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क्यों म्यांमार का मसला चिंतनीय है
म्यांमार में सेना के तख़्तापलट से क्षेत्र में सत्तावादी ताक़तों को बल मिल रहा है, इसलिए भारत और बर्मा के लोगों को वास्तविक लोकतंत्र की लड़ाई को एकजुट होकर लड़ना चाहिए।
नंदिता हक्सर
23 Mar 2021
Translated by महेश कुमार
 म्यांमार

"भूल जाओ कि मेरी कीमत क्या है/ यह शायद उल्लेख के काबिल नही है,/ राष्ट्रपति के नाम को भूल जाओ, /डाव आंग सान सू की को भूल जाओ।" 

“राजनीति को भूल जाओ,/हाँ, हाँ, मैं पहले से ही भूल चुका हूँ,/ मैं सब कुछ भूल गया हूँ!/क्या अब मुझे लोकतंत्र मिल गया है? ” खिन आंग ऐ (बी॰ 1956)

1 फरवरी को, म्यांमार की सेना ने तख्तापलट कर दिया और संसद के नव-निर्वाचित सदस्यों को सरकार बनाने की अनुमति नहीं दी, डॉव आंग सान सू की को नजरबंद कर दिया गया और पांच मीडिया हाउस पर ताला मार दिया गया है। 

और अब म्यांमार सेना के निज़ाम के अधीन है ये तब हुआ जब लग रहा था कि देश वास्तविक लोकतांत्रिक और लोक शासन में तब्दील हो रहा है। 

आंग सान सू की ने रोहिंग्याओं के नरसंहार की निंदा न करके खुद की प्रतिष्ठा को खतरे में डाल दिया था। उन्हे 2019 में न्याय के लिए बने अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के समाने सेना का बचाव करने पर अंतर्राष्ट्रीय निंदा का सामना करना पड़ा था। उन्होने ऐसा कम से कम कुछ हिस्सों में किया था, क्योंकि वह सेना को सत्ता पर क़ाबिज़ होने कोई बहाना नहीं देना चाहती थी। वह जानती थी कि सेना को बौद्ध भिक्षुओं के एक तबके का समर्थन हासिल है।

इस बार म्यांमार में बौद्ध भिक्षुओं की शक्तिशाली राजनीतिक ताक़त प्रदर्शनकारियों के समर्थन में सड़कों पर नहीं उतरी थी। वास्तव में, म्यांमार में सेना के तख्तापलट से कुछ दिन पहले, राष्ट्रवादी बौद्ध भिक्षुओं ने सेना के समर्थन में प्रदर्शन किया था, जिसे तातमाडोव के नाम से जाना जाता है।

उनका एक महत्वपूर्ण तबका चुनावो में हुई धोखाधड़ी के आरोपो का समर्थन करता है जिसके बहाने सेना ने सत्ता पर कब्ज़ा किया है और डाव आंग सान सू की लोकतांत्रिक रूप से चुनी सरकार को उखाड़ फेंकने का काम किया है। भिक्षुओं द्वारा उठाए गए बैनरों पर अन्य नारों के अलावा तातमाडोव ही "राज्य का रक्षक" है लिखा था।

लेकिन अब यह साफ हो गया है कि साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने के लिए जनरल आंग सान ने जिस सेना को खड़ा किया था, वह तातमाडोव/सेना अब लोगों पर भारी पड़ रही है। अब के बाद, लड़ाई सू की और उनकी पार्टी, नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी के बीच नहीं है, बल्कि म्यांमार के आम लोगों की तातमाडोव के खिलाफ की लड़ाई है जो रूढ़िवादी और कट्‍टर राष्ट्रवादी भिक्षुओं के खिलाफ भी है जिन्होंने रोहिंग्या मुसलमान के नरसंहार का समर्थन किया था।

इस बार म्यांमार सेना बहुत ही क्रूर और अनर्गल है। उन्होंने देश भर में सड़कों पर उतरे हजारों युवाओं के खिलाफ हिंसक हमले किए, जो आंदोलन के गीत गा रहे थे, नारे लगा रहे थे और  तीन-उँगलियों की सलामी दे रहे थे जो लोकतंत्र की मांग का प्रतीक है।

