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भारत के लाखों मज़दूर 8 जनवरी को राष्ट्रीय हड़ताल की तैयारी क्यों कर रहे हैं?
30 सितंबर 2019 को एक राष्ट्रीय सम्मेलन में, नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा पेश किए जा रहे श्रम क़ानूनों में सुधार की नीतियों के ख़िलाफ़ भारत की 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने 8 जनवरी को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया है।
पवन कुलकर्णी
12 Oct 2019
Translated by महेश कुमार
8th jan strike

जब से मई 2019 में नरेंद्र मोदी की धुर-दक्षिणपंथी सरकार सत्ता में लौटी है, उसने अपने हिंदू कट्टरपंथी एजेंडा के साथ कॉर्पोरेट समर्थक नवउदारवादी नीतियों को तेज़ी से लागू करना शुरु कर दिया है। पूँजीपतियों ने मजदूरों के उन अधिकारों पर व्यवस्थित हमला किया है जिन्हे उन्होने दशकों के संघर्ष के जरीए हासिल किया था। निजीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र में खर्च कम करना और श्रम कानूनों को कमजोर करने के माध्यम से मोदी सरकार संगठित मजदूर वर्ग को निशाना बनाने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है, जो भारत में दक्षिणपंथ के वर्चस्व के लिए एक प्रमुख चुनौती बनी हुई है।

हालांकि, भारत के मज़दूरों ने इन नए कानूनों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है और इन सुधारो के खिलाफ व्यापक विरोध करने की तैयारी कर रहे हैं। भारत की 10 राष्ट्रीय ट्रेड यूनियनों और कई अन्य स्वतंत्र श्रमिक संघों ने संयुक्त रूप से 8 जनवरी, 2020 को देश व्यापी हड़ताल की कार्रवाई का आह्वान किया है। यह आह्वान नई दिल्ली में संसद मार्ग पर आयोजित मज़दूरों के एक राष्ट्रीय जन सम्मेलन में 30 सितंबर को किया गया। विभिन्न राज्यों के विभिन्न सेक्टरों के हज़ारों मज़दूरों ने उपरोक्त सम्मेलन में भाग लिया।

मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार की रहनुमाई में रणनीतिक क्षेत्रों के निजीकरण की गति तेज़ हो गई है। रक्षा उद्योगों सहित लगभग सभी क्षेत्रों में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ़डीआई) की अनुमति दी जा रही है। सरकार बड़े निगमों की रियायतों को बढ़ा रही है, जबकि ये निगम मज़दूरों के पहले से ही कम न्यूनतम वेतन को और कम कर रही हैं और सामाजिक सुरक्षा संरचना को समाप्त कर रही है। श्रम सुरक्षा क़ानूनों को ख़त्म किया जा रहा है और उनके ठीक से लागू करने के लिए बनाए गए निरीक्षण तंत्र को धीरे-धीरे कमज़ोर किया जा रहा है।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़ों के अनुसार, सितंबर के अंत तक भारतीय अर्थव्यवस्था में बेरोज़गारी की दर लगभग 10 प्रतिशत थी, जो कि पिछले 45 साल में सबसे ऊपर है। 20 से 29 साल के युवाओं में बेरोज़गारी पिछले दो सालों में 73 प्रतिशत बढ़ी है, और अब 28 प्रतिशत को छू गई है। काम करने वालों में से 30-35 प्रतिशत को बेरोज़गार के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, क्योंकि उनका काम उनकी योग्यता से मेल नहीं खाता है।

अर्थव्यवस्था एक गंभीर संकट में फंसी

पिछले दो वर्षों में बेरोज़गारी बेतहाशा बढ़ी है। इसलिए, लगभग 4.75 मिलियन नए मज़दूरों को समायोजित करने के लिए न कोई शुद्ध रोज़गार पैदा हुआ है, यह वज संख्या है जो प्रत्येक वर्ष भारतीय श्रम बाज़ार में प्रवेश करती है, बल्कि मौजूदा समय में क़रीब 4.7 मिलियन मौजूदा नौकरियां ही ख़त्म हो गई हैं।

