21वीं सदी के पहले दो दशकों की घटनाएँ काफी हद तक दो-ध्रुवीय रही हैंI एक तरफ जहाँ वर्चस्ववादी पॉपुलिस्ट और बहुसंख्यकवादी ताकतों ने अपने लिए समर्थन जुटाया है, वहीं दूसरी ओर जन-प्रतिरोध भी फले-फूले हैंI 'इतिहास के पन्ने' के इस अंक में वरिष्ठ पत्रकार और लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय पिछले दो दशकों और जनांदोलनों द्वारा लाए जा सकने वाले बदलावों की चर्चा कर रहे हैंI