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क्यों IBC क़र्ज़ वसूली में बैंकों की मदद नहीं कर पाया है?
'बल्कि यह पूरी प्रक्रिया बैंकों से बड़े उद्यमियों तक संपदा के हस्तांतरण का एक सुरक्षित उपकरण बन गई है। इनमें से ज़्यादातर बैंक सरकारी हैं। मतलब इनके मालिक भारत के आम नागरिक हैं।'
सी.पी.चंद्रशेखर
12 Jul 2021
क्यों IBC क़र्ज़ वसूली में बैंकों की मदद नहीं कर पाया है?

पिछले दो दशकों से भारत में पर्दे के पीछे कॉरपोरेट का खेल तेजी से चल रहा है, जिसमें बड़े पैमाने पर, खासकर सार्वजनिक बैंकिंग तंत्र से संपदा का हस्तांतरण किया जा रहा है। 'भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता (इंसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड- IBC)' का इस्तेमाल कर, कर्ज़ चुकाने से बचने वाले कॉरपोरेट घरानों के कुछ मामलों में अब बहुत देर से निपटारा किया जा रहा है। जिन मामलों का पूरा निपटारा हो चुका है, उनके नतीज़ों का विश्लेषण करने से दो चीजें पता चल रही हैं- 1) सरकारी बैंक बड़े स्तर पर 'हेयरकट (कुल देय में से स्थायी घाटा)' ले रहे हैं और नुकसान उठा रहे हैं। जिसका भार अंत में करदाताओं पर पड़ेगा, क्योंकि उन्हीं के पैसे से इन बैंको का पुनर्मुद्रीकरण होगा। 2) जो लोग कॉरपोरेट डिफॉल्टर्स की संपत्तियों को खरीदते हैं, वे इन्हें मोलभाव के ज़रिए कम कीमतों पर हासिल करते हैं। 3) बैंक द्वारा बड़े स्तर पर कर्ज को 'राइट ऑफ़ (वसूली सूची से हटाने की प्रक्रिया)' करने से डिफॉल्ट कंपनियों के मालिकों-मुख्य हिस्सेदारों को फायदा होता है। लगातार कर्ज़ लेना, फिर उसकी अदायगी ना करना और आखिर में बैंक के साथ समझौता करना (जिसमें तीसरा पक्ष भी शामिल हो सकता है और नहीं भी), यह प्रक्रिया भारत में उदारवाद आने के बाद राज्य से बड़े उद्मियों तक संपदा हस्तांतरण का एक तरीका बन गया है।

इस बात के इतने सबूत आ चुके हैं कि 'राष्ट्रीय कंपनी अपीलीय न्यायाधिकरण (NCLT)' ने तक उस प्रक्रिया की मंशा पर सवाल उठा दिए हैं, जिसमें 'रेज़ोल्यूशन प्रोफ़ेशनल्स' द्वारा खुद NLCT के ज़रिए 'रेज़ोल्यूशन प्लान (समाधान योजना)' प्रस्तावित करवाया जाता है और 'कमेटी ऑफ़ क्रेडिटर्स (कर्ज़ देनदारों की समिति- CoC)' को इसे अनिवार्य तौर पर पारित करना होता है। इसे समझने के लिए वीडियोकॉन इंडस्ट्री का केस लीजिए। वीडियोकॉन इंडस्ट्री अपने 35,000 करोड़ रुपये के कर्ज़ (नॉन परफॉर्मिंग डेब्ट) का समाधान चाहती थी। इसके लिए मामला NCLT के सामने लाया गया। जो समाधान पेश किया गया, उसे तहत वीडियोकॉन का अधिग्रहण वेदांता समूह की कंपनी 'ट्विन स्टार टेक्नोलॉजी' द्वारा किया जाना था। इसका मालिकाना हक़ खनन व्यापारी अनिल अग्रवाल के पास है। रेज़ोल्यूशन प्लान के मुताबिक़ ट्विन स्टार को 2,363 करोड़ रुपये 'दिवालिया हो चुके कर्ज़ लेनदार के बदले में चुकाना' था। इस योजना को वीडियोकॉन ने अपनी अनुमति भी दी। मतलब कर्ज़ देने वाले बैंक इस योजना पर सहमत हो रहे हैं कि वेदांता कर्ज़ का सिर्फ़ 4.15 फ़ीसदी हिस्सा चुकाकर वीडियोकॉन का अधिग्रहण कर लेगी। बाकी 95.85 फ़ीसदी कर्ज़ को बैंक 'हेयरकट' के तहत डाल देंगे।

