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चीन के नाम पर हायतौबा मचाने से कोई फायदा नहीं होने वाला, हाथ में कुछ नहीं आने वाला
पिछले महीने प्रशांत क्षेत्र में तीन अमेरिकी विमान वाहक युद्ध पोतों की तैनाती पर भारतीय विश्लेषकों के बीच में जिस प्रकार का उत्साह देखने को मिला था, वह काफी अजीबोगरीब था।
एम. के. भद्रकुमार
07 Jul 2020
चीन के नाम पर हायतौबा मचाने से कोई फायदा नहीं होने वाला, हाथ में कुछ नहीं आने वाला

पाकिस्तान के गिलगिट-बाल्टीस्तान क्षेत्र में चीन की सीमा से सटे खुंजेरब दर्रे पर चीनी और पाकिस्तानी सीमा सुरक्षा के जवान।

भारत और चीन के बीच सीमा को लेकर चल रहे तनाव को देखते हुए भारतीय विश्लेषकों के बीच उनकी सुरंग में झाँकने वाली दृष्टि उनकी बैचेनी को बढाने में ही सहायक सिद्ध हो रहा है।

आजकल यह देखने में आ रहा है कि अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ के वाचाल मुख से झर रहे प्रत्येक शब्द को ट्रम्प प्रशासन की ओर से भारत-चीन के बीच जारी तनाव में भारत के पूर्ण समर्थन की पुष्टि के तौर पर देखा जा रहा है। उदाहरण के लिए भारत द्वारा 59 चीनी ऐप्स पर प्रतिबंधों को लगाए जाने पर जब पोम्पेओ ने तालियां बजाईं, तो इसे 'भारत समर्थक' बयान के तौर पर देख लिया गया।

लेकिन पोम्पेओ का यह अभियान चीन को बदनाम करने और दूसरे देशों को चीनी उच्च-तकनीक वाली दिग्गज कंपनी हुआवेई को अपनाने से रोकने के लिए अपनाया गया कदम है, जोकि वर्तमान में जारी लद्दाख सीमा पर मौजूदा तनाव से पूर्व से चल रहा है। हमारे रणनीतिक विश्लेषक इस बात से पूरी तरह से अंजान हैं कि हुआवेई के साथ अमेरिका की मुख्य समस्या पारस्परिक बाजार में पहुँच बनाने की कमी को लेकर है, जैसा कि जॉन एफ कैनेडी स्कूल ऑफ गवर्नमेंट के विलियम एच ओवरहोल्ट ने हाल ही में इस बारे में लिखा है।

इस पूरे मसले की जड़ को रेखांकित करते हुए ओवरहोल्ट लिखते हैं “जब तक हुआवेई की तीनों प्रमुख बाजारों - संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन तक पहुँच बनी रहने जा रही है, वहीँ दूसरी तरफ विदेशी तकनीकी कंपनियों को चीन के बाजार में पूरे तौर पर पहुँच बना पाने से रोका जा रहा हो, तो ऐसे में यह (हुआवेई) जल्द ही वैश्विक 5जी बाजार पर छा जाएगा। सभी बाजारों पर अपनी पहुँच होने की वजह से हुआवेई अपने प्रमुख प्रतिद्वंदियों एरिक्सन और नोकिया के कुलमिलाकर किये जाने वाले रिसर्च एवं विकास के बजट से भी अधिक खर्च करने की क्षमता रखता है। ऐसी स्थिति में वे हुआवेई की तकनीक के क्षेत्र में बेहतर प्रगति का मुकाबला नहीं कर सकते। निकट भविष्य में उनका सर्वनाश साफ़ नजर आ रहा है, जोकि पूरी तरह से अस्वीकार्य है...। ऐसे में हुआवेई की पहुँच से बाजार को दूर रखना जहाँ उचित रहेगा, वहीँ भविष्य में इसके समाधान के लिए दरवाजे खुले रहने होंगे।"

