नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार अपने विज्ञापनों में लगातार दावा करती रही है कि 2014 के बाद से उनके शासन काल के दौरान आवश्यक वस्तुओं की क़ीमतों को नियंत्रण में रखा जा रहा है, और तथ्य यह है की कुछ पदार्थों विशेष कर खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में लगातार वृद्धि नहीं हुई है, हालांकि कई अन्य वस्तुओं के दाम बढ़े जैसे ईंधन आदि। लेकिन हाल के महीनों में यह सब बदल गया है।
हालांकि थोक की क़ीमतों में स्थिरता बनी हुई है, लेकिन उपभोक्ता स्थानीय दुकानों में जिस भाव में माल ख़रीद रहे हैं वह काफ़ी ज़्यादा है। इसकी पुष्टि सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) द्वारा 310 शहरों और 1,181 चुने गए गांवों के 1,114 बाज़ारों से एकत्र किए गए मूल्य के आंकड़ों की जांच से हो जाती है।
इसमें 12 आवश्यक खाद्य समूहों (जैसे अनाज, दालें, खाना पकाने का तेल, मांस और मछली, आदि) की क़ीमतें एक साल पहले की तुलना में अक्टूबर 2019 में लगभग 8 प्रतिशत की चौंकाने की दर से बढ़ी है। वास्तव में, एक साल पहले मुद्रास्फ़ीति नकारात्मक थी। [नीचे चार्ट देखें]

खाद्य पदार्थ किसी भी परिवार के ख़र्च का बड़ा हिस्सा होता है, और ग़रीब परिवारों के लिए (जिसका अर्थ है अधिकांश भारतीय) यह कुल परिवार के बजट का लगभग आधा होता है। इसलिए, बढ़ती खाद्य क़ीमतें परिवार की आर्थिक स्थिति पर बहुत ही बुरा असर डालती हैं, ख़ासकर ग़रीब परिवारों के ऊपर।
एमओएसपीआई का ’वेयरहाउस’ डाटा (ऊपर लिंक किया गया है) भी खाद्य समूह के आधार पर क़ीमतें बताता है। कुछ महत्वपूर्ण खाद्य समूहों में वृद्धि, जो कि अधिकांश भारतीय परिवारों का मुख्य भोजन है, उसका उल्लेख नीचे समग्र चार्ट में किया गया हैं। ध्यान रहे कि व्यावहारिक रूप से सभी खाद्य समूह में पिछले एक साल के मुक़ाबले क़ीमतों में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है।

वर्तमान में सब्ज़ियों और दालों दोनों को बहुत अधिक मुद्रास्फ़ीति दर का सामना करना पड़ रहा है। पिछले वर्ष की तुलना में सब्ज़ियों की क़ीमतें 26 प्रतिशत की गति से बढ़ रही हैं। यह आपात स्थिति इसलिए भी है कि एक उदासीन सरकार भी घोषणा कर रही है कि क़ीमतों को कम करने के लिए कुछ 1.2 लाख टन प्याज़ का आयात किया जाएगा। यह सरकार के दिवालिया होने का संकेत है क्योंकि देश में प्याज़ की खपत सालाना लगभग 24 मिलियन टन है या कहें कि प्रति माह 2 मिलियन टन है। सच तो यह है कि मामूली 1.2 लाख टन आयात करने से कोई मदद नहीं मिलेगी। इसका मतलब, यह सब सिर्फ़ दिखावा है। दरअसल, इससे निपटने के लिए सरकार के पास कोई सुराग़ ही नहीं है। या कहें कि सरकार में कोई इच्छाशक्ति नहीं है।
अगर आप उपरोक्त चार्ट पर ध्यान दें तो आप देखेंगे कि मांस, मछली, अंडे और दूध जैसे पौष्टिक और आवश्यक प्रोटीन स्रोतों वाली सामग्री की क़ीमतों में बढ़ोतरी देखी जा रही है। और शाकाहारियों के लिए प्रोटीन का स्रोत दालें हैं। उच्च क़ीमतों की वजह से इन वस्तुओं की खपत में कमी से विशेषकर बच्चों में, उनके स्वास्थ्य के लिए विनाशकारी परिणाम होंगे। वैसे भी, भारत में कुपोषित बच्चों की संख्या बहुत अधिक है। महंगाई के कारण किसी भी तरह की कमी बहुत ही हानिकारक होगी – जबकि इससे पूरी तरह से बचा जा सकता है।
मंदी के संदर्भ में, इस तरह की मूल्य वृद्धि काफ़ी घातक है। सेंटर ऑफ़ मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के मासिक आंकड़ों के अनुसार, बेरोज़गारी 8 प्रतिशत की दर से अधिक है। ऐसे परिवार जिनके घर में एक बेरोज़गार व्यक्ति है, ऐसे में उनके लिए भोजन के लिए अधिक भुगतान करना काफ़ी असहनीय बात है। इसका मतलब होगा अधिक से अधिक तबाही, क़र्ज़ और बर्बादी का होना। यहां तक कि जो लोग काम में हैं, उनको भी कमाई में कटौती का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि बाज़ार में मांग काफ़ी कम है। उनके लिए, भोजन पर अधिक ख़र्च करने का मतलब अधिक संकट है।
फिर भी, मोदी सरकार इस व्यापक संकट से अंजान है और उल्टे कॉर्पोरेट जगत को अधिक रियायतें, टैक्स में भारी छूट और उनकी सहायता के लिए अधिक धन मुहैया कराने की घोषणा कर रही है।
सरकार का महंगाई को कम करने का तरीक़ा भी ग़रीबों से अमीरों को संसाधनों को स्थानांतरित करना है। इन हालात में सरकार की अक्षमता और बढ़ती क़ीमतों पर चुप्पी न केवल लोगों के लिए अधिक संकट का कारण बनेगी बल्कि यह स्थिति जनता को सत्ताधारी पार्टी से दूर भी कर देगी। बीजेपी के प्रबंधकों को इस बारे में देर होने से पहले सोच लेना चाहिए? सवाल है कि क्या उनमें सोचने की क्षमता है भी?
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
On Top of Slowdown, Prices Are Now Zooming Up