अजीब तर्क

इस लेन-देन को सही ठहराने के लिए जो तर्क दिया गया है, वह तो और भी दिमाग हिला देने वाला है। CoC को सिर्फ़ इस बात के लिए प्रस्ताव सही लगा, क्योंकि वेदांता द्वारा प्रस्तावित मूल्य, कंपनी की अनुमानित "लिक्विडेशन वेल्यू (परिसमापन मूल्य)"- 2568.13 करोड़ से ज़्यादा था। इस मूल्य का निर्धारण IBC बोर्ड द्वारा मान्यता प्राप्त पेशेवरों ने किया था। लिक्विडेशन वेल्यू वह जोड़ (आभासी) होती है, जिसके बारे में मूल्य तय करने वाले लोगों का मानना था कि अगर वीडियोकॉन की संपत्तियों को बाज़ार में बेचा जाता, तो संबंधित कीमत मिलती। लेकिन यहां समस्या यह है कि किसी फर्म की लिक्विडेशन वेल्यू निकालने में जो प्रक्रिया अपनाई जाती है, उसमें फर्म का अधिग्रहण करने वाले पक्ष के लिए उसकी सही कीमत को परिदृश्य में नहीं लिया जाता। वीडियोकॉन की संपत्तियों में राव्वा तेल क्षेत्र में 25 फ़ीसदी हिस्सेदारी है। राव्वा तेल क्षेत्र में ONGC की 40 फ़ीसदी, वीडियोकॉन की 25 फ़ीसदी हिस्सेदारी और केयर्न एनर्जी (जिसका अधिग्रहण वेदांता पहले ही कर चुकी है), संड्री के साथ-साथ दूसरी कंपनियों की हिस्सेदारी है। 

राव्वा तेल क्षेत्र से तेल निकासी का औसत 2019-20 में 14,232 बैरल प्रतिदिन से बढ़कर अप्रैल-जून 2020 में 22,037 बैरल प्रतिदिन पहुंच गया है। वीडियोकॉन का बहुत बड़ी छूट पर अधिग्रहण कर, वेदांता समूह, राव्वा तेल क्षेत्र में अपनी हिस्सेदारी को 47.5 फ़ीसदी कर रहा है। यह ONGC से भी ज़्यादा हो जाएगी। इसके अलावा वीडियोकॉन से रियल एस्टेट प्रॉपर्टी के साथ-साथ वेदांता को उत्पादन क्षमताएं भी हासिल होंगी। यह सारी चीजें तय कर देतीं कि वीडियोकॉन, वेदांता को लिक्विडेशन वेल्यू से कहीं ज़्यादा संपत्ति दे रही है।

लेकिन जिस तरीके से IBC रेजोल्यूशन प्लान को बनाया और लागू किया गया, उसके बाद CoC ने जिस मूल्य को मान्यता दी, वह बेहद कम नज़र आता है। अब NCLT के पास वीडियोकॉन का हस्तांतरण वेदांता को करने के अलावा दूसरे विकल्प भी नहीं हैं, क्योंकि पूरी प्रक्रिया में IBC के नियमों का पालन किया गया है। 

