NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अर्थव्यवस्था
तेल की आग और भ्रामक राजनीति
परंजॉय गुहा ठाकुरता
21 Jan 2015

अन्तराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत अचानक से गिरने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को अल्पकालिक लाभ मिलेगा, इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन मध्यम और लम्बी अवधि को अगर ध्यान में रखा जाए तो तेल की कीमतों में गिरावट की अपनी जटिलता है जिसका देश पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अचानक हुए फायदे के कारण वित्त मंत्री अरुण जेटली को अंतरिम राहत जरुर मिलेगी। आने वाले बजट सत्र में जब वे 2015-16 का बजट पेश करेगें तब वे निर्धारित राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पाने में कामयाब जरुर होंगे।पर अगर पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पर नजर डाली जाए तो यह भारतीय निर्यातकों के लिए सहायक नहीं है। साथ ही इसके कारण देश के भुगतान संतुलन और साथ ही डॉलर के मुकाबले रूपए की कीमत पर भी भारी दबाव पड़ेगा। साथ ही पेट्रोलियम उत्पादों के दाम गिरने के कारण पर्यावरण बदलाव को रोकने की तरफ बढ़ रहे कदम पर भी बुरा असर पड़ेगा।

अगर दूसरे शब्दों में कहें तो हमें इसे लेकर ज्यादा खुश नहीं होना चाहिए। कच्चे तेल की कीमत में अचानक आई गिरावट, तब जब दाम अक्सर बढ़ते थे(क्योंकि पश्चिमी देशों में ठंडियों में तेल का उपयोग गर्मी पैदा करने के लिए किया जाता है), एक बार फिर पश्चिमी यूरोप और जापान में आर्थिक मंदी की आशंका को बढ़ावा दे रहे हैं । साथ ही ये कमजोर होती रुसी और मंदी में चलती चीनी अर्थव्यवस्था की तरफ इशारा कर रही है। ज्यादा खतरनाक यह होगा कि घटे हुए दाम सौर एवं पवन उर्जा जैसी अक्षय उर्जा पर हो रहे खर्चे को कम करने का काम करेंगे।

                                                                                                                                            

आखिर क्यों कच्चे तेल की कीमतें जून के 115 डॉलर प्रति बैरल के मुकाबले घट कर जनवरी की शुरुआत में 60 डॉलर प्रति बैरल पर आ गई?क्या ये अर्थशास्त्रियों द्वारा घोषित सऊदी के शेखों और अमरीका की कंपनियों के बीच कलह की वजह से हुआ है ? इसका जवाब न में ही होगा।

यह देखने योग्य बात है कि पश्चिमी देश उक्रेन में रूस के दखल और फिर उस पर लगे आर्थिक प्रतिबन्ध को लेकर काफी खुश हैं। पुतिन एक विकलांग अर्थव्यवस्था और गिरते हुए रूबल के मूल्य से जूझ रहे हैं। वेनेज़ुएला की अर्थव्यवस्था, जहाँ वामदलों की सरकार है, भी काफी नाजुक हालत में है।

पर जहाँ तक अरुण जेटली की बात है, उनके पास खुश होने के सारे कारण मौजूद हैं। उन्होंने अंदाजा लगाया था कि कच्चे तेल की कीमतें 110 डॉलर प्रति बैरल तक होंगी पर वास्तविकता में उसका मूल्य इस अनुमानित राशि के आधे पर पहुँच गया। राजकोषीय घाटे को अर्जित करने के लिए जो लक्ष्य निर्धारित किया गया था ( जो कुल सकल घरेलु उत्पाद का 4.1 प्रतिशत है) को पाना अब एक बच्चे के खेल की तरह प्रतीत हो रहा है। 

 सबसे अहम, कच्चे तेल और अन्य उत्पादों में गिरावट आने की वजह से मुद्रास्फीति भी पिछले एक दशक के सबसे निचले स्तर पर आ गयी है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह रैलियों में झूठे भाषण दे रहे हैं कि महंगाई कम होने का कारण उनकी सरकार रही है जबकि असलियत ये है कि सरकार बेहद नसीबवर रही है। 

