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तुष्टिकरण बनाम दुष्टिकरणः भाषाई संक्रमण से बीमार होता समाज
आज वोट बैंक और तुष्टिकरण जैसे शब्दों ने मिलकर धर्मनिरपेक्षता जैसे आधुनिक राजनीतिक मूल्य को ध्वस्त करने की ठान ली है। वह हर चुनाव में धर्मनिरपेक्षता को निशाना बनाते हैं और इस चुनाव में भी बना रहे हैं।
अरुण कुमार त्रिपाठी
08 Apr 2021
तुष्टिकरण बनाम दुष्टिकरणः भाषाई संक्रमण से बीमार होता समाज
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : ourpolitics

कहते हैं किसी भी समाज के भ्रष्ट और पतित होने से पहले उसकी भाषा भ्रष्ट होती है। भाषा का यह संक्रमण समाज को बीमार अभिव्यक्ति देता है और फिर पूरे समाज को बीमार बना देता है। हमारे देश में जितनी तेजी से कोविड-19 की दूसरी लहर फैल रही है उतनी ही तेजी से भाषा और राजनीति के व्याकरण में संक्रमण फैल रहा है। यह दूसरी लहर 1984 या 1992 वाली लहर से भी तेज और घातक लग रही है। क्योंकि तब देश के तमाम इलाके इससे बच गए थे लेकिन अब लगता है कोई नहीं बचेगा। इसका प्रभाव हम पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान हो रहे प्रचार के दौरान देख सकते हैं।

यह प्रभाव सबसे ज्यादा पश्चिम बंगाल और असम के चुनावों में दिख रहा है और उसमें भी पश्चिम बंगाल इस संक्रमण से सर्वाधिक प्रभावित है। इसका मतलब यह नहीं कि कार्रवाई का स्तर भाषा से कम पतित है। क्योंकि जिस निर्लज्जता से इस चुनाव में उत्तर से दक्षिण तक विपक्षी नेताओं के घरों पर छापे पड़ रहे हैं और उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है उस तरह से कम ही हुआ है। लगता है केंद्रीय जांच एजंसियां भी इस चुनाव में एक पक्ष बनकर उतर पड़ी हैं।

हमारे राजनीतिक आख्यान में दो शब्द बहुत तेजी से लोकप्रिय हुए हैं। एक है वोट बैंक और दूसरा है तुष्टिकरण। वोट बैंक शब्द की खोज प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम.एन श्रीनिवास ने की थी और तुष्टिकरण का प्रयोग संघ परिवार और उसके जुड़े राजनेता बहुतायत में करते हैं। हमारे व्यापक इलेकट्रानिक मीडिया, प्रिंट मीडिया और राजनीतिक विश्लेषकों ने इन शब्दों को उसी तरह अपनी जुबान से चिपका लिया है जिस तरह आजकल मोबाइल फोन लोगों के हाथ और कान से चिपक गया है। कई लोग सड़क और रेलवे लाइन पार करते हुए भी मोबाइल अपने कान से लगाए रहते हैं भले ही कोई हादसा हो जाए। उसी तरह हमारी राजनीति के तटस्थ और समझदार विश्लेषक भी अब इन शब्दों के व्यामोह में फंस गए हैं। यह जानते हुए कि इन शब्दों ने धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक सद्भाव का बड़ा नाश किया है लेकिन वे इसके बेधड़क प्रयोग से बाज नहीं आते।

हालांकि एम.एन श्रीनिवास ने जब वोट बैंक शब्द का प्रयोग किया तो वे इस बारे में बहुत पक्की राय नहीं रखते थे। उनके तमाम शिष्यों ने भी इस शब्द पर गहरे संदेह खड़े किए। परवर्ती समाजशास्त्रियों ने भी यह माना कि किसी जाति या संप्रदाय के लोग एक साथ किसी एक पार्टी को वोट देते हों ऐसा नहीं है। हर जाति और संप्रदाय के लोग अलग अलग दलों को वोट देते हैं। वह दौर सामंती दौर था जब गांव के मुखिया या धार्मिक नेता का जबरदस्त प्रभाव हुआ करता था और उनके कहने से सारे लोग किसी एक दल को वोट दे देते थे। अब लोग संपन्न हो गए हैं और वे व्यक्तिगत राय रखते हैं।