कवियों, लेखकों, शिक्षकों, पत्रकारों और ब्लॉगर्स सहित सैकड़ों युवाओं को गिरफ्तार कर लिया  गया है; छतों पर तैनात सेना के स्नाइपरों ने सैकड़ों लोगों को गोली मार दी है। लेकिन यह क्रूर हिंसा भी बढ़ते प्रतिविरोध को नहीं रोक पाई और आंदोलन में साहस और वीरता की कोई कमी दिखाई नहीं देती है।

यहां प्रतिरोध का एक लंबा इतिहास है और मुझे इसे करीब से देखने का सौभाग्य मिला है।

जब मैंने म्यांमार में सेना के तख्तापलट के बारे में सुना, तो तुरंत मेरे जेहन में मिज़िमा मीडिया के सीईओ सोए मिएंट का विचार कौंध गया। वह उस वक़्त मात्र एक छात्र था जब आंग सान सू की को पहली बार 1989 में नजरबंद कर दिया गया था। उस समय, उन्होंने और उनके एक दोस्त ने मिलकर नवंबर 1990 में थाई एयरवेज की एक फ्लाइट को हाईजैक करने का फैसला किया था ताकि वे अपने लोगों की दुर्दशा और उनकी नेता की नजरबंदी पर दुनिया का ध्यान केंद्रित कर सकें। 

वे जानते थे कि वे उन्हे बाकी का जीवन जेल में बिताना पड़ सकता हैं लेकिन फिर भी उन्होंने विमान को हाईजेक किया और कलकत्ता [अब कोलकाता] ले गए। उनकी एकमात्र मांग एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के आयोजन की थी। यह असंभव और अजीब सा लगता है कि दो छात्रों को केवल एक प्रेस सम्मेलन को आयोजित करने के लिए किसी दूसरे देश की जेल में जाने का जोखिम उठाना पड़े...

सोए मिएंट नवंबर 1990 में भारत आए और यहाँ निर्वासन में 15 साल बिताए। उन्होंने पश्चिम के देश में शरण लेने का विकल्प नहीं चुना बल्कि भारत को अपना घर बना कर खुद की मिज़िमा न्यूज़ शुरू की थी और जब म्यांमार में लोकतंत्र बहाल हुआ तो वे अपने देश लौट गए थे। मिज़िमा देश में वापस लौटने वाला पहला निर्वासित मीडिया हाउस था। अब जब वह उम्मीद कर रहा था कि उसका देश एक वास्तविक लोकतंत्र में तब्दील हो रहा है, तो सेना ने तख्तापलट दिया और तख्तापलट के पहले दिन ही मिज़िमा टीवी का लाइसेंस रद्द कर दिया।

जब तक सैनिक मिज़िमा कार्यालय पहुंचते, तब तक ज़्यादातर पत्रकार उपकरणों के साथ दफ्तर से चले गए और अज्ञात स्थानों में छिप गए। मिज़िमा बिखरा हुआ है, लेकिन फिर भी वह विभिन्न ठिकानों से सुबह 6 बजे से आधी रात तक प्रसारण जारी रखे हुए है। वे सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हैं और अपना काम जारी रखे हुए हैं, लेकिन कम से कम दो पत्रकारों को सेना ने गिरफ्तार कर लिया है।

अब सोए माइन्ट को उम्मीद है कि भारत उनके देश की लोकतांत्रिक ताकतों के साथ खड़ा होगा। आखिरकार, दो साल पहले, 2019 में, प्रसार भारती ने टीवी सामग्री को साझा करने के लिए मिज़िमा के साथ एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे और बर्मीज़ उपशीर्षक (सब टाइटल) के साथ हिंदी फ़िल्मों को प्रसारित करने का मुफ्त अधिकार देकर मिज़िमा को हर तरह की मदद दी थी। 

लेकिन भारत सरकार का एजेंडा हिंदू भारत और बौद्ध बर्मा के बीच गठबंधन को मजबूत करना था; यह क्षेत्र में लोकतंत्र को मजबूत करने का गठबंधन नहीं था। लेकिन सेना के शासन के खिलाफ उनकी लड़ाई में बर्मा के पास अब क्या विकल्प है? वे देख चुके हैं कि कैसे पश्चिमी देशों ने आंग सान सू की को धोखा दिया था, उनसे नोबेल पुरस्कार वापस लेने के लिए फोन किए गए थे; चीन बर्मी सेना का समर्थन करता रहा है और इसलिए वे अब समर्थन के लिए भारत और भारतीयों की ओर रुख कर रहे हैं।

