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भारत
राजनीति
वामपंथ ने नहीं, बल्कि ममता की तृणमूल ने बंगाल में आरएसएस को बढ़ावा दिया है
टीएमसी-बीजेपी के द्वंद को कृत्रिम रूप से पैदा किया गया है, बावजूद इसके कि वामपंथी दल ही हैं जो बंगाल में दोनों से लड़ने वाली असली ताक़त के रूप में मौजूद हैं।
दिप्शिता धर
18 May 2019
Translated by महेश कुमार
ममता की तृणमूल ने बंगाल में आरएसएस को बढ़ावा दिया है

हाल के दिनों में, समाचार पत्रों में लेखों की एक बाढ़ देखी गई जिनमें भविष्यवाणी की गई कि आज की तारीख़ में भारतीय जनता पार्टी बंगाल की पसंदीदा पार्टी बन गई है, यह कवायद बिना किसी विश्लेषण के की जा रही है, क्यों? "द वायर" में 17 मई को एक लेख प्रकाशित हुआ जिसे ममता बनर्जी की जीवनी लिखने वाली मोनोबिना गुप्ता ने लिखा है, उन्होंने इस सवाल का जवाब देने की कोशिश की और आश्चर्य की बात यह है कि वे इस निष्कर्ष पर बिना कोई मेहनत किए पहुँच गईं कि वामपंथी ताक़तें भाजपा को बढ़ने में "मदद" कर रही हैं। नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ सच्चे धर्मयुद्ध के रूप में बनर्जी को पेश करना पहले से ही बुद्धिजीवियों के एक वर्ग के बीच प्रवृत्ति थी, लेकिन 'ममता और मोदी' द्वंद का निर्माण एक ताज़ा आविष्कार है। इस बार, इसमें मुख्यधारा के मीडिया के साथ साथ कुछ "वैकल्पिक" मीडिया के पोर्टल भी जुड़े हुए हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव को - विशेष रूप से बंगाल के मामले में - "सबाल्टर्न" की अंतिम लड़ाई के रूप में देखा जा रहा है। "आयरन सिंहासन" की लड़ाई को एक पूर्व चाय बेचने वाले और एक पूर्व स्लम निवासी के बीच देखा जा रहा है। गेम ऑफ़ थ्रोन्स के जॉन स्नो की तरह, दीदी (बनर्जी) को भी कई लोगों का समर्थन और सहानुभूति मिली है, ख़ास तौर पर उन लोगों से जो लोग किसी भी तरह के जीवित अनुभव के बिना लेख और फ़ेसबुक पोस्ट लिखते हैं।

अब, इस पूरे परिदृश्य में तीन केंद्रीय प्रश्न पैदा होते हैं।

1. भाजपा को मुख्य प्रतिद्वंद्वी घोषित करने का आधार क्या है? क्या यह पिछले चुनावों में पार्टियों को मिले वोट के आधार पर तैयार सांख्यिकीय है?

यदि हाँ, तो नीचे दिए गए कुछ सरल ग्राफ़ पर एक नज़र डालें। बीजेपी का मुख्य विपक्ष होने का विचार या दावा कितना नकली है इसका अंदाज़ा आप वाम मोर्चा (एलएफ़) को 2016 में विधानसभा चुनाव में मिले वोट शेयर से लगा सकते हैं जो बीजेपी की तुलना में बहुत अधिक थे। चूंकि उस चुनाव में कांग्रेस के साथ लेफ़्ट का गठबंधन था, इसलिए टीएमसी, भाजपा विरोधी वोट के रूप में इसे संयुक्त वोट शेयर मानने में कोई ऐतराज़ नही होगा। यहाँ वाम मोर्चा को लगभग 26 प्रतिशत, कांग्रेस को 12 प्रतिशत, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को 10 प्रतिशत और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को 45 प्रतिशत वोट मिले। इससे ज़ाहिर है कि, एलएफ़+कांग्रेस, बीजेपी और टीएमसी के सामने असली चुनौती है। 

Left in Bengal1 11.jpg

यदि कोई बंगाल में विपक्षी पार्टी के बारे में इस सरल और स्पष्ट विश्लेषण से संतुष्ट नहीं है, तो हम कुछ और अधिक आंकड़ों को देख सकते हैं, जो चुनाव आयोग की वेबसाइट पर आसानी से उपलब्ध हैं (इसलिए शायद जो हमारे जीडीपी डेटा का हश्र हुआ उसे यहाँ दोहराया नहीं जा सकेगा)।