वोट बैंक का मिथक कई बार टूटा है। देश के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक मुसलमान समुदाय ने कभी शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी के कहने पर 1977 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध जनता पार्टी को वोट दिया था लेकिन कभी उनके मना करने पर भी मुसलमानों ने मुलायम सिंह यादव को वोट दिया।

विभिन्न अध्ययनों में अल्पसंख्यकों के साथ अगर यह प्राथमिकता रही है कि वे अपने समुदाय के उम्मीदवार को वोट देने में प्राथमिकता देते हैं तो यह भी रहा है कि उनके वोट उस पार्टी को जाते रहे हैं जो धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों का न्यूनतम पालन करे। आज ओवैसी जैसे नेताओं के उदय के साथ वह स्थिति भी बदल रही है।

लेकिन आज वोट बैंक और तुष्टिकरण जैसे शब्दों ने मिलकर धर्मनिरपेक्षता जैसे आधुनिक राजनीतिक मूल्य को ध्वस्त करने की ठान ली है। वह हर चुनाव में धर्मनिरपेक्षता को निशाना बनाते हैं और इस चुनाव में भी बना रहे हैं। विडंबना है कि इन शब्दों का प्रयोग वे तमाम पत्रकार करने लगे हैं जिनमें हम धर्मनिरपेक्ष छवि देखते हैं। तुष्टिकरण का आरोप इतना जबरदस्त है कि अब ज्यादातर दल इस पर बचाव करते नजर आ रहे हैं।

वैसे तो संघ परिवार के पूरे आख्यान में ही यह शब्द भरा पड़ा है। वह महात्मा गांधी द्वारा खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने से लेकर उनके तमाम बयानों और फैसलों को तुष्टिकरण की राजनीति बताता रहा है। वह भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों में दिए गए धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार जिसमें धर्म परिवर्तन का अधिकार शामिल है और उसके आखिरी हिस्से में अल्पसंख्यकों को दिए गए सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकारों को भी उसी श्रेणी में रखता है। अंग्रेजों की तरफ से आए पृथक निर्वाचन मंडल का विवाद तो इसका हिस्सा माना ही जाता है।

लेकिन सबसे ताजा विवाद न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट है। सन् 2006 में आई इस रिपोर्ट ने बताया था कि देश भर में अल्पसंख्यक समुदाय की स्थिति दलितों और पिछड़ों से भी बदतर है। इस रपट में पश्चिम बंगाल में भी मुसलमानों की स्थिति काफी खराब बताई गई थी जिसके कारण वाममोर्चा सरकार की आलोचना हुई और धीरे धीरे अल्पसंख्यक समुदाय कम्युनिस्ट पार्टियों से दूर जाने लगा। लेकिन रोचक बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने इस रपट को लेकर कांग्रेस पार्टी पर सबसे ज्यादा हमला किया। उसका कहना था कि यह मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति है जिससे कांग्रेस पार्टी समाज को बांटने की कोशिश कर रही है। सच्चर कमेटी ने सुरक्षा बलों में अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की बात भी कही थी जिसे भाजपा ने देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ बताया। उस समय के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इस रिपोर्ट के आधार पर 15 सूत्री कार्यक्रम तैयार किया था ताकि पीछे छूट गए मुस्लिम समुदाय को सबके बराबर लाया जाए।

