NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
विधानसभा चुनाव
भारत
राजनीति
पंजाब ने त्रिशंकु फैसला क्यों नहीं दिया
पंजाब चुनाव अवधारणाओं का एक उत्कृष्ट नमूना है। लोग-बाग़ इस बार मौजूदा राजनीतिक अभिजात्य वर्ग को सत्ता में वापस लौटते नहीं देखना चाहते थे। 
परमजीत सिंह जज
21 Mar 2022
aap
चित्र साभार: द वायर 

मुझे रह-रहकर हिंदी के मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की वो पंक्तियां याद आ रही हैं, जिसे पंजाब चुनावों के निष्कर्षों को समझने के लिए एक उपयुक्त विवरण के तौर पर इस्तेमाल में लाया जा सकता है। यह कुछ इस प्रकार से है: ‘कई फांके बिता के मर गया जो, उसके बारे में/वो सब कहते हैं अब, ऐसे नहीं, ऐसे हुआ होगा।’ इन पंक्तियों का अर्थ कुछ इस प्रकार से है, एक आदमी लगातार भुखमरी की अवस्था में रहकर मर गया, और फिर भी, लोगबाग अभी यही भी कयास ही लगा रहे हैं कि उसकी मौत किस वजह से हुई होगी।

पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप) की जीत ने कई सामाजिक वैज्ञानिकों और पत्रकारों को व्यस्त कर रखा है, जिन्होंने इस जीत के लिए बड़ी तादाद में स्पष्टीकरण साझा किये हैं। स्पष्ट रूप से, सभी विशिष्ट सामजिक पहलुओं जैसे कि जाति, क्षेत्र, और धर्म (डेरों के रूप में) जैसे पहलू इस बार के पंजाब चुनावों के नतीजे में काम नहीं आ पाए। डेरा सच्चा सौदा के गुरमीत राम रहीम की पैरोल पर रिहाई का इस चुनाव के नतीजे को प्रभावित करने में अप्रभावी साबित हुआ। ऐसे में, हर कोई अचंभे में है कि आखिर किस चीज ने आप को इतनी मजबूती से जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई है।

बहुत समय पहले, बर्ट्रेंड रसेल ने कहा था कि मध्य वर्ग के समर्थन के बिना कोई भी शासन खुद को अस्तित्व में नहीं बनाए रख सकता है, लेकिन हम इस कहावत को भारतीय परिस्थिति में लागू नहीं कर सकते हैं, जहाँ पर अधिकांश आबादी अभी भी मध्य-वर्ग की स्थिति से नीचे का जीवन गुजार रही है। पैसा और शराब, जो चुनावों में प्रमुख कारक होते हैं, ने भी इस बार काम नहीं किया: कुछ वर्गों को दोनों हासिल हुए, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपने-अपने प्रचलित आम राजनीतिक विकल्पों के पक्ष में मतदान नहीं किया। ऐसे में यह प्रश्न बना रह जाता है: कि आखिरकार ऐसा कैसे हो गया?

यद्यपि मेरा मानना है कि प्रत्येक चुनाव एक स्वायत्त परिघटना होती है, फिर भी, इसमें मिली जीत के पैटर्न की जांच करने के बजाय, ज्यादा जरुरी अधिक महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में पता लगाने की है, जिसने मतदाताओं के दिलोदिमाग में घर कर लिया है। हमें 2019 के लोकसभा चुनाव से इसकी शुरुआत करनी चाहिए, जिसमें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पहली बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के भीतर से पूर्ण बहुमत वाली पार्टी के तौर पर उभरी थी। पुलवामा कांड के बावजूद किसी ने भी ऐसे नतीजों की उम्मीद नहीं की थी। वर्तमान चुनाव के परिदृश्य में देखें तो उत्तरप्रदेश में भी समाजवादी पार्टी जबर्दस्त जमीनी समर्थन हासिल करती दिख रही थी, और कई लोग इसकी जीत के प्रति आशान्वित थे। हम बिहार चुनाव के साथ इसकी साम्यता पाते हैं जिसमें तेजस्वी यादव और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) लगता था जबर्दस्त रूप से उभर रही थी। समाजवादी पार्टी और आरजेडी के युवा नेताओं ने वाक्पटुता एवं क्षमता को प्रदर्शित किया था, जिसने भीड़ को अपनी ओर आकर्षित किया, लेकिन वे इसे वोट में तब्दील कर पाने में विफल रहे।

