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राजनीति
सुप्रीम कोर्ट हितेश वर्मा केस में जातिगत भेदभाव को संबोधित करने में रहा नाकामयाब  
हाल ही में, हितेश वर्मा बनाम उत्तराखंड राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति/जनजाति(अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत "सार्वजनिक रूप से" टर्म के अर्थ के मामले में अपनी सख़्त टिपणी को दोहराया है।
कैलाश जींगर
29 Dec 2020
Translated by महेश कुमार
सुप्रीम कोर्ट हितेश वर्मा केस में जातिगत भेदभाव को संबोधित करने में रहा नाकामयाब  

कैलाश जींगर के मुताबिक, जाति आधारित अपमान को तय करने के मामले में सुप्रीम कोर्ट की "सार्वजनिक रूप से" या पब्लिक व्यू के भीतर के टर्म की संकीर्ण व्याख्या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों की जीवित वास्तविकताओं को अनदेखा करती है और उनकी रक्षा के लिए बने क़ानून के उद्देश्य को हराती है।

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हाल ही में, हितेश वर्मा बनाम उत्तराखंड राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत "सार्वजनिक रूप से" टर्म के अर्थ के मामले में अपनी सख्त टिपणी को दोहराया है।

इस मामले में, अपनी प्राथमिकी में पीड़िता ने आरोप लगाया था कि (तथाकथित) उच्च जाति के छह व्यक्ति अवैध रूप से उसके घर में घुसे और उसे गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी। जातिवादी टिप्पणी का इस्तेमाल करते हुए, उन्होंने निर्माण सामग्री को उठा लिया और कहा, "तुम एक घृणित जाति से हो और हम तुम्हें इस इलाके में रहने नहीं देंगे।"

अदालत ने कहा कि चूंकि पीड़ित, अनुसूचित जाति (एससी) से संबंधित है, और उसके घर की चार दीवारों के भीतर यह दुर्व्यवहार किया गया था, तो यह केस "सार्वजनिक रूप से" घटने वाले दुर्व्यवहार के मामले को संतुष्ट नहीं करता है। नतीजतन, अदालत ने चार्जशीट के उस हिस्से को रद्द कर दिया।

क्या सुप्रीम कोर्ट मुकदमे की स्टेज पर चल रहे किसी केस का फ़ैसला कर सकता सकता है?

ट्रायल कोर्ट ने क़ानूनों के तहत आरोप तय किए थे और उन्ही आरोपों को आरोपी ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। लेकिन, उच्च न्यायालय ने आरोपों को बरकरार रखा और याचिका खारिज कर दी थी।

जबकि उच्च न्यायालय के उलट, मुकदमे की स्टेज पर चल रहे इस केस में सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने फैसला सुना दिया कि अनुसूचित जाति की महिला को उसके घर की चार दीवारों के भीतर और मजदूरों की मौजूदगी में जाति-आधारित जो गाली दी गई उसे धारा 3 (1) (आर) के तहत अपराध नहीं माना जाएगा।

पीठ इस बात के लिए तो चिंतित नज़र आई कि जो भी अपराध सार्वजनिक रूप से होता है वह आपराध है लेकिन वह इस बात पर कतई चिंतित नहीं है कि पीड़ित का मन और दिल इससे कितना प्रभावित होता है। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण क्षण है लेकिन नाजुक भी जब, जीवित अनुभवों पर न्यायाधीशों की जाति-संवेदना गायब नज़र आती है, जिसका सबसे अधिक एहसास होता है।

शुरुआत में, मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूं कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ट्राइल कोर्ट में चल रहे किसी मुकदमें से निपट रहे थे। कथित अधिनियम के टर्म "सार्वजनिक रूप से" की जांच केवल ट्राइल कोर्ट निर्धारित कर सकता है। इसके अलावा, रिकॉर्ड पर नज़र डालें तो क़ानून की प्रक्रिया में कोई दुरुपयोग नहीं था। इसी प्रकार, हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल में निहित उच्च न्यायालय की शक्तियों के अनुसार मामला किसी भी हालत में तत्काल सुनवाई में नहीं आता है और न ही इससे मेल खाता है। इसलिए, ट्रायल के चरण में धारा 3 (1) (आर) के तहत आरोप को रद्द करना गलत है।

सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने स्वर्ण सिंह (2008) के अपने पहले के फैसले पर भी भरोसा किया है, जो कहता है कि अधिनियम के तहत अपराध केवल तभी किया जाता है, जब किसी सदस्य (सार्वजनिक या निजी) के खिलाफ सार्वजनिक जगहों पर लोगों की मौजूदगी में यानि पीड़ित के दोस्त या रिशतेदारों के अलावा अगर जातिगत टिप्पणी की गई हो। दिल्ली उच्च न्यायालय के अनुसार, 'जनता के सदस्य' का मतलब यहाँ स्वतंत्र और निष्पक्ष व्यक्तियों से हैं न कि दोस्तों या रिश्तेदारों से है। 