यहां रोचक बात यह है कि मुस्लिम वोट बैंक और तुष्टिकरण की राजनीति का आरोप झेल रही कांग्रेस पार्टी ने अब इस रपट से अपना हाथ ही पीछे खींच लिया। लेकिन भारतीय जनता पार्टी ऊपर से भले यूपीए और कांग्रेस सरकार और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस पर तुष्टिकरण का आरोप लगाए लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार का अल्पसंख्यक मंत्रालय सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को एक अहम निर्देश पुस्तिका के रूप में देखता है और डॉ. मनमोहन सिंह के 15 सूत्री कार्यक्रम के प्रभावों पर भी रपट तैयार करवा कर उसे वेबसाइट पर डाल रखा है। यानी मोदी सरकार सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को राजनीतिक निशाने पर रखते हुए उसके जोड़तोड़ और इस्तेमाल में लगी रहती है।

यह बात सही है कि तृणमूल कांग्रेस की ओर तेजी से आए मुस्लिम समुदाय के पक्ष में ममता ने कुछ फैसले किए जिससे उसे कुछ लाभ हुआ और उनकी भावनाएं भी संतुष्ट हुईं। इमामों को वजीफे और मुहर्रम के जुलूस को पहले निकलने की अनुमति देने के फैसले वैसे ही थे। लेकिन उसी को भाजपा ने तुष्टिकरण का सवाल बना लिया। जबकि यह बहुसंख्यक समुदाय का कर्तव्य है कि वह अपना दिल बड़ा रखे और अल्पसंख्यक समुदाय को आहत न होने दे। तभी तो आंबेडकर ने कहा है कि अल्पसंख्यक समुदाय को निर्देश नहीं देना चाहिए बल्कि उसका दिल जीतना चाहिए। तो क्या दिल जीतने की बात करने वाले आंबेडकर तुष्टिकरण कर रहे थे? लेकिन ममता बनर्जी ने भाजपा के तुष्टिकरण और वोट बैंक के चक्रव्यूह में फंसकर अपनी स्थिति राजीव गांधी वाली बना ली। पहले वे जय श्रीराम  के नारे पर परेशान हो रही थीं तो अब वे बहुसंख्यकों को खुश करने के लिए मंच से चंडीपाठ करने लगीं और अपना गोत्र बताने लगीं।

कहने का तात्पर्य यह है कि तुष्टिकरण और वोटबैंक जैसे सनसनीखेज शब्दों के संक्रमण के चलते किसी समाज की  वास्तविक स्थिति उसी प्रकार छुप और दब जाती है जिस तरह महामारी का हौव्वा खड़ा करने के बाद तमाम दूसरी बीमारियों का इलाज दब जाता है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई इंटरव्यू में इस बात को स्वीकार किया है कि चुनाव के कारण अक्सर दूसरे दलों, नेताओं और समुदायों के बारे में आक्रामक भाषा बोलनी पड़ती है ताकि जनमत को बदल कर जीत हासिल की जा सकी। अगर चुनाव बार बार बार होते हैं तो यह कटुता पूर्ण भाषा ज्यादा बोलनी पड़ती है। इसी दलील के आधार पर वे सुझाव देते हैं कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही कराए जाएं ताकि पांच साल में एक बार कटुतापूर्ण भाषा बोलकर छुट्टी पा ली जाए। लेकिन मामला अगर इतना ही होता तो यह समाज और उसकी लोकतांत्रिक प्रणाली उसे भी सह लेती। यह दलील भी एक धोखे की तरह दी जा रही है।

दरअसल तुष्टिकरण और वोट बैंक की संक्रामक शब्दावली मनगढंत कल्पनाओं पर आधारित है। इनको इसलिए गढ़ा गया है ताकि नफरत फैलाई जा सके। नफरत फैलाने की यह योजना एक समुदाय को दुष्ट और राष्ट्र के विरुद्ध निरंतर साजिश रचने वाला बताने के लिए तैयार की गई है। यानी तुष्टिकरण के जवाब में दुष्टिकरण। सहानुभूति की जगह पर नफरत। सम्मान की जगह पर अपमान। भारतीय राजनीति की यह नई योजना लोकतंत्र को भीतर से खोखला कर रही है। इसका असर चुनावों में तो पड़ता ही है उससे ज्यादा बाद में रहता है। यह समाज को भीतर तक विभाजित कर देती है। चुनाव प्रचार की इसी जुमलेबाजी, लफ्फाजी और आक्रामकता को ध्यान में रखते हुए भारत के प्रसिद्ध राजनीति शास्त्री रजनी कोठारी ने अपने प्रसिद्ध लेख में अस्सी के दशक में ही लिख दिया था कि चुनाव के खेल से निकली सांप्रदायिकता।

