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लोकगीतों की धुन पर धान रोपती महिलाओं की अनूठी ''जुगलबंदी'' में ज़िंदा है सदियों पुरानी आदिवासी संस्कृति और परंपरा
खेती-किसानी का हमेशा से प्रकृति से एक घनिष्ठ संबंध रहा है तो लोकगीतों का आदिवासी संस्कृति और परंपरा में अपना अलग महत्व हैं।
सबरंग इंडिया
24 Jul 2021
लोकगीतों की धुन पर धान रोपती महिलाओं की अनूठी ''जुगलबंदी'' में ज़िंदा है सदियों पुरानी आदिवासी संस्कृति और परंपरा

खेती-किसानी का हमेशा से प्रकृति से एक घनिष्ठ संबंध रहा है तो लोकगीतों का आदिवासी संस्कृति और परंपरा में अपना अलग महत्व हैं। सामाजिक सांस्कृतिक वातावरण से घनिष्ठ जुड़ाव लोकगीतों की एक प्रमुख विशेषता रही है। यह जुड़ाव ही है जो श्रोताओं के मस्तिष्क पटल पर गहराई से छाप छोड़ता है और जिसमें श्रोतागण अपने सुख-दुःख के अनुभव की गाथा को टटोलने का प्रयास करते हैं। प्रायः अन्नदाता वर्ग की मनःस्थिति कृषिगत कार्यकलापों तथा पारिवारिक जीवन की दुश्वारियों के इर्द-गिर्द ही रमती रहती है। लोकगीतकार कृषक समाज की मनःस्थिति से भलीभांति परिचित होता है जिसकी झलक विरहा, रोपनी, व मल्हार आदि लोकगीतों में बखूबी देखने को मिलती है।

ग्रामीण महिलाएं परम्परागत रूप से कृषि कार्य में दक्ष होती हैं। वे कृषि कार्य में पूर्णतया समर्पित तथा एकाग्रचित होने के लिए लोकगीतों को गुनगुनाती हैं। प्रायः महिलाएं जब धान रोपने तथा निर्वाही करने खेत में जाती हैं, तो अपनी व्यथा (पारिवारिक जीवन की कटुता, प्रेम आदि) व आकांक्षाएं (गहने, जेवरात, शहर व तीर्थ दर्शन आदि) ‘रोपनी’ व ‘सोहनी’ नामक गीत से व्यक्त करती हैं। पश्चिम बंगाल के बांकुरा से एक साथी ने ऐसे ही ढोल की थाप व लोकगीतों की धुन पर धान की रोपाई करती आदिवासी महिलाओं की वीडियो भेजी है जो बरबस ही हर किसी का मनमोह लेती है। वीडियो में पुरुष किसान एक विशेष पारंगत लय में ढोल बजा रहा है तो महिलाएं लोकगीत गाते हुए धान की रोपाई कर रही हैं। 

जुलाई माह चल रहा है। इस बार प्री मानसून के जमकर बरसने और अब मानसून के धीरे-धीरे सक्रिय होने से धान की रोपाई तेज हो चली है, कई जगह अंतिम चरण में है। बांकुरा की ये आदिवासी महिलाएं रिमझिम बारिश की बूंदों में लोकगीतों की तान पर धान की रोपाई कर रही हैं। वहीं, महिलाएं हुड़के (ढोल) की थाप में भूमि का भूमियाला देवा हो, देवा सुफल है जाया, मंगल गीत के साथ खेतों में रोपाई लगा रही हैं। रोपाई करती हुई महिलाएं गीत की जुगलबंदी कर रही हैं। ऐसी मान्यता है कि इससे इंद्रदेव प्रसन्न होते हैं।

बांकुरा यानी पश्चिम बंगाल ही नहीं, छत्तीसगढ़, झारखंड आदि के साथ उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में भी ''चला सखी रोपि आई खेतवन में धान, बरसि जाई पानी रे हारी..'', जैसे लोक गीत इन दिनों खेतों मे खूब सुने जा सकते हैं। पुराने समय की बात करें तो धान रोपाई के समय महिलाएं तरह तरह के लोकगीत गाया करती थीं लेकिन आधुनिक युग में पुराने लोकगीत गुम से होते जा रहे हैं। गांवों में अभी भी कुछ बुजुर्ग महिलाएं हैं, जिन्हें उन दिनों के गीत याद हैं। वह खेतों में धान की रोपाई करते समय वह बरबस उन गीतों को गाने लगती हैं। एक बुजुर्ग आदिवासी महिला के अनुसार, गीतों की परंपरा लोग भूलते जा रहे हैं। हम लोग जब भी रोपाई करने जाते हैं तो मुंह से बरबस गीत निकल पड़ते हैं। उनका मानना है कि गीतों से इंद्र देवता प्रसन्न होते हैं और फसलें भी अच्छी होती हैं। यह मनोरंजन का भी एक नायाब तरीका है और इससे रोपाई कार्य भी तेजी से होता है।

