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भारत
राजनीति
भीषण महामारी की मार झेलते दिल्ली के अनेक गांवों को पिछले 30 वर्षों से अस्पतालों का इंतज़ार
दशकों पहले बपरोला और बुढ़ेला गाँवों में अस्पतालों के निर्माण के लिए जिन भूखंडों को दान या जिनका अधिग्रहण किया गया था वे आज तक खाली पड़े हैं।
रवि कौशल
17 Jan 2022
Several Delhi Villages

पश्चिमी दिल्ली में अपने गाँव में यूँ ही घूमते-टहलते हुए जब कभी भी नरेंद्र सिंह की निगाह बंजर पड़े हुए भूखंड पर पड़ती है तो आँखों में रोष और संताप का भाव उमड़ने लगता है। 

बपरोला गाँव के निवासियों द्वारा अस्पताल के निर्माण हेतु 1984 में ही ग्राम सभा के सामूहिक स्वामित्व वाली भूमि के एक हिस्से को सरकार को दान कर दिया गया था। न्यूज़क्लिक से अपनी बातचीत में सिंह का कहना था कि, अड़तीस साल बाद, एक अच्छे अस्पताल-सह-प्रसूति गृह को लेकर अब उनकी सारी उम्मीदें धराशायी हो चुकी हैं।

तमाम नोटिसों और सूचना के अधिकार (आरटीआई) आवेदनों वाली एक भारी-भरकम फाइल दिखाते हुए सिंह कहते हैं कि न तो केंद्र और न ही दिल्ली सरकार अस्पताल के निर्माण में हुई देरी की व्याख्या कर  पाने में समर्थ है। बेहद गुस्से में सिंह पूछते हैं, “गर्भवती महिलाओं की पीड़ा को कोई समझना नहीं चाहता है, जिन्हें प्रसव के लिए जाफरपुर कलां स्थित, राव तुला राम मेमोरियल अस्पताल जाने के लिए कम से कम 11 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। मुझे बताइए कि ऐसा कौन सा देश है जहाँ राष्ट्रीय राजधानी के निवासियों को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं को हासिल करने के लिए इतनी अधिक दूरी तय करनी पड़ती है? 

ग्रामीणों द्वारा भूखंड दान करने करने के तेईस वर्षों के बाद कहीं जाकर इसे औपचारिक तौर पर जुलाई 2007 में अधिग्रहित कर लिया गया था। अतिरिक्त निदेशक (योजना), स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय (डीजीएचएस), अरुण बनर्जी के द्वारा एक आरटीआई आवेदन के जवाब में दिए गये एक पत्र में कहा गया है कि निदेशालय ने अधिग्रहण के बदले में भुगतान कर दिया था और भूमि सार्वजनिक लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) को हस्तांतरित की जा चुकी है। काम के बोझ का हवाला देते हुए पीडब्ल्यूडी ने इस भूखंड को दिल्ली राज्य औद्योगिक एवं बुनियादी ढांचा विकास निगम (डीएसआईआईडीसी) को स्थानांतरित कर दिया, जिसने कथित तौर पर अस्पताल के निर्माण को न कर पाने के पीछे अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति का हवाला दिया है।

हालाँकि, सिंह इस बात का दावा करते हैं कि डीएसआईआईडीसी अधिकारियों ने उन्हें सूचित किया था कि भूमि पीडब्ल्यूडी को वापिस कर दी गई है। “इस क्षेत्र ने इस उम्मीद के साथ विभिन्न राजनीतिक दलों के तीन विधायकों को चुनकर भेजा कि अस्पताल का निर्माण कार्य पूरा हो जायेगा। उन सभी के द्वारा आधारशिला तो रखी गई लेकिन निर्माण कार्य कभी भी शुरू न हो सका।”

ग्रामीणों द्वारा दायर की गई एक अन्य आरटीआई आवेदन से पता चला है कि डीजीएचएस ने अभी भी पीडब्ल्यूडी को अस्पताल का विवरण नहीं सौंपा है। आवेदन के जवाब में, पीडब्ल्यूडी के स्वास्थ्य परियोजना विभाग (पश्चिम) के कार्यकारी अभियंता ने कहा है, “डीजीएचएस के द्वारा अस्पताल का दायरे और इसके कार्यात्मक आवश्यकताओं को प्रस्तुत किया जाना शेष है।”

पिछले वर्ष अप्रैल में कोविड-19 की सबसे भयावह लहर को याद करते हुए सिंह कहते हैं, “हमारे गाँव में कोरोना के सैकड़ों मामले थे, जिसमें कुल 50 लोग मारे गये, जिनमें से कुछ तो 30 साल की कम उम्र के थे। कोरोनावायरस की तीसरी लहर की चपेट में हम पहले से ही आ चुके हैं, लेकिन सरकार ने भयावह अनुभव से कुछ भी नहीं सीखा है।”

अन्य ग्रामीणों ने इस बात की शिकायत की कि कैसे सबसे पास वाला अस्पताल सार्वजनिक परिवहन नेटवर्क से खराब तरीके से जुड़ा हुआ है। मालती नाथ अपने अनुभव सहित उन परिवारों जिनके सदस्य अस्पताल जाते समय बीच राह में ही दिल का दौरा पड़ने से गुजर गये, को याद करते हुए कहती हैं, “आप अपने निजी वाहन से भी 30 मिनट से पहले अस्पताल नहीं पहुँच सकते हैं।”