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भाजपा, जिसे कि राज्य का 'उभरता हुआ' शासक दल माना जा रहा है, उसकी 293 सीटों में से 263 सीटों पर ज़मानत ज़ब्त हुई, जिन पर उसने चुनाव लड़ा था, जबकि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (सीपीआईएम) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) दोनों की किसी भी सीट ज़मानत ज़ब्त नहीं हुई। जो औसत वोट भाजपा अपनी सीटों पर हासिल करने में सक्षम रही वह मात्र 11 प्रतिशत है, जिसका अर्थ है कि उनके वोट अत्यधिक तौर पर स्थानीय हैं जो कुछ जगहों पर संगठित हैं लेकिन एक पार्टी के रूप में, उनकी समग्र-बंगाल में स्वीकृति नहीं है। प्रमुख वामपंथी दल मात्र 27 सीटें जीतने के बावजूद लगभग 40 प्रतिशत वोट हासिल करने में सफ़ल रहे। कांग्रेस के साथ भी ऐसा ही है, हालांकि उन्होंने जितनी सीटें जीतीं, उनकी संख्या अधिक है। दूसरी ओर टीएमसी 45 प्रतिशत औसत वोट शेयर के साथ 211 सीटों पर क़ब्ज़ा करने में सफ़ल रही। इसलिए, औसतन, वाम-कांग्रेस गठबंधन को अपनी सीटों पर टीएमसी के 45 प्रतिशत औसत वोट के मुक़ाबले औसत 37 प्रतिशत वोटों के साथ एक विश्वसनीयता मिलती है।

अब, अगर यह सरल गणित भी यह समझने के लिए पर्याप्त नहीं है कि बंगाल में प्रतिस्पर्धी दल कौन हैं, तो आइए अब हम इसे व्यक्तिगत सीटों के आधार पर ले जाते हैं, क्योंकि हमारे ऊँचे महलों वाले शिक्षाविद एक सार्वभौमिक नियम के बजाय विशेष घटनाओं को पसंद करते हैं।

नीचे दिए गए पाई चार्ट में सीटों का हिस्सा दिखाया गया है, जहाँ वाम, टीएमसी, कांग्रेस और भाजपा, प्रत्येक उपविजेता के रूप में दिखाए गए हैं। वामपंथी 58 प्रतिशत से अधिक सीटों पर दूसरे स्थान पर आए, और अगर कांग्रेस की सीटों को भी जोड़ा जाए तो यह 72 प्रतिशत से अधिक होगा। भाजपा 2 प्रतिशत सीटों पर दूसरे स्थान पर आई और 1 प्रतिशत सीटों को जीत पाई। इसलिए, आंकड़े कहते हैं कि 2016 के चुनाव तक, मुख्य प्रतिद्वंद्वी या द्वंद टीएमसी और ग़ैर-भाजपा गठबंधन के बीच था। भाजपा ने 291 सीटों पर चुनाव लड़ा और उनमें से जिन 5 सीटों पर बीजेपी दूसरे स्थान पर आई थी, उनमें से एक चाकुलिया सीट थी, और इस सीट पर बीजेपी को ऑल इंडिया फ़ॉर्वर्ड ब्लॉक के अली इमरान रमज़ ने हराया था, जो लंबे समय से वाम मोर्चे के महत्वपूर्ण सहयोगियों में से एक हैं। 

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यहाँ सवाल भाजपा या किसी को भी खारिज़ करने का नहीं है। ऐसी पार्टी का मुख्य विपक्ष के रूप में प्रचार करना जिसने पिछले चुनाव में मात्र 1 प्रतिशत सीट जीती थी वह तीन साल के भीतर सबसे बड़ी दावेदार कैसे बन जाएगी! यह या तो तथ्यात्मक रूप से ग़लत है या जान-बूझकर ऐसा लिखा जा रहा है। क्या ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि बीजेपी का डर पैदा कर बंगाल में टीएमसी के पक्ष में "मुस्लिम वोट बैंक" मज़बूत किया जा सके? या बीजेपी को टीएमसी को चुनौती देने के रूप में इसलिए प्रचारित किया जा रहा है ताकि टीएमसी विरोधी वोटों को भाजपा के पक्ष में मज़बूत किया जा सके?

