NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
शिक्षा
समाज
स्वास्थ्य
भारत
राजनीति
सड़क, पानी, स्वास्थ्य सेवा के बिना रह रहे पहाड़ी गाँव की कहानी
उत्तराखंड के पीपलकोटी से 3 किमी आगे पाखी नामक स्थान है जहाँ से डुमक गाँव के लिए 24 किमी की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। आज़ादी के 70 बरस से भी अधिक बीत चुके हैं लेकिन इस गाँव के निवासी आज भी उन मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं जिनके बिना आज जीवन की कल्पना एक डरावने स्वप्न सी प्रतीत होती है।
नवल
19 Apr 2019
सड़क, पानी, स्वास्थ्य सेवा के बिना रह रहे पहाड़ी गाँव की कहानी

"मेरे गाँव में टंकी है, नल है पर उसमें पानी नहीं आता, मेरे गाँव में मोबाइल हैं लेकिन उनमें टावर नहीं आता, मेरे गाँव में स्कूल है लेकिन वहाँ मास्टर नहीं आते, मेरे गाँव के लिए सड़क मंज़ूर है लेकिन वह आगे नहीं बढ़ रही, मेरे गाँव में एक अस्पताल है लेकिन उसने ख़ाली जगह घेर रखी है वहाँ न डॉक्टर है न दवाई। अब आप ही बताओ हम किसको वोट दें और क्यों दें?"

उत्तराखंड के चमोली ज़िले जोशीमठ ब्लॉक के अंतर्गत पड़ने वाले सबसे दुर्गम गाँव डुमक के 70 वर्षीय प्रेम सिंह सनवाल की पीड़ा को बयां करते ये शब्द 70 वर्षों तक देश पर राज करने वाली सरकारों को आइना दिखाने और विकास के उनके दावों की पोल खोलने के लिए पर्याप्त हैं।

उत्तराखंड के पीपलकोटी से 3 किमी आगे पाखी नामक स्थान है जहाँ से डुमक गाँव के लिए 24 किमी की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। आज़ादी के 70 बरस से भी अधिक बीत चुके हैं लेकिन इस गाँव के निवासी आज भी उन मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं जिनके बिना आज जीवन की कल्पना एक डरावने स्वप्न सी प्रतीत होती है।

प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर डुमक गाँव की छटा देखते ही बनती है। शांत वादियों के बीच हिमालयी पक्षियों के गीतों में जीवन का संगीत सुना जा सकता है गाँव के दोनों ओर नमभूमि क्षेत्र(चारागाह) पर घास चरते मवेशी गाँव के सौंदर्य पर चार चाँद लगा देते हैं। यह भूमि खेती व आवास के लिए अनुपयोगी होने से स्वतः ही मवेशियों का चारागाह बन गई है। गाँव के नज़दीक पहाड़ी पर सुरम्य कोणधारी वनों का घना जंगल अनायास ही लोगों का ध्यान आकर्षित करता है।प्राकृतिक सौंदर्य के अलावा एक और बात है जिसने गाँव के सौंदर्य को बढ़ाने का कार्य किया है, वह है गाँव की स्वच्छता। निःसंदेह, स्वच्छता की दृष्टि से यह एक आदर्श गाँव है। इसके लिए डुमक गांव के सभी लोग बधाई के पात्र हैं।

