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अति-दक्षिणपंथ को कौन रोक सकता है?
इस साल दुनिया में जितने बड़े पैमाने पर दक्षिणपंथ बढ़ा है, अब जरूरत है कि बड़ी तादाद में कामगार वर्ग को इकट्ठा कर इसका विरोध किया जाए। ताकि लोकतंत्र को बचाकर इसकी जड़ें मजबूत की जा सकें।
मोहम्मद शाबीर
02 Jan 2020
Chileans resisting on the streets of Santiago on November 11

फासिज़्म या फासीवाद अब कोई अतीत की डरावनी कहानी भर नहीं रह गई है। दुनिया के कई हिस्सों में अति दक्षिणपंथी ताकतों के उभार के साथ, एक किस्म का प्रतिशोध अपने साथ लिए फासीवाद फिर जिंदा हो चुका है। अब विमर्श इस बात का है कि क्या यह अति-दक्षिणपंथी ताकतें हिटलर-मुसोलिनी के सीधे वंशज हैं या यह एक नई पौध हैं। एक बात तय है कि कामगार वर्ग को इन ताकतों के बहुत मजबूत होने से पहले ही इनके खिलाफ जंग छेड़नी होगी।

पूंजीवाद आज एक ऐतिहासिक संकट से जूझ रहा है, इसलिए इसने अतिराष्ट्रवाद औऱ नफरत का शिगूफा छोड़ा है। आज इन फासिस्ट ताकतों और अति-दक्षिणपंथियों का मुख्य उद्देश्य कामगारों की मार से पूंजीवाद को बचाने का है। साम्राज्यवाद, अतिराष्ट्रवाद, सैन्यवाद, तानाशाही, नफरत और विदेशी लोगों के प्रति घृणा का भाव केवल वैश्विक वित्तपूंजी को बचाए रखने के लिए इस्तेमाल होने वाले औज़ार मात्र हैं।
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जैसे अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप पर महाभियोग की नौटंकी जारी है, जबकि बजट पर होने वाला द्विदलीय समझौता अब भी मेज़ पर बरकरार है। इस समझौते से लोगों को मिलने वाली स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा मद में कटौती होगी। इस तरह की चीजें प्रशासन के हर स्तर पर चल रही हैं। राजनीतिक अखाड़े में विपक्षी विरोधियों के बीच यह मौन सहमति वित्तपूंजी की ताकत को दिखाती है। इस पृष्ठभूमि में महाभियोग सिर्फ एक नौटंकी नज़र आता है।

2017 में डोनल्ड ट्रंप का उभार कोई संयोग नहीं था। दुनियाभर में ट्रंप और उनके जैसी ताकतों द्वारा बनाई गई खाइयों ने कामगार वर्ग को राजनीतिक और वित्त आधारित सत्ता के खिलाफ खड़ा होने से रोकने में अहम योगदान दिया है। विदेश नीति के फलक पर ट्रंप ने पूरी दुनिया में उथल-पुथल मचा कर रखी है। उन्होंने वैश्विक पर्यावरण और शांति समझौतों से भी अमेरिका को दूर कर दिया है। ट्रंप के बाहरी होने या संयोग से सत्ता हासिल होने का दावा गलत साबित हो चुका है। ट्रंप प्रशासन ने वैश्विक पूंजीवाद के संरक्षक के रूप में अपना काम बखूबी निभाया है। ट्रंप और उनकी तरह की तमाम ताकतें लोकतंत्र और इसकी दरारों का फायदा उठाकर लोगों को बखूबी बांटने में कामयाब हो रहे हैं।

