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हम भारत के लोग... और हमारा संविधान
नागरिकों का यह कर्तव्य है कि लोकतंत्र के पहरेदार संविधान की रक्षा में हमेशा तत्पर रहें ताकि विचारधारा की आड़ में किसी भी राजनीतिक दल की सरकार संविधान से खिलवाड़ करने की हिमाक़त न कर सके।
मीनू जैन
01 Jan 2020
constitution of india
सीएए के विरोध में इंडिया गेट पर संविधान की प्रस्तावना का पाठ करते हुए आम लोग।

भारत के संविधान की मूलभावना के साथ खिलवाड़ करते हुए मोदी सरकार ने नागरिकता कानून, 1955 में जो नया संशोधन किया है उसने देश की राजनीतिक व सामाजिक चेतना को झकझोर कर रख दिया है। इसके विरोध में लगातार धरना–प्रदर्शन जारी हैं। केंद्र एवं भाजपा शासित प्रदेशों में पुलिस के बल पर प्रतिरोध की धार को कुंद करने के 'कुत्सित' प्रयास लगातार जारी है।

इस पूरे घटनाक्रम के दौरान एक अप्रिय सच्चाई जो उभरकर सामने आई वह है- देश की अधिसंख्य आबादी में संविधान के बारे में जानकारी का नितांत अभाव!

संविधान विशेषज्ञों, कुछ बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और नागरिकशास्त्र के विद्यार्थियों को छोड़ दें तो देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा केंद्र सरकार द्वारा संविधान की मूलभावना के उल्लंघन की बात सुनकर भौचक्का सा रह गया।

भला हो सोशल मीडिया का जिसने देश के संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप और हालिया नागरिकता संशोधन कानून के मध्य भारी विरोधाभास को विस्तार से रेखांकित करने में महती भूमिका निभाई।
इससे पहले भी एक और दिलचस्प बात यह देखने में आई थी कि सत्ताधारी दल के प्रचारतंत्र की वजह से अधिकांश भारतीय ‘धारा 370’ शब्द से परिचित तो थे मगर उनमें से दस प्रतिशत को भी यह जानकारी नहीं थी कि यह संविधान का एक अनुच्छेद है और इसे निरस्त करके सरकार ने संविधान के साथ छेड़छाड़ की है।

लेकिन सवाल यह है कि सोशल मीडिया पर कितने भारतीय सक्रिय हैं और यदि सक्रिय हैं भी तो उनमें से कितनों को संविधान की जानकारी है? अफ़सोस कि इस सवाल का जवाब भी निराशाजनक ही है। इसी अज्ञानता के चलते यदा–कदा जब भी संविधान चर्चा में आता है तो देश की बहुसंख्य आबादी बगलें झाँकने लगती है।

हाल ही में नागरिकता कानून में किया गया संशोधन भारत के संविधान की मूलभावना के साथ स्पष्टतया खिलवाड़ करता है। संविधान की प्रस्तावना की प्रथम पंक्ति में ही भारत को एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ राष्ट्र घोषित किया गया है जिसका अर्थ है कि राज्य किसी एक धर्म विशेष का पोषक अथवा पक्षधर नहीं है अपितु उसकी दृष्टि में सभी धर्म एक समान है। जबकि नया नागरिकता कानून स्पष्ट रूप से एक धर्मविशेष का निषेध करता है और उस धर्म के अनुयायियों को नागरिकता प्रदान करने से इंकार करता है। 

यह न केवल मुस्लिमों बल्कि श्रीलंकाई तमिलों के साथ भी भेदभाव करता है। इसके अतिरिक्त संविधान निर्माताओं ने प्रस्तावना में जिस ‘ भाईचारे की भावना‘ को पोषित करने की बात करने की बात की है उस पर यह कानून सीधे कुठाराघात करता है। देखते ही देखते उस धर्म विशेष के अनुयायी करोड़ों भारतीय नागरिक कानून की नज़र में दोयम दर्जे के नागरिक सरीखे हो गए।

