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भारत
राजनीति
ये सरकार 2019 में लौटी तो पत्रकारिता के ताबूत में आखिरी कील होगी
सब्‍ज़ी बेचो, कपड़ा बेचो, एगरोल का ठीहा लगाओ खाली वक्‍त में, लेकिन पेशेवर मुकदमेबाज़ों को यह न लगने दो कि वे जीत गए। मौका मिले तो वकालत कर लो, एलएलबी में नाम लिखवा लो। काला कोट पहन लो......
अभिषेक श्रीवास्तव
08 Jan 2018
journalist

पंद्रह साल पहले तक यह स्थिति थी कि डेस्‍क पर काम करने वाला पढ़े से पढ़ा आदमी हीनभावना से ग्रस्‍त रहता था। रिपोर्टिंग में जाने को मचलता रहता था। कोई प्रिविलेज जैसा उसे अहसास होता था फील्‍ड रिपोर्टर होने में। धीरे-धीरे हालात यों बने कि फील्‍ड का आदमी डेस्‍क पर लौटने की इच्‍छा ज़ाहिर करने लगा क्‍योंकि मैदान में स्टिंग करने वालों की एक नई खेप आ गई थी अंडरकवर रिपोर्टरों की। उनके सामने सामान्‍य रिपोर्टर हीनभावना से ग्रस्‍त रहने लगा। कोई पांचेक साल पहले तक स्टिंग वाले तबाह किए हुए थे दुनिया को। डेस्‍क का समझदार आदमी हमेशा से जानता था कि स्टिंग-फिस्टिंग पत्रकारिता नहीं है, बज्र सनसनी है। इसका कोई सामाजिक मूल्‍य भी नहीं, हां राजनीतिक मूल्‍य ज़रूर है। फिर स्टिंग में मूल्‍य निकालने वालों की बाढ़ आ गई और स्टिंग के पुरोधा काल कवलित हो गए।

दस-बारह साल के इस डेवलपमेंट के बाद तकरीबन सब में एक अहसास पैदा हुआ कि ठहर कर ग्राउंड रिपोर्टिंग करने का वक्‍त है। थोड़ा वक्‍त लिया जाए, स्‍टोरी को पकाया जाए और प्‍यार से लंबे में परोसा जाए। हिंदी में तो ऐसा दो-चार स्‍वतंत्र लोग अपनी जेब फूंक कर करते रहे, अंग्रेज़ी में संस्‍थाओं के नाम पर केवल The Caravan इस मॉडल को पकड़ सका। इस बीच स्टिंग वाले रह-रह कर सिर उठाते रहे और बिलाते रहे। डेस्‍क वालों की हीनभावना कम होती गई क्‍योंकि सोशल मीडिया के आने से पत्रकारिता में कैची हेडिंग लगाना सबसे अहम काम बन गया। ''किसने किसको देखा कि किसके होश उड़ गए'' या ''फलाने के पतन के पांच कारण'' टाइप शीर्षक मुख्‍यधारा पत्रकारिता की अहम जिम्‍मेदारी बन गए।

अब दो साल से नया दौर आया है। नैरेटिव यानी लॉन्‍ग फॉर्म स्‍टोरी हो या स्टिंग का खुलासा, ये सब मुकदमे का शिकार हो रहे हैं। रेगुलर रिपोर्टिंग का हाल बीटवालों से पूछिए जिनसे मंत्रालय का कुत्‍ता भी बतियाने से डरता है। थोड़ा प्रतिभावान रिपोर्टर मुकदमे की गठरी लिए जी रहा है। आपने समाज का भला करने के लिए कुछ उद्घाटन किया तो आप पर मुकदमा होना तय है। अब रिपोर्टिंग में मौसम विभाग के वैज्ञानिक से बात कर के तूफ़ान का रास्‍ता बताने के अलावा कुछ नहीं बचा। न्‍यायपालिका की लड़खड़ाहट के दौर में कौन मुकदमा झेलना चाहेगा भला? ये सरकार 2019 में लौटी तो पत्रकारिता के ताबूत में आखिरी कील होगी।

हे साहसी अंडरकवर रिपोर्टरों, लंबा-लंबा लिखने वाले ग्राउंड के वीरों, सोचो। पत्रकारिता के बारे में नहीं, रिपोर्टिंग को बचा ले जाने के बारे में। एक ऐसी दुकान के बारे में जिसके सहारे रिपोर्टिंग जिंदा रखी जा सके। मुकदमा लड़ा जा सके। पलट कर मुकदमा ठोंका जा सके। सब्‍ज़ी बेचो, कपड़ा बेचो, एगरोल का ठीहा लगाओ खाली वक्‍त में, लेकिन पेशेवर मुकदमेबाज़ों को यह न लगने दो कि वे जीत गए। मौका मिले तो वकालत कर लो, एलएलबी में नाम लिखवा लो। काला कोट पहन लो। बस, अपने भीतर के रिपोर्टर को कमज़ोर न पड़ने दो।

Courtesy: हस्तक्षेप
freedom of expression
Modi Govt
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