एक अन्य निवासी, राजवीर सोलंकी जो दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ. भीम राव अंबेडकर कालेज से प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं, ने फोन पर न्यूज़क्लिक को बताया कि स्थानीय लोगों और प्रवासियों के बीच में झगड़े की बात सिर्फ एक मिथक है।

सोलंकी कहते हैं, “राष्ट्रीय राजधानी का विकास विभिन्न चरणों में हुआ है। सबसे पहले, पाकिस्तान से आये शरणार्थियों जिनको विभाजन की भयावहता का सामना करना पड़ा था, यहाँ आकर बसे और शहर को खूबसूरत बनाने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की। फिर 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के गरीबी प्रवासियों का पलायन शुरू हुआ, जिन्होंने शहर के विकास को आगे बढ़ाने में आवश्यक कार्य बल प्रदान करने का काम किया।”

सोलंकी ने आगे कहा, बाद की सरकारों ने, “स्थानीय लोगों और प्रवासियों दोनों को विफल कर दिया है, जो बुनियादी सुविधाओं के अभाव से त्रस्त बेहद कम स्थानों पर ठूंस-ठूंस कर रहने के लिए मजबूर हैं। मेरे नाती-पोते अक्सर मुझसे पूछते हैं कि क्यों गाँवों में साफ़ सुथरी सड़कें, किताबों की दुकानें और बाग़-बगीचे नहीं हो सकते?”

विकास पुरी में, पड़ोस के बुढ़ेला गाँव के निवासियों के पास भी बताने के लिए कुछ इसी प्रकार की कहानी है। ग्रामीण पारस त्यागी ने न्यूज़क्लिक को बताया, हालाँकि इस गाँव को 1966 में ही शहरी क्षेत्र घोषित कर दिया गया था, और अधिग्रहण का काम 1972 में पूरा हो गया था। लेकिन दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने काफी अंतराल बाद जाकर 1989 में अस्पताल के लिए भूमि का एक टुकड़ा आवंटित करने के लिए एक आवासीय योजना को अंतिम रूप दिया था। हालाँकि यह जमीन पिछले 32 वर्षों से खाली पड़ी है।

बेहद हैरानगी वाले स्वर में कहते हैं, “दिल्ली सरकार सहित निर्वाचित प्रतिनिधियों ने 1993 के बाद से अस्पताल के निर्माण के लिए कभी कोई पहल नहीं की। 2021 में, जब मैंने प्रस्तावित अस्पताल पर अब तक क्या कार्यवाई की गई है के बारे में पूछताछ की तो इस पर डीडीए का कहना था कि फाइल गायब है।”

बिना किसी स्वास्थ्य सुविधाओं वाले समुदाय में पले-बढ़े होने के अपने अनुभव को याद करते हुए त्यागी कहते हैं, “अस्पताल के अभाव के चलते समुदाय को 1990 के दशक तक अपार कष्टों का सामना करना पड़ा क्योंकि तब न तो उनके पास निजी अस्पतालों का खर्च वहन कर पाने के लिए पैसे थे और न ही आपातकालीन स्थिति में वे एम्स तक की यात्रा करने की स्थिति में थे। बाद के दौर में स्थानीय किराए की अर्थव्यवस्था और व्यावसायिक गतिविधियों में उछाल के कारण यहाँ के निवासियों के लिए स्वास्थ्य संबंधी खर्चों को वहन कर पाना संभव हो गया।”

त्यागी कहते हैं, महामारी के बाद से “स्थिति में बदलाव आया है। ग्रामीण अब निजी अस्पतालों की उदासीनता, अक्षमता और बेरुखी को देखते हुए सरकारी अस्पताल की जरूरत को शिद्दत से महसूस कर रहे हैं। समुदाय को महसूस होता है सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच के अधिकार से उसे महरूम रखा गया है। इसके अलावा, आवंटित भूमि पर अस्पताल का निर्माण करने के बजाय दिल्ली सरकार पास के हस्तसाल गाँव में एक अन्य अस्पताल का निर्माण कर रही है, हालाँकि यह काम भी पिछले एक साल से बेहद धीमी रफ्तार से चल रहा है।”

त्यागी जो कि सेंटर फॉर यूथ, कल्चर, लॉ एंड एनवायरनमेंट के सह-संस्थापक भी हैं, का कहना है कि दिल्ली के गाँवों में विकास कार्यों की इस धीमी रफ्तार के पीछे की मुख्य वजह मास्टर प्लान के कार्यान्वयन में विसंगतियों में खोजी जा सकती हैं।

त्यागी के मुताबिक, “दिल्ली-2041 के मास्टर प्लान के अनुसार, दिल्ली के गाँवों के प्रबंधन के लिए नियम एवं कानून योजना की मंजूरी मिलने के दो साल के भीतर इन्हें अधिसूचित कर दिया जायेगा- जो कि गांवों के विकास के बारे में सरकार की गंभीरता को दर्शाता है।”

त्यागी के आरटीआई आवेदन से खुलासा हुआ कि डीडीए द्वारा नियुक्त, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ अर्बन अफेयर्स ने इस काम के लिए एक तीसरे पक्ष को इस काम पर तैनात किया था, जिसने दिल्ली के गाँवों की योजना को तैयार करने के लिए कुल 360 गाँवों में से मात्र 4 गाँवों का ही सर्वेक्षण किया था। वे कहते हैं, “अधिकांश ग्रामीणों को इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। जो लोग इस बारे में जानते हैं उनके पास इन फैसला लेने वालों से लड़ने के लिए संसाधन और समर्थन नहीं है।”

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Several Delhi Villages Waiting for Hospitals for 30 Years Amid Raging Pandemic

Baprola
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Delhi villages
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