लेकिन बैंकों द्वारा बड़े कॉरपोरेट खिलाड़ियों को दानभाव के साथ संपदा के हस्तांतरण पर NCLT चुप नहीं रह सका। मान्यता देने के दौरान NCLT ने टिप्पणी में कहा कि यहां जो योजना बनाई गई है, उसके तहत वेदांता, उधारदाताओं को लगभग नगण्य भुगतान कर रहा है। ऊपर से NCLT को यह जरूरी लगा कि वह 'इंसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी बोर्ड ऑफ इंडिया (IBBI) से 'समाधान प्रक्रिया में तथ्यों को गुप्त रखने की अनिवार्यता' की जांच करने को कहे। क्योंकि वेदांता द्वारा लगाई गई सफल बोली, लिक्विडेशन वेल्यू के बेहद करीब थी। यह वह कीमत थी, जिस पर वीडियोकॉ़न की संपत्तियां लगभग कबाड़ के भाव बेची जा रही हैं। वेदांता की नीलामी बोली और लिक्विडेशन वेल्यू के बीच बहुत कम अंतर को उभारकर, NCLT समाधान प्रक्रिया की निष्पक्षता पर शक को प्रदर्शित करते हुए, शायद प्रक्रिया में संभावित फर्जीवाड़े की ओर इशारा कर रहा है। इस बीच वीडियोकॉन के मूल प्रायोजक इस बात से संतोष कर सकते हैं कि उधार लिए गए कर्ज़ों से उन्होंने जो संपत्तियां बनाई थीं, उन्हें देनदारों को सौंपकर उन्होंने अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा कर दिया है। पता नहीं वीडियोकॉन के मूल प्रायोजक देनदारों से लिए गए 35,000 करोड़ रुपये के कर्ज़ से बनाई गई संपदा या लाभ का कुछ हिस्सा दूसरी तरफ़ मोड़ने में सफ़ल हुए या नहीं।

कई बार देनदारों द्वारा करवाई जाने वाली कर्ज़ अदायगी प्रक्रिया का नतीज़ा बहुत अजीबो-गरीब़ हो सकता है। हो सकता है कर्ज ना चुकाने वाली कंपनियों के प्रायोजकों को बहुत छूट दी जा रही हो, जबकि इस दौरान उन्हें कर्ज़ ना चुकाने वाले कॉरपोरेट पर नियंत्रण बरकरार रखने दिया जा रहा हो। NCLT की चेन्नई पीठ द्वारा एक ऐसे ही केस पर सुनवाई की जा रही है, जो अपने अंतिम दौर में है। यह केस आँखें खोल देने वाला है। सी शिवाशंकरन द्वारा प्रायोजित शिवा इंडस्ट्री होल्डिंग्स लिमिटेड को IDBI बैंक के नेतृत्व में देनदारों द्वारा कॉरपोरेट इंसॉल्वेंसी रेज़ोल्यूशन प्रोसेस के तहत 2019 में लाया गया। कंपनी पर 4,863 करोड़ रुपये के कर्ज़ को ना चुकाने का आरोप था। एक दिलचस्प मोड़ में, लगभग दो साल बाद, IDBI के नेतृत्व वाली देनदारों की समिति (CoC) ने IBC की धारा 12A का उपयोग करने का फ़ैसला किया। इसके तहत कर्ज़दार को एकमुश्त (मोलभाव करने के बाद) समझौते की अनुमति दी गई और इस स्थिति में देनदारों द्वारा सामान्य समाधान प्रक्रिया से आवेदन वापस लेने का विकल्प दिया गया। प्रस्तावित समझौते के मुताबिक़ देनदारों को शिवा इंडस्ट्री से सिर्फ़ 323 करोड़ रुपये और गारंटी देने वाले एक तीसरे पक्ष से संभावित 555 करोड़ रुपये मिलने के ऐवज में शिवाशंकरन को कंपनी का नियंत्रण वापस सौंपने की बात तय हुई। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि NCLT ने IDBI के प्रतिनिधित्व वाले देनदारों से इस फ़ैसले के पीछे की वज़ह और तर्क पूछे। अगर इस कर्ज़ अदायगी समझौते को अनुमति मिल जाती है, तो यह एक नई अभूतपूर्व शुरुआत हो जाएगी, जिसमें कर्ज़ ना चुकाने वाले, बहुत बड़ी छूट पर अपनी ही कंपनियों को वापस खरीद सकेंगे, यह वह कंपनियां होंगी, जिन्हें कर्ज़ के बदले में IBC प्रक्रिया के तहत बिक्री के लिए रखा गया था। 