अपने छिपने की जगह से, सो मिएंट ने भारतीयों से निम्न अपील की: “भारत बर्मी लोगों का मित्र है। भारत हमेशा उन लोगों के साथ खड़ा रहा है जो स्वतंत्रता और मुक्ति के लिए लड़ते  हैं। भारत ने विशेष रूप से मिज़िमा और मेरा समर्थन किया था जब हम 1988-2012 के दौरान भारत में निर्वासन में थे। हमें भारत से तत्काल समर्थन की जरूरत है। भारत को चाहिए कि वह कमिटी रिपरेजेंटिंग पाइइदुंगसु ह्लुटाव (CRPH) का समर्थन करे जो इसका प्रतिनिधित्व करती है, और जो संसद के निर्वाचित सदस्यों का एक वैध प्रतिनिधि निकाय या संस्था है। भारत की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है, खासकर इसलिए क्योंकि चीन म्यांमार के मित्र के रूप में काम नहीं कर रहा है। चीन सैन्य जुंटा का समर्थन कर रहा है। भारत को इस क्षेत्र में और दुनिया भर में अन्य लोकतंत्रों के साथ काम करना चाहिए ताकि म्यांमार की सेना को बैरकों में वापस जाने का का दबाव बनाया जा सके।”

हालांकि, भारत सरकार ने एक बार फिर म्यांमार में सेना के शासन का समर्थन करने का फैसला किया है और इस बार भारत सरकार बर्मी लोगों को भारत में वैसी शरण देने के लिए तैयार नहीं है जैसी कि उन्होंने 1990 में दी थी। 

गृह मंत्रालय ने म्यांमार की सीमा से लगे चार पूर्वोत्तर राज्यों को 10 मार्च को एक पत्र जारी किया, जिसमें कहा गया है: “जैसा कि आप जानते हैं, म्यांमार में वर्तमान आंतरिक हालत के मद्देनजर, भारत-म्यांमार सीमा के जरिए से भारतीय इलाके में बड़े पैमाने पर अवैध घुसपैठ बढ़ने की संभावना है। इस संबंध में, गृह मंत्रालय ने पहले ही मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सचिवों और भारत-म्यांमार सीमा (असम राइफल्स) के साथ सीमा सुरक्षा बल (BGF) के मुख्य सचिवों को सतर्क रहने और उचित कार्रवाई करने की सलाह दिनांक 25.02.2021 जारी की थी।”

लेकिन पूर्वोत्तर में आम लोग और राज्य सरकारें शरणार्थियों को वापस धकेलने की कतई  इच्छुक नहीं हैं। मिजोरम के सांसद ने संसद को बताया कि म्यांमार से 300 नागरिक आए हैं और मिजोरम में शरण ली है।

मिजोरम के मुख्यमंत्री, जोरमथांगा ने केंद्र से आग्रह किया है कि भारत में घुसे बर्मी नागरिकों को वापस न भेजा जाए। नागालैंड और मणिपुर में लोगों ने म्यांमार के लोगों के साथ अपनी एकजुटता दिखाने के लिए आम बैठकें और कैंडललाइट मार्च निकाले हैं। केंद्र के दिशानिर्देश के मुक़ाबले, इस प्रतिरोध के मानवीय कारणों के अलावा सीमा पार के लोग एक ही जातीय समुदाय से हैं और भारत में लोगों के साथ पारिवारिक संबंध रखते हैं।

गृह मंत्रालय के दिशानिर्देश "अवैध प्रवासियों" के प्रवाह को रोकना चाहते है, लेकिन भारत में शरण लेने के इच्छुक बर्मी नागरिक प्रवासी नहीं हैं; वे राजनीतिक शरणार्थी हैं जो राजनीतिक शरण चाहते हैं। भारत को अभी भी शरणार्थियों पर अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करना है और शरणार्थियों के संरक्षण के मामले में भारत के पास कोई घरेलू कानून नहीं है। हालाँकि, वर्षों से, भारत का सर्वोच्च न्यायालय और गौहाटी उच्च न्यायालय दिल्ली में संयुक्त राष्ट्र उच्चायोग (UNHCR) के मामले में संयुक्त राष्ट्र उच्चायोग के संरक्षण की मांग को मानते हुए विदेशियों के अधिकार को मान्यता देते हुए कई निर्णय दे चुके हैं।

