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संघीय बजट 2014-15
प्रभात पटनायक
15 Aug 2014

जुलाई की 10 तारीख को पेश किए गए 2014-15 के संघीय बजट में, चार चीजें खासतौर पर नजर में आती हैं। पहली, इसमें पेश किए गए आंकड़े खुल्लमखुल्ला अवास्तविक  हैं। दूसरी, इसमें पेश की गयी बुनियादी राजकोषीय रणनीति, अपेक्षाकृत गरीब तबकों की कीमत पर, आबादी के अपेक्षाकृत खुशहाल हिस्सों, मसलन कार्पोरेट अभिजन तथा उच्च मध्य वर्ग को ही रियायतें देने की रणनीति है। तीसरी, इसमें भविष्य का ऐसा नकशा पेश किया गया है जो अर्थव्यवस्था के उल्लेखनीय निजीकरण का नकशा है। यह हरेक क्षेत्र में सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के जरिए भी किया जाना है और सार्वजनिक  क्षेत्र की हिस्सा पूंजी की बड़े पैमाने पर बिक्री के जरिए भी। चौथी, हालांकि बजट का घोषित लक्ष्य तो मौजूदा संकट से निकलने का रास्ता मुहैया कराना ही है, यह बजट न तो आर्थिक गतिरोध में कमी की कोई उम्मीद दिलाता है और न ही भारतीय अर्थव्यवस्था को जकड़े बैठी मुद्रास्फीति को शांत होने की। आइए, इन मुद्दों पर हम क्रमश: विचार करें।

गैरयथार्थवादी अनुमान

मामूली कतर-ब्योंत को छोड़ दिया जाए तो, जिस पर हम जरा बाद में चर्चा करेंगे, मोटे तौर पर बजट के आंकड़े सारत: वही हैं, जो यूपीए  सरकार द्वारा पेश किए गए 2014-15 के अंतरिम बजट में थे। उस समय ही अंतरिम बजट के अनुमानों के संबंध में आम तौर पर संशय जताए गए थे। उसके अनुमानों को अति-आशावादी माना जा रहा था। वर्तमान बजट में प्रत्यक्ष करों के खाते में, अंतरिम बजट की तुलना में 22,200 करोड़ रु0 की शुद्घ  राजस्व हानि का प्रस्ताव किया गया है। दूसरी ओर अप्रत्यक्ष करों के खाते में 7,525 करोड़ रु0 की शुद्घ राजस्व बढ़ोतरी का प्रस्ताव किया गया है। बहरहाल, इस तरह अंतरिम बजट के अति-आशावादी अनुमानों की भी तुलना में 14,776 करोड़ रु0 की शुद्घ राजस्व कमी के बावजूद और वित्त मंत्री के खर्चों में कोई कटौती न करने के दावे के बावजूद, राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में, अंतरिम बजट के 4.1 फीसद के अनुमान के स्तर पर ही बने रहने का दावा किया गया है। इससे ये आंकड़े पूरी तरह से संदिग्ध हो जाते हैं।

 इसी पहलू को दूसरी तरह से भी देखा जा सकता है। 2014-15 में कुल कर तथा गैर-कर राजस्व, 2013-14 के संशोधित अनुमानों के मुकाबले करीब 16 फीसद बढ़ जाने का अनुमान पेश किया गया है। अगर सकल घरेलू उत्पाद में 5 फीसद की वास्तविक  वृद्घि मान ली जाए और कर की दरों में कोई बढ़ोतरी न हो (वास्तव में जैसाकि हम पीछे कह आए हैं, कर की दर में तो शुद्घ कमी ही की जा रही है) यह अनुमान किसी भी तरह से सही निकल ही नहीं सकता है। हां! अगर मुद्रास्फीति की दर और बढक़र 11 फीसद पर पहुंच जाए तो बात दूसरी है। जाहिर है कि सरकार ने इसके भरोसे तो यह अनुमान नहीं लगाया होगा। वास्तव में जैसाकि बजट दस्तावेज खुद ही स्पष्टï कर देते हैं, 2013-14 की तुलना में 2014-15 में रुपयों में सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ोतरी की दर सिर्फ 13.4 फीसद मानकर चला गया है। जब सकल घरेलू उत्पाद में रुपयों में 13.4 फीसद की ही बढ़ातरी होनी है, कर की दरों में कोई बढ़ोतरी किए बिना, उससे राजस्व में 16 फीसद की बढ़ोतरी का  अनुमान, पूरी तरह से असंभव है।