लैटिन अमेरिका में दक्षिणपंथियों का हमला सबसे ज्यादा भयावह रहा है। यहां दक्षिणपंथियों के नेतृत्व में संसदीय और गैर-संसदीय तख्तापलट हुए हैं। ऊपर से आर्थिक प्रतिबंधों से इन देशों की अर्थव्यवस्था की हालत भी खराब कर दी है।
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चिली में सेबेशियन पिनेरा, इक्वाडोर में लेनिन मोरेनो, अर्जेंटीना में माउरिसिओ मैक्री, ब्राजील में जैर बोलसोनारो और बोलिविया में जिएनाइन अनेज़ दक्षिणपंथ के हाथों की कठपुतलियां और जनता के गद्दार हैं। यह लोग इस महाद्वीप में दक्षिणपंथ के झंडाबरदार हैं। सभी ने इंटरनेशनल मॉनेट्री फंड के लिए लाल गलीचा बिछाकर स्वागत किया है। एक बार फिर वित्तीय साम्राज्यवाद IMF के नाम से मशहूर अपने मुख्य हथियार के सहारे दक्षिण अमेरिका में जगह बना चुका है।

लैटिन अमेरिका में प्रतिरोध सड़कों पर है। आग्सतो पिनोशे और अल्फ्रेडो स्ट्रोएसनर के दीवाने इस वक्त चिली और पराग्वे में शासन कर रहे हैं। लेकिन हम यह भी देख रहे हैं कि चिली में राष्ट्रपति सेवाशियन पिनेरा और उनकी नीतियों का विरोध करने के लिए हजारों लोग सड़कों पर हैं। अर्जेंटीना ने भी दक्षिणपंथियों को उनकी सीमाएं बता दी हैं।

बोलीविया के ऐवो मोरेल्स को भले ही उखाड़ कर फेंका जा चुका हो, लेकिन उनका तख्तापलट कमजोर आधार पर है। ब्राजील में सैन्य तानाशाही (1964-85) के प्रशंसक रहे बोलसोनारो लोगों के मिट्टी और पानी पर कॉरपोरेट के कब्जे की कोशिश लगातार कर रहे हैं। यहां लूला का स्वतंत्रता संघर्ष एक आशा की किरण जगाता है।
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इस बीच वेनेजुएला ने भी दक्षिणपंथियों के खिलाफ राह दिखाई है। वेनेजुएला से हमें पता चला कि एक सशक्त कामगार वर्ग और राजनीति की समझ रखने वाली जनता अपने असली दुश्मन को पहचानती है। यह समझ उनके पिछले अनुभवों से पैदा हुई है। ऐसी जनता दुनिया के सभी 'बोल्टन और लीमा जैसे समूहों' की कोशिशों को रोक सकती है। अब वर्ग राजनीति और लोगों को बड़ी संख्या में इकट्ठा कर प्रदर्शनों के ज़रिए ही दक्षिणपंथियों से लड़ा जा सकता है।

ऊपर जिन विशेषताओं की चर्चा की गई है, उनकी सबसे ज्यादा कमी यूरोप में है। यहां यूरोपीय बुर्जुआ की सहमति से यूरोपीय वित्तीय पूंजी द्वारा पोषित 'यूरोपियन यूनियन' ने अफरा-तफरी मचा कर रखी है। विडंबना है कि अब ये संगठन यूरोप में तबाही के कगार पर खड़े कामगार वर्ग और एकछत्र राज का सपना देखने वाले क्रोनी कैपिटलिस्ट, दोनों का मुख्य दुश्मन बन गया है।  

यूरोप में इस साल दक्षिणपंथी लहर अपने चरम पर रही। ब्रिटेन में बोरिस जॉनसन और कामगार विरोधी ब्रेग़्जिट सफल रहा। ग्रीस में कामगारों की आकांक्षाओं पर खरे न उतरने वाले एलेक्सिस सिप्रास रूढ़िवादियों से हार गए। इटली में मेत्तियो सालविनी लीग और स्पेन में वॉक्स पार्टी के नेतृत्व में नव-फासिस्ट और फ्रेंकोवादियों का उभार हुआ। यह दोनों पार्टियां अप्रवासी विरोधी प्रोपगेंडा और अतिराष्ट्रवाद के सहारे सत्ता में आई हैं।

