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भारत
राजनीति
पाकिस्तान में चुनाव होना ही लोकतंत्र की जीत है
25 जुलाई को पाकिस्तान में आम चुनाव होने वाले हैं, पाकिस्तान में ऐसा दूसरी बार हो रहा है कि एक चुनी हुई सरकार के जाने के बाद एक चुनी हुई सरकार बनाने के लिए चुनाव हो रहे हैं I
अजय कुमार
18 Jul 2018
pakistan elections

25 जुलाई को पाकिस्तान में आम चुनाव होने वाले हैं. पाकिस्तान में ऐसा दूसरी बार हो रहा है कि एक चुनी हुई सरकार के जाने के बाद एक चुनी हुई सरकार बनाने के लिए चुनाव हो रहे हैं.अन्यथा,पाकिस्तान का इतिहास है कि हर चुनी हुई सरकार भ्रष्टाचार के आरोप में सत्ता से बेदखल कर दी जाती थी और सेना का शासन सत्ता संभालने लगता था. और कहने वाले कहते थे कि पाकिस्तान के हर बड़े भ्रष्टाचार में सेना भी शामिल रहती है. इस बार भी नवाज़ शरीफ की सरकार पर भ्रष्टाचार के जमकर आरोप लगे. नवाज शरीफ को जीवन भर पाकिस्तानी चुनावी राजनीति से दूर रहने की सजा दी गयी. लेकिन अबकी बार सेना सरकार बनाने  के लिए आगे नहीं आ रही है. सरकार बनाने के लिए चुनाव हो रहे हैं. हालाँकि पाकिस्तान के चुनाव में सेना की अहमियत सब जानते हैं. फिर भी यह पाकिस्तानी दमघोंटू लोकतंत्र में साँस लेने जैसी खबर है कि सेना सामने न आकर नेपथ्य में रहकर दावेदारी करने के लिए मजबूर हुई है.

इस बार के चुनाव में तकरीबन 11 करोड़ जनता हिस्सेदारी करने जा रही है, जो पिछले चुनाव से तकरीबन 23 फिसदी अधिक है. तकरीबन 849 नेशनल और प्रोविंसियल सीटों पर चुनाव लड़ा जाएगा, जिसमें 342 सीटें नेशनल असेम्बली की होंगी. नेशनल असेम्बली की 272 सीटों के सदस्यों को आम जनता चुनेगी, 60 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित है और 10 सीटें धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए. इन दोनों जगहों पर सदस्यों का चुनाव सीधें जनता नहीं करेगी बल्कि वह पार्टियाँ करेंगी जो जनता के द्वारा चुनकर नेशनल असेम्बली में आयेंगी यानि कि आरक्षित सीटों के सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा. पंजाब, सिंध,  खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान पाकिस्तान के चार महत्वपूर्ण चुनावी क्षेत्र हैं. जिसमें से पंजाब सबसे अधिक मत्वपूर्ण क्षेत्र है, जहां पर नेशनल असेम्बली की 190 सीटें हैं. पाकिस्तान के अब तक के चार प्रधानमन्त्री इसी क्षेत्र से सम्बन्ध रखते हैं.

पाकिस्तान चुनाव में बहुत सारी पार्टियाँ पूरे दमखम के साथ पाकिस्तान की तस्वीर बदल देने का दावा कर रही हैं. लेकिन जैसा कि हर समाज बनी बनाई धारणायों पर चलता है ठीक वैसे ही पाकिस्तान में भी तीन परम्परागत पार्टियाँ पाकिस्तान पिपुल्स पार्टी, पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज और पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ को ही लोग सत्ता का दावेदार समझते हैं. पीपीपी की अगुवाई  बेनजीर भुट्टो की औलाद बिलावल भुट्टो, मुस्लिम लीग नवाज़ की अगुवाई नवाज शरीफ के बाद दूसरे सबसे बड़े नेता शहबाज़ शरीफ और पीटीआई की अगुवाई अपने जामने में धाकड़ क्रिकेटर रह चुके इमरान खान कर रहे हैं. इन सारे बड़े नेताओं से जुड़ा  एक दिलचस्प वाकया यह है कि ये सारे नेता एक से अधिक नेशनल असेम्बली की सीटों पर  चुनाव लड़ रहे हैं. बिलावल भुट्टो तीन, शहबाज़ शरीफ चार और इमरान खान पांच जगहों से चुनाव लड़ रहे हैं. यह चुनावी हकीकत जाहिर करता है कि अभी भी पाकिस्तान को लोकतन्त्र का क ,ख ,ग सीखनें में सदियाँ लगेंगी. हालांकि लोकतंत्र के क,ख,ग सीखनें के भंवर में फंसे भारतीय नेता भी ऐसी हरकतें करते रहतें हैं. भारतीय प्रधानमंत्री ने खुद लोकतान्त्रिक तबियत की धज्जियां उड़ाते हुए दो जगह से चुनाव लड़ा था और आए दिन ‘एक साथ चुनाव’ की बात करते रहतें हैं. 
 
