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साहित्य-संस्कृति
भारत
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सन्नाटा बरस रहा है देश में...
“सन्नाटा शोर मचाता/ मेरे भीतर धंस रहा है/ घाव देते दृश्य/ दर्द के जलते-सुलगते, बिलखते बिंब…।” ‘इतवार की कविता’ में आज पढ़ते हैं इस ‘कोरोना समय’ की सच्चाई को उकेरती वरिष्ठ कवि और संस्कृतिकर्मी शोभा सिंह की लंबी कविता के कुछ अंश।
न्यूज़क्लिक डेस्क
26 Apr 2020
सन्नाटा
प्रतीकात्मक तस्वीर

शहर ही नहीं

पूरा देश बंद है

यह कोरोना वायरस का सन्नाटा

कोरोना संक्रमण का ख़ौफ़

आतंक की गिरफ़्त

दिनों दिन कसती हुई

फंसी अमीर की जान भी

वही तो इसके वाहक थे

रातों रात

बिना मुकम्मल तैयारी के

लॉकडाउन घोषित किया गया

चक्के जाम, कोई धंधा-रोज़गार नहीं

घरों में सिमटी हलचल

अधिकांश लोग एक-दूसरे से डरे हुए

उनकी संवेदनहीनता

संबंधों में दरार डालती

धर्म से आस्था डिगे नहीं

प्रशासन धार्मिक सीरियलों का

पुनः प्रसारण करवाता

ताली और थाली बजवाकर

समर्थन मूल्य आंकता

हुक्म के फ़रमाबरदार

सांप्रदायिकता का वायरस फैलाते

हुक्मरान का

एजेंडा आगे बढ़ाते

 

ग़रीब मज़दूर, स्वरोज़गारी, मेहनतकश

ग़लत सरकारी नीतियों का शिकार

होते बदहाल

काम नहीं, घर नहीं, रोटी नहीं

जाएं कहां

श्रम की लूट करने वाले

मालिक ने फ़रमाया

प्रवासी तू आज़ाद है

असहायता के भंवर से

परिवार को निकालने की जद्दोजेहद

चुनी हुई सरकार से सवाल नहीं

पूछ सकते

सरकारी गोदाम अनाज से भरे हैं

और वे भूख की आग में जल रहे हैं

क्यों, कोई जवाब देने वाला नहीं

सुनने वाला नहीं

बाहर पुलिस है लाठी है दंड है

सत्ता की प्राथमिकता तय है

साधनहीन भूखे अपने बच्चों के साथ

शहर के कामगारों के क़ाफ़िले

लौट रहे

अपनी जड़ों की ओर

भूख के विरुद्ध

अपनी माटी की ओर

जीवन की आशा लिए

हर क़दम अड़चन

दुत्कार

देह पर केमिकल की गलन

झेलते

अपने मुल्क में ही

बे-वतन होने का एहसास

वैसे ही बढ़ता जाता

जैसे जाने वालों की कतारें

सन्नाटा शोर मचाता

मेरे भीतर धंस रहा है

घाव देते दृश्य

दर्द के जलते-सुलगते, बिलखते बिंब

बातें दिल पर नक़्श

मज़दूर के आत्मसम्मान -गरिमा को

नष्ट किया जा रहा है

उन्हें मंगतों की कतार में खड़ा किया गया

कोरोना से मरने से पहले

भूख से मर जाएंगे

हम...

सत्ता की संवेदनहीनता से

जड़ ख़ामोशी से

उम्मीद के पत्ते

झरते जाते हैं

निःशब्द

फिर नये पत्ते फूट पड़ते हैं

स्मृति में

सर्वहारा का अद्म्य साहस

जिजिविषा

विराट रूप में स्थिर है

वे जो सोचते हैं सब कुछ

सहज सुंदर बनाते हैं हमारा संसार

वे लौटेंगे

तोड़ते जड़ सन्नाटे को

...

-    शोभा सिंह

इसे भी पढ़े : मुंह को ढक लो मगर ज़ेहन को खोल लो...

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Coronavirus
Lockdown
Sunday Poem
Hindi poem

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CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License