इतना सुंदर गाँव होते हुए भी इस गाँव के लोग साल दर साल इसे छोड़ कर शहरों में बसने के लिए मजबूर हैं। किसी भी मन को इस गाँव को छोड़ते हुए ज़रूर पीड़ा होती होगी लेकिन कोई करे भी तो क्या? जीवन जीने के लिए जो मूलभूत सुविधाएँ हैं उनके अभाव में कोई कैसे यहाँ रहे? स्थानीय लोगों में सबसे अधिक आक्रोश सड़क को लेकर है क्योंकि सड़क न होने के कारण ही सारी समस्याएँ पैदा हुई हैं। 90 के दशक से ही डुमक गाँव के लोग सड़क की मांग कर रहे हैं इसको लेकर 1991 में डुमक समेत पूरे क्षेत्र के कई गाँवों ने चुनाव बहिष्कार भी किया था जिसके बाद कुछ गाँवों के लिए सड़क की मंज़ूरी मिली थी। डुमक के लिए भी प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना(पीएमजीएसवाई) के तहत सैजी लग्गा मैकोटी- बामारू के बीच क़रीब 32 किमी सड़क स्वीकृत हुई। जिसका कार्य 2007 से शुरू हुआ लेकिन वह सड़क 12 वर्षों में भी डुमक नहीं पहुँच पाई है। डुमक के नागरिक प्रेम सिंह सनवाल का कहना है कि सड़क अभी तक डुमक नहीं पहुँची है। जब हमने ऑनलाइन सड़क के कार्य की प्रगति जाननी चाही तो हम हैरान रह गए। काग़ज़ों में सड़क 23 किमी बन चुकी है जो डुमक पहुँच जाती लेकिन यह सिर्फ़ काग़ज़ों में ही बनी है। यह सड़क कई लोगों के लिए दुधारू गाय है जिसे वो दुह रहे हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले गाँव के लोगों ने सड़क को लेकर चुनाव बहिष्कार की घोषणा की थी जिससे प्रसाशन थोड़ा हरकत में आया और कुछ लोगों को डुमक भेजा गया किन्तु उनके द्वारा किए गए वायदे नेताओं के चुनावी वायदों जैसे ही निकले। रुके हुए कार्य के लिए जेसीबी मशीन तक नहीं पहुँची। जिसके बाद बहिष्कार को टाल चुके गाँव के लोगों ने चुनाव वाले दिन फिर से चुनाव बहिष्कार का मन बनाया और यह शर्त रखी कि जब तक मशीन नहीं आएगी हम वोट नहीं डालेंगे। उनका कहना था यदि हमें यह लग जाए कि पीपलकोटी भी मशीन पहुँच गई है तो हम वोट डाल देंगे जब यह बात प्रशासन तक पहुँची तो फ़ौरी तौर पर मशीन की व्यवस्था की गई और 11:43 पर डुमक के लोग वोट डालने पहुँची। 
यह मशीन सड़क बनाने ही पहुँची या एक बार फिर से गाँव के लोगों को ठगा गया इस बारे में कुछ कह नहीं सकते।

Screenshot_20190417_232858.jpg

शिक्षा व्यवस्था पर गाँव के लोग कहते हैं, "हमारे गाँव में सन 1952 का प्राइमरी स्कूल है जिसे हमारे गाँव के लोगों ने ही शुरू किया था। बाद में सरकार ने उसका अधिग्रहण कर दिया उसके बाद बहुत संघर्ष के पश्चात हमें जूनियर हाई स्कूल मिला और फिर गाँव के लोगों ने ही स्ववित्तपोषित हाई स्कूल की स्थापना की। बाद में उसे भी सरकारी सहायता मिल गई। लेकिन दुर्गम क्षेत्र होने के कारण यहाँ कोई भी शिक्षक नौकरी नहीं करना चाहता है।" 10वीं के बाद बच्चों की पढ़ाई का क्या होता है इस सवाल के जवाब में उनका कहना था जो सक्षम हैं वह अपने बच्चों को गोपेश्वर या दूसरे शहरों में पढ़ने के लिए भेजते हैं और जो सक्षम नहीं है उनके बच्चे भेड़ बकरी चराने के लिए मजबूर हैं।

चिकित्सा व्यवस्था के बारे में बताते हुए वह कहते हैं, "गांव में एक अस्पताल तो है लेकिन न वहाँ कोई डॉक्टर है और न दवाई उसने सिर्फ़ हमारी जगह घेरी हुई है। किसी के गम्भीर रूप से बीमार हो जाने पर यदि पूरा गाँव इकट्ठा न हो तो मरीज़ का बचना मुश्किल है। कंडी-डंडी, कुर्सी या चारपाई के द्वारा मरीज़ को हॉस्पिटल पहुँचाना पड़ता है।"

