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भारत
राजनीति
कानपुर के देहाती इलाक़ों का एक सियासी सफ़र
एक ऐसी नयी किताब,जो सियासी घिनौनेपन और भ्रष्टाचार की जड़ों की सटीक शिनाख़्त करती है, लेकिन उद्धार के उस कुछ इतिहास से चूक जाती है, जो इसी सियासत के बूते घटित हुआ था।
मोहम्मद सज्जाद
17 Jul 2021
कानपुर के देहाती इलाक़ों का एक सियासी सफ़र

आज़ादी के शुरुआती 25 सालों के दौरान उत्तर प्रदेश की राजनीति का एक काल्पनिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करता उपन्यास, ‘द पॉलिटिशियन’ टीवी पत्रकार से लेखक बने देवेश वर्मा का पहला उपन्यास है। वर्मा ने उर्दू साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की है। यह उपन्यास में सर्वेश्रेष्ठ स्वरूप में तब सामने आता है, जब यह कानपुर और इसके देहाती इलाक़ों के उच्च पिछड़ी जातियों के बीच ग़रीब और निम्न-मध्यम तबके के जीवन को सामने रखता है। वर्मा अपने इस उपन्यास में एक हद तक दलितों की हक़ीक़त को भी सामने रख देते हैं।

कुछ समीक्षकों ने द पॉलिटिशियन की समीक्षा इसकी साहित्यिक विशिष्टताओं और मनोरंजन की अहमियत के लिहाज़ से की है, लेकिन कुछ समीक्षकों ने इसकी समीक्षा करते हुए कहा है कि स्वतंत्रता के बाद के दौर में उस भारतीय राजनीति पर यह उपन्यास एक सटीक टिप्पणी है, जिसे इस उपन्यास में दर्शाया गया है। एक तरह से यह किताब 1987 में आयी लॉयड रूडोल्फ़ और सुज़ैन रूडोल्फ़ की किताब, ‘इन परस्यूट ऑफ़ लक्ष्मी: द पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ़ द इंडियन स्टेट’ को कथात्मक रूप से व्यक्त करती है। रूडोल्फ़ दंपत्ति हरित क्रांति के बाद जाटों, कुर्मी और यादवों के एक ऐसे तबके के उदय का वर्णन करते हैं, जिन्हें वे "बुलॉक कैपिटलिस्ट", यानी धनाढ्य किसान कहते हैं। इस उपन्यास का मुख्य किरदार और उसका परिवार उसी धनाढ्य होते वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।

केंद्रीय चरित्र, राम मोहन "इस इलाक़े का एक आगे बढ़ती पिछड़ी जाति का सबसे शिक्षित व्यक्ति" है, जो एक कॉलेज में लेक्चरर है और उसके पास बोलने का ज़बरदस्त कौशल है। वह राज्य विधानमंडल का एक निर्वाचित सदस्य बनने की ख़ाहिशमंद है और इसे हासिल करने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है। वह "स्थानीय स्तर पर व्यापक ढांचागत बदलाव" के लिए काम नहीं करता है, जैसा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दलितों के सिलसिले में 2008 के निबंध में क्रेग जेफ़री और दूसरे लोगों ने दिखाया था या फिर कानपुर स्थित विद्वान एके वर्मा ने पिछड़ी जाति की राजनीति पर अपने 2005 के निबंध में दिखाया था। हालांकि, ये लेख हाल के दशकों के हैं, मगर यक़ीनन ये लेख इस उपन्यास में चित्रित 1972 से पहले के राम मोहन के कार्यों के नतीजों को दर्शाते हैं। यह उपन्यास एक तरह से उत्तर प्रदेश की सियासत की बदलते सामाजिक ढांचे और चरित्र को लेकर जो कुछ सामाजिक विज्ञान के शिक्षाविद कहते रहे हैं, उसकी एक कथात्मक समालोचना है।

राम मोहन सियासत में आगे बढ़ने के विकल्प के तौर पर छात्र राजनीति का चुनाव नहीं करता है। (लेखक वर्मा ख़ुद इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र रहे हैं और निश्चित रूप से इन विश्वविद्यालयों की उस छात्र राजनीति से परिचित हैं, जिस पर वे लिख रहे हैं, लेकिन अपने नायक के लिए एक अलग रास्ता चुनते हैं।) इस तरह, राम मोहन उस प्रतिष्ठा का फ़ायदा उठाकर राजनीतिक ताक़त हासिल करता है, जो उसे ज्ञान से मिलती है। वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि यह "एक ऐसा वक़्त था, जब बौद्धिक जगत में अपने योगदान के लिए जाने जाने वाले राजनेताओं के उदाहरण बड़ी संख्या में रहे होंगे।"