2. इस प्रचार के पीछे की सच्चाई क्या है कि आज के बीजेपी समर्थक पूर्व माकपा समर्थक हैं, और यह कि कई टीएमसी समर्थक आज पूर्व माकपा या कांग्रेस समर्थक होंगे?

मतदाता कभी भी अपनी निष्ठाओं को बदल सकते हैं, चुनावी लोकतंत्र ऐसे ही काम करता है। लेकिन शीर्ष नेताओं के बारे में क्या? वास्तव में भाजपा का पेट कौन भर रहा है?

चूंकि संख्या के आधार पर किया विश्लेषण टीएमसी-बीजेपी द्वंद का समर्थन नहीं करते हैं, इसलिए हम "द वायर" द्वारा प्रकाशित एक अन्य लेख को लेते हैं और लोगों द्वारा "जहाज़ों से कुदने" पर विचार करते हैं कि भाजपा कैसे और क्यों शासन करने जा रही है। लेख में माकपा (सीपीआईएम) के एक पूर्व विधायक और एक आदिवासी नेता खगेन मुर्मू के भाजपा में शामिल होने का उल्लेख किया गया है, जिसे एक महत्वपूर्ण उदाहरण के रूप में पेश किया गया है कि वामपंथी कैसे भाजपा का पेट भर रहे हैं। आइये हम अपनी स्मृति को ताज़ा करें और कुछ और नामों को याद करें:

• मुकुल रॉय (राष्ट्रीय उपाध्यक्ष टीएमसी, पूर्व रेल मंत्री और राज्यसभा के सदस्य)
• अनुपम हाज़रा (टीएमसी सांसद बोलपुर)
• सौमित्र ख़ान (टीएमसी सांसद, बिष्णुपुर)
• बैरकपुर औद्योगिक क्षेत्र के अर्जुन सिंह ("बाहुबली" और चार बार टीएमसी के विधायक रहे हैं)
• शंकुदेब पांडा (टीएमसी के राष्ट्रीय नेता)
• भारती घोष (कुख्यात पुलिस प्रमुख जिन्होंने ममता को "माँ" कहा था)
• नीतीश प्रमाणिक (11 आपराधिक मामलों वाले टीएमसी युवा नेता)

उपरोक्त नाम के लोग अब भाजपा का हिस्सा हैं, और पांडा को छोड़कर, सभी इस लोकसभा चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार भी हैं। अगर सिर्फ़ खगेन मुर्मू को दिखा कर, आप भाजपा के सहयोगी के रूप में एक पूरी पार्टी को ब्रांड बनाते हैं, तो टीएमसी को क्या कहा जाना चाहिए? ममता मोदी की क़ब्र कैसे खोद सकती हैं? अब, जैसा कि एक तर्कसंगत संसदीय लोकतंत्र में कहा जा सकता है कि किसी को किसी के साथ पक्षपात की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, फिर भी भारतीय संसदीय राजनीति के कई शानदार लक्षणों में से एक है जोड़-तोड़ का व्यापार। और यही वह वास्तविक प्रश्न है। बंगाल में बीजेपी जिस वजह से मैदान में है, वह बड़ी ही ख़तरनाक बात है, जिसके बारे में "राजनीतिक विश्लेषक" पूरी तरह से अनजान हैं या चुप रहना पसंद करते हैं। इस अभिव्यक्ति में ख़तरा यह है कि यह एक विकल्प के रूप में वामपंथ की संभावना को नकारता है।

