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भारत
राजनीति
"अगर सरकार दो क़ानून ख़ारिज कर तीसरे को फ़िलहाल रोक देती, तो हम दिल्ली से चले गए होते" : जोगिंदर सिंह उग्राहन
कृषि क़ानूनों के विरोध में 100 दिन से ज़्यादा समय से दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे किसानों की आगे की रणनीति पर बातचीत।
एजाज़ अशरफ़, प्रज्ञा सिंह
10 Mar 2021
Translated by महेश कुमार
"अगर सरकार दो क़ानून ख़ारिज कर तीसरे को फ़िलहाल रोक देती, तो हम दिल्ली से चले गए होते" : जोगिंदर सिंह उग्राहन

टिकरी के दिल्ली-हरियाणा बार्डर पर पिछले 100 दिनों से चल रहे किसान आंदोलन की वजह से छोटा शहर उभर आया है, जहां ट्रैक्टर ट्रॉलियों लंबी लगी कतारें ही कतारें डेरों में तब्दील हो गई है, यहाँ सब पुरुष और महिलाएं मिलकर रात-दिन एक साथ बैठकर आसपास में बातचीत कर रहे होते हैं या फिर खाना पकाने जैसे कामों में भाग ले रहे होते हैं। रोजाना कुछ घंटों के लिए, वे उन तय स्थलों पर पहुंच जाते हैं, जहां भाषण और नारे लगाए जाते हैं जिनके जरिए तीन नए कृषि-क़ानूनों को वापस लेने की मांग की जाती है।

जब वे नवंबर में दिल्ली में आए थे, तो उस वक़्त की सर्द रातों में विरोध को जारी रखने के उनके साहस, जोश व इरादे के कारण मान लिया गाया था कि वे मोदी सरकार को तीन कृषि- क़ानूनों को निरस्त करने पर मजबूर कर देंगे। अगर कोई उनसे पूछें कि आप लोग दिल्ली से वापस घर जाने का इरादा कब का रखते हैं तो उनका जवाब बड़े जोश के साथ यही होता है कि: हम घर अब "क़ानूनों के ख़ारिज होने के बाद ही जाएंगे।"

हालांकि सरकार के खिलाफ उनकी लड़ाई में गतिरोध बना हुआ है। विरोध करने वाले किसान उतने ही अड़े हुए हैं, जितना कि सरकार अड़ी हुई है और सरकार अपनी गैर-उद्देश्यपूर्ण इच्छाशक्ति की परीक्षा ले रही है। क्या इस गतिरोध को तोड़ने का कोई तरीका है? अप्रैल महीने में रबी की फसल काटने के लिए, सरकार किसानों को उनके पिंड या गांव भेजने के लिए क्या रियायतें दे सकती है?

न्यूजक्लिक ने भारतीय किसान यूनियन (एकता-उग्राहन) के प्रमुख जोगिंदर सिंह उग्राहन से बात की, जो पंजाब में किसान यूनियनों का सबसे बड़ा धड़ा हैं- और छोटे और सीमांत किसानों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने कहा कि सरकारी अधिकारी उनके साथ व अन्य यूनियन नेताओं के साथ अनौपचारिक रूप से बात कर रहे हैं। इस साक्षात्कार के माध्यम से उग्राहन ने उन समाधानों की रूपरेखा पेश की जो किसानों को दिल्ली से उनके राज्यों में वापस जाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, जहां वे हुकूमत द्वारा कृषि को कॉर्पोरेट की झोली में डालने खिलाफ अपनी लड़ाई को जारी रख सकते हैं।

दिल्ली में 100 दिनों से ज्यादा अधिक समय तक का डेरा डालने के बाद, क्या केंद्र सरकार के खिलाफ किसानों की लड़ाई एक गतिरोध पर नहीं पहुंच गई है?

जब हमने इस आंदोलन की शुरुआत की थी, तो हमें पता था कि यह लंबे समय तक जारी रहेगा। हम जानते थे कि सिर्फ दिल्ली आने से आंदोलन किसानों को उनका हक़ नहीं दिला पाएगा। 

आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?

