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भारत
राजनीति
तीन तलाक़: सुप्रीम कोर्ट के गै़र-क़ानूनी घोषित करने के बाद अपराध क्यों?
मुस्लिम समुदाय के सदस्यों का कहना है कि वे उलझन में हैं और परेशान हैं।
तारिक़ अनवर
29 Dec 2017
triple talaq

मुस्लिम समुदाय मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक 2017 के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहा है, जिसमें पति को तीन साल की जेल की सज़ा का प्रावधान है जो अपनी पत्नी को त्वरित तीन तलाक़ (एक बार में तलाक़ शब्द का उच्चारण तीन बार करना) दे देते हैं। त्वरित तीन तलाक़ या तलाक़-ए-बिद्दत अब ग़ैर-क़ानूनी हो जाएगा। ये विवादास्पद विधेयक चर्चा के लिए लोकसभा में गुरुवार को पेश किया गया।

समुदाय के शिक्षित लोगों की मुख्य भावना यह है कि उच्चतम न्यायालय ने पहले ही इसे "असंवैधानिक" और "मनमाना" प्रथा घोषित कर दिया है तो दंडात्मक कानून की कोई आवश्यकता नहीं है।

इस वर्ष 22 अगस्त को एक आदेश में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने शायरा बानो बनाम संघ तथा अन्य के मामले में कहा कि "3:2के बहुमत से दर्ज विभिन्न मतों को ध्यान में रखते हुए, 'तलाक़-ए-बिद्दत' की प्रथा- त्वरित तीन तलाक़ - को रद्द किया जाता है।"

मुस्लिम समुदाय के सदस्य तथा एआईडीडब्ल्यूए एवं बेबाक कॉलेक्टिव जैसे कई महिला संगठनों का कहना है कि क़ानून की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि तीन तलाक़ विवाह को ख़त्म नहीं करता है। तो तीन साल की कारावास की दंडात्मक कार्रवाई का सवाल समझ से परे है। 395 पेज के फैसले में कहीं भी सुप्रीम कोर्ट का उल्लेख नहीं है कि तीन तलाक़ में दंडित किया जा सकता है।

दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस - प्रमुख विपक्षी दल- ने सरकार द्वारा पेश किए गए विधेयक का समर्थन करने का निर्णय लिया है। सबसे पुरानी पार्टी भी प्रस्तावित कानून में कोई संशोधन नहीं करेगा।

लेकिन विपक्षी दलों की कई पार्टियां इस विधेयक का विरोध कर रही है कि देश में मुस्लिम परिवारों के लिए इस तरह का "कठोर" कानून एक "अन्याय" होगा।

विधि विशेषज्ञों ने भी प्रस्तावित क़ानून के प्रति दुःख व्यक्त किया है, उन्होंने इसे "अधिक अपराधीकरण" का मामला बताया है। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए हैदराबाद स्थित एनएएलएसआर विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने कहा कि "सर्वोच्च न्यायालय द्वारा त्वरित तीन तलाक़ रद्द करने के बाद मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई बुराई है। हमें अापराधिक क़ानून का अधिक इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। इसे अंतिम उपाय के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। ये विधेयक वास्तव में मुस्लिम महिलाओं की मदद नहीं करने जा रहा है क्योंकि एक पति जेल से लौटने पर, अगर उन्हें सलाखों के पीछे भेजा जाता है, तो वह तलाक़ का वैध रूप देगा। इसलिए हम जो कुछ ऐसा कर रहे हैं वह वास्तव में हमारी महिलाओं की मदद करने नहीं जा रहा है।

उन्होंने आंशिक रूप से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) को इस असफलता के लिए दोषी ठहराया और आगे कहा कि इस स्थिति से बचने के लिए "उन्हें इस मुद्दे पर काफी पहले आम सहमति बनाना चाहिए था"।
 

ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए मुशरवत (एआईएमएमएम), जो देश में मुस्लिम निकायों का एक सहयोगी संस्था है, ने कहा कि इस मुद्दे पर जल्दबाज़ी में विधेयक पेश कर सरकार अपनी "असफलताओं" को छिपाने की कोशिश कर रही है। एआईएमएमएम अध्यक्ष नवैद हामिद ने कहा कि "ये पहल धर्म की स्वतंत्रता में घुसपैठ के अलावा और कुछ भी नहीं है। प्रस्तावित विधेयक की भावना न केवल संविधान के ख़िलाफ़ है बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के तीन तलाक़ के फैसले पर दिए गए फैसले ख़िलाफ़ है। विधेयक सभी प्रकार के तलाक़ पर प्रतिबंध लगाना चाहता है।"

यह पूछने पर कि एआईएमपीएलबी इस मामले पर सर्वसम्मति बनाने में क्यों विफल रहा है, तो उन्होंने कहा कि बोर्ड "एक विशेष मत (हनफी) का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी संख्या भारत और उपमहाद्वीप में अधिक है और जहां त्वरित तीन तलाक़ वैध है"।

एआईएमपीएलबी ने अपनी तरफ़ से खुद का बचाव करते हुए सरकार पर इल्ज़़ाम लगाया कि उनके पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप कर मुसलमानों को परेशान कर रही है। 

बोर्ड ने एक बयान में कहा कि "कोई भी इस मुद्दे पर सरकार के जल्दबाज़ी वाले प्रस्ताव को समझने में विफल है, इस तथ्य के बावजूद कि मुसलमानों में तलाक़की दर अन्य धर्म समूहों की तुलना में सबसे कम है। इस्लाम के मुताबिक़, तीन तलाक़ अपरिवर्तनीय है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे "अप्रभावी" माना है। यदि कोई सुप्रीम कोर्ट की दलील को मानता है तो उस व्यक्ति को दंडित करने के लिए कोई तर्क नहीं है जो "अप्रभावी" शब्द तलाक़ बोलता है। सरकार उस व्यक्ति के लिए तीन साल की जेल की सज़ा का प्रावधान रखा है जो एक बैठक में तीन तलाक़ बोलता है। यदि ऐसा होता है तो तलाक़शुदा महिला और उसके बच्चों का ख़र्च कौन उठाएगा? यह शरिया क़ानून में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप है। पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप के कारण मुस्लिम उलझन में हैं।"

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाली युवा वकील ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि "ये विधेयक लैंगिक समानता वचन को पूरी तरह नष्ट करता है। यह इस्लाम के मानने वाले पुरुषों और महिलाओं के बीच स्पष्ट विभाजन का दरवाज़ा खोलता है।"

उन्होंने कहा कि कथित विधेयक को लागू करना "अपने आप में ग़लत नहीं है कि तीन तलाक़ को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, लेकिन इसे आपराधिक जुर्मबनाने पर इसका दुरुपयोग होगा"। ितीन तलाक़ बोलने को गैर-ज़मानती और संज्ञेय अपराध बनाया जा रहा है जो अन्य गंभीर अपराधों के बराबर होगा।

आपराधिक क़ानून का मुख्य सिद्धांत बेगुनाही की परिकल्पना है और भार हमेशा अभियोजन पक्ष पर होता है, जिसे इस मामले को संदेह की किसी संकेत से परे साबित करना होता है। उन्होंने कहा कि "इस मामले में, पत्नी द्वारा कोई मौखिक तलाक़ कैसे साबित किया जाएगा? ये अनुमान के बिंदु हैं। अब कहा जा रहा है कि तीन तलाक़ बोलना आपराधिक जुर्म होगा, विवादास्पद सवाल यह है कि तीन तलाक़ बोलने पर किसी नागरिक को ग़लत कहना कहां है या येआईपीसी की धारा 398 ए के अपराध के समान है जिसमें तीन साल जेल की सज़ा का प्रावधान है।"