एक बड़ी समस्या नेटवर्क कनेक्टिविटी की है। आज हम लोग जहाँ गाँवों में भी 4जी चला रहे हैं डुमक में 2जी नेटवर्क मिलना भी दुर्लभ है। गाँव के एकमात्र घर के किसी निश्चित स्थान पर वोडाफ़ोन नेटवर्क आता है जहाँ से ज़रूरी सूचनाओं का आदान प्रदान होता है। इसके अलावा कोई भी त्वरित साधन मौजूद नहीं है।

गाँव में कोई सामान लाना हो तो 1000 रुपये खच्चर का भाड़ा देना पड़ता है जिससे सामान्यतः बाज़ार की सब्ज़ी, फल आदि के हफ़्तों तक दर्शन नहीं हो पाते हैं। ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति हो जो बाज़ार से आ रहा हो और उसकी पीठ पर कोई बैग न हो। जिस चढ़ाई पर खाली चढ़ते लोग दम भरते हों उस पर लोग घोड़े-गधों की तरह लदकर चलने को विवश हैं।

IMG-20190418-WA0018_0.jpg

इतनी सारी समस्याओं के बीच कोई गाँव में रहे तो कैसे? नतीजतन आज 100 से 120 परिवारों के गाँव में मात्र 30 से 40 परिवार रह गए हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार, परिवहन तथा रोज़गार के चलते गाँव के लोग अपने सुंदर गाँव को आंशिक या पूर्ण रूप से छोड़ चुके हैं। कोई छोड़े भी क्यों न? डुमक में रह कर कोई अपना और अपने बच्चों का भविष्य क्यों बरबाद करे?

डुमक में संभावनाएँ

डुमक गाँव में आलू, बंदगोभी, राजमा और चौलाई की खेती की बहुत संभावना है लेकिन विपणन व्यवस्था न होने से यह सब खाद्यान्न सिर्फ़ अपने लिए ही पैदा किए जाते हैं। गाँव के लोग कहते हैं गोभी अधिक मात्रा में हो जाती है तो उसे हम काटकर अपने मवेशियों को खिलाने के लिए मजबूर हैं क्योंकि उसे बेचने की कोई व्यवस्था नहीं है। आलू लगाना भी अब कम कर दिया है क्योंकि ढुलान के कारण जितने का बीज पड़ता है उतना तो होता भी नहीं है। हमारी धरती सोना उगाने वाली है पर क्या करें?"

गाँव वालों की बातों को सुनते, उन्हें धीरे-धीरे सब अच्छा होने की उम्मीद बंधाते, मेरे ज़हन में कई प्रश्न उठने लगे। जैसे इतनी संभावनाओं के बावजूद डुमक गाँव आज भी दुनिया से कटा हुआ है तो इसके लिए कौन दोषी है? सरकार दोषी है? प्रशासन दोषी है? या फिर डुमक गाँव के लोग ही दोषी हैं जिन्होंने वोट डालकर लोकतंत्र का सहयोग किया। डुमक के लोग किस पर गर्व करें? अपने भारतीय होने पर या उत्तराखंडी होने पर या फिर एक लोकतांत्रिक देश का नागरिक होने पर? किस पर? मैं सोचने लगा कि एक ओर हम भारत के लोग यह इतराते नहीं थकते कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं और दूसरी ओर डुमक जैसे गाँव के लोग हैं जो यह सवाल पूछ रहे हैं कि क्या इसी को लोकतंत्र कहते हैं?