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इस विधा में हुड़के की थाप पर एक व्यक्ति लयबद्ध होकर गीतों के साथ कहानी सुनाता है और रोपाई लगा रही महिलाएं उसे दोहराती हैं। इससे जहां रोपाई शीघ्रता से होती है, महिलाओं को थकान भी महसूस नहीं होती है। महिलाओं का कहना है कि वे सदियों पुरानी इस परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं। बागेश्वर में तो लोग धान की रोपाई को उत्सव की तरह मनाते हैं। इस दौरान ग्रामीण भूमि देवता की पूजा-अर्चना कर ईश्वर से अच्छी फसल उत्पादन और पृथ्वी को हमेशा हरा-भरा रखने की प्रार्थना करते हैं। इसके बाद ग्रामीण लोकगीतों का गायन कर सहभागिता के साथ रोपाई करने में जुट जाते हैं।

धान की रोपाई के समय गाए जाने वाले लोकगीत, लोकगाथाओं और देवी-देवताओं की ऐतिहासिक कथाओं को पिरोए हुए होते हैं। यहां के किसान परंपरागत वाद्य यंत्र हुड़का बजाते हैं। हुड़के की थाप और महिलाओं के चूड़ियों की खनक से वातावरण सुरमय हो जाता है। एक किसान हुड़का के साथ गाथाएं शुरू करता है और बाकी उसके पीछे-पीछे उसे दोहराते हैं। ग्रामीणों का कहना है कि उनके पूर्वजों के समय से ये परंपरा चली आ रही है और वे भी इसे आगे बढ़ाएंगे। धान की रोपाई करती महिलाओं ने कहा कि लोकगीत गाते हुए धान की रोपाई करने में काफी आनंद आता है। साथ ही गांव के सभी लोग एक साथ एक ही जगह पर इकट्ठा हो जाते हैं, जिससे काफी खुशी मिलती है।

किसी ने खूब लिखा भी है कि जुलाई में जब धान की रोपाई अपने उरूज़ पे होगी। खेतिहर बरिहर किसान बीया बेहन के जुगाड़ में लगा होगा, झिमिर झिमिर बरसती बूंदें सूरज को चिढ़ाती हुई हंसती जा रही होंगी। हंसे भी क्यों न? धान बैठाती लड़कियां, औरतें कड़ी धूप में कमर के बल झुकी, घंटों खेतों में पसीना बहाती हुईं अच्छी लगेंगी क्या? इसीलिए मौसम ने आसमान से गुज़ारिश करके सूरज को नज़रबन्द करवा दिया है। लड़कियां घुटनों तक साड़ी खोंसे, एक हाथ में बेहन लिए दूसरे हाथ की चुटकियों से गीली मिट्टी में नन्हे मुन्ने धान बैठाती जा रही हैं। एक अलग ही चमक है उन चेहरों पर, आज़ाद बेफ़िक्र और थोड़ी थोड़ी बेपरवाह सी। हंसी ठिठोली, शिकवे शिकायतों के बीच कोई शरारती लड़की कह उठती है, “अरे केहू गाओ हो!” मुस्कुराते चेहरों में एक चेहरा गीतों का जानकार है, सब उसकी तरफ़ इल्तजाई नज़रों से देखती हैं और वो कह उठती हैं, “तोहरे लोग भी साथ देओ, हम अकेले नाइ गइबे।” वो इसे ज़रा नखरीले अंदाज़ में कहती हैं तो बाक़ी सखी सहेलियां उन्हें चिकोटी भर कर कोई मज़ाक वाली बात कहती हैं, जिन्हें सिर्फ़ ब्याहताएँ सुन पाती हैं, बिन ब्याही लड़कियां दिल मसोस कर रह जाती हैं।

फिर शुरू हो जाती है लोकगीतों की बहार, जिसे सुन कर एहसास होता है कि उस ज़माने में बग़ैर तालीम लिए, पढ़ाई किये, कैसी तो ज़हीन औरतें होती थीं जो मशक्कत, मेहनत से दिन बिताते हुए अपने लिए ज़रा सी ख़ुशी ढूंढ लेती थीं। गीत बनाना, उनकी धुन रचना उन मेहनती औरतों की ख़ूबियां ज़ाहिर करता है।

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ज़ेहन के दो चार पन्ने सरसराते हुए खुलते हैं, उन पर कुछ गीतों की छाप बरक़रार है जो यूं है –

“हरिहर काशी रे हरिहर जवा के खेत, हरिहर पगड़ी रे बांधे बीरन भैया
चले हैं बहिनिया के देस।”
(सावन का महीना यूँ भी लड़कियों को मायके की याद दिलाता है, गीतों में भाई के आने का ज़िक्र कैसी ख़ूबसूरती से बयान किया जाता था।)
“केकरे दुआरे घन बँसवारी
केकरे दुआरे फुलवारी, नैन रतनारी हो
बाबा दुआरे घन बंसवारी
सैंया दुआरे फुलवारी, नैन रतनारी हो”

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हिंदी विभाग की शोध छात्रा रही क्षमा सिंह  इस परंपरा को लेकर लिखती हैं कि

धान रोपती औरतें
गाती हैं गीत
और सिहर उठता है खेत
पहले प्यार की तरह...

