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भारत
राजनीति
क्यों दलितों के जीवन के कोई मायने नहीं है?
उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले के डोमखेड़ा गाँव में एक किशोर दलित लड़के की उसके घर में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी गई। ये ऐसे समय हुआ है जब #ब्लैकलाइव्समैटर आंदोलन ने पूरी दुनिया को हिला रखा है।
कांचा इलैया शेफर्ड
30 Jun 2020
Translated by महेश कुमार
Dalit Lives

उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले के डोमखेड़ा गाँव में एक किशोर दलित लड़के की ऐसे समय में उसके घर में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी गई, जब #ब्लैकलाइव्समैटर आंदोलन (Black Lives Matter movement ) ने पूरी दुनिया को हिला रखा है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, गांव के एक मंदिर में प्रवेश करने पर ऊंची जाति के समुदाय के युवकों से हुई कहा-सुनी के बाद कथित तौर पर उसकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। 2014 में दिल्ली की सत्ता में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के आने के बाद भारत में दलितों की ऐसी हत्याएं आम बात हो गई हैं।

विकास कुमार जाटव (17 वर्ष) 1 जून, 2020 को अपने पिता ओम प्रकाश जाटव जो एक किसान हैं, के साथ स्थानीय शिव मंदिर गए थे। ‘द टेलीग्राफ’ ने बताया कि लड़के के पिता के अनुसार, मंदिर में प्रवेश करने के मामले में ऊंची जाति के सदस्यों की चेतावनी को नजरअंदाज करने से विकास के साथ हाथापाई हो गई, जिसमें होराम चौहान नाम का लड़का भी शामिल था, जिसने जाटव जाति की पहचान के आधार पर मंदिर में प्रार्थना करने से ही रोकने की कोशिश की लेकिन विकास ने मंदिर में प्रार्थना करना जारी रखा। यानी हिंदू मंदिर में प्रार्थना की सज़ा मौत है। होराम चौहान की जाति की पृष्ठभूमि क्या है? हम नहीं जानते। आइए हम यह मान लें कि वह एक शूद्र युवा है न कि ब्राह्मण या द्विज युवा। ज्यादातर शूद्र युवा गांवों में रहते हैं। दलित बुद्धिजीवी इस तथ्य की ओर इशारा करते रहे हैं कि शूद्रों द्वारा दलितों पर सबसे अधिक अत्याचार किए जा रहे हैं।

भारतीय मीडिया में यह क्रूर हत्या फिर चाहे प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक में, कोई मुख्य ख़बर नहीं बन पाई। आम तौर पर दलित मौतें खबर नहीं बनती है। लेकिन अमेरिका में, किसी भी काले की हत्या प्रमुख समाचार बन जाती है। भारत में ऐसा नहीं है। एक मंदिर में इबादत के लिए ऐसी भयंकर हत्या के खिलाफ, भारत में कोई विरोध प्रदर्शन नहीं होता है।

#ब्लैकलाइव्समैटर (‘Black Lives Matter’) जैसा कोई विरोध भारत में नहीं होता है क्योंकि, हिंदू राष्ट्र में, दलितों को हिंदू मंदिर में नहीं जाने का आदेश है इसलिए उन्हे वहाँ इबादत का हक़ भी नहीं है। शूद्र जातियों, जिन्हें मंदिर में प्रवेश करने और प्रार्थना करने का अधिकार है, लेकिन वे भी हिंदू मंदिर में पुजारी नहीं बन सकते हैं, माना ये जाता हैं कि ब्राह्मण भगवान हैं और जो वे कहते हैं वह किया किया जाना चाहिए। दलितों पर उनके द्वारा हमला उनकी ब्राह्मण भगवान में आस्था से जोड़ा जाना चाहिए।