2022 के साल को भारतीय इतिहास में इस बात के लिए दर्ज किया जायेगा जिसमें भाजपा उत्तरप्रदेश के लोगों को इस बात के लिए आश्वस्त कर पाने में सफल रही कि पेट्रोलियम उत्पादों और खाद्य तेलों पर महंगाई और अनुचित टैक्स देश के लिए अच्छा है, क्योंकि इससे मिलने वाले राजस्व का उपयोग कल्याणकारी कार्यों के लिए किया जायेगा। यह किसी भी अन्य राजनीतिक दल के समर्थकों के बीच में एक अद्वितीय परिघटना है। इसके अलावा, मुफ्त टीकाकरण और मुफ्त राशन का इस्तेमाल लोगों को यह समझाने के लिए किया गया कि सत्ता में बैठी पार्टी का दिल लोगों के साथ जुड़ा हुआ है। यह एंटोनियो ग्राम्स्की के आधिपत्य की अवधारणा का एक उत्कृष्ट नमूना है, जिसके मुताबिक शासक दल का व्यापक जनता की चेतना पर नियंत्रण होता है (कई निर्वाचन क्षेत्रों में काफी कम अंतर से जीत हासिल करने के बावजूद)।

पंजाब पर वापस लौटते हुए कहें तो इस प्रदेश के लोग दो दलों के बीच की प्रतिस्पर्धा में काफी लंबे समय से फंसे हुए थे, जो कमोबेश सत्ता में आने और विपक्षी बेंच पर आसीन होने के बीच में आपस में अदलाबदली करते रहते थे। दिलचस्प बात यह है कि पंजाब में इनकी आपसी प्रतिद्वंदिता को उतनी  तीव्रता नहीं मिली, जितनी हमने उत्तरप्रदेश में देखी। पंजाब में भले ही कोई पार्टी सत्ता में आ जाए, किंतु उसके द्वारा सत्ता में स्थाई रूप से अपनी जगह पक्की करने के लिए कभी कुछ नया काम नहीं किया गया। इसके पीछे की वजह यह रही कि दोनों ही दल सत्ता में अपनी वापसी के लिए एक दूसरे की मूढ़ता का सहारा लेकर काम चलाते रहे हैं।

लंबे समय तक यह व्यवस्था जारी रही, और इस जाल से बाहर निकलने की कोई राह नहीं थी। समय के साथ-साथ कई पार्टियों ने पंजाब की चुनावी राजनीति में अपने मकाम को खो दिया, जैसे कि समाजवादी, कम्युनिस्ट और बहुजन समाज पार्टी। भाजपा का अस्तित्व अकालियों के साथ इसके गठबंधन पर टिका हुआ था और इससे आगे नहीं बढ़ सका। इस प्रकार, आप 2014 के लोकसभा चुनावों में राज्य में अपने लिए अग्रगति बना पाने में कामयाब रही। उस दौरान, दिल्ली में इसकी जडें अच्छी तरह से स्थापित नहीं हो सकी थी। इसकी क्षमता और प्रतिबद्धता को लेकर यह व्यापक स्तर पर जाँची परखी नहीं गई थी, इसलिए पंजाब में इसे मिले समर्थन ने हर किसी को चौंका दिया था। आप से चार सांसद निर्वाचित हुए थे, सभी अलग-अलग दृष्टिकोण और विचारधारा वाले थे, जो जल्द ही तब स्पष्ट हो गई जब उन्होंने दिल्ली में आप में विभाजन के बाद इससे अलग होने को चुना, जिसके परिणामस्वरूप स्वराज अभियान पार्टी का गठन हुआ। इस उथल-पुथल भरे दौर के बाद, आप के पक्ष में खड़े होने वाले एकमात्र व्यक्ति भगवंत मान थे, जो पंजाब के नए मुख्यमंत्री हैं।

