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भारत
राजनीति
ONGC: लाभ कमाने वाली कंपनी को बनाया गया बलि का बकरा?
बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार अपने ख़ज़ाने को भरने के लिए ओएनजीसी की नक़दी का इस्तेमाल कर रही है और अब निगम पर ईंधन कटौती का बोझ डालना चाहती है।
वासुदेव चक्रवर्ती
04 Jun 2018
ONGC

केंद्र में बीजेपी की अगुआई वाली सरकार पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतों को कम करने के लिए ईंधन की सब्सिडी सहन करने के लिए तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) से कहने को तैयार है। हालांकि, इस कदम को एक ही घटना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए और वास्तव में यह इस सरकार द्वारा उपायों की एक श्रृंखला का हिस्सा है जिसने एक 'महारत्न' और भारत के सबसे ज़्यादा मुनाफा वाली पीएसयू में से एक ओएनजीसी के फायदे को नुकसान पहुंचाया है।

कम क़ीमत पर उपभोक्ताओं को तेल बेचने को लेकर तेल विपणन कंपनियों को योग्य बनाने के लिए कच्चे तेल की खोज और उत्पादन करने वाली कंपनियों पर ईंधन की सब्सिडी एक बोझ डाला जाता है। हालांकि यह काम कुछ नया नहीं है, हालिया निर्णय ऐसे समय में आया है जब ओएनजीसी के अध्यक्ष शशि शंकर ने कथित तौर पर कहा है कि ये पीएसयू "पहले से ही नुकसान में था।"

पिछले अगस्त में ओएनजीसी ने 7,783 करोड़ रुपए में बंगाल की खाड़ी में कृष्णा गोदावरी (केजी) बेसिन गैस ब्लॉक में गुजरात राज्य पेट्रोलियम निगम की 80%हिस्सेदारी हासिल की थी।जीएसपीसी की खोज प्रक्रिया को लेकर यह एक बेहद संदिग्ध सौदा माना गया जो साल 2005 में किया गया। 19,576 करोड़ रुपए के निवेश के बावजूद साल 2015 के आख़िर तक कोई वाणिज्यिक उत्पादन नहीं हुआ था।

सिक्योरिटीज़ एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) के चेयरमैन यूके सिन्हा को लिखे एक पत्र में राज्यसभा सांसद जयराम रमेश ने कहा कि "जीएसपीसी ने बड़ी रकम ख़र्च की है, विदेशी विशेषज्ञों को बुलाया और विशिष्ट उपकरणों का आयात किया और फिर भी गैस नहीं खोज पाई। फिर, ओएनजीसी को इस ब्लॉक को हासिल करने के लिए 8,000 करोड़ रूपए का भुगतान करना क्यों उचित लगता है? " इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि जीएसपीसी पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात मॉडल का नमूना था, अगर इस क़दम को उठाने के लिए केंद्र का दबाव है तो सवाल खड़ा होता है।

इसके बाद ओएनजीसी ने इस साल की शुरुआत में हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एचपीसीएल) में केंद्र सरकार की 51.11 फीसदी इक्विटी का अधिग्रहण किया था। ओएनजीसी - एचपीसीएल सौदा उस समय हुआ जब सरकार सकल घरेलू उत्पाद के 3.2% के अपने लक्ष्य के भीतर राजकोषीय घाटे को बनाए रखने में डगमगा रही थी - जीएसटी संग्रह और गैर कर राजस्व के अपेक्षित निचले स्तरों के लिए धन्यवाद। ठीक इसी समय सरकार ने उस वित्तीय वर्ष में 72,500 करोड़ रुपए एकत्र करने के अपने "विनिवेश लक्ष्य" को भी पूरा नहीं किया था। इस प्रकार एक पीएसयू को दूसरे पीएसयू में अपनी इक्विटी खरीदकर सांख्यिकीय चालाकी के एक अधिनियम के माध्यम से सरकार ने एक ही तीर से दो शिकार कर लिया। इसने अपने राजकोषीय घाटे के स्तर को प्रबंधित किया और पर्याप्त "विनिवेश" करने में भी कामयाब रहा।

