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भारत
राजनीति
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजनाः 'बीमा कंपनियों के हाथों की कठपुतली बन गए किसान’
किसान नेताओं का कहना है कि किसान बीमा कंपनियों के कठपुतली बन गए हैं और सरकार उनके एजेंट।
सुमेधा पाल
10 Nov 2018
PM Fasal Bima Yojana

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) के वर्ष 2017-18 के हाल में हुए मूल्यांकन से पता चलता है कि नरेंद्र मोदी सरकार की प्रमुख कृषि योजना भारतीय किसानों के ताबूत में आख़िरी कील साबित हो रही है। अपने आप में इस प्रकार के पहले मूल्यांकन में बढ़ते प्रीमियम लेकिन कम होते दावों के मामलों को उजागर किया गया है।

वर्ष 2017-18 में प्रत्येक किसान द्वारा भुगतान किया गया औसत प्रीमियम 4,634 रुपए था जो कि वर्ष 2016-17 से 20% अधिक है। वहीं वर्ष2017-18 में बीमा कंपनियों द्वारा एकत्रित कुल प्रीमियम 23,206.18 करोड़ रुपए था जो कि वर्ष 2016-17 की तुलना में लगभग 12% की असाधारण वृद्धि है।

केंद्रीय कृषि तथा किसान कल्याण मंत्रालय (एमओए और एफडब्लू) द्वारा समर्थित इस मूल्यांकन को पहली बार अगस्त 2018 में संसद में पेश किया गया था, लेकिन अब तक सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं कराया गया है। ये रिपोर्ट इस फ्लैगशिप कार्यक्रम के ख़राब प्रदर्शन को उजागर करती है क्योंकि दावे के निपटारे, नामंज़ूरी और मुआवज़े में देरी से किसान बेहद नाराज़ हैं।

इस बीमा कंपनियों के लिए बोनान्ज़ा साबित होने वाली इस योजना के पैटर्न को ध्यान में रखते हुए इस साल की रिपोर्ट बीमा कंपनियों के 'सुपर नार्मल' मुनाफे की जांच करने और उनकी भागीदारी को सीमित करने यानी इस योजना को दस कंपनियों तक सीमित करने की आवश्यकता पर सिफारिश करता है।

ये रिपोर्ट बीमा कंपनियों की भागीदारी में वृद्धि को दर्शाती है। वर्ष 2016-17 में शामिल कुल 16 बीमा कंपनियों में से 11 निजी और सात सरकारी एजेंसियां थीं। नवीनतम मूल्यांकन में इन बीमा कंपनियों की संख्या बढ़ कर 18 तक पहुंच गई है।

रिपोर्ट में इस तथ्य की ओर संकेत किया गया है कि पिछले दो वर्षों में किसानों के नामांकन में उल्लेखनीय कमी आई है जो वर्ष 2016-17 में5.72 करोड़ से घटकर वर्ष 2017-18 में 4.9 करोड़ से भी कम हो गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कवर किया गया क्षेत्र भी कम हो रहा है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल दावों का तीन-चौथाई और कुल प्रीमियम का तीन-चौथाई उक्त ज़िलों के केवल 25% में ही केंद्रित है।

इस योजना के तहत बीमाकृत कुल क्षेत्र में वर्ष 2016-17 से 2017-18 तक 13.27% की कमी आई है। 2017-18 में फसल में प्रति किसान बीमाकृत क्षेत्र 2016-17 में 0.02 हेक्टेयर से कम था।

इस बीमा के तहत कवर किए गए क्षेत्र में असम, जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, मेघालय और सिक्किम में उच्च लाभ देखा गया है जबकि गोवा, कर्नाटक,महाराष्ट्र और त्रिपुरा बड़ी गिरावट देखी गई।