लेकिन यह साफ़ है कि हुआवेई के बारे में भारत ने अभी तक विवेकसम्मत निर्णय लिया है। यह किसी भी प्रकार से भावनाओं में बहकर या आज के हालात को देखते हुए धमनियों में उबाल खाते लहू के प्रवाह से निर्देशित है। निश्चित तौर पर बेहद ठन्डे दिमाग से सोच-विचार के साथ ही इस बारे में फैसला लिए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि इसका सीधा सम्बंध आधुनिक, नवोन्मेषी, प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था के तौर पर देश के भविष्य के विकास से गहराई से जुड़ा हुआ है।

इसी तरह जापान के ओकिनावा में एक प्रान्त यदि अपने एक प्रशासनिक क्षेत्र का नाम बदलता है जिसमें ईस्ट चाइना सी में विवादित द्वीपों का एक समूह भी शामिल है (सेनकाकू द्वीप के बारे में बीजिंग इसे चीनी क्षेत्र के रूप में विवादित मानता है) को देखकर सभी भारतीय बेहद उत्साहित होने लगते हैं. उनकी नजर में टोक्यो चीन के खिलाफ एक 'दूसरा मोर्चा' खोल रहा है, जिससे कि बीजिंग का ध्यान भटक जाये और वह पूर्वी लद्दाख में भारतीय सेना पर दबाव कम करने के लिए मजबूर हो जाये।

यह पूरी समझ ही बेहद हास्यास्पद है, क्योंकि ओकिनावा प्रान्त के रिकॉर्ड में यह स्पष्ट है कि इसकी ओर से यह पहल इशिगाकी शहर के स्थानीय लोगों के बीच बने प्रशासनिक भ्रम को हल करने के उद्देश्य से लिया गया है, जो कि ‘टोनोशिरो’ (जापानी में) नाम सेनकाकू द्वीपों के साथ साझा करता है!बेहद मजेदार रहा यह देखना कि दिल्ली से प्रकाशित होने वाले एक प्रमुख दैनिक अख़बार में अगले दिन हेडलाइन फ्लैश होती है, भारत के साथ आमना-सामना होने के बाद, चीन जापान के साथ समुद्री विवाद में उलझा। हमारे अख़बारनवीसों को लगता है कि ये भी नहीं मालूम कि चीन सेनकाकू द्वीप समूह (बीजिंग इसे डियाओयू नाम से पुकारता है) के क्षेत्रीय जल में गश्त करता आ रहा है- जबकि टोक्यो इस हकीकत से वाकिफ है। अकेले जून माह में ही चीनी तट रक्षक जहाजों ने डियाओयू के आसपास के क्षेत्रीय जल में कुछ नहीं तो 8 या 9 गश्ती लगाईं होगी।

लेकिन इन सबसे अजीबोगरीब मामला तो तब देखने को मिला जब पिछले महीने प्रशांत सागर क्षेत्र में तीन विमानवाहक पोतों की अमेरिकी तैनाती को लेकर भारतीय विश्लेषकों के बीच में उत्साह का माहौल व्याप्त हो गया था। हमारे विश्लेषकों ने खुद को इस बात के लिए आश्वस्त कर लिया था कि इस तैनाती से पीएलए खतरे में पड़ चुका है, नतीजतन वह अपनी सुरक्षा के लिए फिक्रमंद होगा। एक समाचार एजेंसी ने तो अमेरिकी विमान वाहकों की मौजूदा तैनाती के बारे में दैनिक रिपोर्ट के साथ इस विषय पर विशेषज्ञता तक हासिल करनी शुरू कर दी!

जबकि चीनी विश्लेषकों के बीच में यह आम धारणा बनी हुई है कि पेंटागन ऐसा सिर्फ अपनी जरूरत के हिसाब से ही कर रहा है। सीधे शब्दों में कहें तो पेंटागन का मुख्य दुश्मन आजकल कोरोनावायरस बना हुआ है। यदि वायरस अमेरिकी नौसेना की प्रमुख बेड़ों को अपनी चपेट में ले लेता है, तो यह अमेरिका की लड़ाकू मशीनरी को ही अपंग करने वाली बात होगी. कोरोनावायरस के ऐसे कुछ मामले, जिसमें अमेरिकी नोसेना के सुरक्षा चक्र को नष्ट पहले भी हो चुका है, देखने में आये थे, जिसमें मार्च महीने में विमानवाहक युद्धपोत यूएसएस थियोडोर रूजवेल्ट का प्रसिद्ध मामला भी शामिल है। असलियत में देखें तो कोरोनावायरस को चकमा देने की खातिर, अमेरिकी अमेरिकी नौसेना के जहाज आजकल समुद्र में बने रहने का रिकॉर्ड एक के बाद एक तोड़ रहे हैं।