इटली में फाइव स्टार-डेमोक्रेटिक पार्टी (M5S-PD) और स्पेन में PSOE-पोडेमॉस गठबंधन इन्हें रोकने में नाकामयाब रहा। फ्रांस में फ्रेंच दक्षिणपंथ का उभार नेशनल रैली पार्टी के नेतृत्व में हो रहा है। इससे इमैनुएल मैक्रों के दोबारा चुने जाने पर संशय बन गया है। केवल फ्रेंच कामग़ार वर्ग ही पूरी ताकत से दक्षिणपंथियों को रोकने में कामयाब रहा है।
यहां तक कि जर्मनी में भी 'अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी' (AfD) पार्टी, प्रवासी विरोधी और अतिराष्ट्रवाद की लहर पर सवार होकर ऊंची उठ रही है।

बुडापेस्ट में विपक्षियों के गठबंधन की जीत ने भी हंगरी में विक्टर ओरबन की अति-दक्षिणपंथी नीतियों पर कोई प्रभाव नहीं डाला है। इन विपक्षी पार्टियों में भी कई पार्टियां कामगार विरोधी और बेहद शातिर मानी जाती हैं। ऐसी तस्वीर में केवल कामगार वर्ग की एकता और वर्ग विरोध से ही ओरबन की नस्ल पर आधारित सत्ता का विरोध किया जा सकता है, जो बेहद कुख़्यात 'गुलाम कानून' को लागू कर रहे हैं।

पोलैंड में रुढ़िवादी और यूरोपियन यूनियन से संबंधों का विरोध करने वाली पार्टी 'पोलिश लॉ एंड जस्टिस पार्टी' की जीत का सिलसिला लगातार इस साल भी जारी है। यह पार्टी भी ठेठ दक्षिणपंथी कैंपेन चला रही है। लेकिन पोलिश लेफ्ट द्वारा संसद में अपनी मौजूदगी दोबारा पाने के बाद आशा जागी है। इस साल का अंत पोलैंड की न्यायपालिका को दबाने की कोशिशों के विरोध में बड़े प्रदर्शनों के साथ हुआ।

अति-दक्षिणपंथ ने सोवियत संघ के बाद बने गणराज्यों में भी राजनीतिक ताकत हासिल की है। इन दलों का कैंपेन रूस से डर और साम्यवाद के विरोध में चला है। यूक्रेन में सरकार दिनों-दिन फासिस्ट हो रही है और कट्टर दक्षिणपंथियों को देश की मुख्यधारा में लाया जा रहा है।

दूसरी तरफ सरकार, साम्यवादियों और अन्य वामपंथी पार्टियों समेत उनके प्रकाशनों को दबा रही है। यह क्षेत्र साम्राज्यवादी ताकतों के दबाव में आ चुका है। यहां साम्यवादी कानूनों को खत्म किया जा रहा है और साम्यवादी पार्टियों पर बैन लगाया जा रहा है। वहीं सोवियत काल में बनाए गए प्रतीकों को भी गिराया भी जा रहा है।

सितंबर 2019 में यूरो संसद ने खुद साम्यवाद को फासीवाद जैसा बताते हुए इसके प्रतीकों को गिराने का प्रस्ताव पास किया था। इस बीच इन लोगों ने सोवियत रूस की रेड आर्मी द्वारा पूर्वी यूरोप को नाजियों से मुक्त कराए जाने के अपने इतिहास को भुला दिया है।

यूरोपियन यूनियन की नीतियों का संकट, नाटो (NATO) द्वारा लगातार प्रोत्साहित होते सैन्यवाद और दूसरे कारणों के चलते, बाल्कन और पूर्वी यूरोप के अन्य क्षेत्रों में अति-दक्षिणपंथियों को अपने कदम जमाने का मौका मिला है।
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भारत में आम लोगों पर क्रोनी कैपिटलिज़्म और धर्म पर आधारित राजनीति की दोहरी मार पड़ रही है। दक्षिणपंथी बीजेपी सरकार, हिंदू सर्वोच्चतावाद की विचारधारा से प्रेरित है। यह लगातार अपनी विभाजनकारी नीतियों को आगे बढ़ा रही है और देश को चंद उद्योगपतियों के हाथों की कठपुतली बनने पर मज़बूर कर रही है।