उसका यक़ीन यथास्थिति को बनाये रखने में हैं। वह राजनीतिक सत्ता का स्वार्थी साधक है। अजीब बात है कि वैचारिक बहसों, राजनीतिक दलों की अगुवाई और समर्थन आधार के सामाजिक ढांचों और विदेशी मामलों (यहां तक कि बांग्लादेश के निर्माण में भारत के हितों और भूमिका से भी) से उसका कोई सरोकार नहीं है। इस उपन्यास में कम्युनिस्टों के ज़िक़्र से भी ऐसे बचा गया है, जैसे कि 1947-72 के दौरान कम्युनिस्ट मौजूद ही नहीं रहे हों, जबकि सच्चाई यही है कि आज़ादी के शुरुआती सालों में कम्युनिस्ट ही प्रमुख विपक्ष हुआ करते थे।

इस उपन्यास में राम मोहन को एक कुर्मी नेता के रूप में दिखाया गया है। जिसका जुडाव राजनीतिक रूप से कद्दावर और किसान राजनीति के उस बड़े नेता चौधरी बरन सिंह के साथ एक लंबे समय से है, जो असली ज़िंदगी के राजनेता चरण सिंह (1902-1987) से मिलता जुलता है। विद्वान लेखक ने कुछ हद तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश की छात्र राजनीति में दिलचस्पी दिखायी है। मिसाल के तौर पर, सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता, राजनीतिक सशक्तिकरण, सामाजिक विचलन और सत्ता की दलाली को लेकर अकादमिक कार्यों में कुछ स्पष्टता और विस्तार के साथ मेरठ स्थित चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाले बेरोज़गार नौजवानों की शरारत की खोजबीन की गयी है।

इस सिलसिले में एक महत्वपूर्ण अध्ययन ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के भूगोलवेत्ता क्रेग जेफ़री द्वारा 2009 का निबंध, "फ़िक्सिंग फ्यूचर्स: एजुकेटेड अनइंप्लॉयमेंट थ्रू ए नॉर्थ इंडियन लेंस" है, जिनके शोध का विषय पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों पर हरित क्रांति के असर को लेकर है। हालांकि, वर्मा का यह नायक न तो वह जाट है, जो सत्तारूढ़ कांग्रेस से पहली असंतुष्ट अहम जाति थी और न ही वह यादव है, जिसकी कांग्रेस-विरोधी समाजवादी राजनीति से जुड़ाव ने उसे कांग्रेस के बाद के दौर में प्रमुख राजनीतिक सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के रूप में उभरने में मदद की। उपन्यासकार ने उन कुर्मियों की ज़िंदगी में उतरना पसंद किया है, जो (माना जाता है) उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में उतनी अहमियत नहीं रखते, जितनी अहमियत बिहार की राजनीति में रखते हैं।

सत्ता पाने के पीछे पड़ने के दौरायन राम मोहन को एक ब्राह्मण से मदद मिलती है। उसका गुरु एक तिवारी है। एक और कुलीन-जाति का किरदार अलग-अलग चालों के ज़रिये उसकी चुनावी कामयाबी को पहले ही रोक देता है। हालांकि, यह उसकी अपनी ही जाति के भाई, दीप नारायण और पढैया भैया हैं, जो वास्तव में उसकी महत्वाकांक्षाओं को नाकाम कर देते हैं। राम मोहन पढैया को डरा-धमकाकर चुप करा देता है और अजीब तरह से उनका समुदाय उनके पीछे लामबंद हो जाता है। मगर, वास्तव में उसे सामाजिक समर्थन तब मिलता है, जब वह राजनीतिक सत्ता की तलाश के दौरान अपने ही समुदाय के किसी शख़्स का इस्तेमाल करके उससे छुटकारा पा लेता है। यह आम ज़िंदगी का सच है क्योंकि जैसे-जैसे ऊपर की ओर गतिशील सामाजिक समूह राजनीतिक सीढ़ी चढ़ते जाते है, उन्हें उतना ही अपने समुदाय के भीतर के प्रतिद्वंद्वियों और प्रतिस्पर्धियों के साथ संघर्ष करना पड़ता है, जितना कि समुदाय के बाहर के प्रतिद्वंद्विंयों और प्रतिसस्पर्धियों से करना होता है। ऐसे प्रसंगों और भयानक कहानियों की कमी नहीं है, जो अक्सर सुनाये जाते हैं।

