूजा में खलल पड़ता हो तो उन्हें अपनी भक्ति और पूजा सब छोड़ देनी चाहिए। अगर इससे मंदिर की पवित्रता भंग होती हो तो उस मंदिर को धरती में समा जाना चाहिए। नहीं चाहिए हमें ऐसा धर्म, ऐसे मंदिर-मस्जिद, दरगाह जहां आधी आबादी के लिए कोई जगह न हो। जहां मां और बच्चे के सबसे खूबसूरत और पवित्र रिश्ते और सबसे नैसर्गिक कर्म (स्तनपान) को भी अश्लील या गंदी नज़र से देखा जाए।

उत्तर प्रदेश में मंदिरों के शहर वाराणसी में ऐसा ही हुआ। जी हां, तीनों लोक में सबसे न्यारी कही जाने वाली शिव की नगरी काशी में ये अनर्थ हुआ। एक मां को अपने नन्हे बच्चे को दूध पिलाने से रोक दिया गया। ये ख़बर जबसे पढ़ी है तबसे ही मन बेचैन है। ये तब हुआ जब सुप्रीम कोर्ट सबरीमाला मंदिर में हर उम्र की महिलाओं के प्रवेश का आदेश दे रहा है।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक काशी विश्वनाथ मंदिर में एक महिला डॉक्‍टर को अपने भूखे बच्चे को स्तनपान कराने से रोक दिया गया। वहां के सुरक्षाकर्मियों ने न सिर्फ उनके साथ दुर्व्यवहार किया बल्कि वहां मौजूद एक जवान ने इसका वीडियो भी बनाने का प्रयास किया।

2 अक्टूबर को नवभारत टाइम्स में छपी विकास पाठक की रिपोर्ट के मुताबिक नोएडा की रहने वाली डॉ. सुनित्री सिंह अपने पति डॉ. परीक्षित चौहान और परिवार के चार सदस्‍यों के साथ पहली अक्टूबर को मंदिर में दर्शन करने गईं थीं। पूरा परिवार ज्ञानव्यापी परिसर में लाइन में लगा हुआ था। काफी देर तक लाइन में लगे रहने के दौरान बच्‍चा भूख से रोने लगा और डॉ. सुनित्री कंट्रोल रूम के बाहर रखी कुर्सी पर बैठकर बच्‍चे को स्‍तनपान कराने लगीं।

इसी दौरान वहां एक सिपाही पहुंचा और सीओ के आने की बात कहकर उन्‍हें वहां से हटने को कहा। डॉ. सिंह ने दो मिनट की मोहलत मांगी,  इसपर जवान उनसे उलझ गया। हद तो तब हो गई, जब सिपाही महिला का वीडियो बनाने लगा। इसी दौरान ज्ञानव्यापी की सुरक्षा में तैनात सीओ वहां पहुंचे, लेकिन उन्‍होंने भी पुलिसकर्मी को डांटने की बजाय महिला डॉक्‍टर को ही वहां से जाने को कहा, जिसपर वह रोने लगीं। बाद में महिला डॉक्‍टर और उनके पति ने मंदिर के सीईओ विशाल सिंह से मिलकर लिखित शिकायत की। सीईओ ने एसपी सुरक्षा और एसएसपी को पत्र लिखकर मामले की जांच कराए जाने के साथ ही दोषी पाए जाने पर कार्रवाई की बात कही। उन्‍होंने कहा कि श्रद्धालुओं से दुर्व्‍यवहार बर्दाश्‍त नहीं किया जाएगा। साथ ही उन्होंने रेड जोन में वीडियो बनाए जाने के मामले को गंभीर बताया।

सीईओ ने ये भी बताया कि मंदिर में छोटे बच्‍चों के साथ दर्शन करने आने वाली महिलाओं को स्‍तनपान कराने के लिए मंदिर कार्यालय में अलग कक्ष निर्धारित कर दिया गया है। इस कक्ष में महिला अधिकारी की तैनाती कर दी गई है और इसकी  जानकारी देने के‍ लिए मंदिर परिसर में जगह-जगह दीवारों पर सूचना चस्‍पा कराई गई है।

अलग कक्ष की व्यवस्था अच्छी बात है लेकिन अगर किसी को भी सार्वजनिक स्थान पर एक मां के अपने बच्चे को दूध पिलाने में कुछ ग़लत लगता है, आपत्तिजनक लगता है तो उसे अपने दिमाग का इलाज कराना चाहिए या इस बारे में जाकर अपनी मां से पूछना चाहिए कि वह अपने बचपन में जब किसी सार्वजनिक स्थान पार्क, मैदान, बस या ट्रेन में कभी ऐसे ही भूख से रोया हो तो मां ने क्या किया।

अलग कक्ष की व्यवस्था अच्छी है लेकिन यह कितनी जगह है। उन कामगार निर्माण मज़दूर औरतों से पूछिए जिन्हें अपने दुधमुंहे बच्चे को साइट (निर्माणस्थल) पर ही ले जाना पड़ता है और काम के बीच में वहीं खुले में बच्चे को अपना दूध पिलाना पड़ता है। या फिर खेत में बिजाई या कटाई पर गईं औरतें दुधमुंहे को भूख लगने पर क्या करें? उनके लिए कहां और कौन अलग कमरों का इंतज़ाम करेगा?  