भारत पूरे देश में कच्चे तेल की मांग का 80 प्रतिशत आयात करता है। तेल का आयात भारत के कुल आयात का एक तिहाई है। साथ ही पेट्रोलियम पदार्थ कुल आयात का 20 प्रतिशत है। इतना ही  नहीं, सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों ने इंडियन आयल कारपोरेशन के नेत्रित्व में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में आई गिरावटों के मुकाबले मात्र एक तिहाई दाम कम किये हैं। वहीँ केंद्र सरकार ने अपने राजस्व को एक्साइज और कस्टम ड्यूटी बढ़ा कर बरकरार रखा है।  पेट्रोलियम इंडस्ट्री से कर इकठ्ठा करना इतना आसान नहीं है। इस तरह के कर, भारत सरकार के कुल आमदनी के 33 से 40 प्रतिशत हिस्से को पूरा करते हैं। उदहारण के तौर पर 2013-14 के बीच सरकार द्वारा इकठ्ठा की गई एक्साइज ड्यूटी जिसका मूल्य 1,79,000 करोड़ है, का 77,000 करोड़, पेट्रोलियम क्षेत्र से ही आता है।

अब तेल की कीमतें गिरने के नकारात्मक पहलू। 2008 की आर्थिक मंदी तो सबको याद होगी? 2008 में कच्चे तेल की कीमतें 40 डॉलर प्रति बैरल से चढ़ कर 147 डॉलर पहुँच गई और फिर अंत पर आकर 40 डॉलर पर थम गई। पिछले कई सालों से कम समय के लिए मांग और पूर्ति के बीच सामंजस्य बनाने का काम सऊदी अरब कर रहा था, जो कि अरब क्षेत्र में अमरीका का सबसे करीबी और ओपेक के कुल उत्पादन एक तिहाई हिस्सा प्रदान करने वाला देश है। यूँ तो ओपेक पूरे विश्व के तेल उत्पादन का मात्र 40 प्रतिशत हिस्से का आवरण करता है और उसमे 80 के दशक के उत्पाद संघ जैसी शक्ति नहीं है,पर सऊदी द्वारा कीमत कम करने के लिए उत्पादन घटने की तरफ एक कदम काफी महत्वपूर्ण हो सकता है।

पश्चिमी एशिया उथल पुथल के दौर से गुजर रहा है। सीरिया के गृहयुद्ध को चलते हुए तीन साल बीत चुके हैं पर यह ख़त्म होता नज़र नहीं आ रहा। लीबिया के राजनैतिक संकट का भी अंत नज़र नहीं आ रहा।उक्रेन के बाद राजनैतिक विशषज्ञों का मानना है कि पश्चिम और रूस के बीच की ये तनातनी शीत युद्ध समाप्ति,बर्लिन दीवार के गिरने और युएसएसआर के टूटने के बाद की सबसे खतरनाक स्थिति की तरफ इशारा करते हैं। और इसमें तेल अन्य पदार्थों की तुलना में सबसे अधिक राजनैतिक रंग लिए हुए है।

यूरोप में मंदी, और जापान एवं चाइना की धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था को देखा जाए तो, भारतीय निर्यात के धीमा पड़ने के आसार हैं। इसकी वजह से भारत के चालू खाता और रूपए के मूल्य पर भारी दबाव पड़ेगा। तेल की कीमतों में आई गिरावट का सबसे बुरा असर सार्वजनिक क्षेत्रों की कंपनियों पर पड़ा है। ईंडियन आयल कारपोरेशन जुलाई-सितम्बर  2013 में कमाए 1,683 करोड़ के मुनाफे की तुलना में जुलाई-सितम्बर  2014 में 898 करोड़ के घाटे में गई और इसकी वजह से उनके कुल स्टॉक में 4,272 करोड़ का नुक्सान हुआ।अन्य पेट्रोलियम कंपनियां भी ऊँचे कीमत पर ख़रीदे गए स्टॉक को लेकर फसी हुई हैं।