शुक्ला को छोड़कर सभी ब्राह्मण किरदार तक़रीबन शिष्ट या कम से कम कम अनाचारी हैं। उदाहरण के लिए, दीक्षित का दो विधवा युवतियों- एक ब्राह्मण युवती गायत्री और एक दलित युवती सुघारी के साथ विवाहेतर सम्बन्ध है। हालांकि, इस चक्कर में गायत्री की जान चली जाती है। दीक्षित की पसंद को समझाने के सिलसिले में इस कहानी को कई औचित्य दिये गये हैं, मसलन उसकी परोपकारिता। सवाल है कि क्या यह कहानी (यह देखते हुए कि उपन्यास-लेखन एक रचनात्मक प्रक्रिया है) अनिवार्य रूप से "उत्पीड़ितों को ग़लत तरीक़े से पेश किये जाने की राजनीति" में शामिल है? इस लेखक ने 2009 के एक लेख में कहा था कि 2004 में छपे अब्दुस समद का उर्दू उपन्यास, ‘धमक’ भी इसी तरह के पतन होने की कहानी है। यह एक ऐसे नक्सली क्रांतिकारी दलित की कहानी है ,जो एक पतित, सत्ता के लिए भ्रष्ट राजनेता को ख़त्म कर देता है। इस कहानी की भी आलोचना हो सकती है।

प्रासंगवश, राम मोहन शिक्षा जगत और पढ़े-लिखों के आचरण में आयी गिरावट का भी प्रतीक है। यह कुछ ऐसी बात है, जिसे शिक्षाविदों ने बड़े पैमाने पर सटीक रूप से सामने रखने से परहेज किया है। एक साहित्यकार और शोधकर्ता होने के बावजूद राम मोहन जैसे-तैसे राजनीतिक लाभ पाने की चाहत की वजह से अपने पेशे की ज़रूरतों से समझौता कर लेता है, जिसमें छात्रों के साथ उसके "रोमांटिक" हस्तक्षेप भी शामिल हैं।

जहां एक तरफ़ राजनीति में राम मोहन दूसरे को चतुराई से बार-बार मात देता है, वहीं घर में उसका रवैया बहुत ही दमनकारी है। वर्मा ने इस राजनीतिक महत्वांकक्षा रखने वाले किरदार की बाहरी जगत और भीतरी जगत के बीच के मतभेद या समानांतर चलने वाले उन मतभेदों को उजागर किया है, जहां उन संघर्षों को ज़ाहिर होने दिया जाता है। सबके सामने वह ख़ुद को एक नेकनीयत, यहां तक कि प्रगतिशील शख़्स के तौर पर पेश करता है। लेकिन, अपने घर में वह ख़ुद के बेटों, बेटियों और पत्नी के प्रति बेरहम होता है। इसका दुखद परिणाम यह होता है कि उसके बच्चे बेहतर ज़िंदगी के मौक़े गंवा देते हैं। वह अपना पूरा परिवार खो देता है। इस बीच, चुनाव दर चुनाव राम मोहन विरासत में मिली अपनी ज़मीन के छोटे-छोटे टुकड़े बेचता चला जाता है। (यहां यह याद रखना  ज़रूरी है कि साठ के दशक में चुनाव उतने महंगे नहीं होते थे, जितने कि बाद में हो गये।)

ऐसे में यह सहज सवाल पैदा होता है कि अगर शोषित सामाजिक समूह राजनीतिक सशक्तिकरण और स्थायी समृद्धि चाहते हैं, तो उन समूहों के लोगों को कौन सा रास्ता अपनाना चाहिए? क्या उन्हें चुनावी राजनीति के जटिल और अनिश्चित भरे क्षेत्र में पैर जमाने की तलाश शुरू करने के बजाय शिक्षा और कारोबार पर ध्यान देना चाहिए?

जहां तक उसकी अपने भीतरी जगत का सवाल है, तो राम मोहन शुरू में कुछ हद तक आदर्शवाद का सहारा लेता है। वह जाति-आधारित संकीर्ण पहचानों से ऊपर उठना चाहता है और जातिगत एकता का विरोधी है। उसका मानना है कि "...स्वतंत्र भारत में प्रतिभा और कड़ी मेहनत के आड़े कोई नहीं आ सकता।" और, "... उसकी जाति में उसके मेहनत से हासिल ज्ञान और किसी शिक्षित ब्राह्मण की चमक से चकित होने वाले लोग बहुत ही कम हैं।" 1967 के चुनाव तक वह "इस हक़ीक़त को स्वीकार नहीं कर पाया था कि शिक्षा, ईमानदारी, क्षमता, मंशा आदि जैसी चीजें मतदाताओं के लिए बहुत कम मायने रखती हैं।"