धान रोपती औरतों के
पद थाप पर
झूमता है खेत ..
और सिमट जाता है
बांहों में उनकी ..
रोपनी के गीतों में बसता है जीवन
जितने सधे हाथों से रोपती हैं धान
उतने ही सधे हाथों से बनाती हैं रोटियां
मिट्टी का मोल जानती हैं
धान रोपती औरतें
खेत से चूल्हे तक
चूल्हे से देह तक..

वैसे आमतौर पर लोकगीतों का सरलीकरण करते हुए कहा जाता है कि वे मनोरंजन के लिए होते हैं। लेकिन, लोक गीतों का समाजशास्त्रीय संदर्भ होता है। धान रोपनी के गीतों में खेती और उससे जुड़ी क्रियाओं में उल्लास दिखायी देता है। अभावों के बीच यह उल्लास भविष्य में होने वाली बेहतर फसल की उम्मीद में होता है। चूंकि धान मुख्य अनाज है और सालभर इसी पर निर्भरता होती है, ऐसे में उसकी बुआई और रोपनी के समय का उल्लास स्वाभाविक है। धान की खोज का इतिहास लगभग पांच हजार साल पुराना है और यह उल्लास भी सदियों पुराना है और जो किसानी संस्कृति का आधार भी है।

देश के आदिवासी क्षेत्रों से अलग क्षेत्रों में सामंती एवं वर्ण व्यवस्था के मजबूत होने से खेतों में कथित निम्न जाति के लोग ही मजदूरी करते रहे हैं और उसके यहां गीतों का एक दूसरा स्वरूप मिलता है, जो शोषण और उत्पीड़न से बुना हुआ होता है। खेतिहर मजदूरों की स्थिति अब भी एक समस्या के रूप में कृषि से जुड़ी हुई है। आमतौर पर उनकी अपनी जमीनें नहीं हैं और अगर हैं भी, तो उनके जोत का आकार इतना छोटा है कि कुल उत्पादन में उनका कोई योगदान नहीं होता है। यह माना जाता है कि विश्वभर में 80 प्रतिशत धान का उत्पादन कम आय वाले देशों में होता है। भारत विश्व में दूसरा सबसे बड़ा धान उत्पादक देश है। इसे हम इस तरह भी देख सकते हैं कि धान की खेती से देश की एक बड़ी आबादी जुड़ी हुई है, जो गांवों में रहती है और उसके आय का स्तर निम्न वर्ग का है। हालांकि, अंतरराष्ट्रीय चावल बाजार में भारत की महत्वपूर्ण हिस्सेदारी तो है, लेकिन धान की खेती अधिकांशत पारंपरिक और अव्यावसायिक ही है। 

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देंखे तो लोकगीत सामूहिकता का सूचक है और धान के खेतों की सामूहिकता, उसकी सहजीविता का लक्षण है। न सिर्फ धान की फसल लोगों को एकत्रित होने के लिए आकर्षित करती है, बल्कि धान की फसलें जैव विविधता की भी पोषक होती हैं। धान की फसलों के साथ, किसानों और जीवचरों का यह विलक्षण रिश्ता है जो गीत गानेवालों को ऊर्जा देता है। लेकिन आज जहां एक और बाजार और पूंजी के प्रवेश से बिचौलियों का उदय हो गया है, वहीं दूसरी ओर जैव विविधता बुरी तरह से प्रभावित हुई है। इसने सामूहिकता और सहजीविता पर गहरा आघात पहुंचाया है। जैसे मछली, केकड़े, घोंघे इत्यादि लोहे के भारी मशीनों से पिस रहे हैं, वैसे ही कहीं गीत गाने वाले भी जख्मी हो रहे हैं। उनके लिए एक तरफ उपज को बचाये रखने का संकट है, तो दूसरी और खुद को बचाये रखने का। किसानी संस्कृति पर पूंजी के हमले ने खेती के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े किये हैं। ऐसे में मौसम बारिश का ही हो, लेकिन खेती की बात कौन करेगा? किसके पास अब गीतों के लिए धैर्य बचा है? 

साभार : सबरंग 

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