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भारत
राजनीति
32% दलित आबादी होने के बावजूद पंजाब में अभी तक कोई कद्दावर एससी नेता नहीं उभर सका है: प्रोफेसर रोंकी राम 
पंजाब की 32% अनुसूचित आबादी के भीतर जाति एवं धार्मिक आधार पर विभाजन मौजूद है- 5 धर्मों के 39 जातियों में बंटे होने ने उन्हें अनेकों वर्षों से अपने विशिष्ट एवं व्यवहार्य राज्य-स्तरीय नेतृत्व को विकसित करने से रोक रखा है।
तृप्ता नारंग
24 Jan 2022
Dera Ballan

16 फरवरी को गुरु रविदास जयंती होने के कारण पंजाब विधानसभा चुनावों को स्थगित करना, राज्य में अनुसूचित जाति की पहचान के सुदृढ़ीकरण का एक स्पष्ट संकेत है, जिसके पास देशभर में अनुसूचित जाति की आबादी का (31.94%) उच्चतम प्रतिशत है। न्यूज़क्लिक के साथ एक ईमेल साक्षात्कार में, शहीद भगत सिंह कालेज के पूर्व डीन (कला संकाय) एवं पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान के मानद प्रोफेसर, प्रोफेसर रोंकी राम ने पंजाब में अनुसूचित जातियों की राजनीतिक यात्रा के प्रक्षेपवक्र में डडेरों की मजबूत उपस्थिति के बारे में और क्यों समुदाय अभी तक मजबूत नेत्ताओं को मैदान में नहीं उतार पाया है, के बारे में विस्तार से बताया। 

टीएन: क्या आप पंजाब में अनुसूचित जातियों की राजनीतिक यात्रा की व्याख्या कर सकते हैं? और साथ ही अनुसूचित जातियों के बीच में अतीत और वर्तमान में देखें तो किन चुनावी रुझानों को देखा जा सकता है?

आरआर: पंजाब में अनुसूचित जातियों (एससी) की राजनीतिक यात्रा 1926 में ऐतिहासिक आद धर्म आंदोलन की स्थापना के साथ शुरू हुई थी। आद धर्म आंदोलन की स्थपना बाबू मंगू राम मुगोवालिया के द्वारा की गई थी, जो पूर्व में ग़दर आंदोलन में सक्रिय थे और भारत में ब्रिटिश राज के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह के लिए हथियारों की तस्करी जैसे बेहद कठिन काम में शामिल थे। हालाँकि अमेरिका से भारत के रास्ते में उन्हें चार अन्य गदर में शामिल लोगों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया था और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई थी। लेकिन उनके जर्मन हमदर्दों की ऐन मौके पर मदद की वजह से उनकी जान बच गई थी।

इसके बाद, वे (मुगोवालिया) भूमिगत हो गये और आखिरकार 16 साल विदेशों में बिताने के बाद 1925 में भारत पहुंचे। वे यह देखकर भौंचक्का रह गए कि इतने वर्षों बाद भी समाज के जाति-आधारित सामाजिक ढाँचे में कुछ भी बदलाव नहीं हुआ है। जाति की बेड़ियों को काटने के लिए उन्होंने आद धर्म आंदोलन की स्थापना की। अनुसूचित जातियों के बीच में राजनीतिक जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से इस क्षेत्र में शुरू किया गया यह अपनी तरह का एकमात्र आंदोलन था।

जलंधर, में अपना मुख्यालय (आद धर्म मंडल) को स्थापित करने के बाद, जिसे अब जालंधर के तौर पर जाना जाता है – आद धर्म आंदोलन ने अनुसूचित जातियों के लिए एक अलग धर्म की मांग को लेकर ब्रिटिश सरकार के साथ अपनी पैरवी तेज कर दी थी। 1931 में, ब्रिटिश सरकार ने आद धर्म को निचली जातियों के लिए एक विशिष्ट धर्म के तौर पर अधिसूचित कर दिया। इसके परिणामस्वरूप, 1931 की पंजाब जनगणना में 4,18,789 निचली जाति को आद धर्मी के तौर पर दर्ज कर लिया गया।