एक मां द्वारा बच्चे को इस तरह दूध पिलाने में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं, इस तर्क के आधार पर तो सेंसर बोर्ड ने भी फिल्मों पर कैंची नहीं चलाई।

आपको याद है 2017 के मई महीने की ऑस्ट्रेलिया संसद की एक तस्वीर, जिसमें एक महिला सांसद, संसद के भीतर अपने नवजात बच्चे को दूध पिला रही है। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक ऑस्ट्रेलियाई ग्रीन पार्टी की सह-उपाध्यक्ष क्वींसलैंड सीनेटर लारिसा वाटर्स मैटर्निटी लीव के बाद संसद लौटी थीं। संसद में कार्यवाही के दौरान जब उनकी नवजात बेटी आलिया को भूख लगी तो वाटर्स ने उन्हें वहीं स्तनपान कराया।

इसे लेकर वाटर्स ने ट्वीट भी किया, उन्होंने लिखा ''मुझे इस बात का गर्व है कि मेरी बेटी आलिया संघीय संसद में स्तनपान करने वाली पहली बच्ची बनी। हमें संसद में और महिलाओं की ज़रूरत है।''

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बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक ऑस्ट्रेलियाई संसद ने पिछले साल (2016) ही महिला सांसदों को चेंबर में स्तनपान कराने की अनुमति दी थी। इससे पहले चेंबर में बच्चों को लाने पर पाबंदी थी। स्तनपान कराने वाली माताओं को एक प्रॉक्सी वोट दिया गया था। इस नियम को बदलवाने में वाटर्स ने प्रभावी भूमिका अदा की थी।

उन्होंने नवंबर में कहा था, ''अगर हम संसद में और युवा महिलाएं चाहते हैं तो हमें नियम और उदार बनाने चाहिए जिससे हाल में बच्चों को जन्म देने वाली मां और पिता संसद और बच्चों की परवरिश की भूमिका में संतुलन ला सकें।”

इसी तरह ब्राज़ील के नेशनल एसेम्बली की एक तस्वीर वायरल हुई थी जिसमें बहस में भाग लेते हुए वहां की महिला सांसद अपने बच्चे को स्तनपान करा रही हैं। इसी तरह आर्जेन्टीना की संसद में एक सांसद की अपनी बेटी को स्तनपान कराते तस्वीर हमारे सामने आई थी।

आप सोचिए क्या हमारे यहां ऐसा संभव है। हमारे यहां ऐसा हो जाए तो कैसा बवाल मच जाए। हालांकि ख़बर है कि हमारे संसद भवन में भी क्रेच बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी मिल चुकी है। फिर भी हम ऐसे मामलों में बेहद दोगले किस्म के व्यक्ति हैं। एक तरफ हम मंदिरों में शिवलिंग को पूजते हैं दूसरी तरफ एक मां की छाती दिख जाने पर भी हाहाकार मचा देते हैं।

एक मलयाली पत्रिका में ऐसी ही एक तस्वीर छपने पर कैसा हंगामा हुआ था आपको याद होगा। हालांकि तब कहा गया कि ये एक मां-बच्चे की सहज तस्वीर नहीं बल्कि मॉडलिंग है और अपनी पत्रिका की बिक्री बढ़ाने की एक ओछी कोशिश, लेकिन पत्रिका का यही कहना था कि ये स्तनपान को बढ़ावा देने की मुहिम का हिस्सा है। इसकी टैग लाइन भी यही थी “डोन्‍ट स्‍टेयर, वी वॉन्‍ट टु ब्रेस्‍टफीड” (घूरो मत, हम स्‍तनपान कराना चाहते हैं)।

महिलाओं के बराबरी के अधिकार की लड़ाई इन दिनों तेज़ हुई है लेकिन अभी बहुत कुछ बाकी है। ऐसी घटनाएं हमारी मानसिकता को बताती हैं। आपको मालूम है कि स्तनपान के प्रति जागरूकता लाने के उद्देश्य से भारत समेत 170 से भी अधिक देशों में एक से सात अगस्त विश्व स्तनपान सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। इसका उद्देश्य मां के दूध की अहमियत को समझने एवं बच्चे के स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाना है। साथ ही इसका उद्देश्य कामकाजी महिलाओं को उनके स्तनपान संबंधी अधिकार के प्रति जागरूकता प्रदान करना और कार्यालयों में भी इस प्रकार का माहौल बनाना कि स्तनपान कराने वाली महिलाओं को किसी भी प्रकार की असुविधाएं न हो। इस साल यानी 2018 में विश्व स्तनपान सप्ताह की थीम “स्तनपान जीवन की नींव” रहा। स्तनपान को बढ़ावा देने के लिए हमारे देश में 1984 में एक डाक टिकट तक जारी हुआ।