एक ब्राह्मण पुजारी, जो संस्कृत में श्लोक और मंत्रों का पाठ करता है, और जो शूद्र को समझ में नहीं आते है, फिर भी वह ब्राह्मण का हुक्म मानता है कि दलित का मंदिर में प्रवेश मंदिर को प्रदूषित करता है। पुजारी मंदिर के अंदर एक दलित को नहीं चाहता है क्योंकि उसकी औकात एक गाय से भी कम है, जिसे कभी-कभी मंदिर के अंदर ले जाया जा सकता है। इसलिए एक ब्राह्मण पुजारी निर्देश देता है और उस आदेश पर एक शूद्र कार्य करता है। यदि दलित समुदाय के लोग मंदिर के अंदर प्रार्थना करने की कोशिश कराते हैं तो ब्राह्मण देवता का शरीर जल उठता है।

आम तौर पर, ब्राह्मण युवा खुद इस तरह की हिंसा/हत्या में भाग नहीं लेते हैं क्योंकि वे बाहुबली दल या दस्ते का हिस्सा नहीं होते हैं और वे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं,क्योंकि उनके परिवार के पुरुष सदस्य मंदिरों में आसानी से पैसा कमा रहे होते हैं। बहुत से शूद्र युवा गाँवों में ही रहते हैं, क्योंकि इनमें से कई युवक कॉलेज या विश्वविद्यालय की शिक्षा हासिल करने नहीं जाते हैं, क्योंकि उनके माता-पिता ज़मीन जोतते हैं या मवेशियों को चराने जाते हैं।

जब सैकड़ों साल पहले हिंदू धर्म की अवधारणा नहीं थी, तब शूद्र अपने शूद्र देवता की मंदिरों में पूजा करते थे, वह भी बिना ब्राह्मण पुजारी के और उस समय दलितों की उपस्थिति को प्रदूषण के रूप में नहीं देखा जाता था। एक शूद्र मंदिर सभी ग्रामीणों के लिए समान था। यह कोई किसी ब्राह्मण पुजारी का नियंत्रण कक्ष नहीं था जिसे भगवान के रूप में माना जाता है। उनके भगवान उनके शूद्र देवता थे, और शुद्र मंदिर में पवित्रता और प्रदूषण की अवधारणा की बात शायद ही चलती थी। शूद्र और दलित खेतों में साथी मजदूर के रूप में काम करते थे। वे कई सामान्य संस्कृतियों को साझा कराते थे। लेकिन जब से  ब्राह्मणवाद को हिंदू धर्म के रूप में नामित किया गया और ब्राह्मण पुजारी ने मंदिर को नियंत्रित करना शुरू किया, भगवान और मंदिर के बारे में विचार ही बदल गया। वास्तव में ब्राह्मण भगवान बन गए, और मंदिर में देवता केवल एक प्रतीक। यह मान्यता अब शूद्रों के बीच बड़ी गहरी है।

हालांकि, महात्मा गांधी, एक बनिया दार्शनिक ने ब्राह्मण की स्थिति को बदले बिना दलितों को हरिजन (भगवान की संतान) कहा, न तो ब्राह्मण पुजारी ने और न ही शूद्र ने उस स्थिति को स्वीकार किया। दलित दार्शनिक, अम्बेडकर ने ब्राह्मण की स्थिति को भगवान के समान रखने वाले विचार का विरोध किया। न तो नेहरू ने, जो कि एक ब्राह्मण पंडित थे, ने दलित की स्थिति के बारे में कुछ लिखा और न ही शूद्र लौह पुरुष सरदार पटेल ने इसमें अपना दिमाग खपाया और इस बारे में कुछ भी नहीं लिखा। उन्होंने इसे भाग्य के माथे मढ़ दिया।

दलित की समस्या शूद्र है, क्योंकि शूद्र दलित को शारीरिक रूप से कुचलने वाला ब्राह्मण का एजेंट है। अमेरिका और यूरोप में नस्लवाद की समस्या के विपरीत जो काले और सफेद रंग की दोहरे विचार की समस्या है, जाति की समस्या बहुस्तरीय समस्या है जहां शूद्र लोग बाहुबली सामूहिक शक्ति का गठन करते हैं जो ब्राह्मण को भगवान के रूप में पूजते हैं, और दलित के ऊपर हमला कराते हैं। कोई भी शूद्र अपने लिए पुजारी का हक़ नहीं मांगता है क्योंकि ब्राह्मण स्वयं भगवान के रूप में पूजनीय हैं।