कुछ लोगो ने अनुमान लगाया था कि छ: महीने के अन्दर तेल के कीमतें 50-60 प्रतिशत गिर जाएँगी। अनुमान लगाया गया है कि कुल 2 ट्रिलियन डॉलर बैंक फण्ड नए तेल और गैस प्रोजेक्ट्स के लिए आवंटित किए गए थे और वे अधर में लटके हुए हैं। अन्य मुख्य पहलु जो रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को ब्याज दर कम करने से रोके हुए है, वह है महंगाई बढ़ने की आशंका। पर वित्त मंत्री अरुण जेटली इसका विरोध कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि ब्याज दर कम करके उद्योगपतियों को खुश किया जाए।

साथ ही डीजल और पेट्रोल की कम कीमतों के कारण भारत के पास कम प्रदूषण पैदा करने वाले यातायात के साधनों की तरफ कदम बढाने का कोई प्रलोभन नहीं है। दिल्ली में इस सर्दी में जो प्रदूषण का स्तर रहा है,उससे निश्चित ही राजधानी विश्व के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक हो गई है।

उपर्युक्त लेख में www.asianage.com प्रकाशित हुआ था और इसे लेखक की अनुमति से अनुवादित किया गया है।

(अनुवाद-प्रांजल)

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

 

 

 

 

डीजल
पेटोल
ओपेक
अरुण जेटली
रिज़र्व बैंक
रघुराम राजन

Related Stories

जीएसटी ने छोटे व्यवसाय को बर्बाद कर दिया

मुंद्रा की सबसे महत्वपूर्ण स्कीम में पाया गया बैंक घोटाला

बजट में महिला श्रमिकों की उपेक्षा

किसान संघर्ष मुक्ति सप्ताह: देशभर में किसान विरोधी केन्द्रीय बजट 2018-19 के खिलाफ 12 फरवरी से व्यापक विरोध

मोदी सरकार की जनजाति सम्बंधित नीति: एक अंतहीन खोह

बजट 2018 : मोदी के न्यू इंडिया में बढ़ेगा किसान पर संकट

बजट 2018: जनता की नज़रों में धूल झोंकने जैसा

किसान और महिला संगठनों की नज़रों में बजट 2018 किसान और महिला विरोधी

बजट 2018: मोदी सरकार के पास कोई रोज़गार नीति नहीं

आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18: भारत एक और आवाज की प्रतीक्षा में


बाकी खबरें

  • मनोलो डी लॉस सैंटॉस
    क्यूबाई गुटनिरपेक्षता: शांति और समाजवाद की विदेश नीति
    03 Jun 2022
    क्यूबा में ‘गुट-निरपेक्षता’ का अर्थ कभी भी तटस्थता का नहीं रहा है और हमेशा से इसका आशय मानवता को विभाजित करने की कुचेष्टाओं के विरोध में खड़े होने को माना गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र क़ानूनी मान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट
    03 Jun 2022
    जस्टिस अजय रस्तोगी और बीवी नागरत्ना की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि आर्यसमाज का काम और अधिकार क्षेत्र विवाह प्रमाणपत्र जारी करना नहीं है।
  • सोनिया यादव
    भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल
    03 Jun 2022
    दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता पर जारी अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट भारत के संदर्भ में चिंताजनक है। इसमें देश में हाल के दिनों में त्रिपुरा, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर में मुस्लिमों के साथ हुई…
  • बी. सिवरामन
    भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति
    03 Jun 2022
    गेहूं और चीनी के निर्यात पर रोक ने अटकलों को जन्म दिया है कि चावल के निर्यात पर भी अंकुश लगाया जा सकता है।
  • अनीस ज़रगर
    कश्मीर: एक और लक्षित हत्या से बढ़ा पलायन, बदतर हुई स्थिति
    03 Jun 2022
    मई के बाद से कश्मीरी पंडितों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए  प्रधानमंत्री विशेष पैकेज के तहत घाटी में काम करने वाले कम से कम 165 कर्मचारी अपने परिवारों के साथ जा चुके हैं।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License