प्रीमियम अधिक लाभ कम

वर्ष 2017-18 में इस योजना के तहत बीमाकृत कुल राशि 1.91 लाख करोड़ रुपए थी जो कि वर्ष 2016-17 से 0.12% की मामूली वृद्धि हुई। जबकि प्रति किसान बीमा राशि बढ़कर 4,597 रुपए प्रति किसान हो गई, प्रति हेक्टेयर बीमा राशि वर्ष 2016-17 की तुलना में 2017-18 में 3,580रुपए तक बढ़ गई। खरीफ 2017 में बीमा राशि 1.22 लाख करोड़ रुपए था जो खरीफ 2016 से 1% कम था। रबी 2017-18 में बीमाकृत राशि 68,000 करोड़ रुपए था जो रबी 2016-17 से 3.16% अधिक था।

केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा भुगतान किया गया प्रीमियम प्रत्येक का 9,679 करोड़ रुपए था। वर्ष 2017-18 में किसानों द्वारा भुगतान किया गया कुल प्रीमियम 3,916 करोड़ रुपए था जो कि पिछले वर्ष की तुलना में 1% कम है। रिपोर्ट में बताया गया है कि इस योजना के लाभ को अपने वास्तविक लाभार्थियों यानी किसानों के लिए वापस लेना था।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) के जसविंदर सिंह कहते हैं, "इस योजना के तहत किसान एक मोहरा बन गया है और सरकार ख़ुद एजेंट।"

'बीमा कंपनियां किसानों के दावों को व्यर्थ करती हैं'

इस योजना की ज़मीनी सच्चाई की तरफ इशारा करते करते हुए उन्होंने प्रमुख समस्याओं को उजागर किया जो इस कार्यक्रम को नुकसान पहुंचाता हैं - प्रक्रिया के अंश के रूप में किसान कुछ प्रीमियम देते हैं जबकि बैलेंस केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा बराबर भागों में दिया जाता है। ये सब प्रीमियम फसल बीमा प्रदान करने में शामिल बीमा कंपनियों को जाता है। फिर, कटाई के समय किसान बीमा भुगतान के लिए दावा दायर करते हैं,और कंपनियां उनके दावों की जांच करती हैं। सिंह कहते हैं, "इस योजना ने किसानों को भारी नुकसान पहुंचाया है क्योंकि कंपनियां फसल क्षति के बारे में किसानों के दावों को व्यर्थ कर देती हैं।"

इस कवरेज में मुख्य रूप से निवारण न करने योग्य जोखिम, प्रतिबंधित बुवाई, फसल की कटाई के बाद की हानि और स्थानीय आपदाओं के कारण उपज में नुकसान का शामिल होना आवश्यक है। घाटे की गणना उपज के अंतर के आधार पर की जाती है, जिसे सात साल के आंकड़े और क्षतिपूर्ति के स्तर पर गणना की जाती है। नुकसान के दावों को अक्सर लंबी प्रक्रिया के माध्यम से सत्यापित किया जाता है जिसमें कंपनियों और जिला स्तर के सरकारी कार्यालयों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं।

मध्यप्रदेश का उदाहरण देते हुए सिंह कहते हैं, "नुकसान के आकलन के लिए क्षेत्र में कोई अधिकारी नहीं होते हैं जिसके चलते देरी होती है और प्रक्रिया को नुकसान पहुंचाया जा रहा है।" किसानों के दावों पर अक्सर बीमा कंपनी आपत्ति करती है जिसके चलते इस प्रक्रिया में गंभीर जटिलताएं होती हैं और कई दावों को तो खारिज कर दिया जाता है।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट अहमदाबाद में कृषि प्रबंधन केंद्र के प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर रंजन कुमार घोष द्वारा लिखे गए इस स्टडी में फसल-कटाई की तकनीक के इस्तेमाल की सिफारिश की गई है जो इस योजना के तहत उपज का माप-तौल करने, बीमा कंपनियों के लिए परिचालन खिड़की बढ़ाने और बीमा कंपनियों की संख्या कम करने की अनुमति देता है।

इस रिपोर्ट के अनुसार, ये योजना पिछली राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना से बेहतर हो सकता है लेकिन अभी भी बीमा कंपनियों को कामकाज से जुड़े प्रोत्साहन मुहैया करने की आवश्यकता है या उन्हें बेहतर कार्य-निष्पादन न होने के लिए दंडित करना होगा।

पूरी रिपोर्ट यहाँ पढ़ सकते हैं।

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