जब हम या हमारी यूनियन कोई मुद्दा उठाती हैं, तो हम उसकी जड़ तक पहुँचने की कोशिश करते हैं कि वह मुदा पैदा कहाँ से हुआ है, और इसका भी अंदाज़ा लगा लेते हैं कि इसे हल करने के लिए हमें कितनी देर तक लड़ना होगा।

तीन नए कृषि-क़ानून कहाँ से पैदा हुए है?

तीन नए कृषि-क़ानूनों का मसला सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक सीमित नहीं हैं। 2013 में विश्व व्यापार संगठन की इंडोनेशिया के बाली में हुई बैठक में, विकसित देशों ने भारत को भारतीय खाद्य निगम और खाद्यान्नों की खरीद के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रणाली को बंद करने के लिए कहा था। भारत में इन क़ानूनों को बहुत पहले तैयार कर लिया गया था। 

2020 में, कोरोनावायरस महामारी की आड़ में, मोदी सरकार ने इन तीन-क़ानूनों को लागू किया जिनका हम आज विरोध कर रहे हैं। ये क़ानून संविधान का सरासर उलंघन हैं क्योंकि केंद्र सरकार को राज्य के विषय पर क़ानून बनाने का हक़ नहीं है। बिना उचित चर्चा के, इन्हें जल्दबाजी में पारित कर दिया गया। जल्दबाज़ी में किया गया कोई भी विधायी कार्य गलतियों से भरा होता है। सरकार ने खुद स्वीकार किया है कि तीनों क़ानून दोषपूर्ण हैं।

आप ऐसा क्यों कह रहे हैं कि सरकार ने मान लिया है कि क़ानून दोषपूर्ण है?

सरकार के साथ चली वार्ताओं के दौरान, हमें क़ानूनों में सभी कमियों के बारे में बताने के लिए कहा गया। हमने बताया कि यह सरकार की गलती थी कि उसने समानांतर निजी बाजार बनाने की बात की वह भी सरकारी मंडियों में लगे बिक्री कर 8.5 प्रतिशत को उनके लिए माफ करके। सरकार समानांतर बाजार इसलिए बनाना चाहती है क्योंकि वह मंडी से खाद्यान्नों की खरीद की जिम्मेदारी से बचना चाहती है, जो नियत समय में सरकारी मंडियों को ही खत्म कए देगी। 

क्या सरकार ने अपनी गलती को साफ तौर पर स्वीकार कर लिया है?

हमें सिर्फ एक दिन लगा यह साबित करने में कि क़ानून गलत क्यों हैं। इसके बाद उन्होंने ही संशोधनों की बात की। आप किसी क़ानून में तभी संसोधन की बात करेंगे जब वह दोषपूर्ण या गलत हो। आप कहते हैं कि यह एक मोबाइल है [टेबल पर पड़े मोबाइल की ओर इशारा करते हुए कहते हैं], मैं कहता हूं, नहीं, यह एक कैलकुलेटर है। नहीं, फिर आप बहस करते हैं कि यह एक मोबाइल है। मैं आपको दिखाता हूं कि मोबाइल में कैलकुलेटर का फंक्शन नहीं है। तो आप स्वीकार करते हैं, हाँ, मोबाइल का इस्तेमाल कैलकुलेटर के रूप में किया जा सकता है। क्या आपकी स्थिति पहले ली गई स्थिति से अलग नहीं है? इसी तरह, सरकार ने भी अपनी स्थिति बदल दी [कि क़ानून किसानों के लिए फायदेमंद और गैर-दोषपूर्ण हैं] और इसलिए सरकार क़ानूनों में संशोधन करने के लिए सहमत हो गई। लेकिन हम उन क़ानूनों को क्यों स्वीकार करें  जिन्हें सरकार मान चुकी है वे दोषपूर्ण और गलत हैं?