मोदी और ममता दोनों ही अपने अभियान में एक ही बात कह रहे हैं कि अगर वामपंथ को वोट देते हैं तो आप अपना वोट बर्बाद कर रहे हैं। लेकिन जिन पार्टियों के पास लगभग तीन साल पहले 26 प्रतिशत (सबसे बड़ा ब्लॉक) वोट था, उन्हें इस तरह क्यों वर्णित किया जाना चाहिए? ताकि लोग मोदी या ममता में से किसी एक को चुनें। इन तीन वर्षों में, न केवल राष्ट्रीय स्तर पर, बल्कि बंगाल में भी, सामूहिक बल के रूप में वामपंथ हर तरह के जनसमूह जन आंदोलन में सबसे आगे रहा है। यहाँ तक ​​कि कट्टर आलोचकों ने भी स्वीकार किया है कि नबना अभियान, सिंगूर किसान लोंग मार्च और निश्चित रूप से, विभिन्न ब्रिगेड ग्राउंड सामूहिक सभाओं में आम लोगों की भारी भीड़ देखी गई है। हाल ही में दो दिवसीय अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन की औध्योगिक हड़ताल टीएमसी के हमले के बावजूद एक बड़ी सफ़लता थी और यहाँ तक ​​कि सड़कों पर उतरने वाले लोगों को भी इसे सफ़ल बनाने के लिए गिरफ़्तार किया गया था। कहीं भी बीजेपी को टीएमसी के ख़िलाफ़ किसी भी तरह के बड़े पैमाने पर आंदोलन में नही देखा गया है, फ्लॉप ब्रिगेड रैली का तो यहाँ ज़िक्र न करें तो बेहतर होगा। न ही कहीं भी टीएमसी को बीजेपी के ख़िलाफ़ आंदोलन खड़ा करते हुए पाया गया (राजनीतिक नेताओं को एक मंच पर लाना कोई आंदोलन नहीं है)। तो, यह क्यों कहा जाना चाहिए कि लड़ाई इन दोनों के बीच है? ताकि वामपंथी अदृश्य हो जाए? इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि विजेता कौन है, क्योंकि बाद में मज़दूर वर्ग की ख़ातिर बोलने वाला कोई नहीं होगा?

3. प्रतिस्पर्धात्मक सांप्रदायिकता और पिछले 7 वर्षों ने उसे तहस नहस कर दिया जिसके लिए पश्चिम बंगाल को जाना जाता था। विभाजन के बाद जो हिंदू शरणार्थियों आए उन्होंने तब हिंदू राष्ट्र की मांग नहीं की थी- तो अब क्यों?

एनडीए शासन के दौरान भी, पश्चिम बंगाल में किसी भी प्रकार का भाजपा का प्रभाव नहीं देखा गया था। हाल के इतिहास में कुछ सबसे अधिक ध्रुवीकरण की घटनाओं के दौरान, जिसमें बाबरी मस्जिद (1992) और उसके बाद, या गुजरात नरसंहार (2002) का विध्वंस था, बंगाल शांत रहा और कोई बड़ी सांप्रदायिक हिंसा यहाँ नहीं हुई। दरअसल, 34 वर्षों के वामपंथी शासन के दौरान, सांप्रदायिक दंगे यहाँ दुर्लभ थे। लेकिन 2011 में तृणमूल (टीएमसी) के सत्ता में आते ही सांप्रदायिक संघर्ष बढ़ने लगा। इतना ही नहीं, आरएसएस द्वारा संचालित शाखाओ की संख्या जो 2013 में 750 के आस पास थी, 2018 में बढ़कर 1,279 हो गई (71 प्रतिशत की बढ़ोतरी)। राम नवमी, हनुमान जयंती, यहाँ तक कि ब्राह्मण भोज जैसे त्यौहार, जो पूरी तरह से बंगाली हिंदू कल्पना के सामने अलग-थलग थे, न केवल लोकप्रिय हुए बल्कि टीएमसी और बीजेपी के बीच उन लोगों की सुविधा और नियुक्ति में तीव्र प्रतिस्पर्धा ने उन्हें और वैध बना दिया।
2014 में केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने के बाद, बंगाल में सांप्रदायिक दंगों और समाज के सांप्रदायिकरण ने एक अभूतपूर्व गति प्राप्त की, जैसा कि निम्नलिखित ग्राफ़ (संसद की प्रतिक्रियाओं से इकट्ठा किया गया डेटा) से देखा जा सकता है।

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ममता बनर्जी और उनकी पार्टी का सांप्रदायिक इतिहास शायद ही चर्चा का विषय बना हो, 2004 में गुजरात नरसंहार के बाद बीजेपी के साथ उसके गठबंधन की चर्चा को छोड़ दिया गया और जिसे हर कोई आसानी से भूल भी गया है। कोई भी राजनीतिक लाभ के लिए धार्मिक प्रतीकों के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल के बारे में बात क्यों नहीं करता है, मीडिया स्टंट करने के लिए अनुष्ठानों का बेशर्म विनियोजन जिसके कारण वास्तव में धर्म का राजनीतिकरण हुआ और इस प्रकार, वैचारिक रूप से आरएसएस ने नफ़रत और विष का प्रचार करने के लिए ज़मीन तैयार की? बंगाल में ध्रुवीकरण और इसे वापस अंधे युग में वापस ले जाने की उसकी शातिर भूमिका के बारे में क्या?

