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भारत
राजनीति
सुरक्षा क़ानूनों में संशोधन और प्रशासनिक बदलाव सत्ता के केन्द्रीकरण की साज़िश है
कई क़ानूनों में प्रस्तावित संशोधन कुछ लोगों के हाथ में सत्ता की ताक़त को इकट्ठा करना है और न्यायिक प्रक्रिया को धोखा देने की प्रवृत्ति का नतीजा है।
विवान एबन
11 Jul 2019
Translated by महेश कुमार
सुरक्षा क़ानूनों में संशोधन

ग़ैरक़ानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन को विपक्ष के कड़े विरोध का सामना 8 जुलाई को उस वक़्त करना पड़ा जब इसे सदन में पेश किया गया था। प्रस्तावित संशोधनों को ‘बेरहम’ या कठोर’ के रूप में चिह्नित किया गया है। हालांकि, तीन संबंधित क़ानूनों में महत्वपूर्ण प्रस्तावित संशोधन प्रशासनिक बदलावों के बारे में एक झलक पेश कर सकते हैं जिसकी बदली स्थिति में कोई भी उम्मीद कर सकता है। इनमें जो मुख्य हैं वे, राष्ट्रीय जांच एजेंसी अधिनियम, 2008 (एनआईए अधिनियम) में प्रस्तावित संशोधन; ग़ैरक़ानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967; और द प्रोटेक्शन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स एक्ट, 1993 (पीओएचए) का केंद्रीकरण की दिशा में क़दम एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है।

यूएपीए संशोधन

यूएपीए को शुरुआत में 'ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों' से निपटने के लिए लागू किया गया था, मूल क़ानून में, ऐसी गतिविधियों का मतलब था जो लोगों में अलगाव पैदा करे या ‘असंतोष’ की भावना को पैदा करे। ‘आतंकवादी गतिविधियों’ को बाद में एक संशोधन के माध्यम से इस अधिनियम में जोड़ा गया था। प्रस्तावित संशोधन जिसने सबसे अधिक टकराव पैदा किया है, वह है व्यक्तियों को 'आतंकवादी' के रूप में नामित कर देना। एक अर्थ में, यह एक तार्किक क़दम है, जिसमें 'अकेले भेड़िए' पर हमले की घटना पर विचार किया गया है। हालांकि, इस तरह के हमले भारत में नहीं हुए हैं। इसके अलावा, कुछ ख़ास समुदायों के प्रति वर्तमान शासन की वास्तविक नज़र को देखते हुए, इस संशोधन के दुरुपयोग होने की ज़्यादा संभावना है।

विकास और अर्थव्यवस्था के नाम पर बुद्बुदाना, वर्तमान शासन की हिंदुत्व की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता  एक भयंकर पहलू है जो दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों पर हमलों के रूप में हो रहा है। इसके अलावा, जो लोग इस तरह की हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं, और हिंसा संविधान के विरोधाभासी हैं, उन्हे बार-बार 'कट्टरपंथी इस्लामवादी', या नए आकर्षक शब्द, जैसे 'शहरी नक्सल' के रूप में प्रचारित या बदनाम कर दिया जाता है। संभवतः, बिना किसी से संबंधित हुए, ये नागरिक जब अपनी आवाज़ उठाने की हिम्मत करते हैं, तो वे सभी संभवत: ख़ुद को ‘आतंकवादी’ या ‘शहरी नक्सल’ के रूप में बदनाम किए पाए जाते हैं।

यूएपीए की धारा 25 में किए गए प्रस्तावित संशोधन के ज़रिये पूरी की पूरी ताक़त राज्य पुलिस बल से राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सहज रूप से स्थानांतरित की जा रही है। मौजूदा अनुछेद का कहना है कि जांच अधिकारी (IO) को उन मामलों में संपत्ति जब्त करने से पहले संबंधित राज्य के पुलिस महानिदेशक से अनुमति लेनी होगी जिन्हे वे आतंकवाद की कार्यवाही मानते है। संसोधन अगर पारित हुअ तो एक ऐसी स्थिति होगी जिसमें यदि एनआईए द्वारा जांच की जा रही है, तो अनुमति एनआईए के महानिदेशक से लेनी होगी। इससे एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी जिसमें बाएं हाथ को पता नहीं चलेगा कि आखिर दाहिना हाथ क्या कर रहा है।

