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क्यों 'शाह जमाल के प्रदर्शनकारियों' पर पुलिसिया हमला अन्याय है
सामाजिक और आर्थिक रूप से अलीगढ़ का शाह जमाल इलाका देश का एक उपेक्षित इलाका रहा है। इसके निवासियों ने सभी की नागरिकता के संरक्षण के लिए विरोध करने का साहस जुटाया है।
मोहम्मद सज्जाद, सज्जाद अहमद डार
25 Feb 2020
Translated by महेश कुमार
 पुलिस को जाने से रोकती महिलाएं।
अलीगढ़ के विरोध स्थल शाह जमाल इलाके में पुलिस को जाने से रोकती महिलाएं। चित्र सौजन्य: मकतूब

उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ शहर के बाहरी इलाके शाह जमाल में चल रहे विरोध प्रदर्शन पर रविवार की दोपहर को पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए बल का प्रयोग किया। आंसू गैस के गोले दागे गए। इन प्रदर्शनकारियों में ज्यादातर महिलाएं शामिल थीं। यह पुलिसिया हिंसा राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (NPR) और अखिल भारतीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के खिलाफ शाह जमाल इलाके में तीन सप्ताह चल रहे विरोध प्रदर्शन की परिणति है।

22-23 फरवरी की रात को, महिलाओं के एक बड़े समूह ने अलीगढ़ की ओल्ड सिटी के अपर फोर्ट में पुलिस चौकी के सामने धरना दिया था। उस दिन, पुलिस ने कथित तौर पर प्रदर्शनकारियों के लिए लाई जा रही खाद्य आपूर्ति को अवरुद्ध कर दिया था और उन्हें तिरपाल और यहां तक कि कंबल का इस्तेमाल करने से भी रोक दिया था।

दिल्ली के शाहीन बाग के मुक़ाबले इस विरोध प्रदर्शन के बारे में लोग अज्ञात रहे। कम से कम रविवार रात को हुई हिंसा तक तो कोई नहीं जानता था कि यहां भी पुरजोर तरीके से महिलाएं डटी हुई हैं। इस आंदोलन की अगुवाई भी महिलाओं द्वारा की जा रही थी। वे अपने विरोध में शाह जमाल इलाके में नई ईदगाह के गेट पर राष्ट्रीय तिरंगा फहराते हुए धरने पर बैठी थीं। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि पुलिस के दखल के बाद क्या स्थिति है, लेकिन यह तय हैं कि गंभीर पुलिसिया दमन के बावजूद प्रदर्शनकारियों ने पिछले कई दिनों से आंदोलन को जारी रखने पर जोर दिया है।

शाह जमाल के विरोध की खासियत यह है कि इसमें अलीगढ़ के मजदूर वर्ग और दैनिक मजदूरी करने वाले मुस्लिम शामिल हैं, न कि सम्पन्न तबका। पूरे शाह जमाल इलाके में मजदूर, रिक्शा चालक और छोटे स्तर के उद्यमी रहते हैं जो अलीगढ़ के सामाजिक और आर्थिक जीवन के सबसे निचले पायदान पर हैं।

अलीगढ़ शहर के बाकी हिस्सों के मुक़ाबले शाह जमाल एक पिछड़े और गरीब दिखने वाले इलाके के अलावा कुछ नहीं है। यह इलाका वनों की हरियाली से भरा था और जहां 14 वीं शताब्दी के सूफी संत, शमसुल आरिफिन शाह जमाल की दरगाह थी और यहां पुरानी ईदगाह भी है। 1795 में, मराठा शासक, महादजी सिंधिया के फ्रांसीसी प्रशासक डी बोइग्ने ने इस दरगाह को दो गांव दिए थे, जिनका नाम धोरा और जमालपुर था। ये दोनों गांव शहर के ऊपरी सिविल लाइंस क्षेत्र में पड़ते हैं और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) परिसर से सटे हुए हैं।