लेकिन ओएनजीसी पर इस अधिग्रहण का असर क्या था? इसे बैंकों से भारी रक़म उधार लेना पड़ा। इस सौदा के वित्तपोषण के लिए 35,000 करोड़ रुपए लेने पड़े। जिन्होंने पैसा दिया था वे बैंक थे: पंजाब नेशनल बैंक (एक वर्ष के लिए 10,600 करोड़ रुपए), बैंक ऑफ इंडिया (एक वर्ष के लिए 4,460 करोड़ रुपए), एक्सिस बैंक (एक वर्ष के लिए3,000 करोड़ रुपए), एसबीआई (7,340 करोड़ रूपए), एचडीएफसी और आईसीआईसीआई (4,000 करोड़ रुपए एक-एक वर्ष के लिए), एक्सपोर्ट-इंपोर्ट बैंक ऑफ इंडिया (एक वर्ष के लिए 1600 करोड़ रुपए)। ये सौदा और आगामी उधार लेने की संभावना निश्चित रूप से ओएनजीसी के "क़र्ज़" को बढ़ाएगा।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ओएनजीसी तेल उत्पादक होने के अलावा खोज में भी शामिल है। खोजी के काम के लिए अक्सर लंबी अवधि के लिए बड़ी पूंजी निवेश की आवश्यकता होती है। कोई आश्चर्य कर सकता है कि कैसे "क़र्ज़दार" निगम इस काम को पूरा करने में सक्षम होगा।

ओएनजीसी अपनी शाखा ओएनजीसी विदेश लिमिटेड (ओवीएल) के माध्यम से विदेशों के परिचालन में भी शामिल है। वर्तमान में ओवीएल के पास 20 देशों में 41 तेल एवं गैस परियोजनाओं में हिस्सेदारी है। यहां तक कि इस तरह की एक विशाल बहुराष्ट्रीय प्रोफाइल के साथ ओएनजीसी ने 500 की फॉर्च्यून सूची में जगह नहीं पा सका जबकि चीनी सरकारी कंपनियां सिनोपेकग्रुप और चाइना नेशनल पेट्रोलियम इसी सूची में क्रमशः तीसरे और चौथे स्थान पर हैं। किसी ऐसी सरकार के लिए जो अक्सर आर्थिक रूप से चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करने के बयान में शामिल होती है,उसके लिए ये तथ्य घातक होनी चाहिए।

इस क्रम में ओएनजीसी को ईंधन सब्सिडी देने के लिए बाध्य करने वाला ये कदम केवल निगम के लाभ में गिरावट का कारण बन सकता है। न्यूजक्लिक से बात करते हुए सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन्स के महासचिव तपन सेन ने कहा, "ईंधन की कीमतों में कटौती करना सरकार की राजनीतिक ज़िम्मेदारी है लेकिन वे ओएनजीसी पर इस ज़िम्मेदारी को डाल रहे हैं।" अधिग्रहण और सब्सिडी निगम को कैसे प्रभावित कर सकती है तो उन्होंने कहा, "इससे कंपनी की निवेश क्षमता कम हो सकती है और तकनीकी रूप से विकास की उसकी क्षमता में बाधा डाल सकती है।" उन्होंने एयर इंडिया के उदाहरण की ओर भी इशारा किया, जिसका मुनाफा धीरे-धीरे कम हो गया और अब बिकने की प्रक्रिया में है। उन्होंने इस "सार्वजनिक क्षेत्र को सस्ते में बेचे जाने को सरकार का गेमप्लान" बताया। निस्संदेह तेल खोजी के काम में ओएनजीसी रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड सहितनिजी कंपनियों को लाभ पहुंचा सकती है।

इस सरकार ने अपने ख़जाने को भरने और अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अधिग्रहण के लिए ओएनजीसी को धन अर्जित करने वाली संस्था के रूप में स्पष्ट रूप से इस्तेमाल किया है, और अब इसे सब्सिडी बोझ सहन करने के लिए कुर्बान करने वाले भेड़ के एक बच्चे के रूप में इस्तेमाल कर रही है। इस प्रक्रिया में देश की सबसे मूल्यवान पीएसयू में से एक धीमी गिरावट का ख़तरे का सामना कर रही है, जिससे विनिवेश का फैसला हो सकता है। फिर एक बार लगता है कि ये सरकार एक चक्र को प्रोत्साहित कर रही है जोपीएसयू के मुनाफा को नुकसान पहुंचाता है और फिर इसे बेचने के लिए इसका बहाने के तौर पर इस्तेमाल करती है।

 

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