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भारत
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“जीहुज़ूरिया पत्रकारिता” के बढ़ते संक्रमण से बचाव का टीका कब?
टीके की उपलब्धता, कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी या वस्तुओं के दाम बढ़ने के बारे में बड़े मीडिया घरानों में वह कल तक सौ बार फेर-बदल हो जाएगा,  और आप पकड़ भी नहीं पाएंगे। 
अजित पिल्लई
08 Jul 2021
“जीहुज़ूरिया पत्रकारिता” के बढ़ते संक्रमण से बचाव का टीका कब?
छवि सौजन्य : नेशनल हेराल्ड 

कोविड-19 के हमारे जीवन को बाधित करने से काफी पहले ही भारतीय मीडिया का मूल स्वरूप एक अजीब संक्रमण से संक्रमित हो गया था। इस बीमारी की पहचान एक “जीहुजूरिया पत्रकारिता” के रूप में की गई है। इसने सबसे पहले अपना शिकार मीडिया-प्रबंधन को बनाया, फिर संपादक नाम की संस्था को, और आखिर में इसने सामान्य पत्रकारों को भी संक्रमित कर दिया। जिन लोगों ने अपनी प्रतिरक्षा (इम्यून) को बेहतर बना कर इस संक्रामक बीमारी से बचाव किया, वे अपने को सौभाग्यशाली समझते हैं। वास्तव में, रोज दिन गुजरने के साथ, अधिक इच्छुक पीड़ित इस संक्रमण से दम तोड़ते जा रहे हैं और फिर उनकी सेहत नहीं सुधरती दिख रही है।

और इनमें से कई पत्रकार पल में चंगा हो भी जाते हैं, तो उनमें बीमारी के पलटने या उनके दोबारा संक्रमित होने का जबर्दस्त खतरा बना रहता है। बाकी बचे खुद के बीमार होने का स्वागत करते हैं, यदि उन्हें संक्रमण से उबरने की उम्मीद दिखती है। 

लेखक और पूर्व संपादक टॉनी जोसेफ ने हालिया अपने एक ट्वीट में इस बीमारी को ढीले-ढाले तरीके से पत्रकारिता के रूप में परिभाषित किया है, “सत्ता में बैठे  लोग चाहते हैं कि पत्रकार उन पर बिना कोई संदेह किए या उनसे बिना कोई सवाल किए, अपना काम करें।” एक बार इस शर्त पर काम कर लेने के बाद, “सरकारी स्रोत” जो कुछ भी चौथा स्तम्भ (पत्रकारिता) से कहता है, वह बस उसी पर विश्वास कर अपनी रिपोर्ट फाइल करने के आदी हो जाते हैं, और न्यूज डेस्क पर बैठे लोग इन खबरों पर बिना दिमाग लगाए या बिना उनके सत्यापन किए ही छपने के लिए आगे बढ़ा दे देते हैं।”  

इस “जीहुजूरिया पत्रकारिता” के स्वरूप का खुलासा मंत्रियों के समूह की 97 पेज की एक रिपोर्ट से हुआ, जिसे पिछले साल के दिसम्बर में तैयार किया गया था। इसमें बताया गया कि सत्ता में ओहदेदारों के प्रोत्साहन और समर्थन के जरिए मीडिया नैरेटिव पर किस तरह “नियंत्रित” किया जा सकता है और जो लोग इस लाइन पर आने के लिए तैयार नहीं होते हैं, उन्हें किस तरह “हाशिए” पर ढकेला जा सकता है या उन्हें “चुप” कराया जा सकता है।

हालांकि उस रिपोर्ट के आधार पर कोई कार्रवाई नहीं की गई है, पर इसके कुछ सुझावों को सरकार के मीडिया मैनेजरों द्वारा अमल में लाया जा रहा है। इनमें शामिल सुझाव इस प्रकार हैं-:

* उनकी पहचान करना जो नकारात्मक खबरों को प्रकाशित करते हैं या उन्हें प्रसारित करते हैं। उनसे बातचीत करना और उन्हें सरकारी दृष्टिकोणों की सराहना के करीब लाना। 

* सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रभावकों की खोज करना। सकारात्मक खबरों को बढ़ावा देना। यह सुनिश्चित करना कि ये खबरें टीवी चैनलों पर होने वाले विमर्शों में शामिल हों। 

*नकारात्मक खबरों को मुख्यधारा की चेतना से बाहर कर देना।

* भारत के बारे में अंतरराष्ट्रीय मीडिया की नकारात्मक खबरों को प्रति-समाचारों से बेअसर कर देना। 

*उपलब्धियों की खबरों को सजाने-संवारने के लिए अधिकाधिक आंकड़ों का उपयोग करना। मित्रवत व्यवहार वाले मीडिया को इन आंकड़ों तक आसान पहुंच बनाना। 

* “नकारात्मकता” को बढ़ावा देने वाले “छद्म धर्मनिरपेक्षों”, अ-मित्र वेबसाइटों, सोशल मीडिया के मंचों एवं एनजीओ पर लगाम लगाना। 

*खबर को पहले ब्रेक दे कर नैरेटिव्स पर नियंत्रण करना, अब वह खबर सकारात्मक हो या विरोधी पार्टियों को निशाना बनाने की ही क्यों न हो। 

झूठी खबरों के मामले में भी, युक्ति इसका खुलासा करने और जल्द से जल्द इसे पहुंचाने की है। इस दृश्य में केंद्रीय मंत्री, भाजपा के नेता एवं प्रभावक आते हैं, जो अपनी कर्तव्यपरायणता से इन खबरों को फैलाते हैं और इस पर चर्चा का वातावरण तैयार करते हैं। बाद में, जब इन खबरों की सत्यता पर सवाल उठने लगता है, सही तथ्य सामने आने लगते हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। बाद में आए संबंधी सुधारात्मक विवरण पहले जैसे मारक प्रभाव नहीं छोड़ते हैं, और पहले दी गई सनसनीखेज खबर ही लोगों की कल्पना को जकड़ लेती हैं। 

इसका एक हालिया उदाहरण सर्वोच्च न्यायालय से ही संबंधित है। दिल्ली में ऑक्सीजन की वास्तविक जरूरत की मात्रा की जांच के लिए न्यायालय द्वारा गठित ऑडिट टीम ने कथित रूप से कहा बताया गया कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने कोरोना की दूसरी लहर में अपनी जरूरत से चार गुना अधिक ऑक्सीजन सिलिंडर की मांग की थी। यदि यह सच है, तो यह सदमा पहुंचाने वाला है और यह ऑक्सीजन के लिए यहां-वहां दौड़ते-भागते नागरिकों की उन खौफनाक मंजरों को जेहन में फिर से जिंदा कर देता है, जब अस्पताल यह कह कर हाथ खड़े कर देते थे कि उनके पास ऑक्सीजन का स्टॉक खत्म हो गया है। 

पर यह सनसनी फैलाने वाली खबर बाद में निराधार साबित हो गई। अदालत की तरफ से गठित इस टीम के अगुवा एम्स, दिल्ली के निदेशक रणदीप गुलेरिया थे।  उनके द्वारा यह स्पष्ट किए जाने के बाद कि इस खबर में गंभीर “खामियां” हैं और यह स्वयं में “अतिरंजित” है। जो नुकसान होना था, वह तब तक हो चुका था। 

रेल मंत्री (अब तात्कालीन) पीयूष गोयल ने तब ट्वीट किया था: “सर्वोच्च न्यायालय की ऑडिट टीम ने पाया कि दिल्ली सरकार ने कोरोना के संक्रमण की दूसरी लहर के चरम काल में अपनी वास्तविक जरूरत से चार गुनी अधिक ऑक्सीजन की मांग की थी और इसके चलते 12 सर्वाधिक कोरोना मामले वाले राज्यों में ऑक्सीजन आपूर्ति पर प्रतिकूल असर पड़ा था। उम्मीद है कि पूरे भारत में ऑक्सीजन आपूर्ति को बाधित करने वालों की जवाबदेही तय की जाएगी।”