यह दरगाह उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड से पंजीकृत है और यह "अलीगढ़ जिले की सबसे अमीर और सबसे बड़ी दरगाहों में से एक है", जर्मन विद्वान, एलिजाबेथ मन्न, जिन्होंने 1992 में अलीगढ़ के मुसलमानों पर अध्ययन किया था, उन्होंने इस बात को लिखा था। विडंबना यह है कि इस सबसे समृद्ध दरगाह के चारों ओर अलीगढ़ के सबसे गरीब मुसलमानों की बस्ती है। यह वह जगह है जहां रविवार की दोपहर को पुलिस ने महिला प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए बल का प्रयोग किया था। किसी भी समय प्रदर्शन स्थल पर कम से कम 2,000 महिलाओं को देखा जा सकता था।

शाह जमाल वास्तव में सुविधा विहीन है

इस इलाके में सुविधा केवल पुलिस चौकी और रोज़मर्रा की जिंदगी में इसके दमनकारी अनुचित दखल के रूप में मौजूद है- जैसे कि वह दमनकारी सरकारी नीतियों के खिलाफ स्थानीय विरोध को समाप्त करने के लिए बल प्रयोग करने की कोशिश कर रही है। यहां कोई सरकारी स्कूल या अस्पताल नहीं हैं। राशन कार्ड व्यवस्था बमुश्किल काम करती है। इन निवासियों को सरकार, सत्ता पक्ष-विपक्ष और शहर के कुलीन मुसलमानों द्वारा उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। अलीगढ़ के संपन्न तबकों से यहां के स्थानीय लोगों की सामाजिक दूरी इतनी ज़्यादा है कि वे उनके बारे में भूल गए हैं, यहां तक कि एएमयू भी उन्हें पता नहीं है। कुछ लोगों ने संभवत: शाह जमाल की महिलाओं की मदद की पेशकश की है, लेकिन यह गुपचुप मदद की पेशकश है क्योंकि स्थानीय पुलिस पहले से ही इन प्रदर्शनकारियों के प्रति काफी उग्र है।

दबाव इतना था कि महिला प्रदर्शनकारियों ने विरोध स्थल पर आने वाले अज्ञात लोगों से बात करने से भी इनकार कर दिया। दिन के समय विरोध का स्वर काफी धीमा रहता है जब तक कि कोई अतिथि वक्ता उन्हे संबोधित करने न आए। धरना केवल रात में ही तेज होता था। रात के समय स्थानीय लोग अपने काम खत्म कर इसमें शामिल होते थे। मिसाल के तौर पर, एक माली जो सिविल लाइंस हवेली के लॉन में काम करता है, वह सुबह 11 बजे से 1 बजे के बीच प्रदर्शन स्थल पर आता था। जब ये लेखक विरोध स्थल पर पहुंचे तो इस प्रदर्शनकारी ने उनसे सचेत होकर बात की। उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे एनपीआर और एनआरसी के खिलाफ चल रहे इस संघर्ष ने रविवार को यह मोड़ ले लिया।

क्या पुलिस को किसी “नजदीकी” व्यक्ति ने खबर दी थी?

प्रदर्शनकारियों की चिंता यह है कि इस घटना से उनमें से कुछ को महत्वपूर्ण आयोजकों के रूप में पहचान लिया जाएगा। उन्होंने बताया कि पुलिस के पास पहले से ही भोजन, कंबल, चाय, खाना इत्यादि वितरित करने वाले वालिनटीयर्स के बारे में विस्तृत जानकारी है। इन वालिनटीयर्स की "आयोजकों" के रूप में निशानदेही की गई है जो उनपर दमन करने का कारण प्रदान करता है।

पुरुष प्रदर्शनकारियों के रूप में हालांकि उनकी तादाद बहुत कम है, लेकिन उन्होंने काफी निराशा जताई कि नागरिकता दस्तावेजों के संग्रह को लेकर उनकी चिंताओं को सुनेगी। उन्होंने शासन और प्रशासन पर मुसलमानों के खिलाफ पहले से मौजूद पूर्वाग्रह के आधार पर कार्यवाही करने का आरोप लगाया। इसलिए, उन्होंने महसूस किया कि इस विरोध को जारी रखने का कोई मतलब नहीं है। फिर भी, लेखकों को आभास हुआ कि प्रदर्शनकारी भी वास्तव में अपने विरोध को समाप्त नहीं करना चाहते हैं। वे हमें और ज़्यादा नहीं बता रहे क्योंकि हम शाह जमाल के लिए अजनबी और बाहरी हैं।