"सार्वजनिक रूप से" शब्द का मतलब, जैसा कि अधिनियम की धारा 3 (1) (आर) और 3 (1) (एस) में दिया गया है, और इसकी व्याख्या गंभीर रूप से समस्याग्रस्त है।

सर्वोच्च न्यायालय ने अनुसूचित जाति के सदस्यों के जीवित अनुभवों ग़लत क़रार दे दिया है 

उच्च जाति के तीन पुरुषों वाली न्यायाधीशों की पीठ ने इस मामले में अपमान, तिरस्कार, भय, हीनता की अनदेखी की और इस तरह की घटना के लगातार खतरे की भी अनदेखी की है।

एससी और एसटी समुदाय की रक्षा के लिए इस क़ानून को बनाया गया था, जो इस तरह की असभ्य मानसिकता से प्रेरित अपराधों के ख़िलाफ़ था, लेकिन अदालत ने क़ानून के इरादे और उद्देश्य की सख्त अवहेलना करते हुए खाली प्रावधान पर अपने विचार व्यक्त किए।

पीठ इस बात के लिए तो चिंतित नज़र आई कि जो भी अपराध सार्वजनिक रूप से होता है वह आपराध है लेकिन वह इस बात पर कतई चिंतित नहीं है कि पीड़ित का मन और दिल इससे कितना प्रभावित होता है। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण क्षण है लेकिन नाजुक भी जब, जीवित अनुभवों पर न्यायाधीशों की जाति-संवेदना गायब नज़र आती है, जिसका सबसे अधिक एहसास होता है।

अदालती तर्क के अनुसार, यह प्रावधान इस तथ्य के बावजूद भी लागू नहीं होता है कि जब कोई व्यक्ति जानबूझकर दूसरे व्यक्ति की जाति को लक्षित कर गाली देता है। जजों को पूरी तरह से पता है कि दोषी व्यक्ति उच्च जाति से आते हैं और पीड़ित पदानुक्रमित भारतीय सामाजिक संरचना में एक निम्न जाति से आते है, जिसके कारण उच्च जाति के लोग पीड़ितों को उत्पीड़न और अपमान के अधीन रखना बहुत सुविधाजनक पाते हैं।

एससी और एसटी की रक्षा के लिए इस क़ानून को बनाया गया था, जो इस तरह की असभ्य मानसिकता से प्रेरित अपराधों के खिलाफ था, लेकिन अदालत ने क़ानून के इरादे और उद्देश्य की सख्त अवहेलना करते हुए खाली प्रावधान पर अपने विचार व्यक्त किए।

सर्वोच्च न्यायालय की बेतुकी व्याख्या यह बताती है कि अगर कोई उच्च जाती का व्यक्ति रिश्तेदारों या दोस्तों की मौजूदगी में जाति के नाम पर अपमान या तिरिस्कार करता है तो वह अपमान नहीं होता है, जैसे कि किसी की गरिमा केवल अजनबियों के सामने ही मायने रखती है।

यह क़ानून इसलिए बनाया गया था कि भारतीय समाज में एससी और एसटी समुदाय के सदस्य अभी भी असुरक्षित हैं। वे समाज में हमेशा विभिन्न अपराधों, अपमान, तिरिस्कार और उत्पीड़न को झेलते हैं।

अधिनियम के उद्देश्य और व्याख्या, इस बात पर जोर देती है कि जब एससी और एसटी अपने अधिकारों को हासिल करते हैं और अपने हालात में सुधार करने का प्रयास करते हैं, तो उच्च-जाति इस बात को बर्दाश्त नहीं करती है। इसलिए  क़ानून के इस टुकड़े को विशेष रूप से उन भयानक कृत्यों या आपराधों से बचाने के लिए अधिनियमित किया गया था जिन अपराधों को इन समुदायों के खिलाफ जानबूझकर किया जाता हैं और ऐसा ये मान कर किया जाता हैं कि दूसरा व्यक्ति एससी या एसटी समुदाय से है।

निजी और सार्वजनिक रूप से होने वाले जातिवादी अपमान का समान प्रभाव होता है

सर्वोच्च न्यायालय की बेतुकी व्याख्या यह बताती है कि अगर कोई किसी के खिलाफ जाति के नाम पर रिश्तेदारों या दोस्तों की मौजूदगी में अपमान या तिरिस्कार करता है तो वह अपमान नहीं होता है, जैसे कि किसी की गरिमा केवल अजनबियों के सामने ही मायने रखती है।