भाजपा के सबसे मुखर प्रवक्ता संबित पात्रा सोशल मीडिया पर अपने मूल तत्व में थे: “सत्य आखिर उजागर हो ही गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त पैनल ने कहा, अरविंद केजरीवाल ने आवश्यकता से चार गुना ऑक्सीजन मांगा।  इसने कोरोना के सर्वाधिक मामलों वाले 12 राज्यों को प्रतिकूल असर डाला था। तो, मित्रों, केजरीवाल सब झूठ ही बोल रहे थे।....”

भाजपा के सौजन्य से ऑक्सीजन की खबर ने विशेष रूप से एक दिन का धमाल मचाया, जो बाद में आई इससे संबंधित खबरों से फीका पड़ गया। लेकिन अनेक दिल्लीवासी आज भी मानते हैं कि राज्य सरकार ने इसमें कुछ खेल किया था। उन्होंने टीवी पर इसकी रिपोर्ट देखी है और व्हाट्सएप्प पर भेजे गए संदेश और प्रतिक्रियाएं पढ़ी हैं। इस मामले में डॉ गुलेरिया के खंडन का वैसा धमाल नहीं हुआ और उस पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया।

लेकिन ऑक्सीजन के लिए खबर तो होनी थी, आपको एक ऐसे मीडिया क्लाइमेट की जरूरत होती है, जिसमें सत्ताधारी पार्टी के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं द्वारा दी गई सूचनाएं जांच-पड़ताल का विषय नहीं होतीं। 

फिर आपके पास नेशनल एम्पॉवर्ड ग्रुप ऑन वैक्सीन के चेयरमैन वी.के. पाल थे, जिन्होंने 13 मई 2021 को यह दावा कर सबको चौंका दिया था कि इस साल दिसम्बर तक भारत में रिकॉर्ड 216 करोड़ टीके लगा दिए जाएंगे। इस फील-गुड वाली खबर ने लोगों का खूब ध्यान खींचा। इसके व्यापक उल्लेखों के जरिए यह बताया गया था कि टीके की कमी को लेकर फैला जा रहा किसी भी तरह का डर या तो गलत है या वह विपक्ष का रचा षड्यंत्र है। 

लेकिन 2 जुलाई को उन्हीं पाल महाशय ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में पूछे एक सवाल के जवाब में कबूल कर लिया कि पहले उनका अनुमान “आशावाद और आकांक्षी” था! इस संदर्भ में सबसे सही आंकड़ा यह है कि साल के अंत तक 135 करोड़ खुराकें दी जाएंगी। पाल के इस उल्लेखनीय यू-टर्न को अनेक समाचार संगठनों ने कर्तव्यपरायणता के साथ कमतर चलाया, इसका कारण उन सबको बेहतर पता  है। शायद उनकी यू-टर्न वाली खबर सरकार के प्रति मित्रवत नहीं थी और जीहुजूरिया पत्रकारिता के सिद्धांतों का घोर उल्लंघन हो सकती थी। 

जब स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन (अब तात्कालीन) ने घोषणा की कि भारत ने टीकाकरण मामले में अमेरिका से आगे निकल गया है तब इस खबर ने जीहुजूरिया मीडिया में हर्षोन्माद की लहर पैदा कर दी थी। भारत का आंकड़ा था: 32.36 करोड़ खुराकें; अमेरिका: 32.33 करोड़ खुराकें। यह दावा किया गया था कि “भारत ने कोविड-19 के टीकाकरण में एक अन्य मील के पत्थर का काम किया है।” इस संबंध में जो वास्तविक तथ्य बहुत बाद तक अनकहा रह गया था, वह यह कि भारत के कुल टीकाकरण का काम उसकी 4 फीसदी आबादी से अधिक नहीं हुआ है, जबकि अमेरिका अपनी कुल आबादी के 46.62 फीसदी का टीकाकरण कर चुका है।