एक ऐसी भी भावना है कि पुलिस और सत्तारूढ़ पार्टी के एजेंट और मुखबिर भी हमारे बीच में हैं, वे कहते हैं कि हम "समय बर्बाद कर रहे हैं" और "काम पर लौटने" के लिए कह रहे हैं। लोग जानते हैं कि इन मुखबिरों ने ऐसा कोई आश्वासन नहीं दिया है कि एनपीआर-एनआरसी से कोई नुकसान नहीं है। न ही वे यह बता पाए हैं कि नागरिकता साबित करने के लिए किन दस्तावेजों की आवश्यकता होगी।

पिछले कुछ दिनों में इस विरोध प्रदर्शन में एक और अप्रत्याशित विकास हुआ है वह ये कि दलितों, विशेषकर युवा महिलाओं और सिखों ने इस आंदोलन के साथ एकजुटता दिखाई और इससे जुड़ रहे हैं। फिर भी, संदेह और अनिश्चितता का माहौल है, और शाह जमाल के विरोध में हर आने-जाने वाले पर कड़ी नज़र रखी जाती है। यहां के लोगों को डर है कि बदमाश हिंसा या गैरकानूनी गतिविधियों के जरिए घुसेंगे और लोगों को भडकाएंगे ताकि पुलिस को कार्रवाई करने का बहाना मिल जाए। उन्हें डर है कि विरोध को कुचलने से पहले उनके विरोध को बदनाम किया जाएगा।

अभूतपूर्व पुलिस निगरानी और भय

पुलिस बल इन प्रदर्शनकारियों और उन लोगों के बीच का संबंध खोजने की कड़ी मेहनत कर रहा है, जिन्हें वे "राष्ट्र-विरोधी" कह सकते हैं। मस्जिदों के इमामों और नमाज पढ़ाने वालों पर कड़ी नज़र रखी जा रही है। बिना किसी नाम के दर्जनों एफआईआर दर्ज की जा रही हैं और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की भरपाई के लिए दंडात्मक जुर्माना भरने की नोटिस भेजी जा रही है। इस तरह के "नुकसान" को साबित करने के लिए उनके पास कोई सबूत नहीं है क्योंकि प्रदर्शनकारियों ने किसी भी महत्वपूर्ण सड़क की नाकाबंदी नहीं की है।

“हम इस विरोध को समाप्त करने के लिए सभी तरह के प्रयास कर रहे हैं, और हर दिन एक रिपोर्ट मुख्यमंत्री को भेजी जाती है। इसे स्थानीय प्रशासन की एक सफलता ही माना जाना चाहिए कि विरोध किसी भी तरह से हिंसक नहीं हुआ है।” उक्त बातें अलीगढ़ के जिलाधिकारी सीबी सिंह ने कुछ दिनों पहले कही थी।

रविवार की दोपहर बाद की घटना

20 फरवरी की रात को, कुछ मीडियाकर्मियों ने प्रदर्शनकारियों को विरोध बंद करने को कहा। कुछ तो व्यापक रूप से बिकने वाले हिंदी दैनिक थे, जो विशेष रूप से इस आंदोलन के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख रखते हैं और प्रदर्शनकारियों को देशद्रोही के रूप में चित्रित करते हैं। इस बीच, कुछ सतर्क प्रदर्शनकारियों ने धरने को राजनीतिक न दिया जाए इसलिए एक नीति तैयार की गई: जिसके तहत अब तक किसी भी राजनीतिक नेता को मंच पर जगह नहीं दी गई है।