हाल ही में सरकार द्वारा पारित मुस्लिम विरोधी CAA (नागरिकता संशोधन अधिनियम) और NRC के विरोध में लाखों लोग विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतरे हैं। इन लोगों पर जबरदस्त सरकारी दमन किया जा रहा है।

अफगानिस्तान में 'आतंक के खिलाफ़ जंग' से पैदा हुए संकट और साम्राज्यवादियों द्वारा इराक-सीरिया में सत्ता को हटाने की कोशिशों ने पश्चिम एशिया के शांतिप्रिय लोगों की जिंदगी पर बहुत बुरा असर डाला है। यह बदस्तूर अब भी जारी है।

पश्चिमी देशों के सहयोग से सऊदी अरब के आतंक ने यमन को पूरी तरह खत्म कर दिया है। भले ही इज़रायल में बेंजामिन नेतन्याहू चुनाव न जीत पाए हों, पर इस नस्लभेदी राज्य ने फिलीस्तीन लोगों का दमन ज़्यादा तेज कर दिया है। इसमें इज़रायल का सहयोग डोनल्ड ट्रंप कर रहे हैं।

तुर्की ने अपनी पूर्वी सीमा पर कुर्द विरोधी अभियान चलाया हुआ है, लेकिन वहां एक संयुक्त विपक्ष ने हाल ही में एर्दोगन को चुनावों में कड़ा झटका दिया है। फिलीपींस में रोद्रिगो दुतार्ते लगातार देश का सैन्यकरण कर रहे हैं।

ड्रग माफिया और मिलिट्री कम्यूनिज़्म को दबाने के नाम पर वो लगातार कामगार वर्ग और किसानों का दमन कर रहे हैं। जैसा 15 मार्च, 2019 को क्राइस्टचर्च मस्ज़िद में शूटआउट से समझ आता है, न्यूजीलैंड में 'इस्लामोफोबिया या मुस्लिमों से डर' बेइंतहां बढ़ चुका है, ऑस्ट्रेलिया में भी नफरत पर आधारित अपराधों में इज़ाफा हुआ है।
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दक्षिणपंथी राजनीति की कमजोरियां अफ्रीका की तरह कहीं नज़र नहीं आईं। साम्राज्यवादियों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़े और रणनीतिक प्रभाव बढ़ाने के लिए सीरिया और लीबिया में भयावह जंगें छेड़ी गईं। लाखों लोग शरणार्थी बनने पर मजबूर हो गए। अब वे या तो भूमध्यसागर को पार करते हुए मारे जाने के इंतजार में हैं या फिर उसे पार कर शरणार्थी कैंपों में सड़ने के लिए मजबूर होने को।

यह कैंप भूमध्यसागर के उस पार यूरोप में बनाए गए हैं, ताकि शरणार्थियों को देश के भीतर आने से रोका जा सके। इस बीच यूरोप के दक्षिणपंथी, अवैध प्रवासियों का डर दिखाते हुए कामगारों को अपने पक्ष में ध्रुवीकृत करने में कामयाब रहे हैं।

पूंजीवाद का ढांचागत संकट अब हर जगह है। अतिदक्षिणपंथ इस पूंजीवादी व्यवस्था की बचाने के लिए खड़ा हुआ है। इस वक्त  अति-दक्षिणपंथ-पूंजीवाद के घालमेल से निपटने के लिए गठबंधन करने और रणनीति बनाने की जिम्मेदारी अब कामगार वर्ग पर है। ताकि लोकतंत्र को मजबूत किया जा सके।

रूस, चीन, क्यूबा और विएतनाम से मिली सीख और वेनेजुएला, निकारागुआ, बोलीविया और दूसरे देशों से मिले अनुभव हमें आशा देते हैं। यह अनुभव और सीखें दोहराती हैं कि कामगार वर्ग के पास सिवाए संघर्ष करने के अलावा कोई विकल्प मौजूद नहीं है।

साभार- पीपल्स डिस्पैच

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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