इसलिए, अगर 2014-15 के बजट का खर्चों का लक्ष्य पूरा किया जाता है, तो राजकोषीय घाटा, अनुमानित 4.1 फीसद से ज्यादा होना तय है। बेशक, अपने आप में इससे कोई फर्क  नहीं पड़ता है। लेकिन, चूंकि इस तरह की स्थिति वित्तीय पूंजी को पसंद नहीं आएगी, उनकी नापसंदगी का ख्याल करते हुए सरकार खुद ही खर्चों को सिकोड़ रही होगी। और खर्चों में यह कटौती, गरीबों के लिए रखे गए खर्चों में ही कहीं ज्यादा होगी।

अमीरपरस्त रास्ता

 दूसरे, जहां तटकरों तथा उत्पाद शुल्कों के मामले में सभी समायोजनों का एक  ही लक्ष्य रहा है, घरेलू उत्पादकों के मुनाफे बढ़ाना, जो कि प्रकटत: मौजूदा गतिरोध को तोडऩे की कोशिश के नाम पर किया गया है और जाहिर है कि उनके बीच कार्पोरेट पूंजीपतियों का ही बोलबाला है। वहीं प्रत्यक्ष करों के मामले में सभी समायोजन, विदेशी अंतर्राष्टïरीय निवेशकर्ताओं और खाते-पीते मध्य वर्ग को कर राहत दिलाने पर ही केंद्रित हैं। आय कर से छूट की सीमा 2 लाख रु0 से बढ़ाकर 2 लाख 50 हजार रु0  कर दी गयी है, जिसे समूचे मध्य वर्ग को लाभ पहुंचाने वाले के कदम के तौर पर पेश किया जाएगा। लेकिन, इस श्रेणी के अंदर भी, मध्य वर्ग के ज्यादा संपन्न हिस्से के लिए कर छूट में सिर्फ 50,000 रु0 की बढ़ोतरी नहीं की गयी है बल्कि 1 लाख 50 हजार रु0 की बढ़ोतरी की गयी है यानी इस रियायत के दायरे में भी प्रतिगामिता का बोझ काम कर रहा है। (इस 1 लाख 50 हजार रु0 के तीन घटक हैं--आय कर से छूट की सीमा 2 लाख से बढ़ाकर 2.5 लाख किया जाना; आवास ऋणों के ब्याज में 50 हजार रु0 की छूट; और निवेश भत्ते की मद में 50 हजार रु0 की छूट; जिस सब का ज्यादा लाभ मध्य वर्ग के ऊपर वाले संस्तर को मिलेगा न कि निचले संस्तर को।) संक्षेप में यह कि कर छूटें, आबादी संपन्नतर तबकों के ही हक  में गयी हैं।

दूसरी ओर, सामाजिक  क्षेत्र पर खर्चो के मामले में और ग्रामीण विकास पर खर्चो के मामले में, जिनका लाभ गरीबों को मिल सकता था, काफी कंजूसी बरती गयी है। जहां वित्त मंत्री ने दावा किया है कि उन्होंने अंतरिम बजट की तुलना में इन मदों में प्रावधानों में कमी नहीं की है, इस संबंध में एक बात है जिस पर पर ध्यान ही नहीं दिया गया है।