पश्चिम में गोरे न तो भगवान हैं और न ही उनका भगवान पर कोई नियंत्रण है। काला सीधे तौर पर ईश्वर से बातचीत करता है, बाइबल पढ़ता है और उसकी व्याख्या करता है और चर्च में समुदाय को संगठित करता है क्योंकि ईश्वर चर्च में नस्लवाद और अन्याय को स्वीकार नहीं करता है।


ब्राह्मण के बिना हिंदू धर्म कुछ नहीं है, और शूद्र ब्राह्मण के सामने आत्मसमर्पण करता है क्योंकि शूद्र का अपना कोई आध्यात्मिक दर्शन नहीं है। इसलिए मंदिर में प्रार्थना करने के बदले दलितों की हत्या के खिलाफ बड़े पैमाने की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है क्योंकि 55 फीसदी भारतीय आबादी वाले शूद्र लोग, ब्राह्मण और उनके द्विज सामाजिक आधार के सहारे खड़े होते हैं, जिनमें उत्तर भारत में ब्राह्मणों के अलावा क्षत्रिय, बनिया, कायस्थ और खत्री आते हैं। अगर दलितों ने कभी विरोध करने की कोशिश भी की, तो शूद्रों के समर्थन वाले ब्राह्मणवादी सत्ता की मदद से उन्हें कुचल देना कोई बड़ी समस्या नहीं है।

यदि शूद्र दलितों के साथ खड़े हो जाते हैं और तर्कसंगत सवाल पूछते हैं: हम हिंदू मंदिरों में पुजारी क्यों नहीं बन सकते हैं और क्यों नहीं उत्पादक क्षेत्रों में हमारे साथ काम करने वाले दलित मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते हैं, तो तब दलित का जीवन भी मायने रखेगा। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक दलित जीवन कोई मायने नहीं रखेगा।

दूसरा तरीका यह है कि भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया, कायस्थ और खत्री को कुछ गोरों की तरह सोचना चाहिए जो ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं। लेकिन यह पश्चिम में संभव हो सकता है क्योंकि बाइबल, जिसे गोरे और काले दोनों पढ़ते हैं उन्हें बताता है कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों (कालों और गोरों) को समान बनाया है। भारत में, ब्राह्मण जिसे शूद्रों द्वारा भगवान के रूप में देखा जाता है, ऐसा नहीं सोचता है और न ही ऐसा कहता है, फिर चाहे उसकी विचारधारा कुछ भी हो, वाम, दक्षिणपंथी या मध्यमार्गी। एक ब्राह्मण केवल ब्राह्मण है।

जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु के बाद ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के दौरान, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश, जो अभी भी सेवा में हैं, ने निम्नलिखित पत्र लिखा:

“काले के जीवन को कम करके आंकना और या उनके साथ दुर्व्यवहार करना कोई हाल की घटना नहीं है। यह एक निरंतर और व्यवस्थागत अन्याय है जो इस राष्ट्र की स्थापना के पहले से चल रहा है। लेकिन हाल की घटनाओं ने हमारे सामूहिक विवेक को एक दर्दनाक तथ्य के रूप में सामने खड़ा कर दिया है, कि हमारे कई नागरिकों के मामले में जो, सामान्य ज्ञान है: कि काला अमेरिकी जिस अन्याय का सामना करते हैं वह अतीत का कोई अवशेष नहीं हैं...। यह हमारे प्रत्येक व्यक्तिगत कार्यों का सामूहिक उत्पाद है –यानी हर दिन, हर काम का नतीजा है। इसके लिए हमें केवल अपने कार्यों का सावधानीपूर्वक चिंतन करना होगा,उनके लिए अलग-अलग ज़िम्मेदारी लेने होगी,और ऐसा कर हम विरासत में मिली इस शर्मनाक विरासत को संबोधित कर सकते हैं, उसे बेहतर करने के लगातार प्रयास कर सकते हैं। हम अपने कानूनी समुदाय के प्रत्येक सदस्य का आह्वान करते हैं कि वे इस मुद्दे पर चिंतन कर खुद से पूछे कि नस्लवाद को नष्ट करने के लिए एक साथ कैसे काम कर सकते हैं”।

ये गोरे जज हैं। क्या ब्राह्मण न्यायाधीश भारत में दलित जीवन की रक्षा के लिए ऐसा पत्र लिखेंगे?