इन हालिया घटनाओं से पता चलता है कि जिस IBC को खेल बदलने वाला दिवालिया कानून माना जा रहा था, दरअसल वो पूंजीवादियों के लिए संपदा हस्तांतरण का ज़रिया बनने का काम कर रहा है। यह कोड सिर्फ़ इस प्रक्रिया को कानूनी अमलीजामा पहनाता है। एक दशक से यह बात साफ़ हो चुकी है कि 2000 के दशक की शुरुआत में बड़े उद्यमों को कर्ज़ देने में जो तेजी आई थी, उसके चलते भारतीय बैंकों में ना चुकाए जाने वाले कर्ज़ों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है। यह भी साफ़ है कि इस तरह के कर्ज़ों को ना चुकाने वाले, जो मुख्यत: बड़े कॉरपोरेट घराने थे, उनसे अब पैसा लेना बहुत मुश्किल साबित हो रहा है। विवादों को कोर्ट में घसीटा जाता है और सालों-साल तक मुक़दमे चलते हैं। इस दौरान कॉरपोरेस से जिन संपत्तियों के लेकर कर्ज़ का मुआवज़ा लिया जा सकता था, उन्हें बेच दिया जाता है या उनकी कीमक कम होती जाती है।

इस पृष्ठभूमि में सरकार ने 2016 में IBC को बनाया और जारी किया। रेज़ोल्यूशन के पुराने ढांचे, जैसे- कर्ज वसूली न्यायाधिकरण, लोक अदालत और 2002 के SAFAESI एक्ट, जिनका मक़सद कर्ज देनदारों को सहारा देना था, वे अपने काम में सफ़ल नहीं हुए। बड़े कर्ज़े वसूल पाने में नाकाम रहने के बाद बैंकों के ऊपर दिवालिया होने की नौबत तक आ गई, बशर्ते सरकार उनके बड़े नुकसान की भरपाई करे। यह तर्क दिया गया कि IBC के द्वारा एक कार्यकुशल और निश्चित समय सीमा वाली प्रक्रिया बनेगी, जो वह कर पाने में सक्षम होगी, जिसे पुराने कानून नहीं कर पाए। 

एस्सार स्टील, भूषण पावर, भूषण स्टील और बिनानी सीमेंट जैसे मामलों से इस धारणा को और भी बल मिला। एस्सार स्टील के केस में देनदार 49,000 करोड़ रुपये के कर्ज में से 92 फ़ीसदी की वसूली करने में कामयाब रहे थे। भूषण पावर और स्टील के 47,157 करोड़ रुपये के कर्ज में से 41 फ़ीसदी की वसूली कर ली गई, वहीं भूषण स्टील के 56,022 करोड़ रुपये के कर्ज में से 64 फ़ीसदी निकाल लिया गया। वहीं बिनानी सीमेंट के मामले में 6,469 करोड़ रुपये का पूरा कर्ज वसूल कर लिया गया। ना केवल यहां वसूली दर पिछले कानूनों की तुलना में बहुत ज़्यादा थी, बल्कि यहां कम मात्रा में कटौती भी दर्ज की गई, जबकि लिक्विडेशन के रास्ते बहुत कम पैसे हासिल किए जा सकते थे। 