यदि ऐसा कोई भी बुरा सपना सच होता है, तो वामपंथी इसकी "ज़िम्मेदारी नहीं लेंगे"। पिछले 7 वर्षों से, ममता के नेतृत्व में बंगाल में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ है। नौकरियों और रोज़गार की कमी ने राज्य के कई शिक्षित युवाओं को हिला कर रख दिया है, जिनके पास कोई विकल्प नहीं था, इसलिए वे "टीएमसी मिलिशिया" में शामिल हो गए, ऐसे सिंडीकेट्स में यह सुनिश्चित करने के लिए कि वे भूख से नहीं मर रहे हैं। पिछले पंचायत चुनावों में, एक लड़का जिसने एमए और बी.एड पूरा किया था, टीएमसी की ओर से एक बूथ पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश करते हुए स्थानीय लोगों द्वारा पकड़ा गया था। अन्य भाग गए लेकिन वह फंस गया और उसे पीट-पीटकर मार डाला गया। बाद में रिपोर्टों से पता चला कि उसका टीएमसी में यह पहला दिन था। उसे एक स्थानीय नेता ने कहा था कि अगर वह अपना "कर्तव्य" बख़ूबी निभाते हैं तो वह उनके लिए नौकरी की व्यवस्था करेंगे।

यही वह मोड़ है जहाँ पर ममता बनर्जी ने बंगाल को ला दिया है जिसमें वह शिक्षित, हताश, कमज़ोर, बेरोज़गार युवाओं के समूह का उपयोग अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए कर रही है। आर.एस.एस. और तृणमूल साथ-साथ है, इसलिए इस तनाव भरे माहौल में भी आप बीजेपी को सारदा चिट फ़ंड, या नारद स्टिंग ऑपरेशन के बारे में एक शब्द बोलता नहीं पाएंगे। टीएमसी के उन सांसदों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए इन सभी वर्षों में कोई भी संसदीय आचार समिति की बैठक नहीं हुई है जो नियमित रूप से जेल जाने वाले आगंतुक हैं।

नहीं, भाजपा अगर चुनाव जीतती है तो वाम मोर्चा इसकी “ज़िम्मेदारी नहीं लेगा”, क्योंकि आज़ भी ये माकपा के कमरुल शेख़ हैं, जिन्होंने खड़गौश, बर्दवान में पोलिंग एजेंट बनने का साहस करके अपनी जान दे दी। इस बात का निरंतर प्रचार जो लोगों के बीच एक पार्टी को "ग़ैर-मौजूद" और "तुच्छ" मानता है, ऐसी पार्टी जिसके पास तीन साल पहले सबसे बड़ा विपक्षी वोट था, और शिक्षित लोग ऐसी पार्टी की ग़ैर-मौजूदगी की झूठी कथा को ख़रीद भी रहे हैं, इसे फैला भी रहे हैं - यह वे लोग हैं जिन्हें ख़ुद इसकी ज़िम्मेदारी लेनी कि उन्होंने परेशान लोगों को गुमराह करने का अपराध किया है। त्रिपुरा से केरल तक, यह वामपंथ ही है जो आरएसएस और उनके सहयोगी टीएमसी से लड़ रहे हैं। प्रचार के मक़सद से लिखे लेखों का एक समूह जो भाजपा के लिए टीएमसी विरोधी वोट को मज़बूत करना चाहता है और वे अंतिम इबारत नहीं लिखेंगे। कामकाजी लोगों के लिए संघर्ष जारी रहेगा, भले ही संसद में एक भी सीट न हो।

दिप्शिता धर एक अनुसंधान विद्वान और छात्र कार्यकर्ता है। लेखक द्वारा व्यक्त किए गए दृश्य व्यक्तिगत हैं।

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