ऐसा इसलिए है क्योंकि किसानों और सरकार के बीच बातचीत में गतिरोध जारी है।

खैर, सरकार ने हमें बताया कि वे संशोधन करेंगे और इन क़ानूनों पर डेढ़ साल तक के लिए रोक लगा देंगे।

कुछ का कहना है कि सरकार तीन साल तक क़ानूनों पर रोक लगाने को तैयार है।

डेढ़ साल हो या तीन साल, हमारे पास लिखित में कुछ नहीं है।

क्या सरकार ने आपको लिखित में दिया है कि वह क़ानूनों में संशोधन करने को तैयार है?

उन्होंने अभी तक लिखित में कुछ नहीं दिया है। उन्हें हमें उस प्रारूप को देना चाहिए, जिसमें हमारी मांग को स्वीकार किया गया है। 

अगले दौर की वार्ता कब होनी है?

अगले दौर की बात के बारे में सिर्फ सरकार या मीडिया को पता होगा। लेकिन हां, अनौपचारिक बातचीत चल रही है। आज ही, मुझे एक फोन आया जिसमें मुझे बताया गया कि एक बहुत वरिष्ठ अधिकारी मुझसे मिलना चाहते हैं। लगभग एक हफ्ते पहले, एक अन्य अधिकारी ने मुझसे मुलाकात की थी। अगर वे मुझसे मिल रहे हैं, तो वे दूसरों से भी मिल रहे होंगे। मुझे लगता है कि वे समाधान खोजने के लिए प्रत्येक [किसान नेता] से मिल रहे हैं।

आधिकारिक वार्ता कब होगी?

समस्या यह है कि आंदोलन में कई समूह शामिल हैं। पंजाब और अन्य जगहों से कुल मिलाकर 55 यूनियनें शामिल हैं। सभी 55 यूनियनों का समान स्टेंड होना बहुत मुश्किल है। लेकिन सरकार की तरफ से हमें एक अनौपचारिक प्रस्ताव मिलना चाहिए [पूरे विवरण के साथ] कि वे हमें अधिक से अधिक क्या ऑफर कर सकते हैं। यदि वे कहते हैं कि वे क़ानून पर डेढ़ साल तक रोक लगा देंगे, तो फिर ऐसा 3 साल के लिए करना भी संभव है। या, वे यह भी कह सकते हैं कि वे तीन में से दो क़ानूनों को ख़ारिज कर देंगे और एक क़ानून पर रोक लगा देंगे।

एक बार जब वे हमें वह सब लिखित में दे देंगे, तो हम अपने लोगों के पास जा सकते हैं और कह सकते हैं कि हम अपने आंदोलन को समाप्त नहीं कर रहे हैं, बल्कि, भविष्य में एक बड़ी तैयारी के लिए दिल्ली से आंदोलन उठा रहे हैं। लेकिन आंदोलन जारी रहेगा। भविष्य में किसान आंदोलन को समाप्त करने के बारे में सरकार के साथ कोई समझ नहीं बन सकती है। हम चाहते हैं कि सभी तीन कृषि क़ानूनों को निरस्त किया जाए, जिसके लिए दिल्ली में आंदोलन को एक नया आकार दिया जा सकता है। हम इस आंदोलन को कहीं और ले जा सकते हैं। हमारी यूनियन की यही समझ है।

हर आंदोलन की एक सीमा होती है। एक खास किस्म का आंदोलन अपने अंतिम लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकता है। हम पहले पंजाब में लड़े, फिर दिल्ली आए, तब जाकर इसने एक अखिल भारतीय चरित्र हासिल किया। दिल्ली में डेरा लगाकर हमने कुछ रियायतें हासिल की हैं [जैसे कि सरकार का मानना कि क़ानून दोषपूर्ण हैं।] अब हमने आंदोलन को दूसरे राज्यों में फैला दिया है।

यदि ऐसा है, तो जब सरकार ने दिसंबर में कहा कि था आप संशोधन दे सकते हैं, तो आप सब सहमत क्यों नहीं हुए?

हम अभी भी संशोधन के लिए तैयार नहीं हैं। 

ठीक है, तो आप चाहते हैं कि क़ानूनों पर फिलहाल रोक लगा दी जाए, साथ ही आप एक या दो क़ानूनों को ख़ारिज करवाना चाहते हैं?