एक अन्य प्रमुख विकास जिसने पंजाब में अनुसूचित जातियों की आरंभिक राजनीतिक यात्रा को रेखांकित करने का काम किया था, वह था 1936-37 के पहले पंजाब प्रांतीय विधानसभा चुनावों में उनकी सफलतापूर्वक हिस्सेदारी थी। आद धर्मियों ने समूचे अविभाजित पंजाब प्रांत में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित आठ निर्वाचन क्षेत्रों में स्वतंत्र उम्मीदवारों को अपना समर्थन दिया था। राजनीतिक समर्थन के लिए उनके जाति-आधारित समेकन के चलते कुल आठ स्वतंत्र उम्मीदवारों में से सात को चुनाव जीतने में मदद की। 

1945-46 के दूसरे महत्वपूर्ण पंजाब विधानसभा चुनाव में, आजादी की पूर्व संध्या पर आद धर्मी उम्मीदवारों ने निर्दलीय उम्मीदवारों के साथ-साथ यूनियनिस्टों के बतौर भी चुनाव लड़ा। यूनियनिस्टों और निर्दलियों दोनों ने 10-10 सीटों पर जीत हासिल की। बाबू मंगू राम मुगोवालिया होशियारपुर निर्वाचन क्षेत्र से यूनियनिस्ट उम्मीदवार के तौर पर चुने गये; और 1996 में बाबू कांशी राम यहाँ से सांसद के तौर पर जीते।  

पंजाब में अनुसूचित जातियों की राजनीतिक यात्रा ने अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ (एससीएफ) की पंजाब ईकाई के गठन के साथ रफ्तार पकड़ी, जिसने राज्य में कुल तीन चुनावों में हिस्सा लिया - एक था 1946 में एक प्रांतीय चुनाव और 1952 एवं 1957 में हुए दो आम चुनावों में। हालाँकि 1946 और 1952 चुनावों में यह अपना खाता खोलने में विफल रही लेकिन 1957 के आम चुनावों में यह 26 विधानसभा सीटों में से पांच में जीत हासिल करने में सफल रही।

बाद के दौर में, एससीएफ की जगह भारतीय रिपब्लिकन पार्टी (आरपीआई) ने ले ली, लेकिन वह भी पंजाब में एक मजबूत अनुसूचित जातियों की पार्टी के रूप में नहीं उभर पाई। 1962 के आम चुनाव में यह अपने किसी भी उम्मीदवार को जिता पाने में विफल रही। 1967 के आम चुनाव में आरपीआई को तीन विधानसभा सीटों को जीतने में सफलता प्राप्त हुई और इसके सभी तीनों सदस्यों को गठबंधन सरकार में मंत्री बनाया गया। 

1970 के दशक में, अनुसूचित जाति की राजनीति ने रोपड़ जिले के एक रामदसिया सिख बाबू कांशी राम के गतिशील नेतृत्व में बहुजन समान नामक एक नए चेहरे के साथ शुरुआत की। पंजाब के मौजूदा मुख्यमंत्री, चरणजीत सिंह चन्नी भी रामदसिया सिख हैं। 

बाबू कांशी राम ने 14 अप्रैल, 1984 को पंजाब में डॉ. बी.आर. अंबेडकर के जन्मदिन के अवसर पर बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की स्थापना के जरिये अनुसूचित जातियों के राजनीतिक परिदृश्य में एक नए जीवन का संचार किया। बीएसपी का मुख्य फोकस मूलतः मुख्यधारा के राजनीतिक दलों की भूमिका को ख़ारिज करना और सवर्ण जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने का था। हालाँकि, यह अपने मूल लक्ष्य पर टिके रहने में विफल रही और इसने विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ राजनीतिक गठजोड़ बनाये।

1992 के विधान सभा चुनावों (बीएसपी ने इसमें नौ सीटें जीतीं और 16% मत हासिल किये) और 1996 के लोकसभा चुनावों में (तीन सीटों पर जीत हासिल की) को यदि छोड़ दें तो यह पंजाब में विधानसभा और संसदीय चुनावों में अपनी उपस्थिति को दर्ज करा पाने में विफल रही। पिछले विधानसभा चुनावों (2017) में इसका वोट प्रतिशत गिरकर 1.5% रह गया था।

सभी राज्यों की तुलना में आबादी में सबसे बड़ा हिस्सा होने के बावजूद क्यों अनुसूचित जातियां अपनी राजनीतिक पहचान को स्थापित कर पाने में सक्षम नहीं रही हैं। बीएसपी भी नाकाम रही, जबकि कांशी राम पंजाब से थे?