कुछ ब्राह्मण जो अमेरिका और यूरोप में रहते हैं, वे सोच सकते हैं कि नस्लवाद बुरी बात है और ब्लैक लाइव्स मैटर के विरोध आंदोलनों में भाग ले सकते हैं। लेकिन भारत में, वे दलित लाइव्स मैटर कभी  नहीं कहेंगे। वे यह भी नहीं पूछते कि क्या हिंदू धर्म एक धर्म है और शूद्र और दलित इसका हिस्सा हैं, उन्हें पुरोहितवाद का अधिकार क्यों नहीं है? न तो कम्युनिस्ट और न ही धर्मनिरपेक्ष और न ही उदारवादी और न ही हिंदुत्व ब्राह्मण यह सवाल पूछते हैं।

यदि शूद्रों को पुरोहिती का लाभ मिलता है, तो दलित समस्या का आधा हल हो जाएगा। भारत में ऐसा कोई ब्राह्मण बौद्धिकता नहीं है जो इस परिवर्तन की अनुमति देता है। क्योंकि कोई भी ब्राह्मण यह नहीं सोचता है कि वह भी एक सामान्य इंसान है जिसे भगवान ने दलित और शूद्र के साथ एक समान बनाया है, जो कि किसी भी ब्राह्मण की आंतरिक सोच है। लेकिन कोई भी शूद्र, फिर चाहे जाट, पटेल या मराठा, लिंगायत, वक्कलिंग, कम्मा, रेड्डी या एक नायर, ब्राह्मण के भीतर के आत्म को नहीं समझता है। कोई भी ब्राह्मण खुद ब्राह्मणत्व की निंदा नहीं करता है। किसी शूद्र के पास ब्राह्मण के उस आंतरिक आत्म को समझने की बौद्धिक ऊर्जा नहीं है।

शूद्रों की एक अन्य समस्या भी है। उन्होंने अपने समुदाय में कालों में मार्टिन लूथर किंग जूनियर या दलितों में अंबेडकर के कद के किसी एक बौद्धिक या नैतिक दार्शनिक को तैयार नहीं किया है। वे मुख्य रूप से ब्राह्मण पुजारी के मार्गदर्शन में एक बाहुबली ताक़त और स्थानीय शासक शक्ति बने हुए हैं।

दलित इसलिए गौरवान्वित हो गए क्योंकि उनके पास अंबेडकर जैसे एक आध्यात्मिक और सामाजिक दार्शनिक है, लेकिन शूद्र के बीच से भगवान और ब्राह्मण के बीच से ब्राहमण को हटाने के लिए कोई शूद्र दार्शनिक नहीं उभरा है। फिर भी जब तक शूद्र ब्राह्मण की तरफ रहता है, दलित अपनी लड़ाई में सफल नहीं हो सकते हैं। न तो सरदार वल्लभाई पटेल और न ही पेरियार रामासामी नायकर और न ही नारायण गुरु उन कार्यों को पूरा कर सकते थे। महात्मा फुले ने प्रयास किया, लेकिन वे नए आध्यात्मिक और सामाजिक ज्ञान के समय से थोड़ा पहले के हैं। शूद्रों को अब ब्राह्मण नामक बिचौलिया को हटाकर भगवान के साथ खुद को जोड़ने के लिए एक आध्यात्मिक, समाज सुधारक की आवश्यकता है। शूद्र पूर्व-फ्रेडरिक डगलस काल में कालों की तरह थे।