मगनरेगा के तहत 5,000 करोड़ रु0 की मजदूरी का भुगतान बकाया है। मजदूर पहले ही काम कर चुके हैं, लेकिन उनकी मजदूरी का भुगतान नहीं हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ है कि पिछले वित्त मंत्री ने वास्तव में इन भुगतानों को टाल दिया था ताकि राजकोषीय घाटे को ऐसी सीमा में रखा जा सके, जिससे अंतर्राष्टïरीय वित्तीय पूंजी को घबराहट न हो। चूंकि यह मजदूरी वास्तव में मजदूरों का पहले का हक  है, अगर मगनरेगा के लिए इस बजट में 43,000 करोड़ रु0 का यानी पिछले साल के स्तर से 10 हजार करोड़ रु0 ज्यादा का प्रावधान किया गया गया होता, तभी वास्तव में पिछले साल के रुपया आवंटन के स्तर को बनाए रखा जा रहा होता। यह तो तब है जबकि मुद्रास्फीति को हम हिसाब में नहीं ले रहे हैं। मुद्रास्फीति को भी हिसाब में ले लिया जाए तब तो रुपयों में 14,000 करोड़ रु0 ज्यादा का प्रावधान किया गया होता, तभी वास्तविक  मूल्य के हिसाब से पिछली साल के स्तर पर आवंटन को बनाए रखा जा सकता था। लेकिन, मगनरेगा के लिए इस बजट में वास्तव में 34,000 करोड़ रु0 का ही प्रावधान किया गया है यानी रुपयों में करीब पिछले साल के प्रावधान के ही बराबर और यह पिछले साल के ही वास्तविक  स्तर को बनाए रखने के लिहाज से 13,000 करोड़ रु0 कम है।

गणना बिल्कुल सरल सी है। पिछले साल के लिए रखे गए 33,000 करोड़ रु0 के आवंटन के 5,000 करोड़ रु0 कम पडऩे का मतलब यह है कि वास्तव में इस वर्ष का आवंटन 38,000 करोड़ रु0 का बैठता है। रुपयों में खर्चे को पिछले साल के स्तर पर बनाए रखने के लिए, 43,000 करोड़ रु0 के प्रावधान की जरूरत थी (पिछले साल के बराबर आवंटन में 5,000 करोड़ रु0 का मजदूरी का बकाया जोड़ लें तो यह 43,000 करोड़ रु0 बैठता है।) इस स्थिति में अगर 43,000 करोड़ रु0 की जगह पर, मगनरेगा के लिए सिर्फ 34,000 करोड़ रु0 का प्रावधान किया गया है, महंगाई के पहलू को अगर भूल भी जाएं तब भी, मगनरेगा के लिए आवंटन में यह भारी संकुचन को दिखाता है। जाहिर है कि अगर हम मुद्रास्फीति को हिसाब में ले लेते हैं, तो यह संकुचन और भी ज्यादा बैठेगा।

एक बार जब हम मुद्रास्फीति को हिसाब में ले लेते हैं, तो हम यह पाते हैं कि सामाजिक खर्चों के पूरे क्षेत्र में ही, आवंटनों में भारी संकुचन हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस बजट की बुनियादी रणनीति इसी पर टिकी हुई है कि अमीरों के पक्ष में, समाज के संपन्नतर तबकों के हाथों में हस्तांतरण बढ़ाए जाएं और गरीबों के लिए आवंटनों को घटाया जाए, हालांकि वित्त मंत्री ने अपने टेलीविजन साक्षात्कारों में इससे इंकार किया है। संक्षेप में यह एनडीए की सरकार अपनी घनघोर तरीके से अमीरपरस्त होने की ख्याति को सच सबित कर रही है।