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लेमीन के अध्यक्ष और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने इस विधेयक को "कठोर" बताया, उन्होंने कहा कि त्वरिततीन तलाक़ के ख़िलाफ़ क़ानून बेहद सख़्त है, हालांकि पत्नियों को छोड़ने वाले पति के ख़िलाफ़ एक क़ानून की आवश्यकता थी।

उन्होंने न्यूज़क्लिक से कहा कि "इस बिल के पेश करने को लेकर प्राथमिक रूप से मेरी दो आपत्ति है। पहला, संसद में विधायी योग्यता कमी है क्योंकि येविधेयक मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। दूसरा, इस विधेयक में बुनियादी क़ानूनी तालमेल का अभाव है और मौजूदा कानूनी ढांचे के अनुरूप नहीं है।"

उन्होंने मौजूदा प्रावधानों जैसे आईपीसी 498 ए , घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 20 और 22 और मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक का हवाला देते हुए कहा कि "तलाक़-ए-बिद्दत (त्वरित तीन तलाक़) को पहले ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा अमान्य कर दिया गया है और रद्द कर दिया गया। अब, इस क़ानून के साथ सरकार दूसरा कानून बना रही है जबकि घरेलू हिंसा अधिनियम और आईपीसी सेक्शन के तहत पहले से ही प्रावधान हैं। आप किसी समान कार्रवाई का ग़ैर क़ानूनी घोषित नहीं कर सकते जबकि कानून पहले से ही मौजूद है।"

ओवैसी ने कहा, उस समुदाय के लिए क़ानून बनाए जाने की ज़रूरत है जिसमें लाखों महिलाओं को पति द्वारा छोड़ दिया जाता है और वे मुस्लिम समुदाय कीनहीं हैं उन्हें न्याय दिया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि इस विधेयक में महिलाओं के ख़र्च उठाने को लेकर गंभीर विरोधाभास है क्योंकि कोई क़ैदी पति कैसे निर्वाह भत्ता दे सकता है।

लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो विधेयक का समर्थन कर रहे हैं। तीन तलाक़ की शिकार लखनऊ की रहने वाली एक महिला हुमा ख़यानत ने कहा कि "मेरे जैसे लोग जिन्हें तलाक़ दिया जा चुका है और जिन्हें तलाक़ की धमकी दी जाती है वे इस क़ानून से लाभान्वित होंगे। घरेलू हिंसा क़ानून की तरह तीन तलाक़ के लिए अगर क़ानून बनता है तो हमें कुछ राहत मिलेगी।"

लेकिन इन सभी प्रतिक्रियाओं के विपरीत, कुछ ऐसे लोग हैं जो मानते हैं कि न्यायालय को तीन तलाक़ मुद्दे पर न्याय अधिकार नहीं है।

अल्पसंख्यक मामलों पर लिखने वाले पत्रकार क़मर अशरफ़ ने कहा कि "यदि दो व्यक्ति पति और पत्नी के रूप में एक साथ रहने या अलग रहने का फैसला करते हैं, तो ये उनकी पसंद है। क्या सरकार अपने नागरिकों को अपने पति या पत्नी से अलग होने या रहने के लिए मजबूर करेगी? कोई अदालत के हस्तक्षेप की आवश्यकता तब होती है जब कोई पार्टी अपने अधिकारों का उल्लंघन महसूस करती है। हमारे संविधान में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की वकालत की गई है, इसलिएसरकार को इस तरह का कोई भी कानून लाने से बचना चाहिए।"

उन्होंने आख़िर में कहा कि "त्वरित तीन तलाक़ ख़त्म करने का मतलब है कि आप महिला को उनकी गरिमा से समझौता करने और कुछ अवधि की प्रतीक्षा करने के लिए कहते हैं। एक सशक्त महिला प्रतीक्षा वाली अवधि की कटु आलोचना करेगी और इस रिश्ते को ख़त्म कर देगी... यह महिलाओं पर पितृसत्तात्मक विचार है।

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