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भारत
राजनीति
क्या महाराष्ट्र सरकार कॉर्पोरेट्स के साथ मिलकर भूमि हड़प रही है?
रेमंड जैसी कई कंपनियाँ जिनके पास निरस्त किए गए यूएलसी अधिनियम के तहत अतिरिक्त भूमि थी, जिसे राज्य को वापस किया जाना था, उस ज़मीन को अब ग़रीबों के लिए किफ़ायती आवास बनाने के नाम पर वापस उन्ही कंपनियों द्वारा हड़पने की कोशिश की जा रही है।
अमय तिरोदकर
14 Jun 2019
Translated by महेश कुमार
क्या महाराष्ट्र सरकार कॉर्पोरेट्स के साथ मिलकर भूमि हड़प रही है?
सांकेतिक तस्वीर। सौजन्य: हिंदुस्तान टाइम्स

महाराष्ट्र का ठाणे शहर में – जो राजधानी मुंबई से सटा हुआ है - प्रसिद्ध विशाल कपड़े की कंपनी रेमंड ने पाँच लाख वर्ग मीटर (123.5 एकड़) में फैले भूखंड पर एक संयंत्र स्थापित किया था। इस संयंत्र को 2009 में बंद कर दिया गया था।

2007 में, महाराष्ट्र सरकार ने शहरी भूमि (सीलिंग और विनियमन) अधिनियम, 1976 (यूएलसी एक्ट) को निरस्त कर दिया था। महाराष्ट्र में हज़ारों कंपनियाँ थीं जिनके पास यूएलसी के तहत अतिरिक्त भूमि थी, और रेमंड उनमें से एक था। अधिनियम की धारा 20 के अनुसार, राज्य सरकार के लिए यह अनिवार्य है कि वह उन कंपनियों से अतिरिक्त ज़मीन वापस ले ले, जिन्होंने वहाँ काम बंद कर दिया है। मुंबई के संदर्भ में 500 वर्ग मीटर से कुछ अधिक ज़मीन का होना भी अतिरिक्त ज़मीन के दायरे में आता है। ठाणे के लिए, यह सीमा 1,000 वर्ग मीटर है।

बॉम्बे हाई कोर्ट की एक पीठ ने 2014 के अपने एक आदेश में स्पष्ट रूप से कहा था कि कंपनियों से अतिरिक्त भूमि लेने का नियम यूएलसी अधिनियम के निरस्त होने के बाद भी लागू है। अपने आदेश में, हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को भूमि का नियंत्रण लेने, और ग़रीबों के लिए आवास के लिए उपयोग करने के लिए कहा था।

आदेश के अनुसार, अब तक राज्य सरकार को रेमंड से अतिरिक्त जमीन वापस ले लेनी चाहिए थी।
हालांकि, 2016 में राज्य के राजस्व मंत्रालय ने एक 'विकास' के प्रस्ताव पर नज़र दौड़ाई। हालांकि हाई कोर्ट के आदेश के तुरंत बाद, तत्कालीन राजस्व मंत्री एकनाथ खडसे को इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना चाहिए था, और अतिरिक्त भूमि पर नियंत्रण कर लेना चाहिए था। जबकि, खडसे ने एक 'अंतरिम आदेश' पारित किया, जो एक शर्त के साथ भूमि के विकास के लिए लगभग एक तरह की अनुमति दे देता है। और वह शर्त क्या थी? आवेदक के प्रस्ताव को भूमि अधिग्रहण समिति के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए था। इसका मतलब यह था कि भूमि के हस्तांतरण को एक तरह से 'अधिग्रहण' माना जा रहा था।
यहाँ, कंपनी के पास अतिरिक्त भूमि पर कोई अधिकार नहीं है क्योंकि उसे केवल औद्योगिक उपयोग के लिए - धारा 20 में आमद छूट के तहत अनुमत सीमा से परे भूमि को बनाए रखने की अनुमति थी। इसलिए, यह स्पष्ट रूप से 'अधिग्रहण' का मामला नहीं था।
महाराष्ट्र चैंबर ऑफ़ हाउसिंग इंडस्ट्री (एमसीएचआई) ने 2015 में बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। और उनकी इस अपील को स्वीकार करते हुए, शीर्ष अदालत ने एक आदेश दिया था जिसमें अगले फ़ैसले तक किसी भी तरह की 'कार्रवाई' पर रोक लगा दी गई थी। 

इसलिए, भूमि अधिग्रहण समिति को 'विकास प्रस्ताव' पर नज़र डालने के लिए कहकर, खडसे ने हाई कोर्ट के आदेश की अनदेखी की और साथ ही सर्वोच्च न्यायालय के स्टे की भी अनदेखी की -  जो कि संभवतः दोनों अदालतों की अवमानना है। अब, जब तक सर्वोच्च न्यायालय हाई कोर्ट के आदेश का अनुसरण नहीं करता है, सरकार इस मुद्दे पर यथास्थिति बनाए रखने के लिए बाध्य है।