इतना ही नहीं, केंद्र एवं भाजपा शासित प्रदेशों की सरकारें इस कानून का विरोध करने वाली आवाजों को जिन बर्बरतापूर्ण तरीकों से कुचल रही हैं वह संविधान के अनुच्छेद 12-35 में वर्णित नागरिकों  के मौलिक अधिकारों की हत्या है। संविधान धर्म, जाति, लिंग, नस्ल और जन्मस्थान के भेदभाव के बिना सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता, अभिव्यक्ति की आजादी इत्यादि के छह मौलिक अधिकार प्रदान करता है। इन छह में से किसी एक अधिकार का भी उल्लंघन होने पर संवैधानिक उपचारों का सातवां मौलिक अधिकार देता है। आज स्थिति यह है कि नागरिकता कानून का शांतिपूर्ण विरोध कर रहे हजारों नागरिक जेलों में ठूंस दिए गए हैं जो उनके मौलिक अधिकारों का सरासर उल्लंघन है।

संविधान के अनुच्छेद 370 में जम्मू- कश्मीर रियासत के भारत संघ में विलय की विशेष शर्तों एवं प्रावधानों का उल्लेख किया गया है। 5 अगस्त 2019 को कश्मीर की जनता को बिना कोई पूर्व सूचना दिए अथवा उनकी राय लिए बिना केंद्र की भाजपा सरकार ने इस अनुच्छेद को निरस्त कर जम्मू- कश्मीर राज्य को तीन केंद्र-शासित क्षेत्रों में विभाजित कर दिया जो स्पष्ट तौर पर संविधान से छेड़छाड़ का मामला है। इससे भी ज्यादा चिंता का विषय यह है कि 5 अगस्त के बाद से ये तीनों क्षेत्र बाकी देश और विश्व से अलग–थलग पड़े हुए हैं। पांच महीनों से फोन, इंटरनेट बंद है। कश्मीर के मुख्य राजनीतिक दलों के नेता नज़रबंद हैं। चप्पे–चप्पे पर सुरक्षाबल तैनात हैं। एक अघोषित आपातकाल लागू है।

हैरत होती है कि जो संविधान इस देश के लोकतंत्र की रीढ़ है, जिसके आधार पर देश का शासन–प्रशासन चलाया जाता है, जिसमें उल्लिखित  मौलिक अधिकारों की वजह से हम खुली हवा में सांस ले पाते हैं उसी के बारे में हमारी जानकारी शून्य के बराबर है।

कितने भारतीयों को जानकारी है कि हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में संविधान की हस्तलिखित मूल प्रतियाँ संसद के पुस्तकालय में एक विशेष हीलियम कवच के भीतर सुरक्षित रक्खी हुई है?

कितने लोगों को जानकारी है कि हमारा संविधान ब्रिटिशकालीन भारत शासन अधिनियम, 1935 पर आधारित है और यही वजह है हमने भी ब्रिटेन के समान शासन की संसदीय प्रणाली को अपनाया है। इसके लगभग 250 अनुच्छेद इसी अधिनियम से लिए गए हैं?

कितने नागरिकों को जानकारी है कि राज्यों में राष्ट्रपति शासन संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत लगाया जाता है और संविधान किन परिस्थितियों में इसकी इजाज़त देता है?

कितने लोगों को जानकारी है कि संविधान में (सातवीं अनुसूची, अनुच्छेद 246) केंद्र व राज्य सरकारों के अधिकार-क्षेत्र का स्पष्ट बंटवारा किया गया है मगर कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर केंद्र व राज्य, दोनों सरकारें कानून बना सकती हैं?  

कितने भारतीयों को जानकारी है कि संविधान में लोकतंत्र के मूलाधार नागरिकों के मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 12-35) के साथ-साथ कर्तव्यों (अनुच्छेद 51A) का भी उल्लेख किया गया है ताकि वे जिम्मेदार नागरिक बनें? अन्य कर्तव्यों के अलावा ऐसी प्रथाओं का निषेध करने को कहा गया है जो स्त्री-सम्मान के विरुद्ध हों। पर्यावरण की रक्षा करने, वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने और सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखने की विशेष हिदायत दी गई है।

कितने लोगों को मालूम है की भाग-4 में वर्णित राज्यों के नीति-निर्देशक तत्व एक जनकल्याणकारी राज्य की स्थापना करते हैं?