पंजाब में आप की लोकप्रियता का इम्तहान 2017 में विधानसभा चुनाव में देखने को मिला था, जब लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर यह अति-आत्मविश्वास से भर गई थी, जिसके चलते यह उन गलतियों से खुद को नहीं बचा सकी जो उसकी पराजय का कारण बनीं। इसके अलावा, अकालियों ने भी अनजाने में कांग्रेस पार्टी को मदद पहुंचाई। अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी का शासन पंजाब के हालिया इतिहास में सबसे बदतरीन साबित हुआ है। हालाँकि महामारी के कारण उनकी सरकार को कुछ राहत मिली, लेकिन नौकरशाही पर सिंह की अत्यधिक निर्भरता- जो केंद्र में पार्टी के एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम कर रही थी- उनके लिए विनाशकारी साबित हुई। सूचना वर्चस्व वाले इस युग में, सिंह को अपनी प्रतिष्ठा और वैधता दोनों से ही हाथ धोना पड़ा। नवजोत सिंह सिद्धू ने जब अमरिंदर के खिलाफ अपने धर्मयुद्ध की शुरुआत की, तब तक कांग्रेस को एक निश्चित पराजय से बचाने में काफी देर हो चुकी थी। इस मिश्रण में उनके विकल्प के लिए गलत चुनाव ने हार में बढ़ोत्तरी करने का ही काम किया। रेत खनन में उनके भतीजे की कथित संलिप्तता की खबर ने अधिकांश नाटकीयता को नष्ट करने का काम कर दिया। 

आज, आप पार्टी दिल्ली में अपने तीसरे कार्यकाल में है और इसने अपने कई वादों को पूरा कर दिया है। इसने धर्म सहित तमाम तरह की बयानबाजियों का इस्तेमाल करते हुए संचार की रणनीतियों में खुद को भाजपा के योग्य विपक्षी के तौर साबित कर दिया है। हालाँकि, पंजाब के लोगों के लिए अधिक महत्वपूर्ण था कि इसने उनके समक्ष तीसरे विकल्प का प्रतिनिधित्व प्रदान किया है। इसने उन्हें दूसरी बार बदलाव के लिए जाने का मौका दिया और उन्होंने इसे हाथों-हाथ ले लिया। यदि हम मतदान के दिन से ठीक एक दिन पहले तक आप के प्रति लोगों की प्रतिक्रियाओं को याद करें तो उसमें से एक सूत्र उभरकर सामने आया था: उन्होंने पत्रकारों सहित अन्य लोगों से कहा था आप को पंजाब में एक मौका मिलना चाहिए, और वे इस मौके को उसे देंगे। कुछ ने कहा है कि यह 2017 में ही हो जाना चाहिए था- ऐसा लगता है कि जैसे वे अपनी पिछली गलती को दुरुस्त करना चाहते हैं।  

पंजाब चुनाव धारणाओं का एक उत्कृष्ट मामला है। लोग-बाग मौजूदा राजनीतिक अभिजात्य वर्ग के जाल से बाहर निकलना चाहते थे, जिनका सभी पार्टियों के बीच में मनोवैज्ञानिक समानताएं और पार्टी लाइनों में नातेदारी के संबंध हैं। उन्होंने खुले दिल से ऐसा किया है।

लेखक पूर्व में गुरु नानकदेव विश्वविद्यालय, अमृतसर में समाजशास्त्र के प्रोफेसर रह चुके हैं और भारतीय समाजविज्ञान सोसाइटी के पूर्व अध्यक्ष थे। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। 