हाँ। कुछ संशोधनों के साथ क़ानूनों को स्वीकार करना हमारे लिए कोई विकल्प नहीं है।

आपके जवाबों से इशारा मिलता है कि किसान आंदोलन 2024 तक जारी रहेगा, अगर ऐसा है तो फिर आंदोलन का लक्ष्य क्या होगा।

हम कृषि क्षेत्र का निगमीकरण नहीं चाहते हैं।

क्या आपके साथी किसी ऐसे समझौते को स्वीकार करेंगे जिसमें तीनों क़ानूनों को ख़ारिज न किया जाए, लेकिन केवल एक को निरस्त किया जाए और दूसरे दो पर रोक लगा दी जाए?

हां वे मान जाएंगे। 

आपसे मिलने से पहले हमने अन्य लोगों से बात की। वे तीनों क़ानूनों को रद्द किए बिना दिल्ली छोड़ने को तैयार नज़र नहीं आते हैं।

यह कुछ ऐसी बातें है जिनके बारे में हमें उन्हें विश्वास दिलाना है। यदि आप उनसे पूछते हैं, तो वे निश्चित रूप से वे यही कहेंगे कि वे तब तक वापस नहीं आएंगे, जब तक कि क़ानून निरस्त नहीं हो जाते। यह उनकी गलती नहीं है, क्योंकि हम [नेता] मंच से भी यही बात कह रहे हैं। मान लीजिए कि दो क़ानून निरस्त कर दिए जाते हैं और एक पर रोक लगा दी जाती है, तो हम लोगों को समझा सकते हैं कि हमने ऐसा क्यों किया। हम आंतरिक बैठकें करते रहते हैं, जिसमें हम कहते हैं कि किसी भी परीक्षा में 100 प्रतिशत अंक हासिल करना मुश्किल है। 85 या 80 प्रतिशत का स्कोर एक अच्छा परिणाम होता है। ऐसा नहीं है कि हम बचे हुए 20 प्रतिशत अंक नहीं चाहते हैं। लेकिन इसे हासिल करने के लिए हमें एक और परीक्षा में बैठना होगा। 

क्या आपको लगता है कि आज 80 प्रतिशत की संभावना उपलब्ध है- जो कल उपलब्ध नहीं हो सकती है?

ऐसा नहीं है कि हमें 80 प्रतिशत मिल गया है। मैं आपको केवल एक उदाहरण दे रहा हूं। किसी भी आंदोलन के दौरान निर्णय परिस्थितियों और स्थितियों को ध्यान में रख कर लिए जाने चाहिए। स्थिति का आकलन कर उस पर निर्णय लेना उन लोगों का काम है जो आंदोलन का नेतृत्व करते हैं।

अगर तीनों कृषि-क़ानूनों को ख़ारिज नहीं किया जाता है और दिल्ली में विरोध प्रदर्शन को बंद कर दिया जाता है, तो क्या खालिस्तानी और दक्षिणपंथी समूह हालत का फायदा नहीं उठाएंगे? वे कहेंगे, 'देखो, नेताओं ने समझौता कर लिया?'

आम जनता हमसे कहती हैं कि, 'जितना चाहे दूध लो, पानी लो, लेकिन तीनों क़ानूनों को रद्द करवाए बिना दिल्ली से वापस लौटने की हिम्मत मत करना वरना तुम्हारा भी वही हश्र होगा जो अकाली दल के अध्यक्ष संत लोंगोवाल [जिनकी केंद्र के साथ पंजाब-समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद हत्या कर दी गई थी] का हुआ था। हम भी सिख समुदाय से हैं। हम कायर नहीं हैं।

हम लोगों को वास्तव में बताएंगे कि हमने अपने आंदोलन से क्या हासिल किया है- और हमें अभी कितना कुछ हासिल करना है, जिसके लिए हम संघर्ष करते रहेंगे। हमारे अधिकारों की लड़ाई खत्म नहीं होगी, केवल इसका स्वरूप बदल जाएगा। आरके बार जब हमारे साथी हमसे सहमत हो जाते हैं, तब हम इस बात से परवाह नहीं करते कि दूसरे हमारे बारे में क्या कहते हैं।

कुछ लोगों को शक़ है कि सरकार पंजाब में दक्षिणपंथी तत्वों को प्रोत्साहित कर रही है। क्या तीन क़ानूनों के ख़ारिज होने से उनका होंसला बढ़ जाएगा?

इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि खालिस्तानी किसान आंदोलन को धमकी दे सकते है। लेकिन आंदोलन ने ऐसी ताकत हासिल कर ली है कि खालिस्तानी अकेले कुछ नहीं कर पाएंगे। वे नहीं बचेंगे। हमारी यूनियन अकेले ही इतने किसानों को इकट्ठा कर सकती है जो दिल्ली के सभी पांच स्थलों पर विरोध कर रहे हैं। खालिस्तानियों में इतना दम नहीं है।

सरकार के साथ कोई भी समझ अन्य सभी यूनियनों की सहमति से बननी चाहिए?

इस आंदोलन से हमें जो भी मिलता है या नहीं मिलता है, बावजूद उसके हमारी सबसे बड़ी  चिंता यही है कि जिस संयुक्त रूप से हम यहां आए हैं, वैसे ही हमें वापस भी लौटना चाहिए।

तीन क़ानूनों में से, यदि आपसे पूछा जाए कि पहले कौन का क़ानून निरस्त होन चाहिए, तो आप किसे चुनेंगे?

मैं कृषि उपज विपणन समिति (APMC) से संबंधित क़ानून को चुनूंगा। ऐसा इसलिए क्योंकि  मौजूदा बाजार पर सरकार का यह बड़ा हमला है।

किसानों के आंदोलन को 100 दिन हो चुके हैं, अब किसानों की आगे की रणनीति क्या है?

हम एक मानव श्रृंखला बनाने के बारे में सोच रहे हैं, हालांकि इसका अंतिम रूप क्या होगा, अभी कहा नहीं जा सकता है। अगर हमें मानव श्रृंखला बनानी है तो हमें कन्याकुमारी से लेकर यहां तक बनाने के बारे में सोचना होगा। हम ऐसा कर सकते हैं या नहीं? लेकिन हम हमेशा अमृतसर से दिल्ली तक की मानव श्रखंला बना सकते हैं; लेकिन किसी भी श्रृंखला को पूरे देश के लोगों को पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक जुड़ना चाहिए। इस मानव श्रख्न्ला को देश के सभी हिस्सों से उभरना चाहिए, तभी इसका बड़ा प्रभाव पड़ेगा। मुझे लगता है कि हम ऐसी मानव श्रृंखला बनाने के लिए माहौल बना सकते हैं।

आप चाहते हैं कि पंजाब और हरियाणा में खाद्यान्न की खरीद की व्यवस्था वैसी ही जारी रहनी चाहिए जैसी कि अब है?

देश में एक समानांतर बाजार की गुंजाइश नहीं है [जैसा कि व्यापार और वाणिज्य अधिनियम के संवर्धन और सुविधा के तहत परिकल्पित है]। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग [प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेज एक्ट] का वाला क़ानून भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसकी सेवाओं को परिभाषित करने वाले प्रावधान बहुत खतरनाक हैं।

क्यों?

जो भी कंपनी किसानों के साथ एक कांट्रैक्ट करेगी वही कंपनी हमें इनपुट- यानि बीज, उर्वरक, कीटनाशक आदि की आपूर्ति करेगी, इसलिए कृषि के इनपुट कंपनी के नियंत्रण में होंगे। इसका मतलब है कि मौजूदा खुदरा कंपनियाँ व्यवसाय से बाहर हो जाएंगी [क्योंकि वे कॉर्पोरेट दिग्गजों का मुकाबला करने में असमर्थ होंगी]। कांट्रैक्ट के तहत, हमारे द्वारा उत्पादित खाद्यान्न भी उसी कंपनी को जाएगा, इसलिए वह कंपनी हमारी फसल की मालिक भी बन जाएगी।

तो कंपनी किसना को इनपुट प्रदान करेगी और उत्पादन लेगी, मतलब यह कि वे कीमतें भी निर्धारित करेगी?