अजीब बात यह है कि राज्य सरकार, जो एमसीएचआई की अपील का विरोध करते हुए हाई कोर्ट के आदेश का समर्थन कर रही थी, ने 2019 में पूर्ण यू-टर्न ले लिया है। अब उसने एक हलफ़नामा दायर किया है - एक विपरीत रुख पेश करते हुए - इस के विकास की अनुमति देने के लिए एमसीएचआई के साथ सहमति पर हस्ताक्षर किए हैं। वह भी केवल भूमि का मात्र 10 से 15 प्रतिशत प्रीमियम चार्ज करने के बाद।
हालांकि, 16 मार्च, 2018 को जारी एक आदेश में, ठाणे जिला यूएलसी प्राधिकरण ने रेमंड द्वारा पूर्व में क़ब्ज़ाई गई भूमि पर आवास के प्रस्ताव को मंज़ूरी दे दी है, और सर्वोच्च न्यायालय स्टे के बावजूद 37,800 वर्ग मीटर भूमि पर निर्माण की अनुमति दे दी गई है।

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि ठाणे कलेक्टर कार्यालय समय-समय पर इस बात पर ज़ोर देता रहा है कि अगर इस तरह की प्रमुख ज़मीन की नीलामी की जाती है तो सरकार को भारी राजस्व मिलेगा।

80 के दशक के उत्तरार्ध में, कई बड़ी कंपनियों ने कारखानों को बंद करने की प्रवृत्ति दिखाई थी- ताकि महाराष्ट्र की राजधानी और उसके आस-पास की अचल संपत्ति में उछाल आ सके। कई कंपनियाँ अपने मुनाफ़े को बड़ा करने के लिए रियल एस्टेट डेवलपर्स में रातों रात बदल गईं। हालांकि, इस तरह के हज़ारों कारख़ाने श्रमिकों की नौकरी के नुक़सान की क़ीमत पर बंद हुए थे। इसने यूएलसी अधिनियम के दायरे को हरा दिया जिसने इन कंपनियों को केवल 'औद्योगिक क्षेत्र' के लिए एक स्वीकार्य आकार से परे की भूमि रखने की अनुमति दी थी।

रेमंड इस तरह की प्रवृत्ति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

अब, रेमंड द्वारा कब्ज़ाई भूमि पर विकास परियोजना के प्रस्ताव पर नजर डालते हैं।

उक्त परियोजना ठाणे शहर के पचपखड़ी क्षेत्र में स्थित है। इस क्षेत्र के लिए रेडी रेकनर दर [जिसे स्टांप ड्यूटी निर्धारित करने के लिए उपयोग किया जाता है] 80,800 रुपये प्रति वर्ग मीटर या 8,080 रुपये प्रति वर्ग फ़ीट है। यदि हम इस दर का उपयोग करके गणना करें, तो इस भूमि की लागत 3,28,75,50,000 करोड़ रुपये या उससे से अधिक हो जाती है! बाज़ार की दरें आमतौर पर रेडी रेकनर रेट से दो गुना तक अधिक होती हैं।

रेमंड ग्रुप कंपनियों के सैकड़ों श्रमिकों ने इस मुद्दे पर सरकार और स्थानीय निकायों और भूमि धारकों के द्वारा  'आपराधिक हेरफेर' के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू कर दिया है। "राज्य सरकार ने कैसे इसकी अनदेखी की, ठाणे नगर निगम ने अनदेखी की और ज़िला कलेक्टर/यूएलसी अधिकारियों ने बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश और सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम स्थगन पर चुप्पी साध ली? वे कैसे कंपनी को इस तरह के मलाईदार प्रोजेक्ट में जाने की अनुमति दे सकते हैं? इसमें विशाल धनराशि शामिल है, और इसलिए, सभी अधिकारी इसमें अपना हाथ साफ़ कर रहे हैं। हम उम्मीद करते हैं कि अदालत इस मुद्दे पर सख़्त आदेश देगी।" रेमंड श्रमिकों के प्रतिनिधि अनिल महादिक, रघुनाथ साल्वे और जितेंद्र पाटिल ने कहा।

संपर्क करने पर, रेमंड रियल्टी के प्रवक्ता ने न्यूज़क्लिक को बताया, "हम यूडीडी और राज्य सरकार द्वारा विधिवत अनुमोदित सभी क़ानूनी अनुमति प्राप्त कर चुके हैं। संबंधित भूमि को यूएलसी अधिनियम के दायरे में  मंज़ूरी दे दी गई है, जिसके बाद नगर निगम ने उन्हे भवन निर्माण की मंज़ूरी दी है।"

महाराष्ट्र के मुंबई, ठाणे, पालघर और रायगढ़ जिलों में ऐसी कई कंपनियाँ हैं - जिन्हें एमएमआर (मुंबई महानगर क्षेत्र) कहा जाता है। न्यूज़क्लिक में इस तरह के 10 मामले सामने आए हैं। अगर ऐसी कंपनी का एक प्रोजेक्ट बाज़ार मूल्य के अनुसार 600 करोड़ रुपये तक जा सकता है, तो हम इस पूरे मामले में पैसे के खेल की सीमा की कल्पना कर सकते हैं।

दूसरी तरफ़, अगर इस भूमि का उपयोग किफ़ायती घरों के निर्माण के लिए किया जाना है, तो 450 वर्ग फ़ुट क्षेत्र के कम से कम 711 घर रेमंड के स्वामित्व वाली भूमि पर बनाए जा सकते हैं। और बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश के अनुसार, 2,808 हेक्टेयर ज़मीन केवल मुंबई में किफ़ायती घरों को बनाने के लिए उपलब्ध है। यह भूमि शहर के लगभग हर ग़रीब व्यक्ति को समाहित करने के लिए पर्याप्त हो सकती है। यह तभी संभव है जब तक कि महाराष्ट्र सरकार बड़े निगमों के पैसे के खेल के सामने मूक खिलाड़ी बन कर नहीं खड़ी रहती है।

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