लेकिन उपरोक्त दिए गए तीन उदाहरण साम्प्रदायिक घुमाव लिए एकतरफा खबरों की तुलना में अपेक्षाकृत कम नुकसानदेह हैं, जहां निर्दोषों की गिरफ्तारियों पर पुलिस के बयान को उचित ठहरा दिया जाता है और उन्हें घृणित अपराधों में दर्ज कर दिया जाता है, जिसके कारण उन्हें लंबी अवधि की सजा हो जाती है। परम्परागत रूप से, खबरनवीसों से यह उम्मीद की जाती है कि जांच अधिकारी द्वारा जुटाए या पेश किए गए सबूतों की खोजबीन करेंगे और उसकी बुनियादी सच्चाई की तफ्तीश करेंगे। घटना की कड़ियां जोड़ने और गिरफ्तार व्यक्ति की अपराध में भागीदारी की पुष्टि के लिए इंटरव्यू आदि लेंगे। लेकिन जब पुलिस एवं राज्य के निहित स्वार्थ से जुड़े मामले में तथ्यों की जांच-पड़ताल को नजरअंदाज करने का रुझान बढ़ा है। 

यह मानदंड कश्मीर पर या उससे संबंधित खबरों के मामले में लागू किया जाता है। और जब दंगों से संबंधित मामला हो, तो वहां पूर्वाग्रही रिपोर्टों की छूट मिल जाती है। तब आक्रमणकारी को ही पीड़ित बताया जाता है। दमनकर्ता को दमित बताया जाता है। स्पष्ट रूप से तथाकथित “लव जिहाद”, “कोरोना जिहाद” या “गो-कशी” की खबरों  पर एक नकली कहानी गढ़ के लोगों को प्रभावित किया जाता है। 

केंद्रीय मंत्रियों, भाजपा नेताओं एवं वे जो सरकार में शामिल हैं, उनके वक्तव्य अक्सर बिना किसी आधार के अन्याय को भी न्यायोचित ठहरा देते हैं। इस प्रकार, पिछले हफ्ते पेट्रोलियम मंत्री (अब पूर्व) धर्मेंन्द्र प्रधान ने तेल के दाम बढ़ने के सकारात्मक पक्ष को रेखांकित करते हुए कहा था कि इससे केंद्र सरकार को जनकल्याण एवं विकास के काम के लिए अतिरिक्त राजस्व मिलता है और उसे युक्तिसंगत ठहराया था। उनके इस घोर हास्यास्पद वक्तव्य पर कोई सवाल नहीं किया गया। 

संयोगवश, डीजल, पेट्रोल एवं एलपीजी गैस के रिकॉर्ड कीमतों का यह स्पिन भी पिछले कुछ समय से व्हाटसएप्प ग्रुप्स में चक्कर काट रहा है और अनेक भाजपा नेता एवं पार्टी से सहानुभूति रखने वाले पहले से ही यह तर्क दे रहे हैं कि आम आदमी के कल्याण की दृष्टि से इन वस्तुओं के दामों में बढ़ोतरी होना अच्छी बात है। इसी तरह, कुछ प्रभावक पहले से ही अपनी थियरी दे रहे हैं कि कीमतों में ताजा रिकॉर्ड वृद्धि को लेकर नागरिकों को चिंतित नहीं होना चाहिए क्योंकि अच्छे दिन आसपास ही हैं। 

क्या फ्रांस से हुई राफेल विमान सौदे की जांच से चीजें बदल जाएंगी?  जिन रक्षा “विशेषज्ञों” और सुरक्षा “विश्लेषकों” ने इस विवादास्पद रक्षा सौदे का बचाव 2019 के चुनाव के पहले किया था, उन सब को फिर से सरकार का बचाव करने के लिए कह दिया गया है। बहुत बड़े मीडिया हाउसों के लिए यह देखना बाकी है कि नाफरमानी अभी उनके संपादकों एवं प्रबंधनों के डीएनए में है या पूरी तरह से उसका त्याग कर दिया है।

(पिल्लई वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

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