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भारत
राजनीति
सुप्रीम कोर्ट को राजद्रोह क़ानून ही नहीं,यूएपीए और एनएसए के दुरुपयोग पर भी विचार करना चाहिए
राजद्रोह क़ानून को हटाने में मदद तभी मिलेगी, जब अदालत का ध्यान नागरिकों के असहमति और स्वतंत्रता के अधिकार पर होगा
सुहित के सेन
22 Jul 2021
UAPA

इस समय सुप्रीम कोर्ट देश के राजद्रोह क़ानून, ख़ास तौर पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A के सिलसिले में संभावनाओं को टटोल रही है। कोर्ट ने कहा है कि ब्रिटिश राज के राष्ट्रवादी नेताओं और अन्य आलोचकों को सताने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला औपनिवेशिक युग का यह क़ानूनी प्रावधान एक स्वतंत्र, संवैधानिक लोकतंत्र के हिसाब से असंगत और ग़ैर-मुनासिब है।

एक सेवानिवृत्त सेना अधिकारी और एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया की तरफ़ से इस देशद्रोह क़ानून की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए दायर मामले में मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अगुवाई वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने 15 जुलाई को एक बुनियादी सवाल उठाया है कि क्या संवैधानिक लोकतंत्र में धारा 124 ए की ज़रूरत रह गयी है ? पीठ का झुकाव इस विचार की तरफ़ दिखा कि इसकी ज़रूरत बिल्कुल नहीं है और केंद्र से पीठ ने पूछा कि उसने इस क़ानून को उस तरह रद्द क्यों नहीं किया, जिस तरह केन्द्र कई "पुराने पड़ चुके बाक़ी क़ानूनों" को रद्द कर दिया है।

यह राजद्रोह क़ानून कई लिहाज़ से चिंता पैदा करने वाला क़ानून है। पहली बात कि इसे जिस तरह तैयार किया गया है,वह इतना व्यापक और अस्पष्ट है कि इसका व्यापक दुरूपयोग हो सकता है। मिसाल के तौर पर हाल ही में इस क़ानून का इस्तेमाल हरियाणा के आंदोलनकारी किसानों के ख़िलाफ़ उस समय किया गया, जब आंदोलनकारियों ने राज्य के डिप्टी स्पीकर की कार पर कथित रूप से पथराव किया था। इस देशद्रोह क़ानून का दुरुपयोग का मामला हाल ही में पेट्रीसिया मुखिम और अनुराधा भसीन की तरफ़ से दायर एक अन्य याचिका में उठाया गया था, जिन्होंने पत्रकारिता के अपने पेशे पर पड़ने वाले इसके डराने-धमकाने के असर पर ध्यान दिलाया है। यहां तक कि पहले से ही इस व्यापक और अस्पष्ट क़ानून की ज़्यादतर उदार धार्मिक व्याख्या भी ऐसे मामले में इस राजद्रोह क़ानून के आह्वान का समर्थन नहीं करती है।

आईपीसी की धारा 124A कहती है: 'जो कोई भी,शब्दों,चाहे वे बोले गये शब्द हों या लिखित शब्द हों, या संकेतों, या दृश्यात्मक प्रतीकों या दूसरे किसी भी तरीक़ों से क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के ख़िलाफ़ नफ़रत या अवमानना या फिर असंतोष भड़कायेगा या फैलायेगा या ऐसी कोशिश करेगा...' उसे दंडित किया जायेगा। चाहे जो भी हो,मगर किसी वाहन पर होने वाला हमला देशद्रोही तो नहीं हो सकता।

यह मामला तो एक ऐसा मामला है,जिससमें क़ायम करने वाला मसखरेपन की हद को पार गया दिखता है। कोई शक नहीं कि यह अभियोग भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रति दरियादिली और निरंतर निष्ठा दिखाने की इच्छा से प्रेरित है। ज़्यादातर मामलों में इस राजद्रोह क़ानून का इस्तेमाल असहमति को दबाने या फिर उन लोगों को परेशान करने के लिए किया जाता है, जिनके पास महत्वपूर्ण समकालीन मुद्दों पर सत्ताधारी पार्टी और उसके विस्तारित परिवार यानी संघ परिवार की तरफ़ से आगे बढ़ाये जा रहे नासमझ और जाहिलों के मुक़ाबले एक दृष्टिकोण या कुछ अलग तरह का नज़रिया है। इसकी ताज़ा मिसाल अपनी बेहद बुरी छवि के लिए कुख्यात दिल्ली पुलिस द्वारा बेंगलुरू की रहने वाली 22 साल की पर्यावरणविद् दिशा रवि का अपहरण/गिरफ़्तारी है,जिन पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया था।। दिल्ली की एक अदालत ने राजधानी की पुलिस की तीखे आलोचना करते हुए इस आरोप को ख़ारिज कर दिया था।

