यद्दपि भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में चिंताजनक बढ़ोतरी हो रही हैं, लेकिन इसकी अपेक्षा अक्सर इस पहलू में दिखती है कि महिलाओं के प्रति अपराध करने वाले अपराधियों में से मात्र 19 प्रतिशत को ही सज़ा मिलती है. इसका स्पष्ट मतलब है – कि पांच अपराधियों में से केवल एक व्यक्ति को अदालतों द्वारा दोषी ठहराया जाता है और सजा दी जाती है. यानी पांच अपराधियों में से चार मुक्त हो जाते हैं.
यह सज़ा की दर उन मामलों का अनुपात है जो मुकदमें एक वर्ष में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के कुल मामलों के लिए चलाये जाते हैं और उन्हें अदालतें जिन्हें दोषी ठहराती हैं.
देश के आठ बड़े राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामलों में सजा दर मात्र एक अंक में होने से यह संदेह के घेरे में आ जाती है. सबसे कम यानी 3 प्रतिशत की सजा दर पश्चिम बंगाल और गुजरात जैसे बड़े राज्यों में है. इसके बाद आते हैं जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, ओडिशा, असम और आंध्र प्रदेश जहाँ 10 प्रतिशत से भी कम सज़ा दर है. दो केंद्र शासित प्रदेश - दमन और दीव और लक्षद्वीप के पास कोई कोई मामले ही नहीं है, इसलिए उनकी दर शून्य है. तालिका देखें:-
महिलाओं के विरुद्ध अपराध – वर्ष 2016 - सज़ा और लंबित मामलों की सूची
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क्र.स.
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राज्य/केंद्र शासित
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सज़ा दर
(प्रतिशत में)
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लंबित मामले
(प्रतिशत में)
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1.
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दमन और दीव
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0
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68
|
2.
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लक्ष्द्वीप
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0
|
100
|
3.
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पश्चिम बंगाल
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3
|
96
|
4.
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गुजरात
|
3
|
95
|
5.
|
जम्मू – कश्मीर
|
4
|
87
|
6.
|
कर्नाटक
|
5
|
87
|
7.
|
ओडिशा
|
6
|
92
|
8.
|
असाम
|
7
|
86
|
9.
|
तेलंगाना
|
8
|
80
|
10.
|
आंध्र प्रदेश
|
7
|
71
|
11.
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दादर एवं नगर हवेली
|
10
|
85
|
12.
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केरल
|
11
|
93
|
13.
|
महाराष्ट्र
|
11
|
93
|
14.
|
गोवा
|
12
|
87
|
15.
|
हरियाणा
|
13
|
80
|
16.
|
हिमाचल प्रदेश
|
14
|
88
|
17.
|
अंडमान निकोबार
|
14
|
91
|
18.
|
बिहार
|
19
|
94
|
|
भारत
|
19
|
90
|
19.
|
तमिल नाडू
|
21
|
83
|
20.
|
पंजाब
|
24
|
79
|
21.
|
चंडीगढ़
|
24
|
73
|
22.
|
त्रिपुरा
|
25
|
80
|
23.
|
छत्तीसगढ़
|
27
|
80
|
24.
|
मध्य प्रदेश
|
28
|
80
|
25.
|
दिल्ली
|
28
|
92
|
26.
|
अरुणाचल प्रदेश
|
30
|
94
|
27.
|
झारखंड
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31
|
84
|
28.
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राजस्थान
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35
|
87
|
39.
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सिक्किम
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36
|
81
|
30.
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नागालैंड
|
42
|
61
|
31.
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मणिपुर
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44
|
96
|
32.
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उत्तराखंड
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46
|
87
|
33.
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उत्तर प्रदेश
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53
|
90
|
34.
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पुडूचेरी
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63
|
95
|
35.
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मेघालय
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68
|
93
|
36.
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मिज़ोरम
|
89
|
79
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स्रोत : एन.सी.आर.बी.
सजा दर आखिर क्या दर्शाती है? किसी महिला के लिए बलात्कार या हमले के लिए किसी आरोपी के खिलाफ झूठा मुकदमा दर्ज करना एक दुर्लभ बात है. इसलिए, यह मानना सुरक्षित है कि कम से कम, शिकायतकर्ता महिला के खिलाफ कुछ अपराध किया गया है. इसके बाद, यह मुद्दा पुलिस की जांच के दायरे की बात होती है और आखिरकार अदालत इस बारे में आखरी फैंसला लेती है. यही दो चरण होते हैं जब मामला हाथ से निकल जाता है.
या तो पुलिस की जांच दोषपूर्ण होती है या फिर उससे भी बदतर यह कि, ज्यादातर मामलों में समझौता करवाने की लगातार कोशिश का आरोप लगता है. या फिर मुकदमें को अदालत कुछ-न-कुछ तकनीकी या कानूनी गलतियों को आधार बना रफा-दफा कर देती हैं. कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि पुलिस के गड़बड़ी करने और जानबूझकर सबूतों को नजरअंदाज करने की संभावना ज्यादा होती है, इसके अलावा, पुलिस हमेशा शिकायतकर्ता महिला को अक्सर गवाही बदलने के लिए दबाव का इस्तेमाल करती है – और वह इसके चलते और अधिक असुरक्षित होती है. परिवारों पर अक्सर दबाव डाला जाता है की वे कानूनी मामलों से दूर रहे और इसका पूरा दबाव महिलाओं के ऊपर पड़ता है.
संक्षेप में, ऐसे सौ तरीके हैं जिससे मुकदमें चलाने से हटाया जा सकता है. और इसलिए, इसमें कोई शक नहीं है कि अपराधी मुक्त हो जाते हैं.
चूंकि पूरी प्रक्रिया राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में है इसलिए उनका यह फ़र्ज़ बनता है कि वे जांच के दौरान, शिकायतकर्ताओं की रक्षा करें, और मामले की जांच प्रभावी ढंग से सुनिश्चित करे क्योंकि न्याय दिलाने की सरकार की ज़िम्मेदारी है. कम सज़ा दर वाले राज्य निश्चित तौर पर इन कर्तव्यों में शर्मनाक ढंग से असफल रहे हैं.
एनसीआरबी डेटा से उभरने वाला एक अन्य पहलू यह भी है कि लंबित मामलों की दर काफी ऊँची है. बेशक, एक वर्ष में किसी भी मुक़दमे का निपटारा नहीं होता है. लेकिन साल दर साल 90 प्रतिशत से अधिक लंबित मुकदमें इसका प्रमाण है कि न्यायालय ओवरलोडेड (काम ज्यादा जज कम) हैं जिसकी वजह से न्यायिक प्रक्रिया धीमी है. वर्ष 2016 के अंत तक लंबित 12.05 लाख मामलों का आंकड़ा चौंका देने वाला है. तब भी अदालतों ने 1.37 लाख मामलों का निपटारा किया. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसी मुक़दमे को अंतिम रूप देने के लिए कितना समय लग सकता है और पीड़ित के लिए दु:खद रूप से अंतहीन समय का इंतज़ार.
कम सज़ा दर और लंबित मामलों की उच्च दर का शुद्ध परिणाम यह है कि न्याय में देरी ही नहीं होती है बल्कि न्याय देने से अक्सर इनकार किया जाता है. यही कारण है कि अपराधी को कानून से डर नहीं लगता है और नतीजतन महिलाओं के खिलाफ अपराध लगातार बढ़ते जाते हैं.