अंधाधुंध निजीकरण के रास्ते पर

इस बजट की तीसरी और लंबी अवधि के लिए सबसे महत्वपूर्ण साबित होने वाली विशेषता यह है कि इसमें साफ तौर पर इस इरादे का एलान कर दिया गया है कि सार्वजनिक  क्षेत्र के उद्यमों का निजीकरण किया जाएगा ओर इसमें संस्थागत बैंक  भी शामिल हैं। यह मानना कि निजी निवेशकों का हिस्सा 26 फीसद से बढ़ाकर 49 फीसद करने से (जो कि प्रतिरक्षा तथा बीमा के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए किया जाना है और सार्वजनिक  उद्यमों तथा राष्टïरीयकृत बैंकों के मामले में भी किया जाने वाला है) कोई फर्क  नहीं पड़ेगा, सरासर बेतुकी बात है। वाकई अगर ऐसा ही होता तो कोई वजह नहीं थी कि इससे पहले खुद सरकार ने ही निजी हिस्सा पूंजी की इजाजत देने के लिए 26 फीसद की सीमा को चुना होता। सचाई यह है कि 26 फीसद से ऊपर की हिस्सा पूंजी सिर्फ संबंधित शेयरधारक को वीटो पावर ही नहीं देती है, जिस साझीदार के हाथों में 49 फीसद हिस्सा पूंजी हो, उसकी राय को किसी तरह से अनदेखा किया ही नहीं जा सकता है। इसलिए, 49 फीसद हिस्सा पूंजी की इजाजत देना निश्चित रूप से सार्वजनिक  उद्यमों के काम-काज में निजी स्वार्थों की घुसपैठ की इजाजत देना है। ऐसा करने के लिए वित्त मंत्री ने जो बहाना बनाया है, वह तो बहुत ही कमजोर है।

प्रतिरक्षा के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पक्ष में दलील यह दी गयी है कि इस समय हम जितने बड़े पैमाने पर रक्षा साज-सामान का आयात करते हैं, उससे तो कहीं बेहतर है कि हम अपने देश में ही उसका उत्पादन करें। ऐसा करने के लिए अगर 49 फीसद विदेशी हिस्सा पूंजी की इजाजत देनी पड़े तो वही सही,  कम से कम इस क्षेत्र में घरेलू आत्मनिर्भरता तो आएगी। इससे देश में रोजगार भी पैदा होगा और विदेशी मुद्रा की बचत भी होगी। लेकिन, यह दलील तो आयात प्रतिस्थापन की ही दलील है, जिसकी वैधता स्वयंसिद्घ है और जिससे कोई असहमत नहीं हो सकता है। लेकिन, यह विदेशी हिस्सा पूंजी बढ़ाकर 49 फीसद करने की दलील किसी भी तरह से नहीं है।

आखिरकार,  प्रतिरक्षा उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने पर जोर तो तभी से दिया जाता रहा है, जब कृष्णा मेनन हमारे देश के रक्षा मंत्री थे। लेकिन, तब तो रक्षा उत्पादन इकाइयों में 49 फीसद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत का कोई मुद्दा नहीं उठा था। बेशक, यह दलील भी दी जा सकती है कि विदेशी हिस्सा पूंजी में उल्लेखनीय बढ़ोतरी के बिना, बाहर से प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण नहीं होगा। लेकिन, विचित्र बात यह है कि वित्त मंत्री ने, जिनके पास रक्षा मंत्रालय का जिम्मा भी है, कम से कम यह दलील नहीं दी है। इसके अलावा प्रतिरक्षा उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भरता के लिए घरेलू शोध तथा विकास को आगे बढ़ाने के लिए जोरदार प्रयास की भी जरूरत होगी। लेकिन, इस क्षेत्र में 49 फीसद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत दिए जाने से, शोध तथा विकास का काम कुंठित हो जाएगा।