अन्य राज्यों की तुलना में पंजाब में अनुसूचित जाति की आबादी (31.94%) के साथ उच्चतम प्रतिशत में है, जबकि अखिल भारतीय अनुसूचित जाति आबादी का कुल (16.6%) है। हालाँकि, इसके बावजूद पंजाब में अभी तक बसपा समेत सभी राजनीतिक दलों से समुदाय के मजबूत नेताओं का उदय नहीं हो सका है। 

इस बात को ध्यान में रखना दिलचस्प होगा कि विभाजन पूर्व पंजाब में, अनुसूचित जाति के नेतृत्व ने विभाजन बाद के दौर से बेहतर प्रदर्शन किया था। वर्तमान दौर में बंटवारे से पहले के पंजाब में बाबू मंगू राम मुगोवालिया, सेठ किशन दास, मास्टर गुरवंत सिंह, गोपाल सिंह खालसा और चौधरी साधू राम की लोकप्रियता की बराबरी करने वाला एक भी अनुसूचित जाति का नेता मिलना आसान नहीं है।  

कांग्रेस पार्टी के द्वारा मौके की नजाकत को ध्यान में देखते हुए चन्नी को मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त करने की चुनावी रणनीति आगामी विधानसभा चुनाव में विविध अनुसूचित समुदाय को गोलबंद कर पाने में सफल रहेगी या नहीं, यह देखा जाना अभी शेष है।

पंजाब में अनुसूचित जातियां अन्य राज्यों में अपने समकक्षों की भांति एक सजातीय समुदाय नहीं हैं। वे पांच धर्मों – हिन्दुओं, सिखों, ईसाइयों, मुस्लिमों और बौद्धों के रूप में 39 जातियों में छितराए हुए हैं। इसके अलावा बड़ी संख्या में रविदसिया, रामदसिया, कबीरपंथी, बाल्मीकि, राधास्वामियों, सच्चा सौदा और कई छोटे छोटे स्थानीय पंथों जैसे संप्रदायों और धर्म समर्थकों में बंटे हुए हैं। 

39 जातियों में से दो जाति समूह कुल अनुसूचित जाति की आबादी (2011 की जनगणना में 31.94%) का तकरीबन 80% हिस्सा हैं। इन दो जाति समूहों में चार जातियां – बाल्मीकि और मजहबिया, चमार और आद-धर्मी हैं। इन दो मुख्य जाति समूहों में से प्रत्येक में अनुसचित जाति की आबादी का 40% से अधिक का हिस्सा है। 

राजनीतिक रूप से भी अनुसूचित जातियां मुख्य राजनीतिक दलों के वैचारिक आधार पर समान रूप से बंटे हुए हैं, जिन्होंने राज्य में क्षेत्रीय आधार पर उनकी जनसंख्या (माझा, मालवा, दोआबा) को लक्षित किया है। बाबू कांशीराम ने पंजाब में विभिन्न अनुसूचित जाति के समुदायों को राजनीतिक तौर पर एकजुट करने के लिए कड़ी मशक्कत की थी। लेकिन जब उन्होंने पाया कि उनके बीच में एकता को स्थापित करने में कई कठिनाइयाँ हैं, तो उन्होंने अपने आधार को उत्तरप्रदेश में स्थानांतरित कर लिया था।

अनुसूचित जातियों के बीच में राजनीतिक विभाजन भी राज्य में उनके लिए आरक्षित 25% में से दो जातियों बाल्मिकियों और मजहबियों के लिए 12.5% और शेष 37 जातियों के लिए 12.5% में स्पष्ट तौर पर प्रदर्शित होता है।

पिछले कई वर्षों से पंजाब के अनुसूचित जातियों के भीतर जातीय एवं धार्मिक खाई ने उन्हें अपनी विशिष्ट एवं व्यवहार्य राज्य-स्तरीय नेतृत्व को विकसित करने से रोक रखा है। इसकी एक अन्य संभावित वजह पंजाब में कमजोर ब्राहमणवादी प्रभाव, जो कि इस्लाम और सिख धर्मों के परिवर्तनकामी चरित्र के स्पष्ट एवं छिपी भूमिका की वजह से हो सकता है। इसके परिणामस्वरूप, हिंदी भाषी क्षेत्रों के विपरीत अनुसूचित जाति के नेतृत्व को पंजाब में अपनी खुद की मजबूत राजनीतिक पार्टी के निर्माण के लिए प्रेरणा शक्ति का अभाव है। 

