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भारत
राजनीति
टिहरी गढ़वाल लोकसभा सीट : रियासत और सियासत
टिहरी गढ़वाल लोकसभा सीट का इतिहास रियासत व सियासत दोनों का रहा है जो आज तक चला आ रहा है। इसके लिए हमें इस भू-भाग की ऐतिहासिक घटनाओं की ओर जाना होगा और गढ़वाल तथा टिहरी राज्य के इतिहास को भी पढ़ना होगा।
देवेंद्र सिंह रावल
02 Apr 2019
2019 loksbha

11 अप्रैल को पहले चरण में उत्तराखंड में मतदान होना है। नामांकन की प्रक्रिया समाप्त हो चुकी है और इस सीट से 15 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। भाजपा, कांग्रेस के अलावा वामपंथी पार्टियों के संयुक्त उम्मीदवार मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के प्रत्याशी राजेंद्र पुरोहित, सपा-बसपा गठबंधन में बसपा प्रत्याशी सत्यपाल सिंह,क्षेत्रीय पार्टी यूकेडी के जय प्रकाश उपाध्याय प्रमुख हैं।

उत्तराखंड में कई मतदान केंद्र तो अत्यधिक दुर्गम क्षेत्रों में हैं। टिहरी लोकसभा क्षेत्र में पोलिंग पार्टी को पोलिंग बूथ तक पहुँचने के लिए मीलों का फ़ासला बर्फ़ीले रास्तों से होकर तय करना पड़ेगा। अभी वर्तमान में सैकड़ो की संख्या में पोलिंग बूथ तथा गाँव इन दिनों बर्फ़ से ढके हैं। इनमें अधिकांश गाँव आज भी सड़क से नहीं जुड़ पाए हैं। इस प्रकार समझना होगा कि विषम भगौलिक परिस्थितियों व मौसम के बीच यह चुनाव होने जा रहे हैं।

टिहरी गढ़वाल लोकसभा सीट का इतिहास रियासत व सियासत दोनों का रहा है जो आज तक चला आ रहा है। लोकसभा चुनाव हों और इस सीट पर रियासत का ज़िक्र न हो यह हो नहीं सकता, आख़िर ज़िक्र होना भी क्यों न ज़रूरी हो। इसके लिए हमें इस भू-भाग की ऐतिहासिक घटनाओं की ओर जाना होगा और गढ़वाल तथा टिहरी राज्य के इतिहास को पढ़ना होगा। वर्तमान में यहाँ की सांसद माला राज्यलक्ष्मी शाह के वंशजों ने 1949 तक टिहरी राज्य में राज किया। राजशाही के ख़ात्मे के बावजूद कई दशक तक टिहरी राजवंश के वंशजों ने संसद में इस सीट का प्रतिनिधित्व किया जो आज भी जारी है ।

रवाई कांड

जब-जब राजशाही ने दमन किया, किसानों ने अपने अधिकारों के लिए डटकर मुक़ाबला किया। देश में जहाँ लोग अंग्रेज़ों से देश को आज़ादी दिलाने की लड़ाई लड़ रहे थे वहीं1930 में आज़ाद पंचायत के विचार को लेकर किसान इकट्ठा होने लगे जिसकी भनक रियासत को लग गई व 29 मई को जब फ़ौज किसान आन्दोलन कुचलने पहुँची तो 30 मई1930 को सुबह तक हज़ारों किसान तिलाड़ी मैदान में एकत्रित हो गए। पंचायत शुरू हुई ही थी कि सेना ने तीनों तरफ़ से मैदान को घेरकर धुआंधार गोलियों की बौछार कर दी। पश्चिम से आ रही यमुना ख़ून से लाल कर दी व क्षणभर में मैदान लाशों से पट गया। इस गोलीकांड में 200 से भी अधिक किसानों की जानें गईं। तिलाड़ी में राजशाही ने जलियाँवाला बाग़ की घटना की पुनरावृत्ति कर दी। इस घटना को उस समय अख़बार ने भी प्रमुखता से छापा था।

एक तरफ़ देश 1947 में आज़ाद हो गया किन्तु टिहरी राज्य आज़ादी के 2 साल पश्चात देश की मुख्यधारा में जुड़ा जब राजशाही के ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ लगातार जन-विद्रोह होते रहे। श्रीदेव सुमन ने अंग्रेज़ी हुक़ूमत व राजशाही के ख़िलाफ़ संघर्ष किया। जेल में रहते ही पहले 21 दिन तथा बाद में 84 दिन के ऐतिहासिक आमरणअनशन के बाद 25 जुलाई 1944 को अपने प्राणों की आहुति दे दी। राजशाही ने बड़ी निर्लज्जता के साथ उनकी लाश को एक कम्बल में लपेट कर भागीरथी औरभिलगना नदी के संगम से नीचे तेज़ प्रवाह में फेंक दिया। इस घटना से किसानों व लोगों का राजशाही के ख़िलाफ़ लोगों का आक्रोश और बढ़ा किन्तु राजशाही को लगाकि इस घटना व 1930 के तिलाड़ी काण्ड की घटना के बाद राज्य में कोई विद्रोह करने की हिम्मत नहीं करेगा और इसे विद्रोह करने के परिणाम के तौर पर देखेगाकिन्तु बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाते और रियासत में दमन ज्यों-ज्यों बढ़ते गए बन्दी किसान विद्रोही होते गए।