ऐसा नहीं कि परिवार और बाहरी जगत के बीच का यह महज़ अंतर्विरोध है, बल्कि यह अंतर्विरोध उतना ही गहरा भी है। उसका परिवार राम मोहन से नाराज़ है, लेकिन बेहतर ज़िंदगी की उसकी कामना उसे उसकी कामयाबी पाने की तरफ़ ले जाती है। हम अक्सर परिवार, जाति और धार्मिक समुदायों को अपराधियों, ख़ासकर आपराधिक राजनेताओं के पीछे भागते हुए देखते हैं। हालांकि, यह संघर्ष बग़ावत या यहां तक कि उसकी पिता तुल्य छवि के दावे को भी दरकिनार कर देता है। इसलिए, हम देखते हैं कि उसका एक बेटा अपराधी बन जाता है और उसे इस बेटे पर गर्व है। संतोष की यह भावना वह आपराधिकता से पाता है-चाहे उसका उस अपराधिकता से कितने भी दूर का रिश्ता क्यों न हो, लेकिन उस संतोष के पूरे होने की भावना का यही इकलौता ज़रिया भी है।

क्या वर्मा तीन उपन्यासों की श्रृंखला लिखने की तो नहीं सोच रहे हैं, क्योंकि उनकी इस किताब से तो ऐसा ही संकेत मिलता है? हमें नहीं मालूम। मगर, वह ग्रामीण जीवन को अनोखे रूप से चित्रित करते हुए इस विधा में अपनी श्रेष्ठता का परिचय दे जाते हैं। उन्होंने ग्रामीण पात्रों के लिए उपयुक्त संवाद भी लिखे हैं, हालांकि वह ख़ुद को सामाजिक-आर्थिक बदलावों से ज़्यादा जोड़ नहीं पाते हैं। मिसाल के तौर पर जोत के स्वरूपों और उनके जातिगत ढांचे उनकी इस कहानी में शामिल नहीं हैं। अकादमिक क्षेत्र में ज़ोया हसन के 1989 में छपे लेख, "पावर एंड मोबिलाइज़ेशन: पैटर्न ऑफ़ रेजिलिएशन एंड चेंज इन यूपी" में इस विशिष्ट पहलू पर ध्यान दिया गया है। नंदिनी गुप्तू की 2001 में आयी किताब, ‘द पॉलिटिक्स ऑफ़ द अर्बन पुअर इन अर्ली-ट्वेंटिएथ सेंचुरी इंडिया’ और चारु गुप्ता की 2001 में आयी किताब, ‘सेक्शुअलिटी, ऑब्सेनिटी, कम्युनिटी’ औपनिवेशिक काल के आख़िर में उत्तर प्रदेश के देहाती इलाक़ों में आये इन्हीं बदलावों की छानबीन करती हैं। गुप्तू उत्तर प्रदेश के पांच शहरों (उस कानपुर समेत, जहां की कहानी यह उपन्यास कहता है) पर विचार करती हैं, और उनकी इस किताब में दलितों, पिछड़ी जाति के हिंदुओं और उनके मुस्लिम समकक्षों के शोषित समुदायों की ऊपरी गतिशीलता, जिसमें उनका सांप्रदायिककरण भी शामिल है,बहुत ही बारीक़ी के साथ कई अध्याय हैं। इसके अलावे, कथिंका फ़्रयस्टेड की 2005 में आयी किताब, ‘ब्लेंडेड बाउंड्रीज़: कास्ट, क्लास एंड हिंदुनेस इन ए नॉर्थ इंडियन सिटी’ स्वतंत्रता के बाद के दौर के लिए उपयोगी है। बहरहाल, यह उपन्यास न ही कानपुर के औद्योगीकरण का राजनीति पर प्रभाव, न ही इसके बाद के उद्योगों के ख़त्म होते जाने के करणों पर ही ध्यान केंद्रित करता है।

लम्बे चलने वाले धारावाहिक के उलट वर्मा अपने उपन्यास के सामाजिक-राजनीतिक जीवन से मुसलमानों को ग़ायब नहीं होने देते हैं। मुसलमान विधायक का किरदार लियाक़त अरगली, राम मोहन का प्रतिद्वंद्वी तो है, लेकिन दुश्मन नहीं है। अन्य मुसलमान किरदार, ज़हीर साहब और उनका परिवार सौम्य, मध्यवर्गीय, इंग्लैंड और वहां से जुड़ी चीज़ों के प्रशंसक हैं। उनकी पत्नी की शख़्सियत में "ख़ूबसूरती और लालित्य" की आभा है और यही वजह है कि महिलाओं की ओर आकर्षित रहने वाला राम मोहन इस परिवार से मिलने के लिए बेचैन रहता है। दलित महावीर विल्सन भी अपने नज़रिये में आधुनिक हैं, वह हिन्दी की जगह अंग्रेज़ी भाषा को तरज़ीह देता है।