पंजाब में अनुसूचित जातियों के प्रभावी नेतृत्व के उदय में विफलता की एक अन्य वजह समुदाय के भूमिहीन होने में हो सकती है (उनमें से 5% से भी कम काश्तकार हैं)। प्रभुत्वशाली भूस्वामित्व वाले समुदाय की तुलना में अनुसूचित जाति के लोग कहीं नहीं टिकते हैं। इनमें से अधिकांश खेत मजदूर के तौर पर काम करते हैं। ऐसे में एक विशिष्ट सामुदायिक नेतृत्व को विकसित कर पाने की मुश्किलात को देखते हुए, विभिन्न जाति-आधारित अनुसूचित जाति के धड़े 117 सीटों वाली पंजाब विधानसभा में 34 आरक्षित सीटों पर निर्वाचित होने के लिए मुख्य राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन कर लेते हैं।

डेरे किस प्रकार से पंजाब के राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित कर पाने में सक्षम हैं, विशेषकर जालन्धर जिले में स्थित डेरा सच खंड बालां?

विभिन्न डेरों (धार्मिक स्थलों) के अनुयायियों में से अधिकांश अनुसूचित जातियों से आते हैं। ये डेरे न सिर्फ निचली जातियों को गैर-भेदभावपूर्ण धार्मिक आसरा प्रदान करते हैं, बल्कि एक ऐसे समेकित सामाजिक क्षेत्र को भी प्रदान करते हैं जहाँ वे बिना किसी प्रकार के जाति, धर्म और वर्ग के पूर्वाग्रहों के समूह में आपस में घुलमिल सकते हैं। डेरे उन्हें सामाजिक गतिशीलता की सीढ़ी पर उपर की ओर चढने के लिए एक विशाल सामाजिक पूंजी प्रदान करते हैं। कई डेरों के पास अपनी खुद की स्वास्थ्य, शिक्षा और राशन की दुकान जैसी सुविधायें मौजूद हैं जो गरीब अनुसूचित आबादी की जरूरतों को पूरा करने का काम करती हैं।

डेरा सच खंड बालां, जालन्धर शहर से सात मील उत्तर दिशा में बालां गाँव की परिधि पर स्थित एक विख्यात रविदास डेरा है। आद धर्म आंदोलन के दौरान इसे प्रमुखता मिली। निचली जातियों के बीच में सामाजिक जागरूकता को विकसित करने के लिए आंदोलन के नेताओं द्वारा इसके आध्यात्मिक स्थान का उपयोग किया गया। तब से डेरा सच खंड बालां ने निचली जातियों के बीच में सामाजिक जागरूकता और सांस्कृतिक बदलाव को विकसित करने के लिए विशिष्ट पहल की है।  

इसके परिसर के भीतर एक पुस्तकालय है, एक स्थानीय भाषा में साप्ताहिक का प्रकाशन किया जाता है, और अनुसूचित जातियों के विभिन्न पहलूओं पर निःशुल्क साहित्य वितरित किया जाता है। इसके द्वारा एक अंग्रेजी माध्यम वाला स्कूल, एक 200 बिस्तरों वाला मल्टीस्पेशलिटी हॉस्पिटल; एक नेत्रालय और अनुसूचित जातियों के उत्थान में उनके साहित्यिक योगदान के लिए विद्वानों को सम्मानित किया जाता है।

डेरा सच खंड बालां के द्वारा किये गए सभी महत्वपूर्ण योगदानों में वाराणसी में विशालकाय श्री गुरु रविदास जन्म स्थान मंदिर का निर्माण सबसे महत्वपूर्ण है। पंजाब और प्रवासी अनुसूचित जाति के भारतीयों के सहयोग से निर्मित इस मंदिर के स्वर्णिम गुंबद के अनुष्ठानिक स्थापना को बसपा के अध्यक्ष बाबू कांशी राम द्वारा संपन्न किया गया था और तत्कालीन भारतीय राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने मंदिर के स्मारक द्वार का उद्घाटन किया था।

इस मंदिर ने संभवतः अनुसूचित जातियों के लिए उतना ही महत्व हासिल कर लिया है जितना कि मुसलमानों के लिए मक्का और सिखों के लिए अमृतसर के स्वर्ण मंदिर का स्थान है। 