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Why Punjab did not Deliver a Hung Verdict

aam aadmi party
Aap punjab
Punjab Assembly election 2022
Congress Punjab
akali dal
Assembly Elections 2022
Amarinder Singh
Navjot Sidhu
Bhagwant Mann
BJP propaganda

Related Stories

ख़बरों के आगे-पीछे: राष्ट्रीय पार्टी के दर्ज़े के पास पहुँची आप पार्टी से लेकर मोदी की ‘भगवा टोपी’ तक

भगवंत मान ने पंजाब के मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण की

आर्थिक मोर्चे पर फ़ेल भाजपा को बार-बार क्यों मिल रहे हैं वोट? 

पांचों राज्य में मुंह के बल गिरी कांग्रेस अब कैसे उठेगी?

पंजाब में आप की जीत के बाद क्या होगा आगे का रास्ता?

ख़बरों के आगे-पीछे: केजरीवाल मॉडल ऑफ़ गवर्नेंस से लेकर पंजाब के नए राजनीतिक युग तक

विधानसभा चुनाव 2022: पहली बार चुनावी मैदान से विधानसभा का सफ़र तय करने वाली महिलाएं

यूपी में हिन्दुत्व की जीत नहीं, ये नाकारा विपक्ष की हार है!

जनादेश-2022: रोटी बनाम स्वाधीनता या रोटी और स्वाधीनता

त्वरित टिप्पणी: जनता के मुद्दों पर राजनीति करना और जीतना होता जा रहा है मुश्किल


बाकी खबरें

  • US Army Invasion
    रॉजर वॉटर्स
    जंग से फ़ायदा लेने वाले गुंडों के ख़िलाफ़ एकजुट होने की ज़रूरत
    05 Mar 2022
    पश्चिमी मीडिया ने यूक्रेन विवाद को इस तरह से दिखाया है जो हमें बांटने वाले हैं। मगर क्यों न हम उन सब के ख़िलाफ़ एकजुट हो जाएं जो पूरी दुनिया में कहीं भी जंगों को अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं?
  • government schemes
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना के दौरान सरकारी योजनाओं का फायदा नहीं ले पा रहें है जरूरतमंद परिवार - सर्वे
    05 Mar 2022
    कोरोना की तीसरी लहर के दौरान भारत के 5 राज्यों (दिल्ली, झारखंड, छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश, ओडिशा) में 488 प्रधानमंत्री मातृत्व वंदना योजना हेतु पात्र महिलाओं के साथ बातचीत करने के बाद निकले नतीजे।
  • UP Elections
    इविता दास, वी.आर.श्रेया
    यूपी चुनाव: सोनभद्र और चंदौली जिलों में कोविड-19 की अनसुनी कहानियां हुईं उजागर 
    05 Mar 2022
    ये कहानियां उत्तर प्रदेश के सोनभद्र और चंदौली जिलों की हैं जिन्हे ऑल-इंडिया यूनियन ऑफ़ फ़ॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) द्वारा आयोजित एक जन सुनवाई में सुनाया गया था। 
  • Modi
    लाल बहादुर सिंह
    यूपी चुनाव : क्या पूर्वांचल की धरती मोदी-योगी के लिए वाटरलू साबित होगी
    05 Mar 2022
    मोदी जी पिछले चुनाव के सारे नुस्खों को दुहराते हुए चुनाव नतीजों को दुहराना चाह रहे हैं, पर तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है और हालात बिल्कुल बदल चुके हैं।
  • Western media
    नतालिया मार्क्वेस
    यूक्रेन को लेकर पश्चिमी मीडिया के कवरेज में दिखते नस्लवाद, पाखंड और झूठ के रंग
    05 Mar 2022
    क्या दो परमाणु शक्तियों के बीच युद्ध का ढोल पीटकर अंग्रेज़ी भाषा के समाचार घराने बड़े पैमाने पर युद्ध-विरोधी जनमत को बदल सकते हैं ?
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License