इस दौर में टिहरी रियासत की सामंती सरकार के ज़ुल्म चरम पर रहे। चुंगी और करों की दरें बढ़ा दी गईं, राजशाही के बढ़ते क़र्ज़ों को ग़रीब जनता कहाँ तक पूरा करती। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं का नामोनिशान नहीं था। जनता का असंतोष बढ़ता गया, आख़िर वह कब तक इन ज़ुल्मों को बर्दाश्त करती। इन ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ प्रजामंडल और किसान एकजुट होते गए व किसानों ने राजशाही एवं माफ़ीदारी की शासन व्यवस्था समाप्त करके आज़ाद पंचायत की स्थापना की जिसको कुचलने के लिए टिहरी नरेश की सेना ने जनता पर बेइंतहा जुर्म किये, पर इन सब के बावजूद भी आज़ाद पंचायत ने अपना शासन चलाया तथा बरा-बेगार (मूल्य चुकाये बिना श्रम कराने की प्रथा) से मना कर राजशाही को खुली चुनौती दे डाली जिसे टिहरी राजा ने अपना घोर अपमान समझा और किसान नेताओं को गिरफ़्तार किया और यही गिरफ़्तारी राजशाही के लिए ताबूत की आख़िरी कील साबित हुई। किसानों का यह विद्रोह कम्युनिस्ट नेता चन्द्रसिंह गढ़वाली और नागेन्द्र सकलानी के नेतृत्व में चल रहा था जिसमें दादा दौलत राम, भेदेव प्रसाद लखेड़ा, नागेन्द्र उनियाल, त्रेपन सिंह नेगी, क्षेमानंद, इन्दर सिंह राणा, और देवी प्रसाद तिवारी आदि प्रमुख थे। यहाँ तक कि फ़ौज की टुकड़ी ने हथियार अलकनंदा में फेंक दिये। किसानों ने आज़ाद पंचायत की घोषणा कर के दादा दौलतराम को शासन सौंप दिया। सामंतशाही के विरुद्ध खुलेआम बग़ावत पर राजा ने फ़ौज और अधिकारीयों को कृतिनगर भेजा जहाँ 11 जनवरी 1948 को आज़ाद पंचायत की बैठक चल रही थी जिसपर अचानक गोलियों की बौछार हो गई और कॉमरेड नागेन्द्र सकलानी व मोलू भरदारी शहीद हो गये। जिसके 2 दिन बाद 14 जनवरी 1948 को अनेकों बलिदानों के बाद राजा का शासन समाप्त कर जनता ने अपना राज क़ायम किया और अगस्त 1949 को टिहरी गढ़वाल राज्य का भारतीय गणराज्य में विलय हो गया। 

1971 में टूटा राजघराने का तिलिस्म

आज़ादी के बाद व टिहरी रियासत के भारत में विलय के बाद टिहरी गढ़वाल लोकसभा सीट पर पहली लोकसभा से लेकर चौथी लोकसभा तक टिहरी रियासत के राजघराने का दबदबा रहा। पहले चुनाव में राजघराने की कमलेदुमति शाह सांसद रही, उसके बाद उनके बेटे मानवेन्द्र शाह ने भी लगातार तीन बार जीत दर्ज कर राज परिवार के वर्चस्व का सिलसिला जारी रखा। किन्तु स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा 1948 में राजसत्ता तख़्तापलट में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले परिपूरणानन्द पैन्यूली ने 1971 में कांग्रेस के टिकट से लड़ते हुये मानवेन्द्र शाह को हराकर राजघराने के तिलिस्म को तोड़ा।

हार कर राजपरिवार का तिलिस्म क्या टूटा था कि मानवेन्द्र शाह ने 1971 से 1990 तक चुनाव नहीं लड़ा। 1991 के लोकसभा चुनाव में फिर मानवेन्द्र शाह की भाजपा के उम्मीदवार के रूप में वापसी हुई तथा 2004 तक वह लगातार 5 बार सांसद रहे। राजशाही परिवार की वापसी भाजपा व सामंतशाही गठबंधन के चलते संभव हो पाया। इस घटना ने भाजपा के वास्तविक चरित्र को प्रदर्शित करने का कार्य किया। इस क्षेत्र में कांग्रेस भी कहीं न कहीं राजशाही के साथ जुड़ी रही क्योंकि इन दोनों दलों का मुख्य मक़सद इस क्षेत्र से वामपंथ को किसी न किसी प्रकार से कमज़ोर करना था।  