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डॉक्टर से लेकर बड़े-बूढ़े तक बताते हैं कि मां का दूध बच्चों को बड़ी से बड़ी बीमारी से लड़ने में मदद करता है और उन्हें कई प्रकार के रोगों से बचाता है। नवजात शिशुओं के लिए मां का दूध अमृत के समान है। मां के दूध में ज़रूरी पौष्टिक तत्व जैसे आवश्यक प्रोटीन, आयरन , वसा, कैलोरी और विटामिन होते हैं। यही वजह है कि छह माह तक बच्चों को सिर्फ मां का दूध पिलाने की सलाह दी जाती है। इसके अलावा दो साल तक बच्चों को मां का दूध पिलाने को कहा जाता है। इससे मां-बच्चे के बीच बेहतर भावानात्मक संबंध भी बनते हैं।

लेकिन हम इसके लिए ही रोकते हैं। इसमें भी अश्लीलता और गंदगी ढूंढते हैं। इसमें भी हमें स्त्री की देह ही दिखाई देती है। जबकि हम और आप ही बात-बात में खुलेआम एक-दूसरे को चुनौती देते हुए कहते हैं कि- “मां का दूध पिया है तो आ जा लड़ ले।”

स्तनपान में भारत की स्थिति बेहतर है लेकिन कार्यस्थल पर इसकी कोई व्यवस्था नहीं। जबकि कामकाजी महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

आप जानते हैं कि हमारे यहां सरकारी-गैरसरकारी दफ्तर में बच्चों के लिए क्रेच की कोई व्यवस्था नहीं है। भले ही हम अपनी महिलाओं को देवी और बच्चों को भगवान का रूप कहें, भले ही स्तनपान जागरूकता के लिए बड़े-बड़े अभियान चलाए जाएं लेकिन हकीकत में कामकाजी युवा मांओं को अपने दुधमुंहे बच्चे डब्बाबंद दूध के भरोसे घर पर या फिर निजी क्रेच में छोड़कर आने होते हैं।

इसलिए ये लड़ाई मंदिर से लेकर कार्यस्थल तक जाती है।

सबरीमाला मंदिर को हर उम्र वर्ग की महिलाओं के लिए खोलने का आदेश देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 25 सभी वर्गों के लिए बराबर है। मंदिर हर वर्ग के लिए है किसी खास के लिए नहीं है। हर कोई मंदिर आ सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धर्म एक है गरिमा और पहचान। अयप्पा कुछ अलग नहीं हैं।

ये फैसला 28 सितंबर को आता है और एक अक्टूबर को वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर में एक मां के साथ ये सब दुर्व्यवहार देखने को मिलता है। आप नोट कर लीजिए ये उन दिनों की बात है जब गाय को मां का दर्जा देते हुए उसकी महिमा गई जा रही है लेकिन एक मां के साथ ऐसा बर्ताव! और वो भी एक मंदिर में।

इससे पहले महिलाओं ने महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर में भी प्रवेश की लड़ाई जीती। इसी तरह हाजी अली की दरगाह में भीतर मजार तक जाने की लड़ाई महिलाओं ने जीती। यानी पूजा-इबाबत तक में बराबरी के अधिकार के लिए हिन्दू-मुस्लिम महिलाओं को लगातार अपनी लड़ाई लड़नी पड़ रही है। मस्जिदों की तारीफ में भले ही ये कहा जाए कि वहां राजा और रंक एक ही सफ (पंक्ति) में खड़े हो जाते हैं लेकिन वहां भी स्त्रियों के लिए कोई जगह नहीं है। मुसलमानों में तीन तलाक़ और हिन्दुओं में बिना तलाक़ छोड़ी गई औरतों का मुद्दा आप सबके सामने है ही।

इसलिए शनि शिंगणापुर मंदिर में प्रवेश की लड़ाई का सर्मथन करते हुए 2016 में मैंने अपने एक लेख में लिखा था “ मंदिर प्रवेश : जीतकर भी हार जाएंगी महिलाएं।” मतलब ये कि महिलाओं को ऐसे हर उस धर्मस्थल पर दावा तो करना होगा जहां किसी भी तरह का लैंगिक भेदभाव है, जहां सिर्फ महिला होने की वजह से उनके प्रवेश पर रोक है, लेकिन ऐसी लड़ाई जीतकर उन्हें ऐसी जगह जाना भी छोड़ना होगा या कम करना होगा क्योंकि उनके शोषण के बीज या जड़ इसी मंदिर-मस्जिद या धर्म के भीतर हैं। दरअस्ल हम देख रहे हैं कि महिलाओं की आज़ादी और बराबरी की लड़ाई को जितना धर्म और आस्था ने नुकसान पहुंचाया है और किसी ने नहीं। धर्म ही वह व्यवस्था है जो ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को पुष्ट करती है और स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाए रखना चाहती है।

इसलिए कहता हूं कि हमें ऐसे मंदिर नहीं चाहिए जहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित हो, हमें ऐसे मंदिर नहीं चाहिए जहां एक मां को अपने बच्चे को स्तनपान कराने से रोक दिया जाए। यही बात दलित और पिछड़ों को भी समझनी चाहिए, इसी से उनकी लड़ाई मजबूत होगी।

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