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भारत
राजनीति
यूपी : सपा-बसपा गठबंधन के साथ बीजेपी की उल्टी गिनती शुरू!
मायावती और अखिलेश का गठबंधन लोकसभा चुनाव पर क्या असर डालेगा इसे जानने के लिए ज़्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है, बस गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव के परिणाम याद करने की ज़रूरत है।
मुकुल सरल
11 Jan 2019
अखिलेश-मायावती (फाइल फोटो)
Image Courtesy: Hindustan Times

साल 2019 शुरू होने के साथ ही लोकसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो गई है और इसके लिए उत्तर प्रदेश में एक नई राजनीतिक बिसात बिछ रही है। यह है समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन। अनौपचारिक रूप से ये गठबंधन पिछले कुछ महीनों पहले गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव के दौरान ही अस्तित्व में आ चुका था, अब शनिवार, 12 जनवरी को इसका औपचारिक ऐलान भी हो जाएगा।

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख अखिलेश यादव शनिवार को लखनऊ में एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस करेंगे। प्रेस को भेजे निमंत्रण के अनुसार, इसपर सपा के राष्ट्रीय महासचिव राजेंद्र चौधरी और बसपा के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने संयुक्त हस्ताक्षर किए हैं। यह संयुक्त संवाददाता सम्मेलन पांच सितारा होटल ताज में होगा।

सूत्रों के मुताबिक दोनों दलों के बीच गठबंधन का खाका तैयार हो गया है। समझा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश की कुल 80 सीटों में सपा और बसपा 37-37 सीटों का साझा करेंगे, जबकि कांग्रेस के लिए उसकी दो परंपरागत सीटें अमेठी और रायबरेली और अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) के लिए कैराना और बागपत सीटें छोड़ सकते हैं। कैराना में अभी पिछले दिनों उपचुनाव में आरएलडी के टिकट पर बेगम तबस्सुम हसन ने जीत हासिल की थी।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भले ही औपचारिक तौर पर सपा और बसपा का गठबंधन हो लेकिन अनौपचारिक तौर कांग्रेस और आरएलडी से भी गठबंधन बन रहा है। अब देखना है कि कांग्रेस और आरएलडी कितनी-कितनी सीटों पर संतुष्ट होते हैं। आगे जाकर सपा-बसपा भी अपनी सीटें कुछ घटा-बढ़ा सकते हैं। यानी बात अटकने पर कांग्रेस और आरएलडी से कुछ सीटों को लेकर सहमति या समझौता हो सकता है। आमतौर पर समझदारी यही बन रही है कि ये चारों दल एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव में न उतरें और एक-दूसरे की मदद करें। अगर चारों दलों का साथ आना संभव न भी हुआ तो भी यूपी में सपा-बसपा का साथ आना ही बाज़ी पलटने के लिए काफी है।

अब इस नये गठबंधन और समीकरण को लेकर बीजेपी और उसके समर्थक दल अपने नफा-नुकसान का आकलन करने में जुट गए हैं। वैसे इसका नफा-नुकसान जानने के लिए बहुत माथापच्ची या दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। बस गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव के परिणाम याद करने की ज़रूरत है। राजनीतिक तौर पर गोरखपुर यूपी के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गृह जनपद है। 2014 के लोकसभा चुनाव में योगी गोरखपुर से ही सांसद बने थे। वे यहां 1998 से लगातार चुने जाते रहे हैं। उनसे पहले उनके गुरु महंत अवैद्यनाथ यहां से सांसद रहे। 2017 में मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने इस सीट से इस्तीफा दिया लेकिन उपचुनाव में वे यहां से अपनी पार्टी बीजेपी का उम्मीदवार नहीं जितवा सके।

इसी तरह इलाहाबाद (आज का प्रयागराज) की फूलपुर संसदीय सीट पर हुआ। फूलपुर सीट यूपी के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के कब्ज़े में थी। वे 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले 2016 में यूपी बीजेपी के अध्यक्ष बनाए गए। उप मुख्यमंत्री बनने पर उन्हें अपनी लोकसभा सीट से इस्तीफा देना पड़ा लेकिन वे यहां अपना दबदबा और पार्टी का कब्ज़ा बरकरार नहीं रख सके और उपचुनाव में ये सीट भी बीजेपी के हाथ से गई।

इसी तरह बाद में कैराना में हुआ। पश्चिम उत्तर प्रदेश की कैराना सीट भी बीजेपी के दिग्गज नेता हुकुम सिंह के कब्ज़े में थी। उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में ये सीट भी बीजेपी के हाथ से गई। सपा और बसपा के समर्थन से आरएलडी ने यहां हुकुम सिंह की बेटी को ही मात दी।

इस तरह 2014 के लोकसभा चुनाव में अकेले 71 और अपना दल के गठबंधन के साथ 73 सीट जीतने वाली बीजेपी 2019 आने से पहले ही तीन सीटें घटकर 68 पर पहुंच गई। कैराना लोकसभा के साथ ही बिजनौर ज़िले की नूरपुर विधानसभा सीटे के लिए भी उपचुनाव हुए थे उसमें भी बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा।

इन उपचुनाव के नतीजे यूपी की बदलते हवा के रुख को बताने के लिए काफी हैं। इन सीटों पर विपक्षी दलों सपा और आरएलडी ने ऐसे समय में जीत हासिल की जब केंद्र में मोदी सरकार और प्रदेश में योगी सरकार पूरी तरह काबिज़ थी। बसपा अपने सिद्दांत के अनुसार उपचुनाव नहीं लड़ती लेकिन उसके समर्थन ने इन परिणामों पर पूरा असर डाला।