जी हाँ। आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 सरकार को खाद्यान्न के भंडार खोलने का अधिकार देता है, जैसा कि क़ानून चाहता है। स्टोर करने का यह अधिकार अब कंपनी के पास होगा। ये कंपनियां देश की खाद्य सुरक्षा को तय करने वाली प्रमुख संस्थाएं बन जाएंगी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली नष्ट हो जाएगी। गरीबों को नुकसान होगा।

क्या आपको नहीं लगता कि सरकार ने बातचीत को इसलिए आगे बढ़ाया क्योंकि किसान आंदोलन पंजाब और हरियाणा तक ही सीमित था जबकि आंदोलन हाल ही में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैला है? सरकार, शायद, महसूस कर रही है कि आंदोलन का चुनाव पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। 

क्या आपने अखाड़ों में पहलवानों को लड़ते देखा है? कभी-कभार ऐसा होता है, कि मजबूत पहलवान को कमजोर व्यक्ति मैदान में दबा देता है। फिर, अचानक, मजबूत पहलवान उठता है और कमजोर को पटक देता है। शांतिपूर्ण [या अहिंसक आंदोलन] हमारा एकमात्र हथियार है, जिसकी वजह से आंदोलन को तोड़ने की सरकार की रणनीति विफल रही है।

यह एक फासीवादी, अहंकारी और सांप्रदायिक हुकूमत है। फिर भी हम आंदोलन को कमजोर करने के उनके प्रयासों को विफल करने में कामयाब रहे हैं। इन क़ानूनों के बारे में कौन जानता था? हमने लोगों को इसके गलत और अनैतिक प्रभावों से अवगत कराया है।

लेकिन यह आंदोलन बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों जो चुनावी रूप से महत्वपूर्ण हैं में प्रवेश  करने में विफल रहा है, इसके पश्चिमी हिस्से को छोड़कर।

अब यह पूर्वी उत्तर प्रदेश में बढ़ रहा है। यह राजस्थान में भी चल रहा है, जहां मैंने दो सभाओं को संबोधित किया है।

आप 1982 से किसान आंदोलन का हिस्सा रहे हैं। किस स्तर पर सरकारें प्रदर्शनकारियों के आगे झुक जाती हैं और उनकी मांगों से सहमत हो जाती हैं?

सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी उसकी कुर्सी है- सत्ता की सीट या उसे खोने का डर। जब किसी सरकार को लगता है कि उसकी सत्ता को खतरा है, तो वह झुक जाती है।

मोदी सरकार को खतरा क्यों महसूस करना चाहिए? आखिरकार, पंजाब से 13 सांसद, हरियाणा से 10 और पश्चिमी उत्तर प्रदेश 29 सांसद के आसपास संसद में भेजता है। भारतीय जनता पार्टी को लगेगा कि वह इस तरह के नुकसान को झेल सकती है, विशेष रूप से वह इनमें से कुछ सीटों को किसान समुदायों के खिलाफ मतदाताओं के ध्रुवीकरण से जीत सकती है।

क्या बड़े बिजनेस करने वाले एक भी पैसे का नुकसान स्वीकार कर सकते हैं? उनकी मानसिकता ऐसी होती है कि जब वे एक दिन में एक करोड़ रुपए कमा सकते हैं तो भी वे हज़ार रुपये के राजस्व का नुकसान स्वीकार नहीं करेंगे। यही राजनीतिक दलों का भी सच है। इसलिए उन्हें एक वोट भी खोने का दुख होगा। आप और मैं कह सकते हैं कि पंजाब में केवल 13 सीटें हैं, हरियाणा में केवल 10…लेकिन राजनेता एक वोट के लिए भी मरते हैं। उनके लिए सीट का न मिलना कमजोरी की निशानी है। पंजाब के नगरपालिका चुनावों में भाजपा को धो डाला गया, जिसका मतलब यह नहीं था कि पार्टी को केंद्र में भी सत्ता गंवानी पड़ेगी। लेकिन भाजपा को नगरपालिका  निकाय चुनाव का परिणाम रत्ती भर भी रास नहीं आया है। हमने भाजपा के किले को तोड़ दिया है। मेरा आंकलन है कि हमारा आंदोलन जितना लंबा चलेगा, भाजपा के अंदर उतनी ही टूटन आएगी। यदि वे क़ानूनों को वापस नहीं लेते हैं, तो हम उतने प्रभावित नहीं होंगे जितना कि वे होंगे।

आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?