खुले तौर पर धर्म का चोला पहननेवाले लोग भी इस चुनाव में सत्ता हासिल करने की दावेदारी कर रहे हैं. हाफिज सईद वाली जमात-उद-दावा, जिस पर पाकिस्तान सरकार द्वारा प्रतिबन्ध लगाया गया है, वह भी अपनी पोलिटिकल विंग मिली मुस्लिम लीग के सहारे ‘अल्लाह हो अकबर तहरीक’ को खुले तौर पर  सपोर्ट कर रही है. 

भारत या पाकिस्तान में जब भी चुनाव होता है तो एक दूसरे के प्रति जनता में गुस्सा पैदा कर वोट हथियानें की कोशिश दोनों देशों के नेताओं द्वारा की जाती है.लेकिन अबकी बार मामला थोड़ा अलग है. पाकिस्तानी नेता, कश्मीर और भारत पर कम बातें कर रहें हैं. पाकिस्तान में भ्रष्टाचार और कानून व्यवस्था अहम चुनावी मुद्दा बनकर उभरा है. साथ में मोदी जी के विकास जैसी बातें भी हैं, जो तीसरी दुनिया के हर नेता द्वारा जनता को लुभाने के लिए की ही जाती हैं. यह तो हालिया चुनाव का विवरण है लेकिन इसके साथ पाकिस्तान के चुनावी इतिहास पर भी एक नजर फेरनी चाहिए.

पाकिस्तान का जन्म होते ही पाकिस्तान के इकलौते प्रभावी रहनुमा मुहम्मद अली जिन्ना दुनिया को अलविदा कहकर चले गये .इनके बाद लियाकत अली खान ने शासन किया लेकिन इनकी भी बहुत जल्द इस दुनिया से विदाई हो गयी. तब जाकर पाकिस्तान के सिविल सेवकों ने पकिस्तान को संभालना चाहा लेकिन जनता पर काबू पाना, उनके बूते से बाहर की बात थी. 1950 से लेकर 1960 तक  पाकिस्तान की सरकार को एक के बाद एक आठ सिविल सेवकों ने सम्भाला. सब भ्रष्टाचार के आरोप में सरकारी गद्दी से उतरते चले गये. सबकी किताबी पढाई धरी की धरी रह गयी. लोग तो यहाँ तक कहने लगे कि जितनी देर में नेहरु अपनी धोती बदलतें हैं,उतनी देर में पाकिस्तान में सरकारें बदल जाती हैं. 

पाकिस्तान को संभालना मुश्किल हो रहा था. तब, 1958 में जनरल अयूब खान ने सरकार बनाने की दावेदारी प्रस्तुत की. अयूब खान का  मानना था कि एक मजबूत सरकार ही पाकिस्तान को चला सकती है. पार्लियामेंट्री सिस्टम  की सरकार छोड़कर प्रेसिडेंसियल सिस्टम की सरकार को अपना लिया गया. तकरीबन  18 हज़ार एलेक्ट्रोल कॉलेज के सहारे राष्ट्रपति  चुनाव करवाने  का फैसला लिया गया. अयूब खान का मनाना था कि एलेक्ट्रोल कॉलेजों को सही फैसला लेने  के लिए सभी तरह की  जानकारी मुहैया करवाकर, पाकिस्तान के लिए एक कायदे की सरकार चुनी जा सकती है. लोकतंत्र के भीतर अर्धलोकतंत्र  का यह ख्याल बेहद दिलचस्प था लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच साल 1966 में  ताशकंद शान्ति समझौता हुआ और जनरल अयूब खान की गद्दी खतरे में पड़ गयी. पश्चिमी पाकिस्तान से जुल्फिकार अली भुट्टो और पूर्वी पाकिस्तान से मुजबीर रहमान, अयूब खान को चुनौती देने लगे. दोनों मांग करने लगें कि पाकिस्तान में फिर से पार्लियामेंट्री  सिस्टम की बहाली की जानी चाहिए. 
 