निजीकरण के लिए बहानेबाजी

इसी प्रकार, राष्टïरीयकृत बैंकों में निजी हिस्सा पूंजी को घुसाने की दलील किसी भी परीक्षा में खरी नहीं उतर सकती है। बेसल-3 नार्म पूरे करने के लिए बैंकों का पूंजी आधार बढ़ाने के लिए, निजी हिस्सा पूंजी बढ़ाने की जरूरत नहीं है। यह तब है जबकि हम इस तथ्य को छोड़े ही दे रहे हैं कि इस तरह के नार्म की वास्तव में कोई जरूरत नहीं है और भारत को बेसल-3 के आग्रह के सामने यूँ ही हथियार डाल देने के बजाए, इस तरह की शर्तें थोपे जाने का प्रतिरोध करना चाहिए था। खैर! ऐसी स्थिति की कल्पना हम आसानी से कर सकते हैं कि सरकार,  बैंकों के पूंजी आधार का विस्तार करने के लिए जरूरी रकम भारतीय रिजर्व बैंक से उधार ले लेती और यह पैसा रिजर्व बैंक  सरकारी बांडों के बदले में छाप सकता था। यह पैसा खर्च तो हो नहीं रहा होगा, इसे तो बस जमा कर के रखा जा रहा होगा। इसलिए, कट्टïर से कट्टïर मौद्रिकतावादी भी शायद यह दावा नहीं कर सकता है कि इस तरह नोट छापना, मुद्रास्फीतिकारी उत्प्रेरण साबित हो सकता है।

ओबामा प्रशासन ने, वित्तीय संकट की पृष्ठïभूमि में, अमरीका के वित्तीय क्षेत्र को गारंटियों समेत विभिन्न रूपों में जो सहायता दी थी, उसके लिए भी तो उसे न तो इतनी राशि का राजकोषीय प्रबंध करना पड़ा था और न ही वास्तव में यह राशि खर्च करनी पड़ी थी। उसी प्रकार, बेसल-3 नार्म पूरे करने के लिए सरकार द्वारा राष्टïरीयकृत बैंकों का पूंजीकरण किए जाने का मतलब यह कत्तई नहीं है कि सरकार को इसके लिए जरूरी राशि का रोजकोषीय प्रवधान करना होगा। ''नार्म आपात स्थितियों” के लिए होते हैं कि मान लीजिए कि बैंकों से अचानक पैसा निकाल लिया जाए। इन परिस्थितियों में सरकार द्वारा राट्रीयकृत बैंकों के पूंजीकरण के लिए, नोट छापने के जरिए रिजर्व बैंक द्वारा वित्त मुहैया कराए जाने का रास्ता न अपनाए जाने की कोई तुक  ही नहीं बनती है। इसलिए, इस नतीजे से बच पाना मुश्किल है कि सरकार इसे बहाना बनाकर, राष्ट्रीयकृत बैंकों के निजीकरण को सही ठहराने की कोशिश कर रही है। याद रहे कि अंतर्राष्टïरीय वित्तीय पूंजी और अमरीकी साम्र्राज्यवाद बहुत अर्से से इसकी मांग करते आए हैं।

''राजकोषीय सुदृढ़ीकरण” इस बजट का मुख्य लक्ष्य है और इसकी राजकोषीय रणनीति गरीबों के हक  में जाने वाले सार्वजनिक  खर्चों में कमी करने तथा संपन्नों तथा अमीरों के पक्ष में संपदा का हस्तांतरण बढ़ाने की है, जबकि इकाई आय पर इन तबकों के खर्च का हिस्सा, उतनी ही आय पर गरीबों के खर्च के हिस्से से कम होता है। इसलिए, यह बजट घरेलू बाजार के विस्तार में तो योग नहीं ही देने जा रहा है। चूंकि विश्व पूंजीवादी संकट के बने रहने का अर्थ विदेशी बाजारों में बिक्री के मामले में गतिरोध की स्थिति बने रहना भी है, भारतीय अर्थव्यवस्था में मांग की तंगी ज्यों की त्यों बनी रहने जा रही है। इसके अलावा चूंकि इस समय चल रही मुद्रास्फीति कोई आपूर्ति से फालतू मांग पैदा होने से नहीं निकली है बल्कि लागतों को बढ़ाने वाले कारकों से निकली है और वित्त मंत्री ने खाद्यान्नों की खुले बाजार में निकासी का जो वादा किया है उससे इसमें मदद मिलने वाली नहीं है क्योंकि इस तरह निकाला जाने वाला अतिरिक्त खाद्यान्न सटोरियों द्वारा ही खरीद लिया जाएगा तथा इसके चलते कीमतों में कोई कमी नहीं आ पाएगी, अर्थव्यवस्था का संकट बना रहने वाला है।    

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

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