म्यांमार में सैन्य तख्तापलट एक ऐसी घटना है जिसका न केवल म्यांमार बल्कि पड़ोसी भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के लोगों के साथ पूरे भारत और भारतीयों के लिए राजनीतिक महत्व है।

सबसे पहली बात कि भारत-म्यांमार की अंतरराष्ट्रीय सीमा 1,468 किलोमीटर लंबी है और उत्तर में चीन के साथ दक्षिण में बांग्लादेश के साथ त्रिकोणीय रूप से मिलती है। यह संभवतः हमारी सीमा का भौगोलिक रूप से सबसे संवेदनशील हिस्सा है क्योंकि यह एक अंतरराष्ट्रीय सीमा है जो म्यांमार को भारत के चार पूर्वोत्तर राज्यों: नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश से विभाजित करती है। दूसरा, यह वह इलाका है जिसने विद्रोह और जातीय संघर्षों के कई उबालों को देखा है। मिज़ो शांति समझौते के संभावित अपवाद को छोड़ दें तो उत्तर-पूर्व में शांति प्रक्रियाएं कहीं भी सफल नहीं रही है।

तीसरा, इस इलाके में चीन हमेशा से एक कारक के रूप में मौजूद रहा है। इसलिए बर्मी लोग समर्थन के लिए भारत की ओर देख रहे हैं। 21 मार्च 2021 को एक साक्षात्कार में सोइ म्यिंट ने मुझे बताया: “चीन राजनीतिक और भौतिक रूप से सैन्य तख्तापलट का समर्थन कर रहा है। चीन यह सुनिश्चित करना चाहता है कि बर्मी सेना विभिन्न परियोजनाओं और बीआरआई-संबंधित परियोजनाओं सहित अपने हितों की रक्षा करे।”

भारत और म्यांमार के बीच एक मुक्त आवाजाही की व्यवस्था (FMR) मौजूद है, जिसके तहत प्रत्येक पहाड़ी जनजातियों के सदस्य, जो या तो भारत के नागरिक हैं या म्यांमार के और जो भारत और म्यांमार के दोनों ओर 16 किलोमीटर के भीतर के इलाके में रहते या निवासी हैं- वे भारत म्यांमार बॉर्डर में सक्षम अधिकारी द्वारा जारी सीमा पास (एक वर्ष की वैधता के साथ) के साथ सीमा पार कर सकते है और हर एक यात्रा के दौरान दो सप्ताह तक रह सकते है। लेकिन कोविड के कारण व्यापार निलंबित हो गया था और अब भारत सरकार सीमा का सैन्यीकरण करने की पूरी तैयारी में है।

भारत-म्यांमार सीमा बल (IMBF) के गठन को लेकर कुछ बातें हुई है। गृह मंत्रालय ने असम राइफल्स की 25 बटालियनों को आईटीबीपी और शेष 21 को सेना के हवाले करने और उनमें  विलय करने का प्रस्ताव दिया है। रक्षा मंत्रालय गृह मंत्रालय के उस प्रस्ताव से नाखुश है जिसमें असम राइफल्स को तोड़ कर और उसके सैनिकों को आईटीबीपी और सेना के बीच विभाजित करने का निर्णय लिया गया है। 

म्यांमार में सेना का तख्तापलट इलाके में केवल सत्तावादी ताकतों को मजबूत करेगा। ऐसी स्थिति में, यह अत्यंत जरूरी है कि भारत और बर्मा के लोग, धार्मिक और जातीय विभाजन को धता बताते हुए, इस क्षेत्र में वास्तविक लोकतंत्र की बहाली के लिए एकजुट हों और संघर्ष करें। भारत और म्यांमार दोनों के लोकतंत्र की लड़ाई में अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता बड़ा मुद्दा होना चाहिए।

लेखिका एक मानवाधिकार वकील, शिक्षक, प्रचारक और लेखक हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

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