वैसे भी जिनके पास ज्यादा कुछ खोने को नहीं है वे क्या खोएँगे? हम केवल दिन में दो वक़्त की रोटी चाहते हैं। हमारे खेत उसे प्रदान करते हैं। यदि मेरे पास रोटी नहीं है और आपके पास है, तो मैं आपसे इसे साझा करने का अनुरोध करूंगा। अगर आप ऐसा नहीं करते हो, तो मेरी भूख आपसे रोटी तुमसे छीन लेगी। कोई भी व्यक्ति भूखा नहीं रह सकता। वह रोटी मांगेगा, वह सड़कों पर आएगा, और अगर उसकी मांग पूरी नहीं होती  तो वह रोटी छिन के लेगा। इसलिए मैं कहता हूं, जो लोग आंदोलन के साथ खड़े होते हैं केवल वे लाभ में रहते हैं।

नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध करने वालों को क्या मिला?

क्या सरकार सीएए को लागू कर पाई?

नहीं ये नहीं कर पाई। लेकिन इतने सारे प्रदर्शनकारियों को जेल में बंद कर दिया गया, जैसा कि 26 जनवरी की घटना के लिए भी किया गया है...

सिर्फ इसलिए कि प्रदर्शनकारियों को जेल भेज दिया जाता है, इसका मतलब यह नहीं है कि उनका आंदोलन विफल हो गया है।

क्या आप कभी जेल गए हैंl?

मुझे लगता है कि में लगभग दो दर्जन बार जेल गया हूंI

जेल में आपका सबसे लंबा वक़्त कितना रहा है?

तब दो महीने तक की जेल हुई थी जब हमने ट्राइडेंट को ज़मीन आवंटित करने के खिलाफ किसान आंदोलन किया था।

आपके खिलाफ कितनी एफआईआर दर्ज हुई हैं?

बहुत ज्यादा नहीं, करीब दो दर्जन। [हंसते हैं]

क्या कोई विशेष कारण है कि पंजाब में किसान अन्य राज्यों की तुलना में अधिक आंदोलनरत हैं?

पंजाब जागरूकता के मामले में अन्य राज्यों से भिन्न है। राज्य में आंदोलन की परंपरा है, और इसकी कृषि अर्थव्यवस्था टूट गई है। इसके अलावा, जो युवा कृषि से जुड़े हैं, उनके पास काम की कोई संभावना नहीं है। और जब इच्छाएँ अधूरी रह जाती हैं, तो माता-पिता और उनके बच्चे दोनों निराश हो जाते हैं।

क्या यह पंजाब में हो रहा है?

हां पंजाब में ऐसा हो रहा है। शहरों में नौकरियां नहीं हैं। सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी नौकरियों को समाप्त किया जा रहा है। रेलवे, कोयला, खनन, बंदरगाह, हवाई अड्डे, बस सेवा, फोन, एलआईसी, बैंक सब बेचे जा रहे हैं-सार्वजनिक क्षेत्र में अब क्या बचा है? कुछ भी तो नहीं। अगर मेरे दो बच्चे हैं और उन्हें शिक्षित किया जा रहा हैं, तो वे कृषि में वापस नहीं लौट सकते हैं। वे निजी या कांट्रैक्ट नौकरियों की तलाश करेंगे जो कि काम के बदले पर्याप्त भुगतान नहीं करते हैं। और उनकी मायुसी का यही कारण है। और विद्रोह ऐसी ही स्थिति से पैदा होते हैं।

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