इस बात का कोई साफ़ ज़िक़्र तो नहीं है कि राम मोहन "अंग्रेज़ी को ख़त्म करने" के लिए आख़िर समाजवादी अभियान में शामिल क्यों हो जाता है, जबकि उसका मानना है कि "भारत में अंग्रेज़ी का कोई भविष्य नहीं है।" उसका मानना है कि उसके बच्चों के करियर की क़ीमत पर हिंदी सत्ता और रसूख की भाषा के रूप में उभरेगी। (यह पहलू स्कूलों की स्थापना को सामुदायिक पहल पर छोड़ देने जैसी नेहरूवादी प्राथमिकताओं की उन कुछ ख़ामियों को उजागर करता दिखता है ,जिसकी वजह से प्रशिक्षित और योग्य शिक्षकों की भारी कमी और अन्य समस्यायें सामने आयी थीं।)

राम मोहन भी नहीं चाहता कि उसके बच्चे आधुनिक नज़रिये वाले छात्रों या परिवारों के साथ घुले-मिले, भले ही वह ख़ुद शहर के ऐसे लोगों के साथ अच्छा रिश्ता बनाये रखता है, जिनके ज़रिये वह अपने उत्थान की उम्मीद पालता है। लेकिन, यह उसका छिपा हुआ गुप्त जीवन है, जिसके बारे में वह चाहता कि उसके परिवार को पता नहीं हो।

राजनीति का पतन तो पहले से ही हो रहा था। संस्थागत क्षरण भी तेज़ी से बढ़ रहा था, लेकिन सत्ता की दलाली (या ट्रांसफर-पोस्टिंग रैकेट) के ज़रिये भारी भड़कन ज़ायदाद जमा करने जैसी बातें अभी शुरू नहीं हुई थी। राम मोहन को अपने अपराधों के लिए कभी भी न्याय व्यवस्था का सामना नहीं करना पड़ता है और उसका उस स्थानीय पुलिस पर भी पूरा-पूरा प्रभाव है, जो उसके गुर्गों को भी आश्रय देती है। यह कहानी राम मोहन के उस लोक सेवा आयोग के सदस्य बनने के साथ ही ख़त्म हो जाती है, जो कथित रूप से स्वायत्त संवैधानिक निकाय है और जिसे राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहना चाहिए। इस तरह, यह उपन्यास साफ़ तौर पर प्रांतीय भारत में पुलिस और प्रशासकों की भर्तियां करने जैसे कार्यों को अंजाम देने वाले उन संस्थानों में तेज़ी से आती गिरावट को दिखाता है, जो उनके जैसे घटिया राजनेताओं की दया के भरोसे हैं।

उपसंहार: कानपुर भी भौगोलिक रूप से चंबल की बंज़र ज़मीन (अवैध हथियारों के लिए कुख्यात) के नज़दीक है। यहां अनिवार्य रूप से थोड़े-थोड़े समय तक ज़िंदा रहने वाले डकैतों का उल्लेख मिलता है। ऐसा ही एक असली और कुख्यात डकैत गब्बर सिंह (1926-1959) था, जिसने नेहरू को भी झकझोरकर रख दिया था। एक प्रतिष्ठित पुलिस अधिकारी और नेहरू के सुरक्षा अधिकारी केएफ़ रुस्तमजी ने दो किताबों, ‘द ब्रिटिश’, द बैंडिट्स एंड द बॉर्डर मेन एंड आई वाज़ नेहरूज़ शैडो’ में इस डकैत को ख़त्म करने में उनकी भूमिका के बारे में लिखा है। बाद में पत्रकार-लेखक तरुण भादुड़ी ने ‘अभिशप्त चंबल’ नाम की एक किताब लिखी थी, जिसे बॉलीवुड फ़िल्म, ‘शोले’ के रूप में अमर कर दिया गया।1975 में आयी यह फ़िल्म स्वतंत्र भारत में अराजकता और आपराधिक न्याय प्रणाली की नाकामी की एक शुरुआती अभिव्यक्ति थी।

लेखक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में आधुनिक और समकालीन भारतीय इतिहास पढ़ाते हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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