(लेखक उत्तराखंड के निवासी हैं।)

UTTARAKHAND
Challenges of Uttarakhand
dumak village
village in mountains
chamoli
health care facilities
rural development
Government
PMSGT

Related Stories

उत्तराखंड : ज़रूरी सुविधाओं के अभाव में बंद होते सरकारी स्कूल, RTE क़ानून की आड़ में निजी स्कूलों का बढ़ता कारोबार 

उत्तराखंड: तेल की बढ़ती कीमतों से बढ़े किराये के कारण छात्र कॉलेज छोड़ने को मजबूर

उत्तराखंड : हिमालयन इंस्टीट्यूट के सैकड़ों मेडिकल छात्रों का भविष्य संकट में

उत्तराखंड में ऑनलाइन शिक्षा: डिजिटल डिवाइड की समस्या से जूझते गरीब बच्चे, कैसे कर पाएंगे बराबरी?

उत्तराखंड: NIOS से डीएलएड करने वाले छात्रों को प्राथमिक शिक्षक भर्ती के लिए अनुमति नहीं

मेडिकल छात्रों की फीस को लेकर उत्तराखंड सरकार की अनदेखी

मनमानी : पतंजलि समेत निजी आयुष कॉलेज बढ़ी फीस लौटाने को तैयार नहीं!

दिल्ली से उत्तराखंड तक : पढ़ने की जगह आंदोलन क्यों कर रहे छात्र?

एक अध्ययन : माइग्रेशन के आंकड़े बताते हैं कि  हालात अच्छे नहीं हैं

शिक्षक, पुस्तक लेके रहेंगे!


बाकी खबरें

  • सोनिया यादव
    समलैंगिक साथ रहने के लिए 'आज़ाद’, केरल हाई कोर्ट का फैसला एक मिसाल
    02 Jun 2022
    साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद भी एलजीबीटी कम्युनिटी के लोग देश में भेदभाव का सामना करते हैं, उन्हें एॉब्नार्मल माना जाता है। ऐसे में एक लेस्बियन कपल को एक साथ रहने की अनुमति…
  • समृद्धि साकुनिया
    कैसे चक्रवात 'असानी' ने बरपाया कहर और सालाना बाढ़ ने क्यों तबाह किया असम को
    02 Jun 2022
    'असानी' चक्रवात आने की संभावना आगामी मानसून में बतायी जा रही थी। लेकिन चक्रवात की वजह से खतरनाक किस्म की बाढ़ मानसून से पहले ही आ गयी। तकरीबन पांच लाख इस बाढ़ के शिकार बने। इनमें हरेक पांचवां पीड़ित एक…
  • बिजयानी मिश्रा
    2019 में हुआ हैदराबाद का एनकाउंटर और पुलिसिया ताक़त की मनमानी
    02 Jun 2022
    पुलिस एनकाउंटरों को रोकने के लिए हमें पुलिस द्वारा किए जाने वाले व्यवहार में बदलाव लाना होगा। इस तरह की हत्याएं न्याय और समता के अधिकार को ख़त्म कर सकती हैं और इनसे आपात ढंग से निपटने की ज़रूरत है।
  • रवि शंकर दुबे
    गुजरात: भाजपा के हुए हार्दिक पटेल… पाटीदार किसके होंगे?
    02 Jun 2022
    गुजरात में पाटीदार समाज के बड़े नेता हार्दिक पटेल ने भाजपा का दामन थाम लिया है। अब देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले चुनावों में पाटीदार किसका साथ देते हैं।
  • सरोजिनी बिष्ट
    उत्तर प्रदेश: "सरकार हमें नियुक्ति दे या मुक्ति दे"  इच्छामृत्यु की माँग करते हजारों बेरोजगार युवा
    02 Jun 2022
    "अब हमें नियुक्ति दो या मुक्ति दो " ऐसा कहने वाले ये आरक्षित वर्ग के वे 6800 अभ्यर्थी हैं जिनका नाम शिक्षक चयन सूची में आ चुका है, बस अब जरूरी है तो इतना कि इन्हे जिला अवंटित कर इनकी नियुक्ति कर दी…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License