इस तरह से पाकिस्तान में पहली बार साल 1970 में आम चुनाव हुए. पाकिस्तान की राजनीति में अजीब सी उथल-पुथल मच गयी. पूर्वी पाकिस्तान में कार्यरत शेख मुजबीर रहमान की पार्टी आवामी लीग ने 300 में से तकरीबन 191  सीट जीत लिए और  पश्चिमी पाकिस्तान से जुल्फिकार अली भुट्टो की पार्टी ने केवल 83 सीटें जीतीं. पश्चिमी पाकिस्तान ने सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए पूर्वी पाकिस्तान की सरकार बनाने की दावेदारी को मानने से इंकार कर दिया. पाकिस्तान की अंदरूनी कलह राजनीतिक रूप से भले एक लगती थी लेकिन भौगोलिक  दुराव की वजह से हमेशा से  पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान  की कहानी थी.चूँकि बीच में भारत का भूगोल था तो राजनीतिक भारत का हस्तक्षेप हुआ और पाकिस्तान और बांग्लादेश दो देश बने. पाकिस्तान की सेना और सत्ता इस टूटन के लिए भारत को जिम्मेदार मानने लगी. इसके बाद जब जुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार बनी, तो पाकिस्तान का सारा ध्यान अपनी सैन्य क्षमता बढ़ाने पर केंद्रित होने लगा.  साल 1974 में भारत परमाणु में परिक्षण किया गया और  जुल्फिकार अली भुट्टों ने कहा कि ‘चाहे हमें घास की रोटियां क्यों न खाना पड़े  लेकिन  हम परमाणु क्षमता हासिल करके रहेंगे’.   
 
भुट्टो ने पाकिस्तान पर एक लोकप्रिय  लीडर की तरह शासन किया. अगले चुनाव में धांधली की और सत्ता की गद्दी से बेदखल कर दिया गया. नागरिक  सरकार की तरफ से हुई इस दुर्घटना ने फिर से सेना को पाकिस्तान का दावेदार  बना दिया और जनरल जिया-उल-हक  ने साल 1977 में पाकिस्तान की गद्दी संभाल ली. जनरल जिया-उल-हक  ने आते  ही पाकिस्तान में लोकतंत्र के शासन और इस्लामिक शासन के बीच चल रही लड़ाई का अंत कर दिया और कहा कि मुझे अल्लाह ने चुनकर  भेजा  है इसलिए आज से पाकिस्तान में इस्लाम का शासन होगा. इस दौरान इस्लाम में कुछ सुधार हुए. अल्लाह की निंदा पर मृत्यु दंड का प्रवाधान करने वाला ईशनिंदा कानून  (ब्लेस्फेमी लॉ) भी इसी समय अस्तित्व में आया.  इस तरह जिया-उल-हक ने  पाकिस्तान को इस्लामिक राज्य के कीलें  में बाँध दिया . इसके बाद नब्बे के अंतिम दौर में अफगानी जिहाद का उदय हुआ.  इसी समय अफ़ग़ानिस्तान, एशिया में  रूस और अमेरिका की लड़ाई का सेंटर बनना शुरू हुआ और पाकिस्तान को अमेरिका से पहले के मुकाबले अधिक पैसे मिलने शुरू हुए. पाकिस्तान पैसे के दबाव में अमेरिका की तरफ झुकता चला गया और उसकी सम्प्रभुता भी  गिरवी रखी जाने लगी. साल 1988 में जनरल जिया-उल-हक की हवाई जहाज़ दुर्घटना में मृत्यु हो गयी.
 
उसके बाद फिर से पाकिस्तान में लोकतंत्र और चुनावों की सुगबुहाट उठी. साल 1988 में चौथी बार आम चुनाव हुए. जुल्फिकार अली भुट्टो की लड़की बेनजीर भुट्टो ने सत्ता संभाली लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप में सत्ता छोड़नी पड़ी. साल 1990 में  नवाज़ शरीफ ने सत्ता संभाली लेकिन इन्हें भी भ्रष्टाचार के आरोप में सत्ता छोड़नी पड़ी. न ही बेनज़ीर ने और न ही नवाज ने ईशनिन्दा कानून को ख़ारिज करने की कोशिश की. सऊदी अरब और ईरान के अलगावी एजेंडों   की वजह से पाकिस्तान में सिया और सुन्नी संघर्ष ने गहरा रुख अख्तियार करना शुरू दिया. नवाज और भुट्टो  एक के बाद एक आते गए और भ्रष्टाचार के मामलें में चलते बने. कहा जाता है कि पाकिस्तान के समाज को नफरत से उपजी आंतकवाद और राजनीति को सेना और सत्ता के गठजोड़ से पैदा होने वाले भ्रष्टाचार ने बर्बाद किया है . 
 