बढ़ती महंगाई की मार से बचने के लिए परिवारों को अपनी बचत का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर हो रहे हैं, जिस बचत को उन्होने बैंक में जमा, संपत्ति या सोने और चांदी के आभूषणों के रूप में रखा है। यह इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि भारतीय रिज़र्व बैंक के नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, घरेलू बचत से बनने वाली जीडीपी का प्रतिशत जो 2014-15 में 19.6 था जब भाजपा सत्ता में आई थी अब वह घटकर 2017-18 में 17.2 प्रतिशत रह गया है। 

इस बीच, उसी अवधि में घरेलू देनदारियां बढ़ी हैं जो जीडीपी के रूप में 3 प्रतिशत से बढ़कर 4.3 प्रतिशत हो गई हैं। बक़ाया व्यक्तिगत ऋण, जो 2012 में 9 प्रतिशत पर स्थिर रहता था वह भाजपा के सत्ता में आने के बाद से मार्च तक 11.7 प्रतिशत बढ़ गया है।

कृषि संकट, जिसने पहले ही हज़ारों किसानों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर दिया है, वर्तमान सरकार के तहत वह और भी गंभीर हो गया है।

कहीं न कहीं सरकार यह मानकर चल रही है कि उसकी नवउदारवादी नीतियां अपने आप ही विकास दर को उपर उठा देंगी। जबकि हुआ इसके विपरीत है, चालू वित्त वर्ष की अप्रैल-जून तिमाही में जीडीपी छह साल के सबसे निचले स्तर यानी 5 प्रतिशत पर आन पड़ी है।

बढ़ती बेरोज़गारी, वेतन में ठहराव और बिजली, सार्वजनिक परिवहन और दवाओं सहित आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती दरों या लागत के कारण आम व्यक्ति की क्रय शक्ति में भारी गिरावट आई है। इसके कारण, घरेलू बाज़ार में बुनियादी वस्तुओं की मांग घट गई है, जिससे औद्योगिक क्षेत्र की उत्पादक क्षमता का 25 प्रतिशत हिस्सा बेकार हो गया है।

इस दौरान, इस गहमागहमी में कॉर्पोरेट शुद्ध लाभ 2018-19 के दौरान 22.3 प्रतिशत बढ़ा है। सामाजिक असमानता इस हद तक बढ़ गई है कि पिछले साल भारतीय अर्थव्यवस्था में उत्पादित कुल धन का 73 प्रतिशत हिस्सा सबसे अमीर एक प्रतिशत ने दबा लिया, और देश के सबसी ग़रीब आधी आबादी यानी क़रीब 670 मिलियन लोगों के लिए साझा करने के लिए मात्र  2 प्रतिशत हिस्सा बचा।

कॉर्पोरेट मुनाफ़े को और अधिक बढ़ाने के लिए, वित्त मंत्री ने कॉर्पोरेट टैक्स को औसतन 30 प्रतिशत से  घटाकर 25.17 प्रतिशत कर दिया, जिसका मतलब है कि कॉरपोरेट के लिए टैक्स दर को प्रभावी रूप से घटाकर 22 प्रतिशत कर देना। विशाल निगमों को दी गई भारी रियायतों और अन्य छूट से सरकार को 1.45 ट्रिलियन (20 अरब अमरीकी डॉलर से अधिक) का चूना लगा है यानी उसे आय मे हानि हुई है। यह तब है जब राजकोषीय (वित्तिय) अनुशासन को बनाए रखने के नाम पर, सामाजिक कल्याण और सार्वजनिक निवेश पर ख़र्च में तेज़ी से कमी की जा रही है, जिसे अभी हाल ही में जुलाई के बजट में घोषित किया गया था।

भारत की मेहनतकश जनता में सरकार की नीतियों के प्रति गहरी नाराज़गी है और पिछले तीन वर्षों में देश भर में बड़ी हड़तालें और प्रदर्शन हुए हैं। इन विरोध प्रदर्शनों में भागेदारी विशाल रही है, जिसमें देश भर से सैकड़ों मज़दूरों- किसानों को आंदोलनों में शामिल होने के लिए आकर्षित किया गया है।