मुद्द है कि राज्य ने राजनीतिक हिंसा की घटनाओं को कैसे निपटा है, यह घृणित प्रतीत होता है। इस तरह की हिंसा से निपटने या जांच करने के लिए अधिकार क्षेत्र रखने वाली एजेंसियों की ओवरलैपिंग केवल उन सभी लोगों के लिए भ्रम पैदा कर सकती है जो इसमें शामिल हैं। संवाद की पहलकदमी करने सहित कई स्तरों पर अतिरिक्त-संवैधानिक राजनीतिक हिंसा से निपटने के लिए पूरी तरह से एक अलग एजेंसी बनाना ज्यादा  अधिक समझदारी होगी।

एनआईए अधिनियम संशोधन

26/11 हमले के बाद - एनआईए अधिनियम की जो मुख्य आलोचना थी, जब इसे पहली बार 2008 में पारित किया गया था – वह यह थी कि अधिनियम में निहित एक मजबूत केंद्रीकरण की प्रवृत्ति है। इस आलोचना को इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि 26/11 के समान हमले की स्थिति में, प्रक्रिया के भीतर मौजुद लाल फीताशाही केवल एक ते़ज जांच के रास्ते में आएगी। अपनी स्थापना के बाद से, एनआईए ने ’टेरर फंडिंग’, बम विस्फोट और विद्रोही समूहों की जांच की है। एनआईए अधिनियम एजेंसी को गिरफ्तारी करने के लिए सशक्त नहीं बनाता है - यह पुलिस का काम है - न ही कानून एनआईए को अपराध को रोकने के लिए सशक्त बनाता है। एनआईए केवल एनआईए अधिनियम की अनुसूची में सूचीबद्ध अधिनियम के तहत अपराध की जांच और मुकदमा चला सकती है।

एनआईए अधिनियम में प्रस्तावित संशोधनों के बारे में जो सबसे दिलचस्प बात है वह यह कि सरकार इजरायल या संयुक्त राज्य अमेरिका की अवधारणा का अनुकरण करना चाहती है लेकिन उसके पास इसके लिए आवश्यक बुनियादी ढाँचा नहीं है। उदाहरण के लिए, धारा 1 में, जो नीचे लागू होता है, जहां अधिनियम लागू होगा, एक अतिरिक्त खंड को जोड़ने की मांग की गई है अर्थात अधिनियम लागू होगा (डी) उन लोगों के लिए जो भारतीय नागरिकों के खिलाफ भारत से दूर एक अनुसूचित अपराध करते हैं या भारत के हित के खिलाफ काम करते हैं। ”यह संशोधन धारा 6 के एक अन्य प्रस्तावित संशोधन में भी समर्थित है, जिसमें यह केंद्र सरकार के विवेकाधिकार पर होगा कि एनआईए को भारत के बाहर हमले की जांच करनी चाहिए या नहीं। इस संशोधन को कई देशों का समर्थन नहीं मिलेगा ऐसी संभावना है, खासकर उन देशों से जिनके साथ भारत के सुखद संबंध नहीं हैं। जब तक कि भारत अचानक गंभीर राजनयिक दबदबा नहीं बनाता है, तब तक इस बात की कोई  संभावना नहीं है कि एक अपराधी को उस देश की सरकार द्वारा पकड़ लिया जाए जहां यह अपराध हुआ है, इस खंड को कभी भी एक गिरफ्तारी के अलावा लागू नही किया जा सकता है।

हालांकि, इन कॉस्मेटिक संशोधनों के बीच, धारा 11 के उपखंडों में से (3) और (7) को हटाने के साथ वास्तविक मुद्दा उठता है। ये धाराएं अधिनियम के तहत बनाई गई विशेष अदालतों में की जाने वाली नियुक्तियों से संबंधित हैं। मौजूदा प्रावधान न्यायाधीशों की सभी नियुक्तियों को केंद्र सरकार द्वारा संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश से किया जाता हैं। इस संसोधन के द्वारा विशेष न्यायालयों के गठन करने के बजाय एनआईए मामलों की सुनवाई के लिए सत्र न्यायालयों को नामित करने की सिफारिश की जा रही है जिसके कारण यह विरोध उत्पन्न हुआ है। इसलिए, पहले से ही बोझिल और अत्यंत काम के नीचे दबी कानून प्रणाली सत्र न्यायालयों में अतिरिक्त एनआईए मामलों के बोझ से दब जाएगी, जो केवल संपत्ति विवाद (संपत्ति के मूल्य के आधार पर) से लेकर किसी हत्या के मामले की सुनवाई के लिए ही सशक्त हैं।