साल 1999 में भारत से कारगिल युद्ध  हारने के बाद नवाज शरीफ को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और जनरल परवेज मुशर्रफ की पाकिस्तान पर राज करने की बारी आयी. पाकिस्तान फिर से सैनिक शासन से शासित होने लगा था. इसी दौरान भारत और पाकिस्तान दोनों तरफ से परमाणु परीक्षण हुए. दोनों  खुद को परमाणु हाथीयार से सक्षम साबित करने में कामयाब हुए. इस तरह से युद्ध एक तरह के डर में बदल गया. और बॉर्डर पर होने वाले सैनिक संघर्ष भारत और पाकिस्तान के बीच मौजूद नफरतों को जाहिर करनें के तरीके बनने लगे. 
 
साल 1947 से लेकर साल 2007 तक अमेरिका ने पाकिस्तान को तकरीबन 17 बिलियन डॉलर का सहयोग दिया. यह पैसा दिया तो पाकिस्तान की बेहतरी के लिए जाता था लेकिन इसका इस्तेमाल सेना और सत्ता अपनी मौज के लिए करते थे और अमेरिका पाकिस्तान के सहारे एसिया में रूस,चीन और भारत जैसे देश पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए करता था. पाकिस्तान के अमेरिकी राजदूत हुसैन हक्कानी ने बताया कि साल 2002 तक नागरिक सरकार के समय अमेरिका ने औसतन 180 मिलियन डॉलर और सैनिक शासन के समय औसतन 385 मिलियन डॉलर का सहयोग पाकिस्तान को दिया. कहने का मतलब यह कि सैनिक शासकों के साथ अमेरिका ने खूब याराना निभाया है. साल 2001  में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अलकायदा ने हमला किया. अमेरिका ने पाकिस्तान को या तो तो आतंकवाद या पैसे का सहयोग दोनों में से किसी एक को चुनने के लिए मजबूर किया. जनरल मुशर्रफ ने भविष्य भांपते हुए अमेरिका से मिलने वाले  पैसे का चुनाव किया.

इसके बाद अमेरिका ने पाकिस्तान को खूब पैसा दिया. साल 2002 से 2008 के बीच तकरीबन साढे 11 बिलियन डॉलर की सहयोग राशि दी गयी. और पाकिस्तान अपनी संप्रभुता अमेरिका को बेचता चला गया.  ऐसे में अफगानिस्तान और पाकिस्तान में जो जिहादी कहलाते थे, वे अब आतंकवादी कहलाने लगे.  इस  धारणा ने पाकिस्तान की आम जनता में अमेरिका के प्रति जहर भर दिया. इस तरह से जैसे ही बीसवीं शताब्दी की शुरुआत हुई, पाकिस्तान आतंकवाद का गढ़ बनने लगा. आम जनता से लेकर सेना के ठिकानें और सियासत से लेकर सियासत करने की चाहत रखने वाले तक  सभी पाकिस्तानी आतंकवाद का शिकार बने. पाकिस्तान धीरे -धीरे घरेलू आंतकवाद से ही बर्बाद होने लगा. वकीलों का मुशर्रफ के खिलाफ  घनघोर आंदोलन हुआ और मुशर्रफ को पाकिस्तान की सत्ता से बेदखल कर दिया गया. 
 
साल 2008 में पाकिस्तान में आम चुनाव हुए. इसी चुनाव के लिए प्रचार करने के दौरान बेनजीर भुट्टो को गोली मार दी गयी. साल 2008 में नवाज शरीफ की पार्टी  और पीपीपी ने चुनाव जीता. गठबंधन की सरकार में युसूफ रज़ा गिलानी को प्रधानमंत्री बनाया गया. साल 2012 में पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने युसूफ रज़ा गिलानी को अयोग्य ठहरा दिया. साल 2013 में फिर से नवाज़ शरीफ की सरकार बनी और साल 2018 यानि कि इसी साल नवाज शरीफ को भ्रष्टाचार के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने जीवन भर के लिए चुनावों से दूर रहने की सजा दे दी. 
 
 इस तरह से नवाज शरीफ के अंत के साथ पाकिस्तान में पहले पीढ़ी के लोकतान्त्रिक सियासत करने वालों का अंत हो गया है. अब सेना भी सामने से आने की बजाए पीछे से अपने दाँव-पेंच खेल रही है. कहने वाले कह रहें हैं कि इमरान खान की पार्टी को सेना का पूरा समर्थन मिल रहा है .मीडिया भी सेना के हाथों से  चलाई जा रही है. फिर भी पाकिस्तान चुनाव की तरफ बढ़ रहा है. अंजाम चाहे कुछ भी हो,पकिस्तान का चुनाव से गुजरना ही उसकी सबसे बड़ी लोकतान्त्रिक जीत है.

  

 

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