देशद्रोह क़ानूनों का यह दुरूपयोग उपलब्ध आंकड़ों में भी पतिबिंबित होता है। जब से राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने देशद्रोह के मामलों की संख्या दर्ज करना शुरू किया है, तब से यह संख्या बढ़ती ही जा रही है,उदाहरण के लिए 2014 और 2019 के बीच 326 लोगों पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया है। जिस मनमाफ़िक तरीक़े से आरोप लगाये गये हैं, वह मिलने वाली सज़ा की न्यून दर से साफ़ हो जाता है। इस अवधि में महज़ 10 लोगों को ही दोषी ठहराया गया है, यह दस भी शायद बहुत ज़्यादा है। इसके बावजूद, साल 2000 में 107 लोगों पर ये आरोप क़ायम किये गये।

सुप्रीम कोर्ट ने इस बात का संकेत दिया है कि अगर सरकार इसे ख़त्म करने के लिए कोई क़दम नहीं उठाती है, तो वह धारा 124A की संवैधानिकता की जांच के लिए एक बड़ी पीठ का गठन कर सकती है। इससे पहले जून में सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने अनुभवी पत्रकार विनोद दुआ के ख़िलाफ़ देशद्रोह के एक मामले को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि पत्रकार इस तरह की कार्रवाई से सुरक्षा के हक़दार हैं। एक अन्य पीठ ने जुलाई में मणिपुर और छत्तीसगढ़ के उन दो पत्रकारों की तरफ़ से दायर एक याचिका के सिलसिले में देशद्रोह क़ानून पर केंद्र को नोटिस जारी किया था, जिन पर इसके तहत मामला दर्ज किया गया था।

इस धारणा से किसी का विरोध नहीं हो सकता कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की सरकार के तहत भारत तेज़ी से एक पुलिस राज्य में बदलता जा रहा है। इन दोनों की चुनावी मामलों में दिखती तत्परता और शासन के मामले में दिखता खोखलापन पूरी तरह स्पष्ट दिखते हैं। असहमति को दबाने और विरोध करने वालों और राजनीतिक और वैचारिक विरोधियों को सताने के लिए शासन के साधनों के इस्तेमाल को खारिज करने को आम तौर पर बहुत ही अच्छा विचार माना जाता है।

इस तरह, क़ानून की किताबों से धारा 124A को हटाया जाना ज़रूरी है। लेकिन, बात यहीं ख़त्म नहीं होनी चाहिए। यह शासन ख़ास तौर पर ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) का दुरुपयोग करते हुए उन लोगों को ज़मानत के बिना लंबे समय तक हिरासत में रखने का भी दोषी रहा है, जिनकी विश्वदृष्टि हिंदुत्व विचारधारा के जड़बुद्धि वाले रूढ़िवाद से जुड़ी नहीं है।

इसका एक अच्छा उदाहरण मणिपुर के एक कार्यकर्ता एरेन्ड्रो लीचोम्बम हैं, जिन्हें एनएसए के तहत हिरासत में ले लिया गया था और 13 मई से उस फ़ेसबुक पोस्ट के लिए क़ैद में रखा गया था, जिसमें साफ़ तौर पर कहा गया था कि गाय का गोबर और मूत्र कोविड-19 का इलाज नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने मणिपुर सरकार की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर-जनरल तुषार मेहता को यह कहते हुए  19 जुलाई को उनकी तत्काल रिहाई का आदेश दिया कि इस मामले की आगे की जांच के लिए कुछ दिनों की और मोहलत दिये जाने के उनके अनुरोध पर विचार इसलिए नहीं किया जायेगा, क्योंकि लीचोम्बम के सभी बयान "निरपराध" हैं। " इस तरह से क़ैद किया जाना पूर्वाग्रह और द्वेष से ग्रस्त एक पार्टी  की मंशा को साफ़ तौर पर सामने रख देता है।