अनौपचारिक रूप से, हमारे दौरे के दौरान स्थानीय पुलिसकर्मियों ने कहा कि उन्हें लगा कि शाह जमाल का विरोध एएमयू छात्रों द्वारा समर्थित है, लेकिन यह दावा प्रदर्शनकारियों द्वारा तख्तियों पर लिखे रचनात्मक नारों से जाहिर होता है। लेकिन प्रदर्शनकारियों का कहना है कि अगर कुछ स्पीकर एएमयू से आते हैं तो वे शाह जमाल या अपर फोर्ट इलाके के निवासी भी हैं।

सच्चाई यह है कि एएमयू के शिक्षक और छात्र शाह जमाल के बारे में काफी स्पष्ट है। एएमयू के संस्थापक सर सैयद अहमद खान ने भले ही अभिजात वर्ग की धारणा को ध्यान में रखा हो, लेकिन उन्होंने आवामी-शिक्षा का समर्थन किया था। 13 फरवरी, 1886 को, उन्होंने अपने सुधारवादी पत्र, अलीगढ़ संस्थान राजपत्र में लिखते हुए कहा कि प्रत्येक गांव, मुहल्ले और कस्बों में वंचितों के लिए स्कूल चलाने के लिए एक विशाल कोष बनाने की जरूरत है और इस गतिविधियों पर निगरानी के लिए एक समिति बनाने पर भी जोर दिया। उन्होंने अलीगढ़ की एक विस्तृत शैक्षिक और सामाजिक-आर्थिक जनगणना भी करवाई थी।

इस विरासत को संरक्षित रखना तो दूर की बात है, बल्कि एएमयू ने शाह जमाल के गरीब तबके को पीछे छोड़ दिया है। उनका अलगाव, ऐतिहासिक उत्पीड़न और भेद्यता ही वह बड़ा कारण है कि केवल शाह जमाल में विरोध उठा है न कि सर सैयद नगर, धोरा या अपर फोर्ट में। अकेले इस कारण से, एएमयू के मुस्लिम कुलीनों को अपनी समयबद्धता को दूर करना चाहिए और अपनी प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करने के लिए अपनी बौद्धिक क्षमताओं और राजनीतिक साहस का उपयोग करना चाहिए।

अलीगढ़ के साथ 5 अन्य शहर सांप्रदायिक हिंसा के मामले में संवेदनशील हैं

औपनिवेशिक काल के दौरान ऐसा नहीं था। यह सांप्रदायिक हिंसा है जिसने शहर के पैटर्न को बदल दिया है। शाह जमाल 1970 के दशक में इस तरह के हिंसक प्रकरण के बाद सामने आया था। सबसे गरीब, जो यहां मुसलमान थे, दरगाह के आसपास अपने घर बनाने और बसाने के लिए पुराने शहर की भीड़भाड़ वाली सड़कों और छोटे घरों को छोड़ कर चले आए थे। 1990 के दशक में, समय-समय पर घटने वाली सांप्रदायिक हिंसा जो शहर को घेर लेती थी, डर के मारे अधिक मुस्लिम लोग बाहरी इलाकों में जाते रहे जहां हिंदू और मुस्लिम कम उलझते थे।

अलीगढ़ के मुसलमान, जो बड़े पैमाने पर तीन सामाजिक-आर्थिक श्रेणियों में आते हैं, को भी स्थानिक रूप से अलग किया जा सकता है। सिविल लाइंस का क्षेत्र, जिसमें सर सैयद नगर और धोरा शामिल हैं, यहां शिक्षित अभिजात वर्ग के घर हैं, जो पुराने शहर के अपने धर्म के ही लोगों को अवमानना की दृष्टि से देखते हैं। ओल्ड सिटी या अपर फोर्ट गैर-कुलीन मुसलमानों का घर है, जहां ज्यादातर व्यापारिक और व्यावसायिक तबका रहता हैं।