चूंकि लोकतंत्र में चुनाव होते रहने हैं और इस खेल को भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार ने अच्छी तरह साध लिया है इसलिए लगता है कि हमारा समाज निरंतर सांप्रदायिकता के दल दल में धंसता ही जाएगा। चुनाव और सार्वजनिक बालिग मताधिकार जिस आधुनिक राजनीतिक प्रणाली की देन है उसके कुछ मूल्य हैं। वे मूल्य समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के साथ साथ राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय की बात करते हैं। वे मूल्य एक दूसरे पर आश्रित हैं। यानी एक के बिना दूसरा संभव नहीं है। भाजपा जिसे तुष्टिकरण कहती है वह दरअसल सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय की जरूरत है। समता तभी आएगी जब किसी पिछड़े को विशेष अवसर दिया जाएगा।

चूंकि भाजपा समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्यों में आस्था नहीं ऱखती इसलिए उसे सामाजिक न्याय की आवश्यकता भी समझ में नहीं आती। दरअसल वोट बैंक और तुष्टिकरण की राजनीति तो वह स्वयं कर रही है। वह हिंदू समाज को आधुनिकता से दूर ले जाकर एक स्वर्णिम अतीत की गलतफहमी में डाल रही है। क्योंकि उसे हिंदू वोट बैंक निर्मित करना है। इस तरह से आधुनिक और उदार होता हिंदू समाज संकीर्णता में फंसता जा रहा है।

इन्हीं विडंबनापूर्ण स्थितियों पर टिप्पणी करते हुए प्रोफेसर रजनी कोठारी ने कहा था कि भाजपा के खिलाफ एक धर्मनिरपेक्ष गठबंधन कायम करने का प्रयास एक किस्म का सांप्रदायिक गठजोड़ बनता जा रहा है। जातिवादी विभाजन भी सांप्रदायिक विभाजन से अलग नहीं है।

इसी के विरुद्ध चेतावनी देते हुए वे कहते हैं, `` सांप्रदायिकता के जहर का इस कदर फैलाव भारतीय सामाजिक परिवेश के लिए खतरनाक है। अगर दलगत राजनीति और पार्टियों से अलग सामाजिक संगठनों को वैचारिक आधार से लैस करने के दृढ़ प्रयास नहीं किए जाते, अगर एक जनतांत्रिक सामाजिक राजव्यवस्था के निर्माण का काम फिर से शुरू नहीं किया जाता, अगर सभी स्तरों और विविध राजनीतिक धाराओं को एक साथ लाने के उद्देश्य के साथ राष्ट्र निर्माण के अधूरे काम को फिर से लागू नहीं किया जाता तो सांप्रदायिकता पूरे राष्ट्र को ही निगल जाएगी।’’

1998 में प्रकाशित अपनी ही पुस्तक सांप्रदायिकता और भारतीय राजनीति के पश्चलेख में उन्होंने यह चेतावनी दी थी। वे कहते हैं कि आज की सांप्रदायिकता 1984, 1992 (या 1979 में गुजरात) के पागलपन और उन्माद से कहीं ज्यादा व्यापक और चौतरफा है। प्रोफेसर कोठारी आधुनिक जनतांत्रिक मूल्यों पर आधारित सामाजिक संगठनों की सक्रियता में ही इस संक्रमण का समाधान देखते हैं। पर वह सब तभी हो सकता है जब हमारा समाज संविधान में दिए गए आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों का उपहास उड़ाने की बजाय उसके सही अर्थ को पहचाने और उसे लागू कराने के लिए अपनी संस्थाओ में दम पैदा करे।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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