पी.ओ.एच.ए. संशोधन 

पी.ओ.एच.ए. के ज्यादतर प्रस्तावित संशोधन अन्य अधिनियमों और एजेंसियों को इसके दायरे में लाते हैं जैसे कि; पिछड़ा वर्ग का राष्ट्रीय आयोग, बाल अधिकारों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय आयोग और विकलांग व्यक्तियों के लिए मुख्य आयुक्त आदि। हालाँकि, इन संशोधनों के बीच प्रशासनिक संशोधनों पर भी कुछ ध्यान देने की आवश्यकता है।

सबसे पहले, यदि यह संसोधन पारित हो जाता है, तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के प्रमुख अब केवल "सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश" नहीं होंगे और बजाय इसके अब "भारत के मुख्य न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश" भी हो सकते हैं। केक पर कॉस्मेटिक आइसिंग इस तरह की गई है कि धारा 3 (एनएचआरसी का संविधान) में संशोधन अनिवार्य रूप से "मानवाधिकारों से संबंधित मामलों में, या व्यावहारिक अनुभव वाले व्यक्तियों में" से एक महिला सदस्य को शामिल करेगा।

दूसरे, कार्यकाल की शर्तों को पांच साल से घटाकर तीन साल कर दिया गया है। हालाँकि, केवल आयोग के प्रमुख पुनर्नियुक्ति के लिए पात्र है बशर्ते कि वह व्यक्ति 70 वर्ष की आयु को पार नहीं कर चुके हो। तीसरा, सचिव जो संगठन का मुख्य कार्यकारी अधिकारी होगा, वह उन शक्तियों और कार्यों का निर्वहन नहीं करेगा जो आयोग का प्रतिनिधि कर सकता है। इसके बजाय, वह आयोग के प्रमुख के लिए इश्तिहार निकालेगा। इसलिए, प्रमुख और अन्य सदस्यों की नियुक्ति एक छह-सदस्यीय समिति द्वारा तय की जाएगी, जिसमें विपक्ष के केवल दो सदस्य होते हैं। इस प्रकार, यह संशोधन आयोग के प्रमुख में सारी शक्ति को केंद्रीकृत कर देगा। इसे राज्य मानवाधिकार आयोगों (SHRC) के संबंध में भी दोहराया गया है। इसके अलावा, एक अन्य प्रस्तावित संशोधन ने केंद्र सरकार को किसी भी SHRC को केंद्रशासित प्रदेश का प्रभारी नियुक्त करने का अधिकार दे दिया है, सिवाय राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के जो कि NHRC के अधिकार क्षेत्र में आता है।

जब इस सारे प्रकरण की तरफ देखते है, तो इन संशोधनों में एक-दूसरे के पुरक बनने की प्रवृत्ति मिलेगी। उदाहरण के लिए, जिन व्यक्तियों को संशोधित यूएपीए के तहत आतंकवादी के रूप में नामित किया जा सकता है और एनआईए द्वारा जांच की जाएगी, तो वे सत्र न्यायालयों में पहले से लंबित लाखों मामलों के बैकलॉग में दब जाएंगे, फिर उनकी सुनवाई वक्त पर नहीं हो पाएगी। यदि व्यक्ति वास्तव संबंधित अपराध के लिए दोषी नहीं है, तो उसे रिहा होने का लंबा इंतजार करना होगा। इसके अलावा, यूएपीए और एनआईए अधिनियम दोनों ही बिना साधन वाले व्यक्ति की जमानत को दुर्लभ बना देते हैं। संशोधित पीओएचए के केंद्रीयकरण की प्रकृति में एक अतिरिक्त बोझ भी तब बढ़ेगा, जब खासकर अगर संबंधित प्रमुख एक राजनीतिक नियुक्ति है।

Unlawful Activities Prevention Act
UAPA
National Investigation Agency Act
NIA Act
NIA
Protection of Human Rights Act
POHA
Parliament
lok sabha
Amendments

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