भारत का संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है। विभिन्न देशों के संविधानों का अध्ययन करने के बाद उनकी अनेक विशेषताओं को नवजात लोकतंत्र की जरूरतों के मुताबिक आत्मसात किया गया। संविधान सभा के 389 सदस्यों ने 2 वर्ष,11 माह और18 दिनों के अथक परिश्रम के उपरांत इसके ड्राफ्ट को अंतिम रूप दिया। बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे।

सम्मान से उन्हें ‘भारतीय संविधान का जनक’ कहा जाता है। गौरतलब है कि 114 दिनों तक गंभीर विचारमंथन के उपरांत कुल 7,635 प्रस्तावित संशोधनों में से  2,473 संशोधनों को स्वीकृत किया गया। मूल संविधान 395 अनुच्छेद (धारा), 8 अनुसूची और 22 भागो में विभक्त था। समय – समय पर किए गए संशोधनों के बाद वर्तमान में संविधान के 448 अनुच्छेद 12 अनुसूचियां हैं और यह 25 भागों में विभाजित है।

संविधान में संशोधन का अधिकार

अनुच्छेद 368 के अनुसार संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार दिया गया है। संविधान में संशोधन को दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत से पारित किया जाना आवश्यक है। संशोधन पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन नहीं बुलाया जा सकता। ऐसा केवल वित्त विधेयक पारित करवाने के लिए किया जा सकता है। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद संशोधन लागू हो जाता है। राज्य संविधान में संशोधन का प्रस्ताव नहीं कर सकते मगर अनुच्छेद 368 में संशोधन के लिए कम से कम आधे राज्यों की स्वीकृति आवश्यक है। केंद्र शासित प्रदेशों की कोई भूमिका संशोधन में नहीं होती। एक कठोर संविधान होने के बावजूद इसमें अब तक 103 संशोधन किए जा चुके हैं।

संसद संविधान के मूलभूत ढाँचे में संशोधन नहीं कर सकती। ‘केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य’ केस में संविधान के ‘मूलभूत ढांचे‘ को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया गया है जिसमें कहा गया कि संसद (1) संविधान की सर्वोच्चता, (2) गणतंत्रात्मक लोकतंत्र, (3) धर्मनिरपेक्ष स्वरूप, (4) कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के मध्य शक्ति पृथक्करण, (5) संघीय ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती।

स्वरूप संघीय आत्मा एकात्मक

भारतीय संविधान विश्व का एक ऐसा अनोखा संविधान है जिसमें संघवाद के साथ एकात्मक प्रणाली का एक ऐसा अद्भुत सामंजस्य बैठाया गया है जो किसी भी स्थिति में देश की एकता और अखंडता को छिन्न-भिन्न होने से बचाता है। एकात्मक संविधानों की भांति आपातकाल में केंद्र को शक्तिशाली बनाया गया है।

संघीय शासन के बावजूद एक संविधान, इकहरी नागरिकता, एक सर्वोच्च न्यायालय, तीनों सेनाओं का एक प्रमुख राष्ट्रपति, केंद्र द्वारा राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति, राज्यों में राष्ट्रपति शासन, अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाएं, केन्द्रीय कर, भारतीय नागरिकों को देश के किसी भी राज्य में बसने और आजीविका कमाने का निर्बाध अधिकार आदि कई प्रावधानों के ज़रिए देश को एकता के सूत्र में बांधे रखा गया है। साथ ही केंद्र एवं राज्य सरकारों के मध्य वित्तीय संसाधनों के बंटवारे की स्पष्ट व्याख्या की गई है ।

शक्ति पृथक्करण एवं नियंत्रण एवं संतुलन का सिद्धांत

शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत राज्य को सर्वाधिकारवादी होने से बचाता है। इसके अनुसार राज्य की शक्ति को कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में विभाजित कर दिया है। हालांकि संसदीय लोकतंत्र होने के कारण भारत में विधायिका और कार्यपालिका में पूर्ण शक्ति पृथक्करण नहीं हो पाया है। इनकी निरंकुशता पर नियंत्रण रखने के लिए ‘नियंत्रण एवं संतुलन का सिद्धांत’ अपनाया गया है।

कार्यपालिका (राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री व मंत्रिमंडल) विधायिका (संसद) में से ही चुनी जाती है। राष्ट्रपति एवं न्यायाधीशों को संसद महाभियोग प्रस्ताव पारित कर पद से हटा सकती है। संसद दवारा पारित कानून यदि संविधान का उल्लंघन करता है तो सर्वोच्च न्यायालय ज्यूडीशियल रीव्यू के माध्यम उसे निरस्त या संशोधित कर सकता है। संसद अविश्वास प्रस्ताव पारित करके सरकार को हटा सकती है।  

