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राजस्थान चुनाव : मज़दूरों की नाराज़गी बदल सकती है हार-जीत के समीकरण
मज़दूर आंदोलन से जुड़े लोगों का कहना है कि केंद्र सरकार तो मज़दूर विरोधी है ही लेकिन वसुंधरा सरकार उससे भी दो कदम आगे है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है 2014 में लागू किए गए श्रम कानून संशोधन।

ऋतांश आज़ाद
01 Dec 2018
workers

राजस्थान में मतदान की तारीख़ बिल्कुल करीब आ गई है। सात दिसंबर को यहां वोट डाले जाएंगे। इन चुनावों में प्रदेश के मज़दूर किस तरफ मतदान करेंगे यह जीत हार तक तय कर सकता है। वसुंधरा सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में बड़े बदलाव और उनके प्रभाव के चलते मज़दूर वर्ग बेहद नाराज़ है। हालांकि मज़दूर एक वर्ग की तरह संगठित होकर वोट नहीं कर पाता लेकिन आम आदमी के तौर पर भी वह बीजेपी से खफा लग रहा है।

जानकार बताते हैं कि राजस्थान की 40% आबादी मज़दूर वर्ग है। प्रदेश में सबसे ज़्यादा निर्माण मज़दूर हैं और दूसरे नंबर पर आते हैं खनन मज़दूर।

मज़दूर आंदोलन से जुड़े लोगों का कहना है कि केंद्र सरकार तो मज़दूर विरोधी है ही लेकिन वसुंधरा सरकार उससे भी दो कदम आगे है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है 2014 में लागू किए गए श्रम कानून संशोधन।

औद्योगिक विवाद अधिनियम (Industrial Disputes Act 1947), कारखाना अधिनियम (Factories Act), ठेका मज़दूर अधिनियम (Contract Labor act)  सभी में एक-एक कर बदलाव किये गए हैं। Industrial Disputes Act में ये बदलाव किया कि जहाँ पहले 100 लोगों वाली फैक्ट्री को बिना सरकार की इजाज़त बंद किया जा सकता था, वहाँ अब 300 मज़दूरों की फैक्ट्री को बंद किया जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि एक नोटिस लगाकर मालिक कभी भी संस्थान को बंद कर सकता है और मज़दूर रातों रात बेरोज़गार हो सकते हैं। यह इसीलिए एक खतरनाक बदलाव है क्योंकि देश भर में 93% फैक्ट्रियाँ 300 से कम मज़दूरों के साथ काम करती हैं। इसी तरह राजस्थान की 13,256 फैक्ट्रियों में से सिर्फ 256 में 300 से ज़्यादा मज़दूर हैं। इसका उदाहारण है पिछले कुछ समय में Arriston, Polaris और अन्य प्लांट बंद कर दिए गए हैं।

इसके अलावा अब किसी फैक्ट्री में 30% लोगों के यूनियन का सदस्य  होने पर ही यूनियन बनायी जा सकती है, पहले फैक्ट्री में यूनियन बनाने के लिए फैक्ट्री के 15 % लोगों की ज़रूरत होती थी।

Factories Act 1948 में भी खतरनाक बदलाव किए गए हैं। बदलाव यह है कि फैक्ट्री एक्ट को लागू कराने के लिए पावर फैक्ट्रीयों में काम करने वालों की संख्या को 10 लोगों से 20 कर दिया गया था। इसी तरह बिना बिजली फैक्ट्रियों में यह एक्ट लागू होने के लिए अब 20 मज़दूरों कि जरूरत होती थी अब यह आंकड़ा 40 हो गया है ।

इससे हुआ यह है कि इस दायरे में आने वाले मज़दूरों को स्वास्थ्य, पानी, वेंटीलेशन, ड्रेनेज और दूसरी सुविधाओं से कानून के माध्यम से बाहर कर दिया गया है।

इसके साथ ही इन कानूनों के अंतर्गत कोई भी अवहेलना करने पर अब कोर्ट से पहले सरकार से लिखित में आदेश लेना होगा ।

इसी तरह कांट्रैक्ट लेबर एक्ट 1970 यानी ठेका मज़दूर अधिनियिम में भी एक भयानक बदलाव किया गया है। बदलावों के चलते अब यह कानून सिर्फ उसी संस्थान या ठेकेदार पर लागू होंगे जो 50 लोगों को काम पर रखता है। पहले यह 20 लोगों वाले संस्थान या ठेकेदार पर लागू होता था।

इसके साथ ही राजस्थान सरकार ने अब बिना लाइसेंसे वाले ठेकेदार को 49 मज़दूरों को काम पर रखवाने कि छूट दे दी है। इससे अब आम मज़दूरों को मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा से उन्हे सीधे तौर पर वंचित रखा जा सकता है।