इस सब के ख़िलाफ़ दक्षिणपंथियों की एकमात्र प्रतिक्रिया बड़े पैमाने पर विषैला प्रचार अभियान चलाने की रही है। जो भी सरकार के ख़िलाफ़ बोलता है उसे तुरंत देशद्रोही क़रार दे दिया जाता है। इसे पाकिस्तान के ख़िलाफ़ निर्देशित अंधराष्ट्रीयता, विशेषकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ लक्षित धार्मिक ध्रुवीकरण के तहत किया जा रहा है। इन सभी अभियानो के पीछे की मानसिकता यह है कि हिंदू बहुमत के वर्गों के बीच यह भावना पैदा की जा सके कि देश में एक हिंदुत्ववादी सरकार सत्ता में है।

श्रम अधिकारों पर तीव्र हमला

इस दौरान हमला श्रम और श्रमिक के ख़िलाफ़ तीव्र हुआ है। इस हमले के तहत 44 मुख्य केंद्रीय श्रम क़ानूनों को मात्र चार श्रम ‘कोड’ मे बदल दिया गया है। इनमें से सबसे पहला हमला, मज़दूरी पर संहिता (यानी वेज ‘कोड’) लाना है, जिसे पहले से ही लागू कर दिया गया है जिसने मज़दूरी अधिनियम 1936, न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम 1948, बोनस अधिनियम 1965 और समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 की जगह ले ली है।

इस मज़दुर विरोधी कोड के माध्यम से, सरकार ने राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी को प्रभावी ढंग से कम कर दिया है। श्रम मंत्री ने नए राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन के रूप में प्रति दिन ($ 2.5) की घोषणा की है, जो विशेषज्ञ समिति की सिफ़ारिश के विपरीत है, और मज़े की बात है कि इस समिति को उन्होंने ख़ुद ही पिछले कार्यकाल में नियुक्त किया था, जिसने  375-447 ($ 5.2-6.29) प्रति दिन वेतन/मज़दूरी की सिफ़ारिश की थी।

यह निर्धारित मज़दूरी अपने आप में प्रति दिन प्रति व्यक्ति 2700 कैलोरी खपत के लिए काफ़ी कम है, जिसे 2016 के श्रम सम्मेलन में एक मानक के रूप में स्वीकार किया गया था, जिसके आधार पर राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी को आंका जाना था।

इस मानक के हिसाब से हर मज़दूर के लिए न्यूनतम वेतन 692 ($ 9.74) प्रति दिन होना चाहिए या फिर 18,000 रुपए ($253) प्रति माह होना चाहिए। वर्तमान राशि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा निर्धारित कैलोरी की खपत और न्यूनतम पोषण को वहन करने के मामले मे सिर्फ़ एक चौथाई राशि ही है।

इसके अलावा 2017 में घोषित न्यूनतम वेतन की तुलना में 178 रुपए प्रति दिन केवल दो रुपये ($ 0.028) ही अधिक है। अगर मुद्रास्फ़ीति की दर में वृद्धि को ध्यान मे रखा जाता है तो वास्तविक रूप से न्यूनतम मज़दूरी मे वास्तविक कटौती हुई है। इसके बावजूद यह ‘भुखमरी का वेतन’ कम से कम 85 प्रतिशत कर्मचारियों को मयस्सर नहीं है यानी इसकी भी कोई गारंटी नही है क्योंकि यह वेज कोड 10 से कम श्रमिकों या अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले उद्यमों पर लागू नहीं होता है।

कोड का वह भाग जो रोज़गार के नियमों के बारे मे बताता है और ड्यूटी से अनुपस्थित होने के लिए जुर्माना तय करता है, वह कहता है कि "कोई भी कर्मचारी जो पंद्रह वर्ष से कम आयु का है" उस पर जुर्माना नहीं लगाया जाएगा। कई पर्यवेक्षकों को इस बात ने हिला कर रख दिया है कि कैसे एक बच्चे को "कर्मचारी" के रूप में संदर्भित किया गया है, जो एक तरह से बाल श्रम को क़ानूनी रूप से जायज़ बनाता है।