रोचक तथ्य

संविधान की मूल प्रति प्रेम बिहारी नारायण रायजादा द्वारा हस्तलिखित है। उन्होंने 6 महीने की अवधि में इस काम को अंजाम दिया। जब जवाहरलाल नेहरू ने उनसे लेखन के मानदेय के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने जवाब में संविधान के प्रत्येक पृष्ठ पर अपना नाम और अंतिम पृष्ठ पर अपने साथ अपने पितामह का नाम भी लिखने की अनुमति चाही। नेहरू ने इनकी इच्छा का मान रक्खा।

मूल प्रति के प्रत्येक पृष्ठ के हाशियों/किनारों को शान्ति निकेतन शैली में बेल–कंगूरों से सजाया गया है। प्रख्यात चित्रकार नंदलाल बोस एवं राममनोहर सिन्हा ने प्रत्येक पृष्ठ के शीर्षभाग पर विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक प्रागैतिहासिक सिन्धु सभ्यता (प्रथम पृष्ठ), नालंदा विश्वविद्यालय, देश की साझी विरासत के अनेक प्रमुख किरदारों, लंका-विजय से लौटते भगवान राम (पृष्ठ छह), अर्जुन को गीता का उपदेश देते श्रीकृष्ण, बुद्ध, महावीर, नटराज, गुरु गोविन्दसिंह, वैदिक-काल के गुरुकुल (पृष्ठ तीन), भगीरथ द्वारा गंगावतरण, बौद्ध धर्म अंगीकार करते सम्राट अशोक, विक्रमादित्य का दरबार, अकबर, शिवाजी महाराज,टीपू सुल्तान, रानी लक्ष्मीबाई को चित्रांकित किया है।

इसके अतिरिक्त स्वाधीनता संग्राम के कई महत्वपूर्ण पलों जैसे महात्मा गांधी की दांडी यात्रा, नोआखाली में साम्प्रदायिक सद्भाव की पुनर्स्थापना के लिए उपवास करते हुए बापू और विदेश की धरती से महात्मा गांधी को सैल्यूट करते और उनसे आशीर्वाद मांगते सुभाषचंद्र बोस के चित्र प्रमुख हैं। इतना ही नहीं उत्तर में रखवाली करते हिमालय और दक्षिण में चरण–प्रक्षालन करते महासागर और थार के मरुस्थल को भी चित्रित किया गया है। ये सभी चित्र संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप, सर्वसमावेशी विरासत एवं बहुलतावादी संस्कृति का बखूबी निरूपण करते हैं।  

यद्यपि स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान की सर्वोच्च रक्षक है। वह संविधान का उल्लंघन करने वाले किसी भी कानून को निरस्त कर  सकती है, नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है और केंद्र व राज्यों के मध्य अधिकारों से सम्बन्धित विवादों का निपटारा करती है। तथापि अधिकारों के प्रति सजग एवं जागरूक नागरिक ही संविधान के असली रक्षक होते हैं। 

इसके लिए आवश्यक है कला, विज्ञान हो अथवा वाणिज्य, सभी संकायों के विद्यार्थियों को संविधान की मूलभूत विशेषताओं को एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए ताकि इसका उल्लंघन करने वाली सरकारों की निरंकुशता पर जागरूकता की लगाम लगी रहे। केवल संविधान की प्रस्तावना पढ़ने या 26 नवम्बर को ‘संविधान दिवस’ घोषित करने मात्र से बात नहीं बनेगी।

बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा है “यह संविधान लचीला होने के साथ-साथ इतना मज़बूत भी है कि शांति हो या युद्ध, दोनों समय में इस देश की अखंडता को अक्षुण्ण रखने में समर्थ है।"  

अलग-अलग दौर में अलग-अलग विचारधाराओं की सरकारें देश पर शासन करती रही हैं। आज वैचारिक संघर्षों, चरम पर पहुंची धार्मिक असहिष्णुता और बढ़ती आर्थिक असमानता के कठिन दौर में नागरिकों का यह कर्तव्य है कि लोकतंत्र के पहरेदार संविधान की रक्षा में हमेशा तत्पर रहें ताकि विचारधारा की आड़ में किसी भी राजनीतिक दल की सरकार संविधान से खिलवाड़ करने की हिमाक़त न कर सके।

(लेखिका 'डिग्निटी डॉयलॉग’ की पूर्व संपादक हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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