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नस्लभेदी मूर्तियों को ढहाया जाए, नस्लभेदी कर्ज के खात्मे के बाद दिया जाए मुआवजा
मूर्तियों को गिराना जरूरी है। पर उससे ज्यादा जरूरी पूर्व उपनिवेशों के कर्ज को खतम कर उन्हें मुआवजा चुकाना है, जो उनकी सैकड़ों सालों की गुलामी के लिए होगा।
विजय प्रसाद
11 Jun 2020
Racism

बुत अब टूटने लगे हैं। सबसे बड़ा तूफान अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस वालों के हाथ हुई मौत के बाद आया है। अमेरिका में लोग उठ खड़े हुए हैं। फिलाडेल्फिया में शहर प्रशासन ने एक पूर्व कमिश्नर फ्रैंक रिजो की मूर्ति हटा दी। वहां के मेयर ने प्रदर्शनकरियों से इस बात पर सहमति जताई कि "मूर्ति अश्वेतों, LGBTQ और अन्य समुदायों के लोगों से नस्लभेद, कट्टरपंथ और उन पर हुए पुलिस अत्याचार का प्रतीक है।"

देश के दक्षिणी हिस्से में प्रदर्शनकारियों ने संघीय प्रतीकों को निशाना बनाया है। अक्सर इसका निशाना संघीय जनरल होते हैं। जैसे अलबामा के मोंटगोमरी में जनरल रॉबर्ट ई ली और वर्जिनिया रिचमंड में जनरल विलियम कार्टर विकहम।  अलबामा के शहर मोबाइल जैसी कुछ जगह खुद प्रशासन ने मूर्तियां हटवा दीं। वर्जीनिया के अलेक्जेंड्रिया में जैसा हुआ, बहुत सारी जगह विरोध प्रदर्शनों के बाद जनदबाव में मूर्तियों के मालिकों ने उन्हें हटाया।

7 जून, रविवार को यह आंदोलन अटलांटिक के पार मुड़ गया। इंग्लैंड के ब्रिस्टल में यह आंदोलन पहुंचा, जो गुलाम प्रथा के दौरान एक अहम शहर था। यहां प्रदर्शनकारियों ने एडवार्ड कोलस्टन की मूर्ति को एवों नदी में फेंक दिया। कोलस्टन ने  अपना पैसा इंसानों को बेचने के व्यापार में कमाया था। ब्रिस्टल की द सोसायटी ऑफ मर्चेंट वेंचरर्स ने घटना पर प्रतिक्रिया में कहा कि "सोसायटी खुद को सांस्थानिक नस्लभेद के बारे में शिक्षित करती रहेगी" और  12 मिलियन इंसानी गुलामों को कभी नहीं भूलेगी।

उसी दिन प्रदर्शनकारी लंदन में विंस्टन चर्चिल की मूर्ति के पास पहुंचे। उन्होंने मूर्ति के नीचे चर्चिल को नस्लभेदी बताते हुए  "वाज़ ए रेसिस्ट (एक नस्लभेदी था)" लिख दिया। जल्द ही इस नारे को मिटा दिया गया। बेल्जियम के ब्रुसेल्स में प्रदर्शनकारियों ने "कांगो के कसाई" लियोपोल्ड II की मूर्ति के नीचे "शर्म" लिख दिया।

यह साफ़ है कि किसी भी समाज को रॉबर्ट ई ली, विंस्टन चर्चिल और एडवर्ड कोलस्टन जैसे लोगों की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए. यह वह लोग थे जिन्होंने गुलामी और साम्राज्यवाद का बचाव किया। इस बात में कोई विवाद नहीं है। यहां तक कि 2017 में रॉबर्ट ई ली के एक वंशज ने शरलॉट्सविले में स्थित उनकी मूर्ति को हटाने की मांग की थी। उन्होंने कहा था कि उनके पुरखे की मूर्ति, "राक्षसी राष्ट्रवाद का प्रतीक" बन चुकी है। ली के एक और वंशज ने वॉशिंगटन पोस्ट में 7 जून को एक लेख लिखकर रिचमंड स्थित अपने पुरखे की मूर्ति हटाने के लिए कहा।

मूर्तियों के लिए इतना काफ़ी है।

उधार

इतिहास उन लोगों ने नहीं लिखा जिन्होंने मूर्त्तियां गिराई। दरअसल जिन लोगों की यह मूर्तियां थीं, इतिहास लिखने की ताकत उन्हीं लोगों के पास थी। यही हमारी विडम्बना है।