दलित लाइव्स मैटर का सवाल शूद्र आध्यात्मिक अधिकार से भी संबंधित है, और उन्हें उन अधिकारों के लिए लड़ने की जरूरत है। ब्राह्मण देवता पूरी तरह से शूद्र मन और बाहुबलीपन की शक्ति के नियंत्रण में है। जब शूद्रों के पास वह आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है जो सामाजिक संबंधों में बदलाव के लिए एक पूर्व शर्त है, तो दलित जीवन हमेशा खतरे में रहेगा। जैसा कि कुछ दलित बुद्धिजीवी तर्क दे रहे हैं कि समस्या शूद्रों के साथ नहीं है, बल्कि सिर्फ ब्राह्मण रूपी भगवान के साथ है।

अमेरिका में काले ईसाई हैं और 20वीं सदी की शुरुआत में, उनके पास उनके लिए अलग से चर्च थी। लेकिन जब मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने नागरिक अधिकारों के आंदोलनों की शुरुआत की, तब तक गोरों ने संयुक्त चर्चों में प्रचारकों के रूप में काले पादरियों को स्वीकार कर लिया था। श्वेत नस्लवाद और श्वेत मानवतावाद ने अपराध और शर्म की भावना के साथ नस्ल के प्रश्न को आगे बढ़ाया और उस पर चर्चा की। कई गोरों ने कालों की मुक्ति की मांग करते हुए किताबें लिखीं। उसी समय, कई गोरे नस्लवादी जीवन प्रक्रिया से अभिभूत होकर कालों पर हमला कर रहे थे। शायद ही किसी ब्राह्मण ने दलित-शूद्र मुक्ति के लिए आध्यात्मिक और सामाजिक रूप से किताबें लिखीं हों। इससे दलित ज्यादा प्रभावित होते हैं।

कालों में से बराक ओबामा उभरे जिन्होंने बिल क्लिंटन और जॉर्ज डब्ल्यू बुश जैसे दो पूर्ववर्ती गोरे राष्ट्रपतियों की तुलना में और उनके उत्तराधिकारी डोनाल्ड ट्रम्प से अधिक गरिमा के साथ अमेरिका (और दुनिया) पर आठ साल तक शासन किया। प्रतिभा, संस्कृति, चरित्र और दृष्टि में, काले राष्ट्रपति गोरे राष्ट्रपतियों से बहुत आगे बढ़े हुए साबित हुए। मिशेल ओबामा भी अपने पूर्ववर्ती और तत्काल उत्तराधिकारी की प्रथम महिला की तुलना में अधिक बुद्धिमान और सम्मानजनक पहली महिला साबित हुईं। कई काले बुद्धिजीवी, लेखक,सांस्कृतिक, दार्शनिक नेता हैं जो श्वेत बुद्धिजीवियों, विचारकों और दार्शनिकों की बुद्धिमानी से मेल खाते हैं। हमारे देश में ऐसे शूद्र बुद्धिजीवी, विचारक और दार्शनिक कहां हैं जो दलितों के साथ खड़े हो सकते हैं और उनके बारे में लिख सकते हैं?

विशेष रूप से मार्टिन लूथर किंग जूनियर और ओबामा ने काले लोगों को गौरवान्वित किया है। उनके नेताओं और उनके बुद्धिजीवियों ने कालों के आत्म-सम्मान को बढ़ावा दिया है, जिससे इस तरह के गुस्से की प्रतिक्रिया हुई और सामान्य गोरों ने महसूस किया कि कालों को हर क्षेत्र में बराबर का सम्मान मिलना चाहिए।

शूद्रों को शिक्षित करने वाला कोई एक शूद्र विचारक,नेता या मसीहा कहां है, जो कह सके कि ब्राह्मण कोई देवता नहीं है और दलित कोई दास नहीं है?

कांचा इलैया शेफर्ड एक राजनीतिक विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता और कई पुस्तकों के लेखक हैं, जिसमें शेफर्डबॉय टू एन इंटेलेक्चुयल शामिल है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर सकते हैं-

Why Dalit Lives Do Not Matter?

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