17वें टिहरी लोकसभा चुनाव- पारिवारिक वंशवाद बनाम राजशाही वंशवाद

2007 तक राजघराने के पास यह लोकसभा सीट रही उसके बाद राज परिवार से कोई भी चुनावी मैदान में नहीं उतरा। 2007 में कांग्रेस से विजय बहुगुणा ने उपचुनाव में जीत दर्ज की एवं इसके बाद 2009 में भी जीते। राज्य में 2012 में विधानसभा चुनाव हुए तथा कांग्रेस की सरकार बनी। विजय बहुगुणा को इस राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया। परिणामस्वरूप टिहरी गढ़वाल लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ जिसमें विजय बहुगुणा के पुत्र साकेत बहुगुणा ने परिवार वंश की राजनीति को आगे बढ़ाया किन्तु वे चुनाव हार गए दूसरी तरफ़ 2009 की हार के बाद फिर से भाजपा व राजपरिवार का गठबंधन बना व राजपरिवार की माला राज्यलक्ष्मी शाह ने इस उपचुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव जीते।

2014 के बाद राज्य में राजनैतिक उठापटक हुई और 2016 में कांग्रेस से बाग़ी होकर कई विधायक भाजपा में जा मिले। जिनमें विजय बहुगुणा भी शामिल थे जो साम्प्रदायिक भाजपा के ख़िलाफ़ लड़ते हुए इस क्षेत्र के सांसद बने बाद में राज्य के मुख्यमंत्री बने। यह वही विजय बहुगुणा हैं जिनके पिता हेमवति नंदन बहुगुणा एक ज़माने में उत्तरप्रदेश व देश के कद्दावर नेताओं में माने जाते रहे जिन्होंने ताउम्र साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी।

17वें लोकसभा चुनाव में भी इस क्षेत्र में वंशवादी परंपरा बनी हुई हैं । चकराता विधानसभा में प्रीतम सिंह से पूर्व उनके पिता गुलाब सिंह का वर्चस्व रहा है। यह सीट परंपरागत रूप से लगभग गुलाब सिंह व अब उनके बेटे प्रीतम सिंह के इर्दगिर्द ही रही है। अब लोकसभा चुनाव 2019 में टिहरी सीट से कांग्रेस ने प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह को मैदान में उतारा जो वर्तमान में चकराता विधानसभा से विधायक हैं। वहीं भाजपा द्वारा फिर से राजवंश माला राज्यलक्ष्मी शाह पर भरोसा जताया गया। एक तरफ़ पारिवारिक वंशवाद है तो दूसरी तरफ़ राजशाही वंशवाद।

अभी 2019 के चुनाव में जहाँ कांग्रेस न्यूनतम आय योजना, किसानों के क़र्ज़ माफ़ी, अर्धसैनिक बलों को शहीद का दर्ज़ा, जी.एस.टी में सुधार, शिक्षा बजट में बढ़ोतरी व महिला आरक्षण बिल तथा भाजपा राष्ट्रवाद के मुद्दे को लेकर इस चुनाव में इस सीट से जनता को लुभाने की कवायद में है वहीं सीपीएम जनमुद्दों को लेकर चुनाव मैदान में है। सीपीएम के अपने प्रत्याशी का संघर्षशील एवं सादा व्यक्तित्व है जो कि पिछले 3 दशक से भी अधिक समय से जनमुद्दों को लेकर जनता के मध्य हैं,  बसपा आरक्षण, बैक लॉक, दलित उत्पीड़न व सामाजिक न्याय जैसे मुद्दे प्रमुख हैं। निर्दलीय गोपालमणि गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित की मांग को प्रमुखता से उठा रहे हैं।

कम्युनिस्ट पार्टियों टिहरी लोकसभा क्षेत्र में बड़ा इतिहास रहा है। उत्तरप्रदेश विधानसभा के वक़्त गोविंद सिंह नेगी व विद्यासागर नौटियाल विधायक रहे हैं तथा  इस समय भी वामदल जनता की आवाज़ को लगातार उठाता आया है और अपने पुराने इतिहास को फिर से हासिल करने के लिए प्रयासरत है। उधर निर्दलीय गोपालमणि जो प्रमुख रूप से गौ कथावाचक हैं व उनके शिष्य क्षेत्र में बड़ी बड़ी गौ सभाएँ कर रहे हैं। साथ ही गोपालमणि को पुराने विश्व हिन्दू परिषद नेता व हिन्दुवादी नेता प्रवीण तोगड़िया जो मोदी के धुरविरोधी हैं, का साथ मिल गया है जिससे भाजपा के वोटों में सेंध लगनी तय है।