शाह जमाल तीसरी श्रेणी में आता हैं। फ्रांसीसी विद्वान जूलियट गैलनियर ने शाह जमाल के मुस्लिम निवासियों का वर्णन करने के लिए "वास्तव में वंचित" तबके शब्द का उपयोग किया है। इस शब्द का इस्तेमाल पहली बार अमेरिकी विद्वान विलियम जूलियस विल्सन द्वारा किया गया था, जिन्होंने काले वंचित तबके के हालत से इनकी तुलना की थी – वे लोग जिन्होंने बस्तियों में नस्लवाद झेला और वंचित तबके से होने के नाते और अधिक तेज़ी से ऊपर जाने वाला मध्य वर्ग के रूप में इन हमले को झेला था। उदाहरण के लिए, शाह जमाल की दो नगरपालिका वार्डों में से एक में ज्यादातर मुस्लिम तेली समुदाय और भिश्ती (जल-वितरक) हैं। ये वास्तव में अलीगढ़ में सबसे कमजोर मुस्लिम समुदाय हैं।

उनके इतिहास और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, जो साहस उन्होंने दिखाया है, इसके लिए शाह जमाल को समर्थन की जरूरत है। जैसे-जैसे अधिक से अधिक दलित और सिख उनसे जुड़ते गए, हिंदुओं को भी भगवाकरण या विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने के बारे में फिर से सोचने की जरूरत है।

बहुत से हिन्दू मध्यम वर्ग के लोगों को विरोध के इतिहास पर नज़र डालने की जरूरत है

जब मार्च 1974 में प्रदर्शनकारी छात्रों ने अंग्रेजी दैनिक सर्चलाइट और हिंदी दैनिक प्रदीप के कार्यालयों पर हमला किया था, तो राज्य ने उनका दमन किया और सज़ा दी थी, लेकिन समाज के व्यापक हिस्से ने उन्हें देश-विरोधी नहीं माना था। 1955 में पटना में पुलिस की बर्बरता के विरोध में जब गुस्साए छात्रों ने राष्ट्रीय ध्वज फहराया था और स्वतंत्रता दिवस पर काले झंडे दिखाए थे, तब भी समाज ने उन्हें "राष्ट्र-विरोधी" नहीं माना था।

भारतीयों को यह समझने की जरूरत है कि लोकप्रिय सक्रियता तभी उत्पन्न होती है जब एक निर्वाचित सरकार, उसके संस्थान और समाज का एक वर्ग लोगों की जायज मांगों को नकारते हैं।

संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत, भारत में नागरिक अधिकारों के संघर्ष का इतिहास नहीं है जो सभी अल्पसंख्यकों के लिए समान अधिकार की मांग करता है। यह अंग्रेजों के खिलाफ राष्ट्रवादी संघर्ष था जिसने एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक संविधान का निर्माण किया था। अब जब इस संविधान पर प्रमुखता से हमला बोला जा रहा है, और इसे बचाने में संस्थान (अधिकांश मीडिया सहित) या तो असफल हो गए हैं या सत्तावादी ताकतों के साथ मिल गए हैं, ऐसी स्थिति में शाह जमाल और शाहीन बाग ही हैं जो समानता और बंधुत्व के लोकप्रिय संघर्षों को आगे बढ़ा रहे हैं।

बावजूद जाति, वर्ग, लिंग, क्षेत्र और असंख्य अन्य दोष-रेखाओं पर बातचीत करते हुए फिलहाल चल रहे एनआरसी और एनपीआर विरोधी संघर्षों ने अशिक्षित, रूढ़िवादी और पर्दे में रहने वाली मुस्लिम महिला के बारे में सभी भ्रांतियों को ध्वस्त कर दिया है। ये विरोध भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ है जिसे खासा महत्व दिया जाना चाहिए। राज्य और इसकी संस्थाओं और समाज को देश भर में शाह जमाल के आह्वान पर ध्यान देना चाहिए।

मोहम्मद सज्जाद इतिहास के शिक्षक हैं और सज्जाद अहमद डार पीएचडी के छात्र हैं। वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से 20 वीं सदी के शहरी इतिहास पर शोध कर रहे हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Why a Crackdown on Shah Jamal Protesters is Unjust

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UP police

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