सपा और बसपा दोनों को एक-दूसरे का जानी दुश्मन कहा जाता रहा, खासकर बीजेपी की तरफ से इस तरह की बातें बार-बार उछाली जाती हैं, विशेषकर गेस्ट हाउस कांड ताकि दोनों दल साथ न आ सकें। अब जब ये दोनों दल खुले तौर पर एक साथ आ रहे हैं तो निश्चित तौर पर यूपी की राजनीति की तस्वीर बदलने जा रही है। और यूपी की तस्वीर बदलेगी तो निश्चित तौर पर देश की तस्वीर बदलेगी क्योंकि कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से जाता है। इस तरह आने वाले लोकसभा चुनाव पर इसका बड़ा असर होने जा रहा है ये कहना कहीं से भी गलत न होगा।

अब ज़रा आंकड़ों का गणित भी देख लेते हैं।

2014 लोकसभा चुनाव का नतीजा इस प्रकार रहा

दल      सीट     वोट प्रतिशत

बीजेपी    71       42.3%

सपा      05        22.2%

कांग्रेस    02       07.5%

बसपा     00       19.6%

इस वोट प्रतिशत का विश्लेषण करें तो मोदी लहर के चलते बीजेपी ने 42.2 प्रतिशत वोट हासिल करके 71 सीटें जीत लीं लेकिन सपा और बसपा ने भी मिलकर उससे बहुत कम वोट नहीं पाया। दोनों को मिलाकर 41.8 प्रतिशत (22.2+19.6%) वोट मिले। ये अलग बात है कि ये वोट प्रतिशत सीटों में ट्रांसलेंट नहीं हो पाया और सपा को केवल 5 और बसपा को शून्य यानी एक भी सीट नहीं मिली। अब इस चुनाव में ये दोनों मिलकर निश्चित ही करिश्मा कर सकते हैं। हालांकि राजनीति में सीधे-सीधे दो और दो का जोड़ चार नहीं होता है। फिर भी अगर हम दोनों का वोट प्रतिशत सीधे-सीधे न भी जोड़ें तो दोनों के गठजोड़ का नतीजा क्या हो सकता है कि इसकी झलक हमें उपचुनाव में मिलती है।

गोरखपुर उपचुनाव

दल       वोट प्रतिशत           +/-

सपा        48.87%           +27.12

बीजेपी     46.53%           -5.27

फूलपुर उपचुनाव

दल       वोट प्रतिशत              +/-

सपा         46.95%              +26.62

बीजेपी      38.81%              -13.62

इन दोनों सीटों पर आप समाजवादी पार्टी की बढ़त और बीजेपी की गिरावट आसानी से देख सकते हैं। गोरखपुर में आपको बीजेपी की गिरावट भले ही कम लगे (हालांकि चुनाव में 5.27 प्रतिशत की गिरावट खासी गिरावट होती है), लेकिन समाजवादी पार्टी के वोट प्रतिशत में किस कदर उछाल आया है आप देख सकते हैं। 2014 के चुनाव में जिस समाजवादी पार्टी को गोरखपुर में कुल 21.75 फीसदी वोट मिले थे वहीं चार साल बाद हुए 2018 में हुए उपचुनाव में उसने 27.12 फीसदी की बढ़त लेते हुए 48.87 फीसदी वोट हासिल किए।

इसी तरह फूलपुर उपचुनाव में बीजेपी ने 13.62 फीसदी वोट गंवा दिए तो समाजवादी पार्टी ने 26.62 फीसदी वोट जोड़ते हुए 46.95 फीसदी की ऊंचाई को छुआ और बीजेपी को पटखनी दी।

आपको बता दें कि इन दोनों सीटों पर कांग्रेस अलग से चुनाव लड़ी थी। यानी केवल बसपा के सहयोग और समर्थन से समाजवादी ने ये जादू कर दिखाया।

इसी तरह कैराना का नतीजा भी आने वाले भविष्य का पता देता है।

कैराना उपचुनाव के भी आंकड़े देख लेते हैं-

दल            वोट प्रतिशत       +/-

आरएलडी      51.26%       +47.45

बीजेपी           46.51%        -4.03

कैराना में भले ही आरएलडी ने चुनाव जीता लेकिन आरएलडी प्रत्याशी तबस्सुम हसन इससे पहले सपा की ही सदस्य थीं। इसे ऐसे समझा जाए कि आरएलडी के टिकट पर सपा उम्मीदवार ने ही चुनाव लड़ा। और सपा ने उन्हें खुला और बसपा ने परोक्ष समर्थन दिया। कुल मिलाकर यहां भी विपक्ष की जीत हुई और वो भी 47.45 प्रतिशत वोट प्लस करते हुए।

ये सब आंकड़े और उनका विश्लेषण साफ-साफ बता रहा है कि सपा और बसपा की दोस्ती का क्या नतीजा होने जा रहा है। तभी इस गठबंधन को लेकर बीजेपी में घबराहट है और अखिलेश यादव पर कथित खनन घोटाले को लेकर सीबीआई का शिकंजा कसने और अगड़ा आरक्षण लाने को भी इसी दोस्ती से पैदा हुई घबराहट का नतीजा माना जा रहा है।

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