वर्तमान सांसद जिनका जनता से कोई लेना-देना नहीं रहा, सांसद निधि का पैसा ख़र्च करने में भी फिसड्डी साबित हुई हैं। संसद की वेबसाइट से ज्ञात हुआ है कि इन पांच सालों में उनके द्वारा 25 में से 14.94 करोड़ रुपये ख़र्च हुए हैं। संसद में भी 280 दिनों में मात्र 32 डिबेट्स में भाग लिया व पांच सालों में मात्र 33 सवाल पूछे हैं।

लोगों में अब गुस्सा है कि आज भी गावों में सड़क, पेयजल, आपदा पर मात्र सियासत ही होती जनता को राहत नही मिलती। आज पर्यावरण का मुद्दा आमजन के लिए प्रमुखता से उभर कर सामने आ रहा है। अनियोजित विकास के चलते देहरादून में वन सम्पदा एवं खेतीहर ज़मीनों में बड़ी-बड़ी भीमकाय इमारतों को खड़ा किया जाना तथा इसी प्रकार अन्य निर्माणों के चलते अनियोजित यातायात के कारण प्रदुषण की मात्रा में कई गुना वृद्धि हो चुकी है। यही कारण है कि आज देहरादून देश के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों की सूची में छ्ठे स्थान पर पहुँच चुका है। 

पिछले लोकसभा चुनाव के बाद वामपंथ की कार्रवाईयां और संघर्ष 

वामपंथी दल यहां जनमुद्दों को लेकर लगातार संघर्षशील रहे हैं। सीपीएम द्वारा टिहरी सीट पर चुनाव लड़ने के बाद इन कार्रवाईयों में तेज़ी आई है। जल, जंगल औरज़मीन के सवाल से लेकर आमजन की राशन, बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य, सुरक्षा, शिक्षा, रोज़गार तथा आपसी सद्भाव के सवाल पर वामपंथी दल ख़ासकरसीपीआई (एम) निरंतर सक्रिय रही है इसके साथ ही गन्ना किसानों का सवाल हो या जंगली जानवरों से खेती-बाड़ी की रक्षा इन तमाम सवालों को उठाया है। राज्य मेंअल्पसंख्यकों, महिलाओं, दलितों, जनजातियों तथा वनगुज्जरों, मज़दूर, किसानों, खेतिहरों, भूमिहीनों, आवासहीनों, कर्मचारियों, सविंदा कर्मचारियों, स्कीम वर्करोंतथा बेरोज़गारों के लिए किये गए संघर्ष उलेखनीय हैं।

सीपीएम ने राजेंद्र पुरोहित को टिहरी लोकसभा से अपना उम्मीदवार बनाया है। जो 1982 से कारबारी में किसान आंदोलन से किसान, राजनीति तथा आम जनता के मध्य सक्रिय रहे हैं व क्षेत्र पंचायत में प्रमुख चुने गए हैं। इसके साथ ही 1989 में साक्षरता आन्दोलन में जुड़ कर इस राज्य में भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा जनता के बीच साक्षरता व विज्ञान आंदोलन को पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। राजेन्द्र पुरोहित क्षेत्र में मज़दूरों, किसानों, कर्मचारियों, रेशम किट पालकों, जनता की जन समस्यों के समाधान के लिए निरन्तर सक्रिय हैं और किसान सभा के ज़िला सचिव व राज्य के संयुक्त सचिव भी हैं।

राजेन्द्र पुरोहित ने चुनावों में अपनी पार्टी की प्राथमिकताएँ गिनवाईं जिनमें बढ़ते पलायन पर अंकुश लगाने, राज्य में बेहतरीन शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, उद्योग-धंधों का विकास, कृषि क्षेत्र की बेहतरी व किसानों को उपज का पूरा दाम देने के साथ-साथ श्रमिकों के लिए न्यूनतम वेतन 18000, श्रम क़ानूनों का पालन, जल, जंगल, ज़मीन की रक्षा,शिक्षा में जीडीपी का 6 प्रतिशत तथा स्वास्थ्य पर 5 प्रतिशत, राज्य में सार्वभोमिक राशन प्रणाली लागू करना, जन-स्वास्थ्य  सुविधा नीति लागू करना, काम के अधिकार को संवैधानिक अधिकार के रूप में शामिल करना, वृद्धावस्था पेंशन 6000 रुपये करना शामिल हैं। 

 

 

 

 

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