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साहित्य-संस्कृति
भारत
इतवार की कविता : ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताएं
इतवार की कविता में हम पेश कर रहे हैं दलित कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुण्यतिथि पर उनकी दो कविताएं।
न्यूज़क्लिक डेस्क
17 Nov 2019
Omprakash valmiki

शंबूक का कटा सर/ ओमप्रकाश वाल्मीकि

 

जब भी मैंने

किसी घने वृक्ष की छाँव में बैठकर

घड़ी भर सुस्‍ता लेना चाहा

मेरे कानों में

भयानक चीत्‍कारें गूँजने लगी

जैसे हर एक टहनी पर

लटकी हो लाखों लाशें

ज़मीन पर पड़ा हो शंबूक का कटा सिर ।

 

मैं उठकर भागना चाहता हूँ

शंबूक का सिर मेरा रास्‍ता रोक लेता है

चीख़-चीख़कर कहता है--

युगों-युगों से पेड़ पर लटका हूँ

बार-बार राम ने मेरी हत्‍या की है ।

 

मेरे शब्‍द पंख कटे पक्षी की तरह

तड़प उठते हैं--

तुम अकेले नहीं मारे गए तपस्‍वी

यहाँ तो हर रोज़ मारे जाते हैं असंख्‍य लोग;

जिनकी सिसकियाँ घुटकर रह जाती है

अँधेरे की काली पर्तों में

 

यहाँ गली-गली में

राम है

शंबूक है

द्रोण है

एकलव्‍य है

फिर भी सब ख़ामोश हैं

कहीं कुछ है

जो बंद कमरों से उठते क्रंदन को

बाहर नहीं आने देता

कर देता है

रक्‍त से सनी उँगलियों को महिमा-मंडित ।

 

शंबूक ! तुम्‍हारा रक्‍त ज़मीन के अंदर

समा गया है जो किसी भी दिन

फूटकर बाहर आएगा

ज्‍वालामुखी बनकर !

(सितंबर 1988)

 

ठाकुर का कुआं

 

चूल्‍हा मिट्टी का

मिट्टी तालाब की

तालाब ठाकुर का ।

 

भूख रोटी की

रोटी बाजरे की

बाजरा खेत का

खेत ठाकुर का ।

 

बैल ठाकुर का

हल ठाकुर का

हल की मूठ पर हथेली अपनी

फ़सल ठाकुर की ।

 

कुआँ ठाकुर का

पानी ठाकुर का

खेत-खलिहान ठाकुर के

गली-मुहल्‍ले ठाकुर के

फिर अपना क्‍या ?

गाँव ?

शहर ?

देश ?

(नवम्बर, 1981)

इसे भी पढ़े: इतवार की कविता : 'तुम अपने सरकार से ये कहना, ये लोग पागल नहीं हुए हैं!'

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हिंदी काव्य
हिंदी साहित्य
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ओमप्रकाश वाल्मीकि
शंबूक का कटा सर
ठाकुर का कुआं

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