हालांकि, उपरोक्त ख्याली पुलाव की तुलना में पूरी तरह से एक नई जोखिम भरी स्थिति नजर आ रही है। इसे शुक्रवार के दिन चीनी राज्य पार्षद और विदेश मंत्री वांग यी और पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के बीच की टेलीफोन पर हुई वार्ता से समझा जा सकता है, गौरतलब है कि ठीक उसी दिन पाकिस्तानी पक्ष के वार्ताकार कोविड-19 की जाँच में पॉजिटिव पाए गए थे।वांग और कुरैशी के बीच में हुई वार्ता में महामारी को लेकर काफी प्रमुखता से बात हुई। अपनी बातचीत में वांग ने कुरैशी से कहा है कि महामारी ने ‘विश्व को और अधिक वैश्विक और क्षेत्रीय गतिशीलता के साथ बदल कर रख डाला है'। ऐसे में चीन और पाकिस्तान को ‘संयुक्त रूप से चुनौतियों का सामना करने और साझा हितों और क्षेत्रीय शांति और स्थिरता को बनाये रखने के लिए आपस में मिलकर काम करने की जरूरत है।'

चीन द्वारा जारी बयान के अनुसार इन दोनों शीर्ष राजनयिकों के बीच में व्यापक स्तर पर चर्चा हुई। इसमें शामिल मुद्दे विभिन्न प्रकृति के थे जिसमें क्षेत्रीय हालात, कश्मीर मुद्दा, अफगानिस्तान, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव और कोरोनावायरस जैसे विषयों को शामिल किया गया था। यह सच है कि क्षेत्रीय हालातों में एक नई पेचीदगी आ चुकी है लेकिन चीनी-पाकिस्तानी प्लेट लबालब भरी हुई है।

भारत-चीन सीमा और नियंत्रण रेखा पर भारी तनाव बना हुआ है, अमेरिका की ओर से अफगान शांति प्रक्रिया को गति देकर इकतरफा दबाव बनाते जाने का सिलसिला जारी है, और इसके प्रमुख हितधारकों (रूस, चीन, ईरान) को इस पूरी प्रक्रिया से दरकिनार करने पर लगा हुआ है। इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर में भारी उथल-पुथल का दौर जारी है, वहीँ चीन 25 साल की टाइमलाइन के साथ पाकिस्तान के पड़ोसी ईरान को एक ऐतिहासिक साझेदारी वाले समझौते में शामिल करने जा रहा है, जो तेहरान को अलग-थलग करने वाली अमेरिकी नीतियों को ध्वस्त करने और क्षेत्रीय परिदृश्य को अभूतपूर्व तौर पर हमेशा के लिए बदलने जा रहा है। और निश्चित तौर पर यह महामारी वास्तविक तौर पर नई सच्चाइयों से रूबरू करा रही है।

क्या वांग-कुरैशी के बीच की यह वार्ता इस संवेदनशील मोड़ पर दोनों के द्वारा आपस में सर जोडकर भारत के खिलाफ ‘दो-मोर्चों पर युद्ध’ थोपने का कोई संकेत है? क्या इस क्षेत्र की जिओपॉलिटिक्स इतनी तेजी से बदल रही है कि सब कुछ पहचान से परे हो चला है?  लेकिन इस सबके बावजूद कुछ भारतीय विश्लेषक इसे एक 'संभावना' के तौर पर देखते हैं और उन आंकड़ों के समूह को तैयार करने में व्यस्त हैं जो उनकी पहले से बनी-बनाई धरनों को पुष्ट करने का काम करती हैं।

जबकि हकीकत यह है कि पीएलए को भारत के साथ युद्ध में जाने के लिए किसी भी पाकिस्तानी मदद की जरूरत नहीं है, या यूँ कहें कि किसी भी अन्य की नहीं है तो यह कहना गलत नहीं होगा। सैन्य संतुलन निर्णायक तौर पर उसके पक्ष में काम कर रहा है। उल्टा यदि ‘दो-मोर्चों वाली लड़ाई’ छिड़ती है तो आयरन ब्रदर का जो तमगा मिला हुआ है वह सिर्फ पीएलए पर एक दबाव बन कर रह जाएगा, क्योंकि पाकिस्तान इस स्थिति में नहीं है कि वह भारत के साथ युद्ध छेड़ सके।