इसके अलावा, मित्र शब्द क़ानूनी रूप से अपरिभाषित रहता है और इसलिए, उसी की व्यापक व्याख्या से दोषियों को लाभ मिल सकता है और धारा 3 (1) (आर) और 3 (1) (एस) को लागू होने से रोका जा सकता है।

इसके अलावा, दोस्तों या रिश्तेदारों की मौजूदगी को देखते हुए, ये शब्द प्रावधान को मानहानि के अपराध को कमजोर बनाते हैं। क़ानून को इस तरह कमतर करना निश्चित रूप से, पीड़ितों के बजाय अपराधियों की रक्षा करना है।

एससी या एसटी से संबंधित किसी भी व्यक्ति का जाति के नाम पर अपमान या तिरिस्कार,  यहां तक कि जनता के सदस्यों की अनुपस्थिति में, संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार गरिमा के साथ जीने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।

इन लगाए गए शब्दों और उनकी व्याख्या से क़ानून को कमतर करने का प्रयास है। वे आशय के तत्व को निरर्थक मानते हैं, जो कि अन्यथा किए गए अपराध के मामले में एक महत्वपूर्ण घटक है। 

इसके अलावा, दोस्तों या रिश्तेदारों की मौजूदगी को देखते हुए, ये शब्द क़ानून को मानहानि के अपराध के मामले में कमजोर बनाते हैं। क़ानून को इस तरह कमतर करना निश्चित रूप से, पीड़ितों के बजाय अपराधियों की रक्षा करना है।

सार्वजनिक रूप से किसी स्थान पर और किसी अन्य स्थान पर किए गए अपराध के बीच कोई अंतर नहीं है। दोनों ही मामलों में, अभियुक्त दोष के इरादे से जाता है और पीड़ित का अपमान करता है। इसके अलावा, यह वर्गीकरण अधिनियम के उद्देश्य से  तर्कसंगत मेल नहीं खाता है, जो कि अत्याचार की घटनाओं को रोकने और पीड़ितों को राहत प्रदान करने के लिए है।

"सार्वजनिक रूप से" टर्म के कारण, धारा 3 (1) (आर) और 3 (1) (एस) संविधान के अनुच्छेद 14 के उचित वर्गीकरण के दोहरी जांच पास नहीं करते हैं।

सार्वजनिक रूप से किसी स्थान पर और किसी अन्य स्थान पर किए गए अपराध के बीच कोई अंतर नहीं है। दोनों ही मामलों में, अभियुक्त दोष के इरादे से जाता है और पीड़ित का अपमान करता है। इसके अलावा, यह वर्गीकरण अधिनियम के उद्देश्य से  तर्कसंगत मेल नहीं खाता है, जो कि अत्याचार की घटनाओं को रोकने और पीड़ितों को राहत प्रदान करने के लिए है।

इस अधिनियम को सख्त बनाने के लिए अधिनियम में कई बार संशोधन किए गए है क्योंकि एनसीआरबी के आंकड़ों और संयुक्त राष्ट्र समिति की नस्लीय भेदभाव उन्मूलन की रिपोर्ट के अनुसार दर्ज़ अत्याचार (और बिना दर्ज़ वाले मामले) मामले बढ़ रहे हैं। हालांकि, अदालत ने इन वास्तविकताओं की अवहेलना की है। नतीजतन, ऐसे निर्णय अधिनियम की प्रासंगिकता और असर को कम करते हैं।

इस प्रकार, "सार्वजनिक रूप से" की अभिव्यक्ति और इसकी व्याख्या, दोनों क़ानून और संवैधानिक गारंटी के इरादे के विपरीत हैं। वे अभियुक्तों और उन लोगों को लाभ पहुंचाते हैं जो पहले से ही सत्ता की ताक़त में मशगूल हैं। वास्तव में, शीर्ष अदालत की व्याख्या के मद्देनजर  चार दीवारों के भीतर जाति-आधारित अपमान और अपमान की घटनाओं में वृद्धि होने की संभावना है। इसलिए, "सार्वजनिक रूप से" की अभिव्यक्ति को एक संशोधन द्वारा अधिनियम की धारा 3 (1) (r) और 3 (1) (r) (एस) से हटा दिया जाना चाहिए।

(कैलाश जींगर दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय में पढ़ाते हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

यह लेख पहले The Leaflet. में प्रकाशित हो चुका है। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Supreme Court in Hitesh Verma Case Fails to Address Caste Discrimination

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