अश्वेत अमेरिकियों को कोई भी आपदा ज्यादा भयावह तरीके से प्रभावित करती है। एक दशक पहले आया वित्तीय संकट और मौजूदा कोविड महामारी, इससे पैदा हुई आर्थिक मंदी इस बात की गवाही देते हैं। सभी लोग इसमें परेशान हैं। पर अफ़्रीकी अमेरिकी लोगों को सबसे ज्यादा परेशानी उठानी पड़ रही है। इन लोगों में कर्ज की दर सबसे ज्यादा है। इस संकट में भी आय का सबसे ज्यादा नुकसान इसी वर्ग को झेलना पड़ा है।

एक मूर्ति यहां अहम हो जाती है, क्योंकि उनका बना होना, उन लोगों के लिए शर्मिंदगी की वजह से जिन्हें इसके आसपास से गुजरना पड़ता है। लेकिन यहां कुछ और ज्यादा करने की जरूरत है। जिन लोगों की यह मूर्तियां हैं, मूर्तियों के साथ साथ उन्होंने इस दुनिया में जो किया, उसे भी हटाने की जरूरत है।

1833 में जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने गुलामी उन्मूलन कानून पास किया, तब इसमें मुआवजे का प्रावधान किया गया, लेकिन उनके लिए नहीं, जो इससे मुक्त हुए थे, बल्कि इनके "मालिकों" को पैसा दिया गया। 1835 से 2015 के बीच ब्रिटिश राजकोष से उन "मालिकों" और उनके वंशजों को 17 ट्रिलियन डॉलर दिए गए। इसकी सीख फ्रेंच कानून से मिली थी। जब हैती को फ्रांस से स्वतंत्रता मिली, तो 1825 में फ्रांस ने वहां अपने  जंगी जहाज़ भेज दिए और हैती से गुलामी के नुकसान के एवज में मुआवजे की मांग की। बदले में हैती ने अपने देश के लोगों के लिए फ्रांस को 21 बिलियन डॉलर चुकाए।

 इस बीच हैती और जमैका जैसे देशों को खुद को आर्थिक तौर पर ज़िंदा रखने के लिए सरकारों और यूरोपीय बैंकों से उधार लेना पड़ा। पिछले कुछ दशकों में यह कर्ज काफ़ी बढ़ गया है। जबकि इस दौरान इन देशों प्राकृतिक आपदा और अमेरिका प्रायोजित सैन्य तख्तपलट की चुनौतियों से जूझना पड़ा है। इस दौरान इन देशों की आर्थिक हालत पतली होती गई।

आज विकासशील देशों पर क़रीब 11 ट्रिलियन डॉलर का कर्ज है। इनमें से कई वानिकी उपनिवेश रहे हैं। इस साल विकासशील देशों का कर्ज 3.9 ट्रिलियन डॉलर है। इस कर्ज को खत्म या इसकी अदायगी को आगे बढ़ाने के प्रयास सफल नहीं रहे हैं, क्योंकि इन पर अमेरिका और यूरोपीय देशों की सरकारों ने चुप्पी थम रखी है। उन्हें बस अपने पैसे से मतलब है।  लेकिन इस पैसे को पूर्व उपनिवेशों से चूसने की जरूरत नहीं है, क्योंकि  हमें उन संसाधनों की अपने समाज की बेहतरी के लिए बहुत जरूरत है।

मूर्ति को हटाना एक चीज है, कर्ज को काटना अलग।

हटाया द रैचड ऑफ द अर्थ में फ्रांट्स फैनों लिखते हैं, "साम्राज्यवाद और औपनिवेशवाद भले ही उन जगहों को छोड़ चुके हों, पर अब तक उनका हिसाब बराबर नहीं हुआ है। साम्राज्यवादी देशों की संपदा हमारी संपदा है। यूरोप को तीसरी दुनिया के देशों ने बनाया है।

मूर्तियों को गिराना जरूरी है, पर उससे ज्यादा अहम उस कर्ज को ख़तम करना और पीड़ित देशों को उन्हें सैकड़ों साल तक उपनिवेश बनाए रखने और उनसे क्रूरता के लिए मुआवजा देना जरूरी है।

(विजय प्रसाद भारतीय इतिहासकार, संपादक और पत्रकार हैं।वे Globetrotter पर मुख्य संवाददाता और राइटिंग फैलो हैं। विजय लेफ्टवर्ड बुक्स के मुख्य संपादक भी हैं। साथ ही वे ट्राईकोंटिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च के निदेशक है।)

अंग्रेजी में लिखे मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Tear Down the Racist Statues, End Racist Debt and Pay for Reparations

USA
Donald Trump
Black Lives Matter

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