जहां तक यूएपीए की हक़ीक़त का सवाल है, उसकी पोल तो एनसीआरबी के आंकड़े खोलकर रख दे रहे हैं। ये आंकड़े दिखाते हैं कि 2014 से यह संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। 2014 में यह संख्या जहां 976 थी,वहीं यह संख्या 2015 में 897, 2016 में 922, 2017 में 901, 2018 में 1,182 तक पहुंच गयी। जिन राज्यों में भाजपा का शासन है,वहां यूएपीए मामलों में लगातार बढ़ोत्तरी देखी गयी है। यूएपीए (और एनएसए) मामलों की कुछ ख़ास विशेषतायें हैं। पहली विशेषता तो यह है कि राजद्रोह के आरोपों के मुक़ाबले इसमें मिलने वाली सज़ा की दर बहुत ही कम है। 2016-19 में यह दर 2.2% थी। दूसरी विशेषता यह है कि इन मामलों में ज़मानत शायद ही कभी दी जाती है और तीसरी विशेषता है कि जैसा कि भारत में सभी मुकदमों में होता है, मुकदमे लंबे समय तक चलते हैं। अगर दूसरे शब्दों में कहा जाये,तो बहुत से लोगों को लंबे समय तक क़ैद में रखा जाता है, हालांकि ज़्यादा संभावना यही है कि आख़िरकार वे सब के सब बरी हो जायें।

एल्गार परिषद मामले में गिरफ़्तार और क़ैद किये गये 16 लोगों में से एक, फ़ादर स्टेन स्वामी की 84 वर्ष की उम्र और पार्किंसंस रोग से पीड़ित होने के बावजूद ज़मानत दिये बिना उनकी मौत हिरासत में ही हो गयी। इस मामले में गिरफ़्तार किये गये सभी लोगों पर यूएपीए के झूठे आरोप लगाये गये हैं और सिर्फ़ लोकगायक वरवर राव को उनकी ज़्यादा उम्र और ख़राब सेहत के कारण ज़मानत दी गयी है। यहां इस बात को याद रखना ज़रूरी है कि हिंदुत्व के समर्थक उस मनोहर भिड़े, जिसे मोदी साफ़ तौर पर अपने गुरु मानते हैं, और मिलिंद एकबोटे सहित असली अपराधियों को छोड़ने के लिए 1 जनवरी 2018 को भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा को उकसाने और उसे अंजाम देने को लेकर इस मामले में जेल में रह रहे लोगों को बलि का बकरा बनाया गया है।

सुप्रीम कोर्ट के रिकॉर्ड में यह वाक्य दर्ज है, ‘ज़मानत आदर्श है, जेल अपवाद है।’ अगर वास्तव में इस मामले में भी ऐसा ही है, तो शीर्ष अदालत को ज़मानत देने से सम्बन्धित अपने इन बुनियादी सिद्धांतों पर ख़ास तौर से यूएपीए और एनएसए से जुड़े मामलों में फिर से विचार करना चाहिए,  क्योंकि जिस भावना के साथ और जिस तरह से उन्हें क़ायम किया गया है, वह देशद्रोह क़ानून की तरह ही है।  चुभने वाले इस सेक्शन यानी 124A का मतलब सिर्फ उन कठोर क़ानूनों का सहारा लेना होगा, जो जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर रहे हैं।

नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा को लेकर न्यायपालिका की ज़िम्मेदारी कहीं ज़्यादा इसलिए बढ़ गयी है, क्योंकि भारत इस समय एक ऐसे शासन के अधीन है, जो ख़ास  तौर पर आलोचकों और अल्पसंख्यकों के लिए जो संवैधानिक सुरक्षा उपाय हैं,उन्हें ख़त्म करने पर तुला हुआ है। न्यायपालिका में सरकार समर्थक एक ऐसी झलक दिखायी देती है, जो हुक़ूमत को बिना किसी नतीजे के लगभग शाब्दिक रूप से बच निकलने की अनुमति दे रही है। अगर भारत को 'चुनावी निरंकुशता' और 'आधी-अधूरी आज़ादी' वाली स्थिति का शिकार होने से रोकना है,तो बहुत ज़रूरी है कि आम नागरिकों के पक्ष में इंसाफ़ होता हुआ दिखे।  

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Not Just Sedition, Supreme Court Should Take Up Misuse of UAPA and NSA Too

Sedition Law
Chief Justice NV Ramana
Indian Penal Code
bail not jail
democracy
Freedom Erendro Leichombam
UAPA

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