इन बदलावों के चलते मज़दूरों के ज़्यादतर हकों को खत्म करने का प्रयास हुआ है। इसी तरह राजस्थान में पहले ही न्यूनतम वेतन कि स्थिति देश के सबसे खराब है।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए सीटू (CITU) के राजस्थान सचिव भंवर सिंह ने कहा- “राजस्थान में न्यूनतम वेतन सिर्फ 213 रुपये प्रतिदिन है, यानी सिर्फ 6,000 रुपये प्रति माह। जबकि पड़ोसी राज्य में यह 14,500 रुपये प्रति माह है और केरल में 770 रुपये प्रतिदिन है- जिसका मतलब महीने में करीब 23,000 रुपये। हमने कई बार सरकार से यह माँग की है कि श्रम सलाहकार मंडल की बैठक बुलाकर इसे बढ़ाया जाए, लेकिन यह आज तक नहीं हुआ है। इसके साथ ही मज़दूर को 213 रुपये के 12 घंटे की दर पर खुले आम काम कराया जाता है।"

इस तरह इस न्यूनतम वेतन के कानून को न लागू करने की सज़ा तो अपने आप में एक मज़ाक है। इस पर न्यूज़क्लिक से बात करते हुए एक्टू के राज्य सचिव सौरभ नरुका ने कहा “पहली बात न्यूनतम वेतन इतना कम है और ऊपर से इसे लागू न करने की सज़ा एक मज़ाक है। अगर मालिक न्यूनतम वेतन नहीं देता तो उसकी सज़ा है 6 महीना जेल या 500 रुपये। भला इस कानून से कौन सा मालिक डरेगा ।’’

इस सब के ऊपर नोटबन्दी ने प्रदेश के मज़दूरों की कमर तोड़ दी है। जैसा कि पहले बताया गया है राजस्थान में ज़्यादातर मज़दूर निर्माण मज़दूर हैं नोटबन्दी के चलते राज्य में निर्माण का काम ठप हो गया है, जिससे यह मज़दूर बेरोज़गार हो गए हैं। इसके साथ ही कोर्ट द्वारा बजरी खनन पर भी बैन लागने से निर्माण कार्य पर विपरीत प्रभाव पड़ा है जिससे मज़दूरों को सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ है।

इस सरकार के कार्यकाल में अब मनरेगा के अंतर्गत मिलने वाला काम भी बहुत कम हो गया है। जानकार बताते हैं गाँवों में जेसीबी मशीने लगी रहती हैं, जिनके ज़रिये काम कराया जा रहा है। गाँव  के सरपंच, प्रधान, कांट्रेक्टर और स्थानीय राजनेता मनरेगा के अंतर्गत मिलने वाले वाले पैसे को इस तरह खर्च कर रहे हैं। जहाँ 100 लोगों को काम मिलना चाहिए वहाँ सिर्फ 6 -7 लोगों को काम मिलता है। बाकी के पैसे का हिसाब नहीं है।

राजस्थान में खदानों, पत्थर तोड़ने की फैक्टरियों और सीमेंट फैक्ट्री मज़दूरों में सिलिकोसिस की बीमारी भी लगातार फैली है। 8 अगस्त 2018 को करीब 1000 सिलिकोसिस से पीड़ित मज़दूरों ने मुआवज़ा न मिलने और इस समस्या का निदान न किये जाने के खिलाफ जयपुर में प्रदर्शन किया था। दरअसल सिलिकोसिस एक फेफड़े की बीमारी है जो खदानों, पत्थर तोड़ने की फैक्टरियों, सीमेंट फैक्ट्री के मज़दूरों और मूर्तियाँ बनाने वाले मज़दूरों को बड़े पैमाने पर होती है। इसकी वजह है कि इन सब कामों से निकलने वाली धूल साँस के ज़रिये उनके फेफड़ों में चली जाती है। एक बार हो जाने के बाद इसका कोई इलाज नहीं है और इससे मौत हो जाती है।

मज़दूर किसान शक्ति संगठन के निखिल डे के अनुसार राजस्थान भर में 20,000 से 25,000 मज़दूर हैं जिनके पास सिलिकोसिस से ग्रसित होने का प्रमाण पत्र है। लेकिन न तो इसके बचाव के लिए पानी के छिड़काव और मास्क जैसी सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं और न ही इन्हे मुआवज़ा समय पर मिल रहा है। 

राजस्थान के मज़दूर वर्ग की स्थिति देश में सबसे खराब है। यही वजह है कि आम मज़दूर भले ही वर्ग कि तरह न सोचता हो पर फिर भी सरकार से खफा है और इसका असर चुनावों पर पड़ना लगभग तय है। 

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