डेरा बालां की तरह ही कई अन्य डेरों ने भी अपने अनुयायियों के लिए इसी प्रकार की सामाजिक कल्याण की सुविधायें स्थापित कर रखी हैं। डेरा सच खंड बालां द्वारा शुरू किये गए इन सभी अध्यात्मिक एवं सामाजिक कल्याण के उपायों ने जिस मात्रा में निचली जातियों की मुक्ति एवं सशक्तिकरण के लिए समृद्ध सामाजिक एवं सांस्कृतिक धरोहर को पैदा करने का काम किया है, उसे देखते हुए चुनावों के दौरान चुनावी लाभ की आस में विभिन्न राजनीतिक दलों का इन अनुसूचित जाति-बहुल डेरों की ओर खिंचे आने बेहद स्वाभाविक है।     

क्या आपको लगता है कि मुख्यमंत्री का अनुरोध अनुसूचित जातियों की पहचान के सुदृढ़ीकरण का एक संकेत है? क्या तारीख में बदलाव से चुनाव परिणामों पर कोई असर पड़ने जा रहा है?

16 फरवरी के दिन गुरु रविदास जयंती के मद्देनजर पंजाब के मुख्यमंत्री की ओर से पंजाब विधानसभा चुनाव की तारीख को टाल देने के अनुरोध की पहल की गई, क्योंकि इस दौरान पंजाब के एससी समुदाय के कई लोग गुरु रविदास के जन्मस्थान पर श्रृद्धांजलि अर्पित करने हेतु वाराणसी की ओर प्रस्थान करते हैं। इसके बाद, कई राजनीतिक दलों के द्वारा इसका समर्थन किया गया और चुनाव आयोग के ध्यानार्थ लाया गया कि बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति के श्रद्धालु समारोह के दिन से लगभग एक सप्ताह पहले से ही वाराणसी जाना शुरू कर देते हैं। ऐसे में मतदान की तारीख 14 फरवरी को तय करने से बड़ी संख्या में वे अपने मताधिकार से वंचित हो जायेंगे। राज्य सरकार, पंजाब के मुख्य चुनाव अधिकारी सहित कई राजनीतिक दलों एवं अन्य संगठनों से इस संबंध में इनपुट प्राप्त करने के बाद चुनाव आयोग ने मतदान की तारीख को स्थगित कर 20 फरवरी के लिए निर्धारित कर दिया है।

पंजाब में रविदसिया प्रमुख अनुसूचित जाति समुदायों में से एक हैं। वे मुख्य रूप से (करीब 12 लाख) दोआबा क्षेत्र में केंद्रित हैं। उनमें से अधिकांश डेरा सच खंड बालां के अनुयायी हैं जहाँ मुख्यमंत्री चन्नी ने हाल ही में 50 करोड़ रूपये की लागत से बनने वाले अत्याधुनिक गुरु रविदास बानी अधियान (शोध) केंद्र की स्थापना की घोषणा की और इसके लिए 25 करोड़ रूपये का एक चेक सौंपा है।

डेरा सच खंड बालां रविदसिया समुदाय के लिए एक केंद्रीय सामाजिक-अध्यात्मिक स्थान होने के कारण; तकरीबन सभी राजनीतिक दलों के नेताओं के लिए समृद्ध एससी वोट-बैंक को निगाह में रखते हुए यहाँ की यात्रा करना और डेरा संतों का आशीर्वाद लेना अनिवार्य सा बन गया है।

इस महत्वपूर्ण संदर्भ को ध्यान में रखते हुए कि गुरु रविदास जयंती के चलते पंजाब विधानसभा चुनाव का स्थगित होना अनुसूचित जाति की पहचान के सुदृढ़ीकरण का एक स्पष्ट संकेत देता है और सभी राजनीतिक दल आगामी चुनावों में उनके वोटों की चाह में निश्चित रूप से रविदसिया समुदाय के लिए अपने लगावों को प्रमुखता से व्यक्त करेंगे।

वर्तमान में प्रोफेसर रोंकी राम, वॉल्वरहैम्प्टन (यूके) विश्वविद्यालय के (कला संकाय, व्यवसाय एवं सामाजिक विज्ञान विभाग) में विजिटिंग प्रोफेसर हैं। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Punjab yet to see Strong SC Leaders Despite 32% Dalit Population: Prof Ronki Ram

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