वहीँ पाकिस्तान अपने शब्दों और पहलकदमी को लेकर काफी एहतियात से काम ले रहा है। उसका पूरा फोकस इस समय अफगान शांति प्रक्रिया पर लगा हुआ है, जो एक विदेश नीति परियोजना की परिणति के तौर पर है जिसे 1970 के दशक में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के शासनकाल के दौरान काबुल में एक दोस्ताना सरकार स्थापित करने के तौर पर शुरू किया गया था। सौभाग्य की बात यह है कि इसी के जरिये अमेरिका के साथ अपने संबंधों को नए सिरे से रिसेट करने का मौका भी मिल रहा है। ट्रम्प प्रशासन भी चाहेगा कि इसे इसी प्रकार से रखा जाए, जो कि पाकिस्तान को दिए गए निमंत्रण से स्पष्ट है, जिसमें उसे 3 बिलियन डॉलर की सहायता राशि मिलने जा रही है। यह सहायता पाकिस्तान को यूएस इंटरनेशनल डेवलपमेंट फाइनेंस कॉर्पोरेशन द्वारा कोरोनावायरस के कारण आर्थिक संकट से निपटने के लिए वित्तीय सहायता के तौर पर दी जा रही है।

इसलिए अधिक से अधिक यह हो सकता है कि खुफिया जानकारी के साझाकरण के मामले को लेकर राजनयिक धरातल पर हमारे दो प्रतिद्वंद्वियों के बीच कुछ ‘टकराहट' हो सकती है। कई भारतीय विश्लेषकों की तुलना में पाकिस्तान शायद पीएम मोदी की मानसिक बुनावट को कहीं बेहतर तरीके से समझने लगा है। और उसने यह अंदाजा लगा लिया होगा कि गुरुवार के दिन लेह में मोदी ने जिस प्रकार से ‘कठोर’ भाषण दिया था, के चलते देश के भीतर इतना राजनीतिक स्थान बन चुका है कि , जिसका सहारा लेकर सही मौका देखकर चीन के साथ राजनयिक ट्रैक को एक बार फिर से दुरुस्त किया जा सकता है। (और इस बात की पूरी संभावना है कि वांग ने भी कुरैशी के दिमाग को पढ़ लिया हो।)

इस सबके बावजूद, इतना तो पूरी तरह से साफ़ है कि वांग लद्दाख के मसले को लेकर खुद को उलझाए हुए नहीं है, बल्कि इसकी बजाय कोविड-19 के कारण चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की प्रगति की जो रफ्तार धीमी पड़ चुकी है उसे कैसे गति प्रदान की जाये, इस बात पर ही पूरा ध्यान बना हुआ है। और वास्तव में इस मामले में बेहद चपलता से पाकिस्तानी प्रतिक्रिया तब देखने को मिली जब पीएम इमरान खान ने फौरन बीजिंग को आश्वस्त करते हुए कहा है कि इस्लामाबाद तेजी से अधूरे प्रोजेक्ट के कामों को पूरा करते हुए, जो वक्त इस बीच बर्बाद हो चुका है, उसकी भरपाई को सुनिश्चित करेगा। इमरान खान के शब्दों में "(सीपीइसी) गलियारा पाकिस्तान-चीन मित्रता का सूचक है और सरकार इसे किसी भी कीमत पर पूरा करके रखेगी... ।"

इसलिए जरुरी है कि किसी भ्रम में न रहकर हवा में लाठी भांजने का काम किया जाए, जिसमें यह नजर आने लगे कि चीन और पाकिस्तान मिलकर युद्ध छेड़ने की साजिश रच रहे हैं। उनके पास हाथ में इस समय इससे भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रगतिशील एजेंडा है जो कि महामारी के बाद की आर्थिक सुधार की अनिवार्यताओं से जुडी है।

मूल आलेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Don’t Beat the Bushes for China, There’s Nothing out There

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