इसी दौरान कारखानेदारों के लिए ग़ैर-अनुपालन के लिए दंड को बेअसर कर दिया गया है और प्रवर्तन तंत्र यानी क़ानुन को लागू करने के तंत्र को भी बेअसर कर दिया गया है। इस कोड के ज़रिये श्रम निरीक्षकों को "निरीक्षक एवं नियामक" का ओहदा दे दिया गया है, जो मालिक के ख़िलाफ़ उसके द्वारा किए "अपराधों” के लिए अभियोजन की शुरुआत करने से पहले उसे लिखित निर्देश के माध्यम से कोड के प्रावधानों का पालन करने का अवसर देगा, और इस तरह के अनुपालन के लिए एक समय अवधि निर्धारित की जाएगी।“

हालांकि इस अनुपालन के लिए कोई समय निर्धारित नहीं किया गया है, यह अनिवार्य है कि यदि मालिक "ऐसी अवधि के भीतर" का अनुपालन करता है, तो निरीक्षक एवं नियामक ऐसे अभियोजन की शुरुआत नहीं करेगा। इसके अलावा, केवल उसी मालिक के ख़िलाफ़ अभियोजन शुरू किया जा सकता है, यदि वह इस संहिता के तहत प्रावधानों की उसी प्रकृति का उल्लंघन उस तारीख़ से पांच साल की अवधि के भीतर दोबारा से करता है, जिस दिन ऐसा उल्लंघन किया गया था।"

संसद की मंज़ूरी के लिए तैयार व्यावसायिक स्वास्थ्य, सुरक्षा और काम की शर्तें संहिता 2019 भी मौजूद है, जो 13 श्रम क़ानूनों की जगह ले लेगा जिसमें फ़ैक्ट्री अधिनियम, संविदा श्रम अधिनियम और अन्य क़ानून प्रवासी श्रमिकों के रोज़गार को विनियमित करता है जैसे कि विशिष्ट क्षेत्रों में काम करने वालों मज़दूर जैसे बंदरगाह और वृक्षारोपण।

ये दोनों कोड श्रम ठेकेदार के कांधो पर अनुपालन की अंतिम ज़िम्मेदारी दे देते हैं, बजाय मालिक के जो ठेकेदारों को अपनी लागत में कटौती करने के लिए काम को आउटसोर्स करते हैं। इसे आगे ठेकेदारी प्रथा को प्रोत्साहित करने के लिए एक जागरुक नीति के रूप में बताया गया है, जो देश के मज़दूर वर्ग की सबसे प्राथमिक शिकायतों में से एक है।

सामाजिक सुरक्षा संहिता, जिसका मसौदा भी तैयार किया जा रहा है, वह मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961, ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम, 1972 और असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008 सहित आठ क़ानूनों की जगह ले लेगा।

मज़दूरों में अशांति बरपा होने की आशंका में, औद्योगिक संबंधों पर बनी संहिता ट्रेड यूनियनों के पंजीकरण को प्रतिबंधित करने का प्रयास करती है, और इसके लिए कई पूर्व शर्तें लगाई जा रही हैं जिन्हें हड़ताल की कार्रवाई करने से पहले पूरी करना होगा। इन पूर्व शर्तों पर इसके आलोचकों ने तर्क दिया है, कि यह कुछ और नहीं बल्कि हड़तालों को प्रभावी ढंग से प्रतिबंधित करने का प्रयास है।

राष्ट्रीय अधिवेशन में बोलते हुए, सीटू के महासचिव और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के पोलिट ब्यूरो सदस्य तपन सेन ने कहा कि देश को ऐसी नीतियों से बचाने और निजीकरण के माध्यम से राष्ट्रीय संपत्ति की लूट से बचाने की ज़िम्मेदारी श्रमिक वर्गों पर है। उन्होंने दोहराया कि यह मज़दूर वर्ग के संघर्ष ही हैं जिन्होंने पिछले पांच वर्षों मे सरकार को इन सभी मज़दूर विरोधी उपायों को आगे बढ़ाने से रोका है।

उन्होंने कहा, " हम 8 जनवरी की हड़ताल की कार्रवाई के ज़रिये यह मांग नही करेंगे कि 'एफ़डीआई मत लाइये' बल्कि इसके बजाय, हम सरकार से कहेंगे कि आप कोशिश कीजिये और हम आपको दिखाएंगे कि हमारे प्रतिरोध के सामने आप इसे कैसे लागू कर पाएंगे!"

Courtesy: Peoples Dispatch

Millions of workers strike on 8 January
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