लेकिन इस तर्क के साथ यह दिक्कत है कि यहां यह समझने में भूल हो रही है कि यह सारे उदाहरण अपवाद हैं, सामान्य नियम नहीं। अगर 2021 में मार्च के आखिर तक IBC के अंतर्गत समाधान के अनुभव की बात करें, तो कुछ चीजें बाहर निकल कर आती हैं। पहला, अगर हम कर्ज़दारों से पैसे वसूलने के अनुपात की बात करें, तो कुल 4,376 में कॉरपोरेट इंसॉल्वेंसी रेज़ोल्यूशन प्रोसेस (CIRP) के ज़रिए हल होने वाले 348 मामलों में भी औसतन केवल 39.26 फ़ीसदी कर्ज की ही वसूली हो पाई। यह SARFESI एक्ट, 2002 के तहत वसूली के अनुपात 26 फ़ीसदी से बहुत ज़्यादा नहीं है। इसलिए यह तर्क देना कि IBC एक्ट ने हालात बदलने का काम किया है, वह गलत होगा।

दूसरी बात, 39.26 फ़ीसदी का यह बड़ा आंकड़ा सिर्फ़ अपवाद वाले मामलों (जिनका उल्लेख ऊपर किया गया था) के चलते है, भले ही इनकी संख्या कम हो, लेकिन इनके तहत उठाए गए कर्जे बड़े थे। इसतर 2018 की दूसरी तिमाही में 12 अनुमति प्राप्त रेजोल्यूशन में से जो 42,885 करोड़ रुपये की वसूली की गई, उसमें से 35,571 करोड़ रुपये भूषण स्टील से इकट्ठे किए गए थे। 2019 के तीसरे महीने में, 31 केस में कुल वसूले गए 27,159.17 करोड़ रुपये में से भूषण पावर और स्टील से 14,789.63 करोड़ रुपये वसूले गए थे। 2020 की पहली तिमाही में 29 केस में वसूले गए कुल 25,355.37 करोड़ रुपयों में से 23,223 करोड़ रुपये सिर्फ़ जेपी इंफ्राटेक से वसूले गए थे। नतीज़तन नया IBC लागू होने के बाद की 15 तिमाहियों में से सिर्फ़ 7 में ही 'कुल मांग के अनुपात में वसूल किए गए कर्ज़' का आंकड़ा 30 फ़ीसदी या इससे ऊपर पहुंचा।

अंत में अगर हम प्राप्ति मूल्य का लिक्विडेशन वेल्यू से अनुपात का परीक्षण करें, तो यह 15 में से 11 तिमाहियों में 2 के नीचे रहा है और 8 तिमाहियों में तो यह 1.3 के नीचे तक गया है। अपनी तमाम सफ़लताओं के बावजूद, ज़्यादातर तिमाहियों में जो औसत प्राप्ति मूल्य रहा है, वह लिक्विडेशन वेल्यू से बहुत ज़्यादा ऊपर नहीं गया। मतलब संपत्तियों को बेचकर जितना पैसा इकट्ठा किया जाता, उसकी तुलना में समाधान प्रक्रिया ने बहुत ज़्यादा कीमत वसूलने में मदद नहीं की। यह चीज समाधान प्रक्रिया की अखंडता के बारे में NCLT की चिंता को साफ़ कर देती है। तमाम प्रचार के बावजूद, बड़े कॉरपोरेट खिलाड़ियों को दिए गए कर्ज़ को वसूलने में IBC बैंकों की मदद नहीं कर पाया है। बड़े कॉरपोरेट खिलाड़ी बिना डर के इन देनदारियों को चुकाने से इंकार करते रहे हैं। बल्कि यह पूरी प्रक्रिया बैंकों से बड़े उद्यमियों तक संपदा के हस्तांतरण का एक सुरक्षित उपकरण बन गई है। इनमें से ज़्यादातर बैंक सरकारी हैं। मतलब इनके मालिक भारत के आम नागरिक हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Why the IBC Hasn't Helped Banks Recover Bad Loans

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